हमारे शहर के पर्यावरण कैसे बनेंगे स्मार्ट

देश के पचास शहरों को पर्यावरणीय लिहाज से स्मार्ट बनाने, वायु प्रदूषण की जानकारी देने और उसकी गम्भीरता को खास समय में मापने का काम दस सालों तक करने के लिये यह कोई बड़ी राशि नहीं है। दिल्ली मेट्रो की लागत तकरीबन 75,000 करोड़ है। जो कि इस समय दिल्ली की पाँच प्रतिशत से भी कम परिवहन माँग को पूरा कर पा रही है। इस प्रकार की मेट्रो प्रणालियाँ हैदराबाद, चेन्नई, बंगलुरू, मुम्बई या अन्य शहरों में या तो योजना के स्तर पर हैं या फिर निर्माणाधीन हैं। स्मार्ट शहर की संक्षिप्त परिभाषा तय करना कठिन है। विकीपीडिया पर जो परिभाषा उपलब्ध है वो इस प्रकार है, “एक स्मार्ट सिटी काम करने और अच्छी तरह से रहने, कीमत और संसाधनों का उपयोग कम करने और अपने नागरिकों से एक साधारण कारोबारी सम्बन्ध रखने की बजाय उसे वैश्विक वह शहरी चुनौतियों का ज्यादा असरदार और सक्रियतापूर्व जवाब देने लायक बनाने के लिये डिजीटल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करती है। स्मार्ट सेक्टर के प्रमुख तत्व हैं—परिवहन, ऊर्जा, स्वास्थ्य की देखभाल, पानी और कचरा।

दूसरे शब्दों में सूचनाओं से शहर और उसके नागरिक स्मार्ट बनते हैं।

ऊपर दिये गए स्मार्ट सेक्टरों में एक उप-विषय जो कि लगातार चलता है वो है `वायु की गुणवत्ता’ जो कि शहरी भारत (वैश्विक स्तर पर भी) में गिरते स्वास्थ्य के कारण सबसे ज्यादा चर्चा का विषय है। हाल में द इण्डियन एक्सप्रेस ने जो धारावाहिक खबरें प्रकाशित की हैं उसके शीर्षकों में एक हैं –छोड़ो दिल्ली। यह शीर्षक अपने आप में ही इस बात का द्योतक है कि शहर में वायु प्रदूषण का स्तर कितना गम्भीर है।

लेकिन दिल्ली को छोड़ देना सबसे चतुराई भरा फैसला नहीं है, क्योंकि प्रदूषण दिल्ली तक ही नहीं रहेगा बल्कि देश में तमाम ऐसे शहर हैं जो कि बुरी तरह प्रदूषित होने की श्रेणी में आते हैं। पर हमें दिल्ली और भारत के दूसरे शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिये ज्यादा चतुराई भरा समाधान चाहिए। इसकी शुरुआत नागरिकों को वायु प्रदूषण के स्तर के बारे में ज्यादा सही सूचना देने, प्रदूषण की गम्भीरता समझाने, वायु प्रदूषण के स्रोत बताने और उसे पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित बनाने के लिये सही सूचना देने से हो सकती है।

जनता को सूचित करना


सन् 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 100 स्मार्ट सिटी कार्यक्रम की शुरुआत की। इसके प्रमुख गुणों में जिन बातों को शामिल किया गया वे हैं- “अच्छा ढाँचा प्रदान करने में सक्षम होना, निवेश आकर्षित करना, परिवहन की प्रक्रियाएँ शुरू करना... नागरिकों को सुरक्षित और प्रसन्न रखना।’’

इसे स्वच्छ भारत मिशन के साथ मिलकर एक मुकम्मल मंच बनाया जा सकता है ताकि राष्ट्रीय परिवेश निगरानी कार्यक्रम का कायाकल्प किया जा सके और जनता व नीति निर्माताओं को समान रूप से वायु प्रदूषण (आज, कल और उसके बाद) की जानकारी विश्वसनीय और सटीक ढंग से दी जा सके।

