हिमनदों के पिघलने की अन्तरकथा

हिमनद या ग्लेशियर स्वच्छ निर्मल जल के प्रमुख स्रोत हैं। सिंचाई, उद्योग, जल परियोजना और घरेलू आवश्यकता की पूर्ति हिमनदों के बर्फ पिघलने से ही होती है। दरअसल, पृथ्वी पर लवणहीन जल का अस्सी प्रतिशत भाग हिमनदों में सुरक्षित है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की महादेशीय हिमपट्टी के रूप में हिमनदों का 97 प्रतिशत मौजूद है। हिमालय के कुल क्षेत्र का लगभग दस प्रतिशत भाग हिमाच्छादित है। इसका 4,500 से 5,500 मीटर की ऊँचाई के ऊपर वाला इलाका सालों बर्फ से ढँका रहता है। इस इलाके में 5,000 से अधिक हिमनद हैं। उत्तर भारत की लगभग सभी बड़ी नदियों को जल देने वाले मुख्य स्रोत हिमलाय के यही हिमनद हैं।

हाल के वर्षों में पृथ्वी के लगभग सभी हिमनदों के तेजी से पिघलने उनके आकार और क्षेत्रफल में परिवर्तन के आँकड़े आए हैं। यह चिन्ता की बात है। स्विस आल्पस की पर्वतमालाओं में वर्ष 1890 से ही हिमनद के आँकड़े इकट्ठे किए जा रहे हैं। ये आँकड़े यूरोप के 75 प्रतिशत हिमनदों के क्षेत्र में कमी की सूचना दे रहे हैं। हिमालय की ऊँची चोटियों पर विचरण करने वाले साधुओं (सन्त-महात्माओं एवं दार्शनिकों) ने भी यही बताया है कि हिमाच्छादित क्षेत्रों में समय के साथ तेजी से कमी आ रही है।

मतलब यह है कि कारण चाहे जो भी हो, हिमनदों के बर्फ पिघलने की दर में विगत दशकों में तेजी आई है। 1995 में गठित अन्तरराष्ट्रीय तुहिन एवं हिम आयोग की 1999 की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया था कि हिमालय के हिमनदों से बर्फ पिघलने का मौजूदा रफ्तार अगर बरकरार रहा तो 2035 तक हिमालय के सभी हिमनद गायब हो जाएँगे। यह परिकल्पना वैज्ञानिक जगत एवं पर्यावरण शास्त्रियों के बीच विमर्श का विषय है। हालाँकि ऐसे आँकड़े भी उपलब्ध हैं, जिनके सहारे यह कहा जा सकता है कि यह परिकल्पना सही नहीं। हिमनदों के आकार में परिवर्तन नई बात नहीं है। दरअसल, यह हिमनदों के द्रव्यमान सन्तुलन पर निर्भर करता है।

हिमनदों के द्रव्यमान सन्तुलन के सकारात्मक या नकारात्मक, दोनों प्रकार के आँकड़े मौजूद हैं। हिमाच्छादन की प्रक्रिया में ऐसे क्षेत्र जहाँ हिम या तुहिन के एकत्रित होने की मात्रा उसके पिघलने से कम हो, उसे संचय क्षेत्र कहा जाता है। दूसरी ओर जहाँ संचय की तुलना में हिम के पिघलने की प्रक्रिया अधिक हो, उन्हें अपक्षरण क्षेत्र कहा जाता है। अगर संचय एवं अपक्षरण का अनुपात समान रहता है तो द्रव्यमान सन्तुलित रहता है। संचय की तुलना में अपक्षरण की मात्रा अधिक होने से द्रव्यमान सन्तुलन बिगड़ता है। फिलहाल गंगा बेसिन के सभी हिमनद द्रव्यमान सन्तुलन के नकारात्मक आँकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं। इनके वैज्ञानिक पहलुओं को समझने के लिए लम्बे यानि कुछेक दशकों के आँकड़ों की आवश्यकता है। हिमालय के कुछ चुनिंदा हिमनदों का अध्ययन चल रहा है। लगभग सभी के आँकड़े चिन्तित करने वाले ही हैं।

