हिमालय क्षेत्र में पर्यटन उद्योग

23 Oct 2015
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पर्यटन, जो आज विश्व भर में एक महत्त्वपूर्ण उद्योग का रूप लेता जा रहा है, भारत का तीसरा सबसे बड़ा उद्योग है जिसमें लगभग एक करोड़ व्यक्तियों को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त है। पर्यटकों के आकर्षण की दृष्टि से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पर्वतीय क्षेत्र अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इस क्षेत्र में पर्यटन विकास की अपार सम्भावनाओं के मद्देनजर यदि उचित कदम उठाए जाएँ तो यहाँ पर्यटन स्थानीय विकास का सशक्त माध्यम बन सकता है, ऐसी लेखक की मान्यता है।

वर्तमान समय में पर्यटन उद्योग सम्पूर्ण विश्व में एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उद्योग का रूप लेता जा रहा है। विश्व का प्रत्येक राष्ट्र, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, विकसित हो अथवा विकासशील, अन्तरराष्ट्रीय-स्तर पर अधिकाधिक पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रयासरत है। आज इस उद्योग को रोजगार एवं विदेशी मुद्रा अर्जन के प्रमुख साधन के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। भारत ने वर्ष 1998 में पर्यटन उद्योग से 11,540 करोड़ रुपये तथा वर्ष 1999 में 12,500 करोड़ रुपये की आय अर्जित की। वर्ष 1998 में हमारे विदेशी पर्यटकों की संख्या 23,58,629 थी जो वर्ष 1999 में बढ़कर 24,81,928 हो गई। आज भारत का यह तीसरा सबसे बड़ा उद्योग लगभग एक करोड़ व्यक्तियों को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है लेकिन भारत में इस उद्योग के विकास की व्यापक सम्भावनाओं को देखते हुए उक्त आँकड़ों को संतोषप्रद नहीं माना जा सकता।

सम्पूर्ण भारत में पर्यटकों के आकर्षण की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों में पर्वतीय क्षेत्र अपना एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन पर्वतीय क्षेत्रों में हिमालय क्षेत्र विश्व प्रसिद्ध एवं आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। पश्चिम से पूर्व तक 2500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक 250 किलोमीटर में फैला यह विशाल क्षेत्र अपने में भारत ही नहीं अपितु विश्व की सर्वोत्तम प्राकृतिक छटाओं को समेटे है। ऋषि-मुनियों और देवी-देवताओं की इस पावन धरती के प्राकृतिक सौन्दर्य का शब्दों में वर्णन असम्भव है। वहाँ जाकर ही इसकी असली सुंदरता का बोध हो सकता है।

पर्यटन की दृष्टि से इस क्षेत्र में व्यापक सम्भावनाएँ मौजूद हैं, लेकिन दिशाहीन विकास के कारण विश्व पर्यटन मानचित्र पर यह विशेष स्थान नहीं बना पाया है। इस क्षेत्र की व्यापक एवं गम्भीर समस्याएँ इसके आदर्श पर्यटन क्षेत्र बनने में बाधक सिद्ध हो रही हैं।

प्रमुख बाधाएँ एवं प्रभाव


इस क्षेत्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या पर्यावरण सम्बन्धी है। इस समस्या पर विचार करने से पूर्व इससे सम्बन्धित पृष्ठभूमि का अध्ययन करना आवश्यक है। हिमालय क्षेत्र के प्रमुख पर्यटन स्थल जैसे, शिमला, नैनीताल, मसूरी, दार्जिलिंग आदि का विकास ब्रिटिश काल में आला-अफसरों एवं सैनिकों के गर्मियों के आरामगृह के रूप में हुआ। उस काल में यह कल्पना कदापि नहीं की गई थी कि आम जन इन स्थलों तक पर्यटन का आनंद लेने पहुँचेंगे। कालांतर में धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ उच्च-मध्यम व मध्यम वर्ग का आकर्षण भी इन क्षेत्रों की ओर बढ़ने लगा और इसी के साथ पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ भी सामने आने लगी। इन क्षेत्रों में पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण क्षेत्रीय वनों की अंधाधुंध कटाई करके निर्माण कार्य किए गए। भवन निर्माण सामग्री की बढ़ती मांग ने खनन कार्य को प्रोत्साहित किया। इसी का प्रभाव है कि मसूरी व दून घाटी में अत्यधिक खनन से पर्यावरण के लिए गम्भीर चुनौती पैदा हो गई है। ग्रीष्मकाल में पर्यटकों के अत्यधिक दबाव के कारण इन पर्यटक स्थलों की स्थिति दयनीय हो जाती है। नैनीताल एवं श्रीनगर की झीलों का निरन्तर सिकुड़ना एवं जल का प्रदूषित होना इसी का परिणाम है। शिमला जिसे ‘पर्वतीय पर्यटन स्थल’ के स्थान पर ‘पर्वतीय महानगर’ कहना उचित होगा, गर्मियों में पानी की एक-एक बूँद को मोहताज हो जाता है। सीजन के समय मनाली में पर्यटकों से ज्यादा टैक्सियाँ नजर आती हैं। यहाँ के नदी-नालों का पानी तीव्र गति से दूषित होता जा रहा है।