अक्टूबर 2014 में भारत शहरी वायु गुणवत्ता की कलर कोडिंग से एक कदम करीब जा पहुँचा, जहाँ पर हरे को अच्छा, पीले के मध्यम, नारंगी को कमजोर और लाल को खराब माना जाता है। तकनीकी अर्थों में इसे एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) कहा जाता है। यह प्रदूषकों की सूची में एक प्रकार का समापवर्तक है जिसका मानक विभिन्नता भरा है और जो मनुष्य के स्वास्थ्य पर अलग-अलग किस्म का असर डालता है। एक्यूआई की दिशा में उठाया गया कदम निश्चित तौर पर एक मील का पत्थर है। जो कि सूचनाओं को इस प्रकार सार्वजनिक करने का प्रयास है जिसे वैज्ञानिक और आम आदमी समान रूप से समझ ले। मार्च 2015 में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ‘स्वच्छ वायु जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसा उद्धरण देते हुए एक्यूआई के अध्ययन से मिले आरम्भिक तथ्यों, अध्ययन की पद्धति, वायु प्रदूषण से निपटने के प्रयासों को जारी किया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 6 अप्रैल 2015 को औपचारिक तौर पर वह प्रणाली जारी की जो कि देश के 10 शहरों में काम कर रही है, जहाँ पर सतत निगरानी स्टेशन पहले से चल रहे थे और जो अगले दो सालों में देश के 60 शहरों में विस्तार पाने वाले हैं।

अन्तरराष्ट्रीय समर्थन


जनवरी 2015 में दिल्ली में गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुलाकात के दौरान—वायु की गुणवत्ता का विशेष उल्लेख किया गया। कहा गया “वायु गुणवत्ता सहयोग का आरम्भः ईपीए एआईआर नाउ का क्रियान्वयन—अन्तरराष्ट्रीय प्रोग्राम और मेगासिटी भागीदारी, जो कि सूचनाओं के प्रसार पर आधारित होगी ताकि वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर की चुनौती कम करने में शहर के निवासियों की मदद की जाए और शहरों में परिवेशी वायु गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिये स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन को मिलने वाले संयुक्त-लाभ के लिहाज से सुधारात्मक रणनीतियों को लागू करने में शहरी नीति निर्माताओं को समर्थ बनाया जाए।’’

यह भारत में चल रहे प्रयास के अनुरूप है, जिसने कि अपना एक्यू सिस्टम आरम्भ किया है।

एयरनाउ तात्कालिक और भावी (अगले तीन या चार दिनों की) वायु गुणवत्ता को जानने के लिये आँकड़ों की साझेदारी एक केन्द्रीकृत स्रोत है। इसके फायदे में गुणवत्ता नियंत्रण, राष्ट्रीय रिपोर्टिंग निरन्तरता, आटोमेटेड मैपिंग मेथड (स्वजनित माप प्रणाली) तक पहुँच और लोक व दूसरी आँकड़ा प्रणाली को आँकड़ों का वितरण शामिल है। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (यूएस ईपीए) का समन्वय करती है ताकि लगातार निगरानी करने वाले व्यापक नेटवर्क और माडलिंग प्रोग्राम के माध्यम से इकट्ठा किये गए वायु गुणवत्ता के आँकड़ों से जनता को जागरूक किया जाए।

पर्यावरणीय लिहाज से स्मार्ट होने की लागत


उपलब्ध सूचनाएँ हमें स्मार्ट बनाती हैं और पर्यावरण की उपलब्ध सूचना हमें पर्यावरण के लिहाज से स्मार्ट बनाती है। इण्डिया टुगेदर पर पहले लिखे गए एक लेख में दलील दी गई थी कि भारत की मौजूदा निगरानी और सूचना प्रसार प्रणाली कमजोर है और उसके पूरी तरह से कायाकल्प की आवश्यकता है, ताकि वह भारत में एयरनाउ जैसे कार्यक्रम को लागू करने के लिये पारदर्शिता और सटीक होने का एक स्तर प्राप्त कर सके। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भारत में निगरानी स्टेशन (573) मानव संचालित हैं, वहाँ हर दो दिन पर सूचनाएँ इकट्ठी की जाती हैं और एक हफ्ते के संकलन के बाद आँकड़े उपलब्ध होते हैं।

