हमने पानी में आग लगा ही दी

2 Oct 2015
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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष


ओ नई आई बादरी, बरसन लगा संसार, उठिठ् कबीर धाह दे, दाझत है संसार। कबीर

.‘‘बादल घिर आये तो लोगों ने सोचा पानी बरसेगा। इससे तपन मिटेगी, प्यास बुझेगी, पृथ्वी सजल होगी, जीवन का दाह मिट जाएगा, किन्तु हुआ ठीक उलटा। यह दूसरे तरह के बादल हैं, इनसे पानी की बूँदे नहीं, अंगारे बरस रहे हैं। संसार जल रहा है। कबीर ऐसे छल-बादल से संसार को बचाने के लिये बेचैन हो उठते हैं।” पानी में आग लगाना एक मुहावरा है और इसे एक अतिशयोक्ति की तरह अंगीकृत भी कर लिया गया। लेकिन विकास की हमारी आधुनिक अवधारणा और उसके क्रियान्वयन ने इस मुहावरे को अब चरितार्थ भी कर दिया है।

पता चला है कि पिछले दिनों कर्नाटक की राजधानी और भारत की कथित सिलिकान वेली, बैंगलुरु (बैंगलोर) की सबसे बड़ी झील, बेल्लांडुर झील में आग लग गई। इस आग की वजह उस झील में फैला असाधारण प्रदूषण था। इतना ही नहीं इस प्रदूषण की वजह से इस झील में जहरीला झाग (फेन) भी निर्मित हो जाता है, जो इसके आस-पास चलने वाले राहगीरों और वाहनों तक को अपनी चपेट में ले लेता है।

बैंगलोर को लेकर चिन्ता इसलिये भी द्विगुणित हो जाती है क्योंकि हाल में भारत सरकार ने ए. श्रेणी के 476 शहरों की एक सूची तैयार की है जिसमें क्रमवार बताया गया है कि साफ-सफाई की दृष्टि से कौन सा शहर किस स्थान पर है। इसमें पहले स्थान पर कर्नाटक का ही एक शहर मैसूूर है और बैंगलोर इस सूची में सातवें क्रम पर है। इसी सूची में एक अन्य वर्ग है सर्वाधिक स्वच्छ राज्य राजधानियों का। बैंगलोर इस वर्ग में पहले स्थान पर है।

यानि भारत के सभी राज्यों की राजधानियों में यह सबसे स्वच्छ है। अब बताइए किस आधार पर बैंगलोर को स्वच्छता सूची में यह स्थान मिला या दूसरे शब्दों में कहें तो यदि क्रमशः सातवें और पहले स्थान पर आने वाले शहर की यह दर्दनाक स्थिति है तो निचले क्रमों के शहरों के नागरिक किन नारकीय परिस्थितियों में अपना जीवन बिता रहे होंगे।

बैंगलोर की स्वच्छता की चादर में एक और कसीदा बैंगलोर वाटर सप्लाई एवं सीवेज बोर्ड ने भी काढ़ दिया है। इतनी विशाल आबादी हेतु सीवेज संयंत्र स्थापित करने के लिये केवल 40 एकड़ भूमि का ही प्रावधान रखा गया था। परंतु जमीनों की बढ़ती माँग और घटती उपलब्धता के चलते वह ज़मीन भी अब विशेष आर्थिक क्षेत्र यानि सेज को आबंटित कर दी गई है।

इसका सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि हमारे स्थानीय निकायों को भी अब अपने वास्तविक कर्तव्यों से परहेज करने की लत पड़ गई है। वरना यह सम्भव ही नहीं था कि कोई नगर निगम अपने अनिवार्य कार्यों के लिये आरक्षित भूमि का आबंटन किसी और को कर दे?

एक ओर हम स्वच्छता को राष्ट्रीय आन्दोलन बनाने की रट लगाए हैं वहीं दूसरी ओर सुनियोजित नगर नियोजन से हमारा कोई रिश्ता ही नहीं बन पा रहा है। यह स्थिति अब कमोबेश प्रत्येक शहर में दोहराई जा रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में अमेरिकी आदिवासियों (रेड इंडियन) पर गोरे लोगों द्वारा किये गए हमले व कब्जे के बाद एक आदिवासी ने इस वर्ग को वान गीसका (सफेद भूत) की संज्ञा देते हुए कहा था, ‘‘तुमने हमारे जानवर, हमारी जीविका, के साधन देश के बाहर खदेड़ दिये। अब हमारे पास इन पहाड़ों के अलावा कुछ भी मूल्यवान नहीं बचा है, जो तुम हमें छोड़ देने के लिये कह रहे हो। ज़मीन में तरह-तरह के ढेरों खनिज भरे पड़े हैं और ज़मीन पाइन के घने पेड़ों से ढकी हुई है और जब हम यह छोड़ देंगे.... तो हम जानते हैं, कि हम वो आखिरी चीजें छोड़ देंगे जो कि हमारे और सफेद लोगों के लिये मूल्यवान हैं।”

यह बात अब शहरी विकास पर भी लागू हो चली है। शहरों में लोग अपने गाँवों आदि से पलायन कर आकर बसते हैं। इसकी वजह यह है कि वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर दीगर लोगों का कब्जा होता जा रहा है और स्थानीय रोज़गार समाप्त होते जा रहे हैं। गाँवों से आकर यह लोग शहरों में गन्दे इलाकों में रहते हैं और धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दी जाती हैं कि उन्हें वहाँ से भी खदेड़ दिया जाये।

