हिमालय की समझ और सतर्कता की जरूरत

28 Apr 2015
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Himalaya
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नेपाल को केन्द्र बनाकर आया भूकम्प, हिमालयी क्षेत्र के लिए न पहला है और न आखिरी। भूकम्प पहले भी आते रहे हैं, आगे भी आते ही रहेंगे। हिमालय की उत्तरी ढाल यानी चीन के हिस्से में कोई न कोई आपदा, महीने में एक-दो बार हाजिरी लगाने जरूर आती है। कभी यह ऊपर से बरसती है और कभी नीचे सबकुछ हिला कर चली जाती है। अब इनके आने की आवृति, हिमालय की दक्षिणी ढाल यानी भारत, नेपाल और भूटान के हिस्से में भी बढ़ गई हैं। ये अब होगा ही। हिमालयी क्षेत्र में भूकम्प तो आएँगे ही। इनके आने के स्थान और समय की घोषणा सटीक होगी, अभी इसका दावा नहीं किया जा सकता। समझना होगा कि हिमालय बच्चा पहाड़ है यानी कच्चा पहाड़ है। वह बढ़ रहा है, इसलिए हिल रहा है, इसीलिए झड़ रहा है। इसे और छेड़ेंगे, यह और झड़ेगा और विनाश होगा।

भूकम्प का खतरा हिमालय में इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि शेष भूभाग, हिमालय को पाँच से.मी. प्रति वर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। इसका मतलब है कि हिमालय में हमेशा हलचल होती रहती है। एक प्लेट, दूसरी प्लेट को नीचे की तरफ ढकेलती रहती है। एक प्लेट उठेगी, तो दूसरी नीचे धसकेगी ही। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। अत: हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन का होते रहना, एक स्वाभाविक घटना है।

हिमालय के दो ढाल हैं- उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। दक्षिणी हिमालयी पर्वत शृंखलाओं के तीन स्तर हैं- सबसे नीचे शिवालिक आदि पहाड़ियाँ, उसके ऊपर लघु हिमालय और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील है, ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी। इस संवेदनशीलता की वजह है, इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें। कहीं-कहीं ये दरारें त्रिस्तरीय हैं। ज्यादातर दरार क्षेत्र, भूकम्प के मुख्य केन्द्र हैं। स्पष्ट है कि यदि हम दरारों वाले इलाकों में निर्माण करेंगे, तो विनाश होगा ही।

हिमालय और इसकी पारिस्थितिकी, भारत की मौसमी गर्माहट, शीत, नमी, वर्षा, जलप्रवाह और वायुवेग को नियन्त्रित व संचालित करने में बड़ी भूमिका निभाता है। इसका मतलब है कि हिमालय, पूरे भारत के रोजगार, व्यापार, मौसम, खेती, उद्योग और सेहत से लेकर जीडीपी तक को प्रभावित करता ही करता है। इसका मतलब है कि हम ऐसी गतिविधियों को अनुमति न दें, जिनसे हिमालय की सेहत पर गलत असर पड़े और फिर अन्तत: हम पर...होता यह है कि भूखण्ड सरकने की वजह से दरारों की गहराई में मौजूद चट्टानें रगड़ती-पिसती-चकनाचूर होती रहती हैं। ताप निकल जाने से जम जाती है। फिर जरा सी बारिश से उधड़ जाती हैं। उधड़कर निकला मलबा नीचे गिरकर शंकु के आकार में इकट्ठा हो जाता है। वनस्पति जमकर उसे रोके रखती है। यह भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। किन्तु इसे मजबूत समझने की गलती, हमारा अस्वाभाविक कदम होगा। पर्वतराज हिमालय की हकीकत और इजाजत को जाने बगैर, इसकी परवाह किए बगैर, निर्माण तय करने को स्वाभाविक कहना, नासमझी ही कहलाएगी।

मलबे या सड़कों में यदि पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है। समझें कि पहले पूरे लघु हिमालय क्षेत्र में एक समान बारिश होती थी। अब वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टि का दुष्चक्र चल रहा है। यह और चलेगा। अब कहीं भी यह होगा। कम समय में कम क्षेत्रफल में अधिक वर्षा होगी ही। इसे बादल फटना कहना गलत संज्ञा देना है। जब ग्रेट हिमालय में ऐसा होगा, तो ग्लेशियर के सरकने का खतरा बढ़ जाएगा। हमें पहले से चेतना है।

याद रखना है कि नेपाल भूकम्प से पहले कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और उत्तर-पूर्व में विनाश इसलिए नहीं हुआ कि आसमान से कोई आपदा बरसी, विनाश इसलिए हुआ क्योंकि हमने आद्र हिमालय में निर्माण के खतरे की हकीकत और इजाजत को याद नहीं रखा। दरअसल, हमने हिमालयी इलाकों में आधुनिक निर्माण करते वक्त कई गलतियाँ कीं।

ध्यान से देखें तो हमें पहाड़ियों पर कई टैरेस दिखाई देंगे। टैरेस यानी खड़ी पहाड़ी के बीच-बीच में छोटी-छोटी सपाट जगह। स्थानीय बोली में इन्हें बगड़ कहते हैं। बगड़ नदी द्वारा लाई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं। यह उपजाऊ मलबे के ढेर जैसे होते हैं। पानी रिसने पर बैठ सकते हैं। हमारे पूर्वजों ने बगड़ पर कभी निर्माण नहीं किया था। वे इनका उपयोग खेती के लिए करते थे। हम बगड़ पर होटल-मकान बना रहे हैं। हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है, रास्ता नीचे, फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊँचाई पर क्यों बसाए। वह भी उचित चट्टान देखकर। वह सारा गाँव एक साथ भी तो बसा सकते थे। नहीं! चट्टान जितनी इजाजत देती थी, उन्होंने उतने मकान एक साथ बनाए, बाकी अगली सुरक्षित चट्टान पर। हमारे पूर्वज बुद्धिमान थे। उन्होंने नदी किनारे कभी मकान नहीं बनाए। सिर्फ पगडण्डिया बनाईं।