सिर्फ कुछ शहर ऐसे हैं जहाँ पर निरन्तर निगरानी प्रणाली (40 स्टेशन) काम करती है जो एयरनाउ (या उसकी) जैसी प्रणाली की मदद के लिये सक्षम है और किसी अन्य शहर में ऐसी व्यवस्था नहीं है जो कि प्रतिनिधित्व वाला एक सूचकांक प्रस्तुत कर सके। तुलना के लिये देखा जाए तो दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी दिल्ली में छह सतत निगरानी स्टेशन चलाती है, जबकि 35 स्टेशन बीजिंग के अधिकारियों द्वारा चलाए जाते हैं।

फिलहाल व्यावहारिक स्थितियों के लिये हमें यह मान लेने दो कि पचास शहरों के स्टेशन उन छोटे शहरों के कार्यक्रम के हिस्से हैं जिनकी आबादी कम-से- (2011 की जनगणना के आधार पर) कम दस लाख आँकी गई है। दस साल तक (एयरनाउ जैसी) एक प्रणाली लागू करने और चलाने के लिये कुछ मोटी गणनाएँ की गई हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यह गणनाएँ किस्से की शक्ल में हैं और सप्लायरों से चर्चा पर आधारित हैं जिनमें समय के साथ बदलाव भी हो सकते हैं।

यह गणनाएँ इस बात का अनुमान प्रदान करती हैं कि पर्यावरणीय लिहाज से स्मार्ट होने के लिये कितने निवेश की आवश्यकता है, विशेषकर शहरी वायु गुणवत्ता के सन्दर्भ में।

1. एक सतत निगरानी स्टेशन (हर प्रकार के प्रदूषक और मौसम सम्बन्धी मानदंडों को मापने वाला) की औसत कीमत तकरीबन एक करोड़ रुपए और सालाना रखरखाव की फीस के लिहाज से दस प्रतिशत अतिरिक्त राशि बैठती है।

2. एक शहर का जो प्रतिनिधि नमूना लिया गया है उसमें प्रति शहर 30 स्टेशनों की जरूरत है, जिसके अनुसार 50 शहरों के लिये 1500 स्टेशन चाहिए (हम दलील दे सकते हैं कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में दस अतिरिक्त (+10) स्टेशन चाहिए और इन्दौर जैसे शहर में दस कम स्टेशन (-10)।

3. इस लिहाज से 3000 करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है (जिसमें दस साल के लिये 10 प्रतिशत की सालाना रख-रखाव की फीस शामिल है)।

4. इन स्टेशनों के लिये आधारभूत ढाँचा तैयार करने कर्मचारी लाने और उन्हें प्रशिक्षित करने का 100 प्रतिशत अतिरिक्त खर्च आएगा (यह खर्च उच्च स्तर के लिहाज से है, क्योंकि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पहले से ही इन शहरों में मानव संचालित स्टेशन चला रहा है जिसमें आवश्यक ढाँचा भी है और कर्मचारी भी)।

5. अगर हम यह मान लें कि इन दस सालों में दामों और फीस में पचास प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी तो यह पूरा खर्च 7500 करोड़ रुपए तक आ जाएगा।

इस लिहाज से देश के पचास शहरों को पर्यावरणीय लिहाज से स्मार्ट बनाने, वायु प्रदूषण की जानकारी देने और उसकी गम्भीरता को खास समय में मापने का काम दस सालों तक करने के लिये यह कोई बड़ी राशि नहीं है। दिल्ली मेट्रो की लागत तकरीबन 75,000 करोड़ है। जो कि इस समय दिल्ली की पाँच प्रतिशत से भी कम परिवहन माँग को पूरा कर पा रही है। इस प्रकार की मेट्रो प्रणालियाँ हैदराबाद, चेन्नई, बंगलुरू, मुम्बई या अन्य शहरों में या तो योजना के स्तर पर हैं या फिर निर्माणाधीन हैं। पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल के अनुसार अकेले जनवरी 2015 में भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की कुल खपत एक करोड़ 39 लाख मीट्रिक टन थी।