पिछले दिनों कर्नाटक की राजधानी और भारत की कथित सिलिकान वेली, बैंगलुरु की सबसे बड़ी झील, बेल्लांडुर झील में आग लग गई। इस आग की वजह उस झील में फैला असाधारण प्रदूषण था। इतना ही नहीं इस प्रदूषण की वजह से इस झील में जहरीला झाग भी निर्मित हो जाता है, जो इसके आस-पास चलने वाले राहगीरों और वाहनों तक को अपनी चपेट में ले लेता है। बैंगलोर को लेकर चिन्ता इसलिये भी द्विगुणित हो जाती है क्योंकि हाल में भारत सरकार ने ए. श्रेणी के 476 शहरों की एक सूची तैयार की है जिसमें क्रमवार बताया गया है कि साफ-सफाई की दृष्टि से कौन सा शहर किस स्थान पर है। सन् 1991 में उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद शहर, खासकर बैंगलोर जैसे महानगर दो शहरों में विभक्त हो गए। पहला शहर है धनवान लोगों का शहर। इसमें यातायात खासकर कारों के सुविधाजनक चालन के लिये फ्लाईओवर, खरीददारी के लिये चमचमाते वातानुकूलित माल्स, ऊँची-ऊँची इमारतें, महंगे रेस्टारेंट, निजी विद्यालय और अस्पताल हैं। दूसरा शहर मलिन बस्तियों का है।

ये शहर को सारी आवश्यक सेवाएँ प्रदान करते हैं। लेकिन इनके साथ अतिक्रमणधारी एवं अपराधी जैसा व्यवहार किया जाता है। अमीर लोगों के पास बर्बाद करने को पानी और अन्य संसाधन दोनों ही इफरात में हैं। गरीब बस्तियों में तो पीने का पानी भी मुश्किल से ही पहुँचता है। इसके बावजूद गन्दगी के लिये उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है जिनके पास फेंकने को कुछ होता ही नहीं। बेदखली की तलवार भी हमेशा उन्हीं पर लटकती रहती है।

बैंगलोर की बेल्लांडुर झील में पहुँची गन्दगी भी पहले यानि सम्पन्न वर्ग की ही है। उसके शौचालयों में ही इतना पानी है जो कि बहकर सीवेज तक पहुँच सकता है। गरीब बस्तियों में तो कमोबेश इतना पानी पहुँचता ही नहीं कि इस्तेमाल के बाद बहने की स्थिति तक पहुँच पाये।

बैंगलोर की झील में लगी आग महज एक प्रतीक नहीं है बल्कि यह हमें भविष्य के खतरों के प्रति आगाह कर रही है। यह घटना हमारे विकास मॉडल की जटिलता और इसमें सन्निहित विनाश को दर्शा रही है। बड़े बाँध बनाकर हम अपने जलचर नष्ट कर रहे हैं और जलाशय में भरे गए पानी को शहरों में पहुँचा कर बिना व्यवस्थित उपयोग की व्यवस्था किये वहाँ के व समीपवर्ती जलस्रोतों को भी नष्ट कर रहे हैं।

हिमालय में स्थित टिहरी बाँध से डूबे स्थानीय समुदाय का तो यही कहना है कि हमें तो दिल्ली के शौचालयों में पानी देने के लिये डुबो दिया गया है। विकास का हमारा पूरा ढाँचा कमोबेश चेतना के जिस स्तर पर है उसे देखकर निराशा ही होती है। ऐसा माना जाता है कि चेतना की तीन अनुभूतियाँ होती हैं, पहली वह जिसमें वह स्वयं को परतंत्र या गुलाम महसूस करता है।

दूसरी है जिसमें वह स्वतंत्रता का अनुभव करता है और तीसरी व सर्वश्रेष्ठ अनुभूति है कि जब वह परस्पर निर्भरता का अनुभव करता है। विकास की हमारी अवधारणा अभी चेतना की पहली अवस्था में ही है और वह तीसरी अवस्था में आने से घबराती है। जो इने गिने लोग इस ओर कदम उठाते हैं वह विकास विरोधी की श्रेणी में ला खड़े किये जाते हैं और अन्तहीन मानसिक व शारीरिक यंत्रणा भुगतते रहते हैं।

कबीर भी कहते हैं-
ऐसा कोई न मिला जासो रखिए लागि,
सब जग जरता देख्यिा अपनी अपनी आगि।


‘‘कबीर अपने समय में ऐसे की तलाश कर रहे थे, जो अपनी आग में न जल रहा हो, बल्कि जिसमें दूसरे को आग से बचाने की क्षमता हो। जहाँ पहुँचकर शान्ति पाई जा सके। जिसके साथ लग कर रहा जा सके।” मध्य प्रदेश स्थित बड़वानी से लेकर सुदूर लेटिन अमेरिका और अफ्रीका तक में ऐसे तमाम व्यक्ति और संगठन अब सक्रिय हैं जो हमें आग से बचाने में सक्षम हैं। भारत की सबसे स्वच्छ राज्य राजधानी के पानी में लगी आग को अब तो किसी ‘बावड़ी’ के पानी से ही बुझाया जा सकता है। कबीर के छः सौ साल बाद चंद्रकांत देवताले हमें सुझा रहे हैं। एक घर में आग लगी/तो इकट्ठा हो गए/आसपास बस्ती के लोग/पूछने लगे/ आग कैसे लगी?/आग किसने लगाई?/आग क्यों लगाई? तमाम सवाल जवाब और बहस के बीच वह बताते हैं, इतने में आया वह/जिसे बस्ती वाले/कहते थे पागल/कहा कुछ नहीं/बस दौड़ पड़ा/कहीं से उठाई बाल्टी/बावड़ी से भरा पानी/और बुझाने लगा आग। आधुनिक विकास से लगी इस आग को बुझाने के लिये हमें उस पागल का साथ देना ही होगा।

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