नब्बे के दशक ने तो मानो यहाँ के पर्यावरण को एक गम्भीर चुनौती प्रदान की है। उदारीकरण एवं निजीकरण के दौर ने नवधनाढ्य वर्ग को जन्म दिया। उपभोक्तावाद एवं दिखावे की संस्कृति में विश्वास करने वाले इस वर्ग ने यहाँ के पर्यावरण को तीव्र गति से दूषित किया। निजी वाहनों से यात्रा से जहाँ वायु प्रदूषण को बहुत बढ़ावा मिला, वहीं सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में प्लास्टिक कचरे में भी बेतहाशा वृद्धि हुई। एक अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र के पर्यावरण को विगत 10 वर्षों में जितना नुकसान पहुँचा, उतना विगत 50 वर्षों में भी नहीं पहुँचा।

पर्यटकों के बढ़ते रुझान ने शहरी साहसियों को इस क्षेत्र में आकर्षित किया है। अल्प समय में अधिकतम लाभ कमाने की प्रवृत्ति रखने वाले इन साहसियों ने निजी स्वार्थ के लिए प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों का अत्यधिक विदोहन किया है। इस वर्ग का स्थानीय लगाव न होने के कारण इनकी व्यापक गतिविधियों ने पर्यावरण असन्तुलन पैदा किया है। उदाहरण के लिए ऋषिकेश से बियासी व उसके ऊपर तक गंगा नदी में रिवर राफ्टिंग को प्रोत्साहित करने के नाम पर दिल्ली के व्यवसायियों ने स्थानीय निवासियों से सस्ती दरों पर जमीन खरीद कर विस्तृत क्षेत्र में गंगा के मुहाने पर वनस्पति काट आवासीय कॉलोनी व गेस्ट हाउस का निर्माण किया। इन व्यवसायियों ने पर्यावरण की कीमत पर जहाँ तक आकर्षक लाभ अर्जित किया, वहीं गंगा को प्रदूषित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

इसी क्रम में क्षेत्रीय पर्यावरण के सम्बन्ध में एक अध्ययन का उल्लेख करना तर्कसंगत होगा। इसके अनुसार हिमालय क्षेत्र के विभिन्न ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इन ग्लेशियरों के पिघलने की वर्तमान दर के अनुसार सन 2035 तक ये ग्लेशियर समाप्त हो जाएँगे। फलस्वरूप इनसे निकलने वाली विभिन्न नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। विगत 50 वर्षों में तेजी से पिघलते ग्लेशियरों ने अनेक झीलों का निर्माण किया है। अकेले सिक्किम में इस प्रकार की लगभग 60 झीलें हैं जिससे क्षेत्र में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।