इस तरह अगर प्रति किलो पेट्रोलियम उत्पाद की बिक्री पर 50 पैसे का उपकर लगाया जाये तो उसकी कीमत एक महीने में 695 करोड़ (तकरीबन 8,340 करोड़ रुपए सालाना) होगी। यह राशि देश के पचास शहरों में दस सालों के लिये एक विश्वसनीय और पारदर्शी वायु गुणवत्ता सूचना प्रबन्धन प्रणाली के संचालन की अनुमानित लागत के लिहाज से पर्याप्त है।

सूचनाओं के बाद क्या?


एक संसूचित समस्या को आधा हल किया हुआ मान लेना चाहिए। समाधान का दूसरा हिस्सा असरदार कार्रवाई प्रणाली का क्रियान्वयन है। ऊपर दी गई लागत वायु प्रदूषण पर बेहतर सूचनाओं के प्रवाह के लिये जरूरी है लेकिन शहर के स्मार्ट या साफ होने के लिये पर्याप्त नहीं है। वायु प्रदूषण के तमाम स्रोत हैं और कोई भी व्यक्ति के रूप में इसे कम करने में बहुत कम योगदान दे सकता है। इसके लिये- सभी को साफ हवा-जैसे उद्देश्य के तत्त्वाधान में कई मंत्रालयों की तरफ से समन्वित कार्रवाइयों की एक शृंखला की आवश्यकता है।

उदाहरण के लिये


(अ) कम-से-कम 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी बिजली तक पहुँच नहीं है और लगातार बिजली जाने से डीजल जनरेटरों का इस्तेमाल बढ़ा है। प्रस्तावित 100 गीगावाट (जीडब्ल्यू) की सौर उर्जा के साथ गैर पारम्परिक ऊर्जा पर जोर बढ़ रहा है लेकिन भारत बिजली उत्पादन के लिये अभी भी कोयले पर निर्भर है। बिजली उत्पादन के लिये कोयले को साफ तरीके से शोधित किया जा सकता है। पर वह तभी हो सकता है जब पर्यावरणीय नियमन के कई कड़े कदम उठाए जाएँ, जैसे कि फ्लू गैस डिसल्फ्यूराइजेशन इकाइयाँ जरूरी कर दी जाएँ, लो-एनओ (NO) बर्नर लगाए जाएँ, धूल जमा करने वाली मशीन की क्षमता बढ़ाई जाये और क्रियान्वयन शुरू किया जाये। ऐसा करने के बारे में जिस प्रकार की प्रौद्योगिकी और नीति की जरूरत पड़ेगी उस पर यूरोप, अमेरिका, चीन और आस्ट्रेलिया में अच्छी तरह से शोध हो चुका है और उसे भारत में लागू करने के लिये एक जागरूक प्रयास ही चाहिए।

(ब) भारत में ईंधन उत्सर्जन के जो मानक हैं वे वैश्विक उत्सर्जन के मानकों से पीछे हैं। ऊर्जा की माँग और परिवहन सेक्टर से बढ़ते उत्सर्जन के बीच सन्तुलन कायम करने के लिये 2015 के अन्त तक भारत-5 (यूरो-5 के समतुल्य) या उससे भी ऊँचे मानक को लागू करना आवश्यक है। इस मामले में किसी प्रकार की देरी या धीमी गति से क्रियान्वयन भारत के शहरों में वायु गुणवत्ता में सुधार विलम्बित हो जाएगा।

