हिमालय क्यों नहीं बनता मुद्दा

भारत में पानी की आवश्यकता की अधिकांश आपूर्ति हिमालय से निकलने वाली नदियों से ही होती है। पेयजल व कृषि के अलावा देश में पनबिजली के उत्पादन में हिमालय से प्राप्त होने वाले पानी का बड़ा महत्त्व है। पानी के अतिरिक्त हिमालय से बेशकीमती वनोपज भी मिलती है। वर्षों से यह हिमालय ही है जो विदेशी आक्रमणों से भारत की रक्षा करता आ रहा है। भारत के अनेक विश्व प्रसिद्ध मनोरम पर्यटन स्थल इसकी गोद में बसे हैं।

हिमालय व उसके आस-पास उगने वाले पेड़ों और वहां रहने वाले जीव-जंतुओं की विविधता जलवायु, वर्षा, ऊंचाई और मिट्टी के अनुसार बदलती है। जहां नीचे जलवायु उष्णकटिबंधीय होती है, वहीं चोटी के पास स्थायी रूप से बर्फ जमी रहती है। कर्क रेखा के निकट स्थित होने के कारण यहां स्थायी बर्फ का स्तर आमतौर पर लगभग 5500 मीटर का होता है जो कि दुनिया में सबसे अधिक है।

आज हमें हिमालय को लेकर सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि उसके वजूद पर एक ऐसा खतरा मंडरा रहा है जो उसके अस्तित्व को ही खत्म करने का आधार बनता जा रहा है। अब तक हमने हिमालय का अपनी आवश्यकता से अधिक दोहन किया है। अगर यह गैर जरूरी और अवैज्ञानिक सिलसिला अब भी नहीं रुका तो इस मनोवृत्ति से हिमालय को भारी नुकसान पहुंच सकता है।

नौ राज्यों में फैले हिमालय का विस्तार देश की 17 प्रतिशत जमीन पर है। इसके 67 प्रतिशत भू-भाग में जंगल है। देश के जल बैंक के नाम से सम्मानित हिमालय देश के 65 प्रतिशत लोगों के लिए पानी की आपूर्ति करता है और यह उनकी रोजी-रोटी से भी जुड़ा है। अपनी विशेष भौगोलिक संरचना के कारण इसे देश का मुकुट कहा गया है। यह हमारे देश की सीमा का रक्षक भी है। हमारे सांस्कृतिक जीवन का यह एक अभिन्न अंग है। इसलिए लोकगीतों से लेकर राष्ट्रगान तक में इसे खास महत्त्व मिला है। पर दुर्भाग्य है कि सरकारों ने इसमें क्षेत्र की जनता का कम अपना निजी फायदा ही देखा है। यह ठीक है कि हिमालय के पास हमारे लिए बहुत कुछ है, पर हमने सिर्फ उससे लिया है, उसे दिया कुछ नहीं। अगर हमने उसके संरक्षण पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो आज केदारनाथ आपदा जैसी नौबत न आती।

हिमालय पर्वत की क्षमताएं असीमित हैं। बर्फ के पहाड़ के रूप में यहां लगभग 30 महान चोटियां 7000 मीटर की ऊंचाई तक फैली हैं। बर्फ से ढका रहने वाला यह भू-भाग हिमालय की 22.4 प्रतिशत भूमि में है। देश के कुल क्षेत्रफल में से 1.3 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र का है जो हिमालय में है और इसमें देश के अच्छे वनों का 46 प्रतिशत भाग है। यहां लगभग 1.3 प्रतिशत भूमि परती है जो कि देश का लगभग 17.6 प्रतिशत है।

यहां लगभग 74 प्रतिशत व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी. में बसते हैं, जबकि मैदानी क्षेत्र में यह संख्या 324 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी. है। हिमालय में देश की 3.6 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। 13.6 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है जबकि मैदानों में यह 50 प्रतिशत है। खेती में बिजली की खपत लगभग 0.4 प्रतिशत है जबकि मैदानों की कुल बिजली खपत का 23 प्रतिशत खेती में उपयोग होता है। खेती के लिए ऋण यहां गिने-चुने लोग ही ले पाते हैं, जबकि मैदानों में उनकी तुलना में काफी लोग यह सुविधा उठाते हैं।

सच तो यह है कि यहां के संसाधनों का उपयोग देश के दूसरे हिस्से के लोग ज्यादा करते हैं। कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो हिमालय देश के 65 फीसदी लोगों को पानी उपलब्ध कराता है, दूसरी तरफ हिमालय के दायरे में रहने वाले लोगों के 1.4 हिस्से को ही पानी की सुविधा प्राप्त है। यहां बन रहे बांधों का लाभ यहां के लोग नहीं ले पाते। यहां आज भी 85 प्रतिशत से अधिक लोग जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। ईंधन से लेकर पानी तक के लिए जनता को हर दिन जूझना पड़ता है। यही कारण है कि हिमालय से पलायन बढ़ता जा रहा है। वहां मिट्टी, पानी और जंगल पर गहराते संकट के कारण हर वर्ष गांव के गांव खाली हो रहे हैं।