इस क्षेत्र की पर्यटन सम्बन्धी गतिविधियों का एक सामाजिक-आर्थिक पहलू भी है जिसका उल्लेख करना आवश्यक है। लाभ कमाने की प्रवृत्ति ने शहरी साहसियों अथवा जिन्हें बाहरी व्यक्ति की संज्ञा दी जा सकती है, उन्हें इस क्षेत्र में आकर्षित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि अल्प समय में ही इन साहसियों ने पर्यटन उद्योग पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और स्थानीय निवासी, जो उस आय के वास्तविक हकदार थे, आय से वंचित होते चले गए। यही एक प्रमुख कारण है कि आज भी पर्वतीय क्षेत्रों की 70 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी-रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही है और बाढ़, भू-स्खलन, दूषित जल, वायु प्रदूषण के रूप में बिगड़ते पर्यावरण की कीमत चुका रही है। इसी का परिणाम है कि स्थानीय निवासियों का पर्यटकों के प्रति नजरिया बदल रहा है। वे पर्यटकों को पर्यावरण विनाशक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं, मान्यताओं तथा मूल्यों पर हमलावर के रूप में देखने लगे हैं। स्थानीय निवासियों की यह सोच भविष्य में पर्यटन विकास के लिए एक प्रमुख बाधा बन सकती है।

पर्यावरण की समस्या के अतिरिक्त अनेक अन्य समस्याएँ भी हैं जिनके रहते क्षेत्र में पर्यटन का उचित विकास सम्भव नहीं हो पा रहा है। उदाहरण के लिए अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में संचार साधनों का अभाव है। संचार के सुगम साधन या तो उपलब्ध नहीं हैं अथवा रख-रखाव के अभाव में प्रभावशाली नहीं हैं। दूसरे, कुछ स्थानों को छोड़कर यातायात के सुगम साधनों का अभाव है। इन क्षेत्रों में सड़कों की हालत संतोषजनक नहीं कही जा सकती। यातायात समस्या सुदूर क्षेत्रों में पर्यटन विकास में प्रमुख बाधक सिद्ध हो रही है। प्रमुख पर्यटन स्थलों पर ‘ट्यूरिस्ट माफिया’ द्वारा पर्यटकों को ठगा जाना एक आम बात है। ऐसी अवस्था में अकेले अथवा सीमित संख्या वाले पर्यटक अपने को ज्यादा असुरक्षित अनुभव करते हैं। क्षेत्र में प्रशिक्षित एवं अनुभवी गाइड उपलब्ध न होने के कारण अधिकांश जगहों पर स्थानीय निवासी इस कार्य को पूरा करते हैं। फलस्वरूप साहसिक पर्यटक जानकारी के अभाव में दूरस्थ क्षेत्रों या नवीन क्षेत्रों का आनंद लेने से वंचित रह जाते हैं। उपरोक्त कुछ ऐसी बाधाएँ हैं जिन पर हमें अविलम्ब विचार कर उन्हें दूर करने का प्रयास करना होगा।

आवश्यक सुझाव


क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान में सर्वप्रथम हमें इस विषय पर विचार करना होगा कि क्या आकार पर्यटन (मास टूरिज़्म) हमारा लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न राज्य सरकारों (हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर) ने दीर्घकालिन हितों की अनदेखी कर यहाँ आकार पर्यटन को प्रोत्साहित किया। फलस्वरूप क्षेत्र का पर्यावरण चिन्ताजनक रूप से बिगड़ता चला गया। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने अल्पकालीन हितों को त्याग कर ऐसे पर्यटकों को ही आकर्षित करने का प्रयास करें जो पहाड़ी संस्कृति, यहाँ के पर्यावरण, रीति-रिवाज, मान्यताओं आदि का उचित सम्मान करने की भावना रखते हों। महज संख्या वृद्धि हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए।

द्वितीय, इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि आज भी हिमालय के क्षेत्र में वही स्थान प्रमुख पर्यटक स्थल हैं जिनका विकास ब्रिटिश काल में हुआ था। आजादी के पचास वर्ष पश्चात भी हम विपुल सम्भावनाओं के बावजूद यहाँ स्तरीय पर्यटक स्थल विकसित नहीं कर पाए हैं। यहाँ के अधिकांश प्रमुख पर्यटक स्थल आज परिपक्वता की अवस्था में हैं, जिनके पास पर्यटकों को देने की दृष्टि से नया कुछ नहीं बचा है। साथ ही पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी यह आवश्यक प्रतीत होता है कि हम नए क्षेत्रों को विकसित करने का प्रयास करें। नए क्षेत्रों की खोज के सन्दर्भ में साहसिक पर्यटन गतिविधियाँ जैसे ट्रैकिंग, रिवर राफ्टिंग, ग्लाइडिंग, पर्वतारोहण, स्कींग आदि की क्षमता रखने वाले क्षेत्रों को पहचान कर उन्हें विकसित किया जा सकता है। इसी क्रम में योग प्रशिक्षण, ध्यान एवं स्वास्थ्य लाभ केन्द्रों का भी नए क्षेत्रों में विकास करके देशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है।