ईंधन के मानकों की धीमी गति से लागू करना जहाँ अल्पकाल में शहरों के लिये फायदेमन्द हो सकता है (सिर्फ 17 शहर भारत-4 ईंधन के मानक का फायदा उठा रहे हैं) लेकिन कुल फायदा संक्रमण में खो गया है। उदाहरण के लिये डीजल वाले भारी वाहन कणों के उत्सर्जन में खासा योगदान देते हैं और वे शहर के बाहर मिलने वाले खराब ईंधन पर चलते हैं जिससे न सिर्फ उत्सर्जन बढ़ता है बल्कि कैटालिटक कनवर्टरों में खराबी भी आ सकती है। इसलिये एक देश में एक ईंधन का मानक अनिवार्य किया जाना चाहिए।

(स) जैसे-जैसे शहर बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे साफ और सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को प्रोत्साहित करने की चेतना बढ़ रही है। दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद और बंगलुरू में एक स्थापित औपचारिक सार्वजनिक परिवहन प्रणाली है और उन्हें जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूवल मिशन (जेएनएनयूआरएम) से भी अपनी बसों के बेड़े को बढ़ाने में मदद मिली है। सन् 2009 से इस कार्यक्रम के तहत 14,000 से ज्यादा बसें दी गई हैं।

लेकिन इनमें से ज्यादातर शहरों को मौजूदा बेड़े से तीन या चार गुना ज्यादा बसों की जरूरत है, तभी चार पहिए वाले और दो पहिए वाले यात्री सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को अपना सकेंगे।

मुख्य मुद्दे बस स्टापों पर चढ़ने और उतरने के दौरान सुरक्षा का सवाल, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की विश्वसनीयता, बसों का रखरखाव और इन बसों में यात्रा के दौरान आराम के रहे हैं।

(द) भारत के ज्यादातर शहरों में ज्यादातर यात्राएँ साइकिल या पैदल की जाती हैं। ऐसा इसलिये क्योंकि यहाँ (अमेरिका और यूरोप के मुकाबले ) अपनी गाड़ियों की संख्या कम है और शहर की बनावट ऐसी है कि काम, स्कूल और दूसरी गतिविधियों के लिये छोटी दूरियों पर ही जाना होता है। जबकि बड़े शहरों में आबादी की घनत्त्व ज्यादा होने के कारण और पैदल व साइकिल चलाने के लिये निश्चित पटरी न होने से, बड़ी गाड़ियों से टकरा कर चोट लगने का खतरा होने से लोग पैदल चलने वाली दूरी पर भी दुपहिया और चारपहिया वाले वाहनों का प्रयोग करते हैं। बढ़ते शहरों के सन्दर्भ में वायु गुणवत्ता में सुधार के जो उपाय लिये जाएँ उनमें पैदल और साइकिल वाले रास्तों को जोड़ने के तरीकों पर चर्चा होनी चाहिए।

(य) निर्माण कार्य के दौरान बहुत सारे कण उड़ते हैं, जैसे कि ब्लाक कटिंग, खुदाई, तोड़फोड़, मिक्सिंग, रोड बिल्डिंग, ड्रिलिंग, कचरे की लोडिंग, अनलोडिंग वगैरह। इसके अलावा निर्माण स्थल आने वाले ट्रकों के कारण भी काफी धूल उठती है।कई अध्ययनों में पता चला है कि निर्माण स्थल से हवा में बड़ी मात्रा में कण उड़ते हैं, विशेषकर भारत के छह शहरों में निर्माण गतिविधियाँ कणों के प्रदूषण के लिये 10 प्रतिशत तक जिम्मेदार हैं। चूँकि निर्माण उद्योग में किसी प्रकार का देशव्यापी मानक और नियमन नहीं है इसलिये इस क्षेत्र में अच्छे वृत्ति को लागू करने की सम्भावना है।