हमारी सबसे पवित्र नदी गंगा का उद्गम गंगोत्री हिमनद से होता है। गंगोत्री 18 सहायक हिमनदों के सहयोग से बनी एक हिमनद समूह है। यह लगभग 30 किलोमीटर लम्बी है। इसकी चौड़ाई 0.5 से 2.5 किलोमीटर तक है। इस हिमनद का उद्भव उत्तराखंड की 7,138 मीटर ऊँची चौखंबा की चोटियों की पश्चिम ढ़लान पर हुआ है। गोमुख से निकलने वाली भागीरथी लम्बी दूरी तय कर देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलती है। भागीरथ के साथ अलकनंदा के संगम के बाद इस नदी को गंगा कहा जाता है। भागीरथी की प्रमुख सहायक नदियों में मिलंगना और अलकनंदा की सहायक नदियों में मंदाकिनी, पिंडर, धवलगंगा प्रमुख हैं, जिनका उद्भव उस इलाके के हिमनदों से होता है। उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, चमौली, अल्मोड़ा का यह इलाका नदियों और धाराओं के निकास तन्त्रों से भरा-पुरा है। मानसून के दिनों में इन धाराओं को वर्षा का जल प्राप्त होता है, तो शीत ऋतु में बर्फ के पिघलने से।

हिमनद स्वच्छ निर्मल जल का एक प्रमुख स्रोत है। हाल के वर्षों में पृथ्वी के लगभग सभी हिमनदों के तेजी से पिघलने और उनके आकार और क्षेत्रफल में परिवर्तन के आँकड़े आए हैं। यह चिन्ता की बात है। गोमुख से काफी नीचे धारियों में हिमजलीय वेदिका, उनके तेज कटाव का द्योतक है। तपोवन, नंदनवन के आस-पास के इलाकों में भी हिमनदों से पैदा हुई स्थलाकृतियाँ दिखती हैं।

गंगोत्री के क्षेत्रफल में कमी की दर पिछले तीन दशकों में सबसे अधिक रही है। गढ़वाल के हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार 70 के दशक के बाद इस हिमनद का पिघलना काफी बढ़ गया है। शोध से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार, इन वर्षों में गंगोत्री की लम्बाई में 76 मीटर की कमी आई है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रक्रिया में समय के साथ और बदलाव सम्भव है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार 1935 से 1996 के बीच इसकी लम्बाई में 1.14 किलोमीटर (19 मीटर की दर से) की कमी आई है। यह बताता है कि पिछली शताब्दी में बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। 1971 से 1996 के बीच गंगोत्री के क्षेत्रफल में 850 मीटर की कमी आई है। लगभग 34 मीटर प्रतिवर्ष के दर से वह पिघल रही है।

हिमालय के हिमनदों के विभिन्न आयामों को समझने में अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, वाडिया, हिमालय भू-वैज्ञानिक संस्थान, सर्वे आॅफ इंडिया, गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, गढ़वाल विश्वविद्यालय एवं अन्य संस्थानों का अहम योगदान है। अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र के आँकड़े उपग्रह से प्राप्त चित्रों पर आधारित हैं। अन्तरिक्ष विज्ञान की तकनीक का इस्तेमाल कर उच्चकोटि के मानचित्र तैयार किए गए हैं। यह मानचित्र गंगा प्रणाली के सभी हिमनदों के क्षेत्रफल के घटने की सूचना दे रहा है।

गंगोत्री का क्षेत्रफल तो वर्ष 1850 से ही घट रहा है। हालाँकि 1975-76 एवं 1980-83 में इसके द्रव्यमान सन्तुलन के सकारात्मक आँकड़े आए हैं। वैसे, 1975-85 के दस वर्षों में इसके संचित क्षेत्र में 3.5 वर्ग किलोमीटर की कमी आई। द्रव्यमान सन्तुलन का सीधा प्रभाव जल प्राप्ति पर पड़ता है। द्रव्यमान सन्तुलन जब सकारात्मक होता है, नदियों में जल का प्रवाह घटता है। इसके नकारात्मक होने के दौर में बर्फ के तेजी से पिघलने के कारण नदियों में जल प्रवाह बढ़ जाता है। इस काल में बाढ़ की स्थिति और जल में गाद की अधिकता होती है। हिमनदीय झीलों के भरने या उसके टूटने से आपदा के आने का खतरा बढ़ता है। तेजी से पिघलते बर्फ के कारण गाद की संतृप्ता जल विद्युत परियोजनाओं के संयन्त्रों को प्रभावित करती है। टिहरी बांध की आयु आरम्भ में 250 वर्ष आँकी गई थी, लेकिन बदली हुई परिस्थिति में अब इसे 160 वर्ष ही माना जा रहा है।