पर्यावरण में सुधार की दृष्टि से जिन पर्वतीय क्षेत्रों का पर्यावरण सन्तुलन अधिक बिगड़ चुका है, उन्हें चिन्हित कर एक बार सेना की सहायता से वहाँ बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण/सुधारात्मक उपाय कर पर्यावरण को सन्तुलित करने के प्रयास किए जा सकते हैं तथा निश्चित समयावधि के पश्चात यह दायित्व स्थानीय निवासियों का होना चाहिए कि वे पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखें। क्षेत्र में हो रहे अत्यधिक निर्माण कार्य पर प्रभावशाली अंकुश लगाने की आवश्यकता है। सार्वजनिक यातायात व्यवस्था को अधिक सुगम एवं विश्वसनीय बनाकर निजी वाहनों से यात्रा करना हतोत्साहित किया जा सकता है।

हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र अनेक राज्यों तक विस्तृत होने तथा ‘पर्यटन’ राज्य का विषय होने के फलस्वरूप सम्पूर्ण क्षेत्र में पर्यटन की दृष्टि से एकरूपता का अभाव है जबकि यहाँ विकास की सम्भावनाओं/समस्याओं आदि में अत्यधिक समरूपता है। अतः सम्पूर्ण हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र को एक इकाई मानकर एक ‘नवीन पर्यटन नीति’ का निर्माण किए जाने पर भी व्यापक विचार-मंथन किया जा सकता है। सम्पूर्ण क्षेत्र के लिए पर्यटन की समग्र नीति से जहाँ पर्यटन की विभिन्न गतिविधियों में प्रभावशाली समन्वय स्थापित हो सकेगा, वहीं सन्तुलित विकास को भी प्रोत्साहन मिल सकेगा।

पर्यटन का लाभ स्थानीय लोगों को प्राप्त हो और पर्यटन स्थानीय विकास का सशक्त माध्यम बन सके, इसके लिए कानून में आवश्यक संशोधन कर बाहरी साहसियों के यहाँ पर्यटन व्यवसाय करने पर उचित नियन्त्रण लगाना अनिवार्य है। स्थानीय निवासी किस प्रकार अपने आपको पर्यटन उद्योग से जोड़कर लाभान्वित हो सकते हैं, उसके लिए शिक्षण एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम सरकार द्वारा आयोजित किए जाने चाहिए।

इसके अतिरिक्त इन क्षेत्रों में ठहरने की समस्या के समाधान हेतु वैकल्पिक आवास व्यवस्था जैसे पेइंग गैस्ट योजना, टेंट आवास, यूथ होस्टल व्यवस्था आदि को भी विकसित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। पर्यटकों को उचित मार्गदर्शन एवं सहायता प्रदान करने के लिए ‘पर्यटन पुलिस’ अथवा पर्यटक सहायता केन्द्रों का प्रमुख क्षेत्रों में समुचित विकास किया जाना चाहिए। विदेशों में इस क्षेत्र के सम्बन्ध में प्रभावशाली विपणन के माध्यम से हम जहाँ बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों को यहाँ आकर्षित कर सकेंगे वहीं पोकरण-II व कारगिल घटनाओं से इस उद्योग पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को दूर करने में भी सफल हो सकेंगे।

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि यह उचित समय है कि हम हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन विकास की विपुल सम्भावनाओं को पहचानें और वास्तव में अभी तक अनछुए इस क्षेत्र को समुचित तरीके से विकसित करने का प्रयास करें जिससे आने वाले समय में पर्यटन यहाँ के क्षेत्रीय विकास का प्रमुख घटक बन सके और यहाँ का शीतल वातावरण एवं मन्त्रमुग्ध कर देने वाली सुंदरता लम्बे समय तक देशी-विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती रहे।

(लेखक राजर्षि महाविद्यालय, अलवर, राजस्थान में प्रवक्ता हैं।)

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