(र) भारत के प्रमुख शहरों में धूल मुख्य चिन्ता का विषय है और इनमें टायरों और ब्रेक की टूट-फूट से उठने वाली धूल और सड़कें खराब होने का भी बड़ा योगदान है। पारम्परिक तौर पर सभी सड़कें और फुटपाथ हाथ से साफ किये जाते हैं और जो भी धूल निकाली जाती है वह वहीं किनारे छोड़ दी जाती है जिसे दिन में गुजरने वाली गाड़ियाँ फिर वहीं पहुँचा देती हैं। इसका बेहतर विकल्प यह है कि वैक्यूम क्लीनर लगे हुए बड़े ट्रकों से सड़क साफ की जाए ताकि धूल फिर हवा में प्रदूषण न फैलाए।

मशीन या हाथ से होने वाली इस सफाई के खर्च में ज्यादा अन्तर नहीं आएगा। बस हाथ वाले में श्रमिकों के रोज़गार का मामला जरूर है। लेकिन चूँकि भारत के ज्यादातर शहरों में पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर वाले प्रदूषण में सड़क की धूल का अनुपात 30-40 प्रतिशत है इसलिये पीएम को नियंत्रित करने के लिये तात्कालिक हस्तक्षेप अहम है।

(ल) ठोस कचरे के वित्तीय और तकनीकी प्रबन्धन के बारे में कोई विश्वसनीय राष्ट्रीय स्तर का आँकड़ा नहीं है इसलिये जो आँकड़े हैं वे अनुमानित ही हैं। देश के शहरों का सालाना ठोस कचरा उत्पादन 3.5 करोड़ टन से 4.5 करोड़ टन है जो कि 2030 तक चार गुना यानी कि 15 करोड़ टन हो सकता है। दिल्ली दस हजार टन और मुम्बई सात हजार टन कचरा रोज उत्पादित करते हैं। शहरों की कचरा संग्रह क्षमता 50 से 90 प्रतिशत है। जहाँ कचरा नहीं उठाया जाता वहाँ जला दिया जाता है। इस समय बहुत कम शहरों में लैंडफिल है।

(व) घरेलू वायु प्रदूषण की समस्या भी गम्भीर है क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा रोजाना इसे झेल रहा है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज असेसमेंट के अनुसार भारत में घरेलू वायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिये निरन्तर जोखिम वाला रहा है और दूसरे नम्बर पर जोखिम वाला है, इसके कारण दस लाख असमय मृत्यु सालाना हो रही है।

सन् 2011 की जनगणना के आँकडों के अनुसार भारत में गैर–एलपीजी ईंधन का शहरों में 35 प्रतिशत इस्तेमाल और गाँव के घरों में 89 प्रतिशत इस्तेमाल होता है। जबकि 2001 में यह आँकड़ा क्रमशः 52 प्रतिशत और 94 प्रतिशत था, यानी गाँवों के स्तर पर इसमें बहुत मामूली सुधार हुआ है। इस स्थिति से उत्पन्न स्वास्थ्य के खतरे को देखते हुए ज्यादा एलपीजी कनेक्शन की जरूरत है क्योंकि यह खाना बनाने या कोई चीज गर्म करने के लिये सबसे साफ और सुरक्षित ईंधन है। बिजली के स्टोव या हीटर इसके विकल्प हो सकते हैं लेकिन वह गाँवों में बिजली की उपलब्धता पर निर्भर करते हैं।

आज भारत के पास शहरी और क्षेत्रीय स्तर पर पर्यावरणीय लिहाज से स्मार्ट होने का विशिष्ट अवसर है। इस अवसर के समक्ष दो चुनौतियाँ हैं-

(अ) समस्या के प्रति लोक चेतना हासिल करना और नागरिक, व्यावसायिक और राजनीतिक स्तर पर प्रतिबद्धता बनाना और
(ब) यह सुनिश्चित करना कि वायु प्रदूषण को दूर करने के लिये होने वाली कार्रवाई को व्यापक सामाजिक और आर्थिक विकास के सन्दर्भ में देखा जाए।

डॉ शरद गुट्टीकुंडा एक स्वतंत्र शोध समूह अर्बन इमिशन इनफो के निदेशक और मुम्बई आईआईटी में असोसिएट प्रोफेसर हैं।

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