हमने क्या किया। नदी के किनारे-किनारे सड़कें बनाई। हमने नदी के मध्य बाँध बनाए। मलबा नदी किनारे फैलाया। हमने नदी के रास्ते और दरारों पर निर्माण किए। बाँस-लकड़ी की जगह पक्की क्रंकीट छत और मकान, वह भी बहुमंजिली। तीर्थयात्रा को पिकनिक यात्रा समझ लिया है। हमने धड़धड़ाती वोल्वो बस और जेसीबी जैसी मशीनों के लिए पहाड़ के रास्ते खोल दिए। पगडण्डियों को राजमार्ग बनाने की गलती की। यह न करें। अब पहाड़ों में और ऊपर रेल ले जाने का सपना देख रहे हैं। पूर्वजों ने चौड़े पत्ते वाले बाँझ, बुरांस और देवदार लगाए। एक तरफ से देखते जाइए! इमारती लकड़ी के लालच में हमारे वन विभाग ने चीड़ ही चीड़ लगाया। चीड़ ज्यादा पानी पीने और एसिड छोड़ने वाला पेड़ है। हमने न जंगल लगाते वक्त हिमालय की संवेदना समझी और न सड़क, होटल, बाँध बनाते वक्त। अब तो समझें।

दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है। जल-निकासी मार्गों की सुदृढ़ व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए। हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना और धरती के पेट को समझकर निर्माण स्थल का चयन करें। जल-निकासी के मार्ग में निर्माण नहीं करें। नदियों को रोके नहीं, बहने दें। जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी दरारें हैं, लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़कों के भीतर पानी रिसने-पैठने की गुंजाइश नगण्य है। इसीलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं। हम भी ऐसा करें। हिमालय को भीड़ और शीशे की चमक पसन्द नहीं। अत: वहाँ जाकर मॉल बनाने का सपना न पालें। हिमालय को पर्यटन या पिकनिक स्पॉट न समझें। इसकी सबसे ऊँची चोटी पर अपनी पताका फहराकर हिमालय को जीत लेने का घमण्ड पालना भी ठीक नहीं।

प्रथम मानव की उत्पत्ति हिमालयी क्षेत्र में हुई। इस नाते हिमालयी लोकास्था, अभी भी हिमालय को एक तीर्थ ही मानती है। हम भी यही मानें। तीर्थ आस्था का विषय है। वह तीर्थयात्री से आस्था, त्याग, संयम और समर्पण की माँग करती है। हम इसकी पालना करें। बड़ी वोल्वो में नहीं, छोटे से छोटे वाहन में जाएँ। पैदल तीर्थ करें तो सर्वश्रेष्ठ। एक तेज हॉर्न से हिमालयी पहाड़ के कंकड़ सरक आते हैं। 25 किलोमीटर प्रति घण्टा से अधिक रफ्तार से चलने पर हिमालय को तकलीफ होती है। अपने वाहन की रफ्तार और हॉर्न की आवाज न्यूनतम रखें। अपने साथ न्यूनतम सामान ले जाएँ और अधिकतम कचरा वापस लाएँ।

आप यह कहकर नकार सकते हैं कि हिमालय की चिन्ता, हिमवासी करें, मैं क्यों? इससे मेरी सेहत, कैरियर, पैकेज, परिवार अथवा तरक्की पर क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है। भारत के 18 राज्य, हिमालयी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र का हिस्सा है। भारत की 64 फीसदी खेती हिमालयी नदियों से सिंचित होती है। हिमालयी जलस्रोत न हो तो भारत की आधी आबादी के समक्ष पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाए। हिमालय भारतीय पारिस्थितिकी का मॉनीटर हैं। इसका मतलब है कि हिमालय और इसकी पारिस्थितिकी, भारत की मौसमी गर्माहट, शीत, नमी, वर्षा, जलप्रवाह और वायुवेग को नियन्त्रित व संचालित करने में बड़ी भूमिका निभाता है। इसका मतलब है कि हिमालय, पूरे भारत के रोजगार, व्यापार, मौसम, खेती, उद्योग और सेहत से लेकर जीडीपी तक को प्रभावित करता ही करता है। इसका मतलब है कि हम ऐसी गतिविधियों को अनुमति न दें, जिनसे हिमालय की सेहत पर गलत असर पड़े और फिर अन्तत: हम पर।

हिमालयवासी अपने लिए एक अलग विकास नीति और मन्त्रालय की माँग कर रहे हैं। जरूरी है कि मैदान भी उनकी आवाज में आवाज मिलाएँ। हिमवासी, हिमालय की सुरक्षा की गारण्टी लें और मैदानवासी, हिमवासियों की जीवन जरूरतों की। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे आपदा प्रबन्धन के लिए जरूरी तन्त्र, तकनीक, तैयारी व सतर्कता सुनिश्चित करें। प्रधानमंत्री जी को चाहिए कि वह हिमालयी प्रदेशों के विकास और निर्माण की ऐसी नीति व क्रियान्वयन तन्त्र बनाएँ ताकि हिमवासी भी बचे रह सकें और हमारे आँसू भी।

लेखक का ई-मेल : amethiarun@gmail.com

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