अब यह और भी जरूरी हो गया है कि हिमालय को भी अन्य सवालों की तरह राजनीतिक सवालों में शामिल किया जाये। इस सवाल को जनता अभी तक गैर-जरूरी मानती थी, पर अब राजनीतिक दलों से पूछा जाना चाहिए कि वे हिमालयी क्षेत्र के लिए क्या नीति रखते हैं? सत्ता में आने पर वे हिमालय के घावों को कैसे भरेंगे? हिमालय की नैसर्गिक क्षमताओं पर गत दशकों के दोहन का प्रतिकूल असर पड़ा है। यह प्रक्रिया ब्रिटिशकाल में ही शुरू हो गई थी। यहां के वनों का दोहन टिम्बर के नाम पर बड़े स्तर पर किया गया, जो किसी न किसी रूप में आज भी जारी है। बिजली की आवश्यकता के नाम पर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण कर नदियों के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ जोरों पर है जिससे हिमालयी राज्यों को त्रासदी अधिक झेलनी पड़ती है। अब तक की केन्द्र व राज्य की सरकारों ने नदी का महत्त्व बांध बनाकर बिजली पैदा करने के अलावा नहीं समझ है। यही वजह है कि हिमालय में इनकी बाढ़ सी आ गई है। सरकार में बैठे नेता और नौकरशाह ऊर्जा के नाम पर हिमालय का सर्वनाश करने पर तुले हैं।

हिमालय को लेकर सरकारों के स्तर पर कभी कोई चिंता नहीं जताई गई। इतिहास और वर्तमान में हिमालय के मुद्दों पर पहल हमेशा हिमालय में ही क्यों होती है? क्या हिमालय के संरक्षण का दायित्व यहीं के लोगों तक सीमित है? गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों ने अपने उद्गम में बड़े चमत्कार नहीं किए पर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ जरूर बनीं वे। हरित व श्वेत क्रांति इन नदियों के बलबूते पर ही फली-फूली है। हिमालय की चिंता स्थानीय लोगों से ज्यादा उन्हें होनी चाहिए जो इससे सीधे आर्थिक व पारिस्थितिक लाभ लेते हैं। देश की राजधानी दिल्ली कभी यमुना के प्रताप पर जीती रही है जो हिमालय की देन है। इस नदी के वर्तमान हाल पर रोने वाले चंद सामाजिक संगठन ही हैं। बाकी किसी को फिक्र नहीं है। यही हाल गंगा का है, जिसके संरक्षण के लिए शोर-शराबा तो खूब हुआ,पर हालात वही के वही हैं।

आखिर क्यों हिमालय के मुद्दों पर स्थानीय लोगों के साथ-साथ राजनीतिक दल और पूरा देश खड़ा नहीं होता, जबकि हिमालय से लाभ पूरा देश उठाता है। हम उन लोगों को तिरस्कृत करते आये जो आज से 50 साल पहले कहा करते थे कि सम्पूर्ण हिमालय की समस्याओं का समाधान राजनीतिक है , कतिपय आज भी स्थिति वही है। मगर हिमालयी राज्यों के संसाधनों और वहां के लोगों को बचाने के सवाल फिर से खड़े करने हैं, उनका निराकरण करना है, तो उसका जरिया राजनीति है।

गत वर्ष केदारनाथ और उसके आस-पास के सम्पूर्ण क्षेत्र में आयी आपदा को देखते हुए अब यह और भी जरूरी हो गया है कि हिमालय को भी अन्य सवालों की तरह राजनीतिक सवालों में शामिल किया जाये। जिस सवाल को जनता अभी गैर जरूरी मानती थी, अब वह राजनीतिक दलों से पूछा जाना चाहिए कि हिमालयी क्षेत्र के लिए क्या उनकी नीति क्या है? सत्ता में आने पर वे हिमालय के घावों को कैसे भरेंगे? हालांकि गलतियों से सबक लेकर राज्य के कुछ लोग जागे हैं, जिन्होंने अपनी पिछली गलतियों को चिन्हित कर उस राह को पकड़ा है जिसके जरिये समूचे हिमालय के सवाल को हल किया जा सकता है। जब तक राजनीति में हिमालय के सवालों के पैरोकार मौजूद नहीं होंगे, नीति निर्धारक संस्थाओं में उनकी भागीदारी नहीं होगी, हिमालय के सवाल, सवाल ही रहेंगे ! हिमालय की समस्या की जड़ को पकड़ना होगा। अब जरूरत है कि किसी असफल मॉडल का अनुसरण किये जाने के बजाय नया अनुसन्धान या सफल तथा स्थापित मॉडल का अनुसरण किया जाये।

हिमालय का जो स्वरूप आज हो चुका है उसके लिए हिमालय के मुद्दों का सामाजिकीकरण करने के बजाय उसका राजनीतिकरण कर सुलझने की कोशिश की जाए, तभी हिमालय की दशा-दिशा में सुधार संभव है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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