हिमनदों के तेजी से पिघलने से बनने वाली स्थलाकृति भी इसकी पुष्टि करती है। गंगोत्री एवं उसके सहायक हिमनदों के जलोढ़ (जल प्रवाह के कारण जमा हुई मिट्टी की स्थलीय आकृति) वर्तमान में उनके ढ़लान से काफी दूर स्थित हैं। भोजवासा एवं गंगोत्री के बीच बड़े आकार का गोलाश्म इसका प्रमाण है। गोमुख से काफी नीचे धारियों में हिमजलीय वेदिका, उनके तेज कटाव का द्योतक है। तपोवन, नंदनवन के आस-पास के इलाकों में भी हिमनदों से पैदा हुई स्थलाकृतियाँ दिखती हैं। गंगोत्री के साथ-साथ, पिंडारी, कफनी, सतलिंग, भागीरथ खड़क, पोरिंग, शंकल्पा जैसी सहायक हिमनदियों के क्षेत्रफल में काफी कमी आई है। इन सभी के ढ़लान से काफी नीचे की ओर हिमनद जनित आकृतियाँ दिखती हैं, जो उनके तेजी से पिघलने की कथा सुनाती हैं।

हिमनदों की तेजी से पिघलने की रफ्तार को उसके ऊपर बनने वाले झील को देखकर भी महसूस किया जा सकता है। गंगोत्री एवं दूसरे सहायक हिमनदों के ऊपर बनने वाली झील इस बात की गवाही है कि हिम के पिघलने की प्रक्रिया में तेजी आई है। हिमनदों के दर्रे भी तेज गति से घटते क्षेत्रफल को दर्शाते हैं। गंगोत्री इलाके के सभी हिमनदों में अनुलम्बीय एवं अनुप्रस्थीय दर्रे इसकी जानकारी देते हैं। ‘करेंट साइंस’ की एक रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर आया है कि गंगोत्री के ढ़लान मई एवं जून 1999 में प्रतिदिन परिवर्तित होते दिखे। कारण यह है कि बड़े-बड़े हिमखंड टूट-टूटकर मुख्य गंगोत्री से गिरते रहे। ऐसी गतिविधियों का इतना तेज रफ्तार पहले नहीं देखा गया था।

हिमनदों के बीच उभर आए चट्टानों को हिमोढ़ कहा जाता है। गंगोत्री हिमनद के जरिए घाटी में पूर्व में विस्थापित चट्टानों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि नीचे की ओर से ये हिमोढ़ काफी मजबूत हैं। इनका ऊपरी भाग नुकीला और कठोर है। दूसरी ओर 1971 के बाद के हिमोढ़ कठोर नहीं हैं। इन्हें तुलनात्मक रूप से कम समय तक स्थिर रहने का मौका मिला था। पहले के हिमोढ़ लम्बे समय तक स्थिर रहने के कारण कठोर हो गए थे। वे बर्फ के कम पिघलने के कारण ही लम्बे समय तक स्थिर रह सके। हिमालय की घाटियों के हिमनद जलवायु परिवर्तन के संवेदनशील सूचक हैं। जलवायु एवं हिमनदों के अन्तरसम्बन्धों को ठीक से समझने की आवश्यकता है। तापमान का हिमनदों पर सीधा असर पड़ा है। हिमनद विशेषज्ञों एवं मौसम वैज्ञानिकों की समझ है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ऐसा हो रहा है।

लेखक भू-विज्ञान विभाग, पटना विश्वविद्यालय से जुड़े हुए हैं।

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