हरित न्यायाधिकरण का फैसला अमल करेगा कौन

6 Aug 2014
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राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में देश की किसी भी नदी में बिना किसी लाइसेंस या पर्यावरणीय मंजूरी के रेत खनन पर रोक लगा दी है। अपने आदेश में उसने देश के सभी राज्यों के खनन अधिकारियों और पुलिस से इसे सख्ती से लागू करने को कहा है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण यानी एनजीटी की जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी भी नदी से रेत निकालने के लिए पहले इजाजत लेना जरूरी होगा। हालांकि जिन इलाकों में नदियों से रेत निकाली जाती है, उनमें ज्यादातर में पहले से इजाजत लेना जरूरी है, लेकिन ताजा आदेश ने पूरे देश में अब इसे जरूरी बना दिया है।

अवैध खनन के खिलाफ सरकारें कोई वाजिब कार्यवाही करें, इसके उलट वे रेत माफियाओं का ही संरक्षण करती है। देश में हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब राज्य सरकारों ने रेत माफियाओं पर कार्यवाही न कर, उलटे अपने प्रशासनिक अधिकारियों को ही दंडित किया... एक तरह से देखा जाए तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का यह आदेश बीते साल फरवरी में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ही दोहराव है। सर्वोच्च न्यायालय के साफ-साफ आदेश के बाद भी देश में रेत के अवैध खनन में कोई कमी नहीं आई। अदालत का आदेश निष्प्रभावी ही रहा। यही वजह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को भी अब इसमें अपना हस्तक्षेप करना पड़ा है।

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने याचिका का दायरा व्यापक करते हुए कहा है कि उसका आदेश पूरे देश में लागू होगा, क्योंकि याचिका पर्यावरण के गंभीर मुद्दे को उठाती है। शुरुआत में पीठ ने यमुना, गंगा, हिंडन, चंबल, गोमती और अन्य नदियों की तलहटी और किनारों से बालू के खनन पर रोक लगाई थी, लेकिन बाद में अपने आदेश को बदलते हुए उसने कहा कि अवैध तरीके से रेत निकालने का मुद्दा देशभर में लागू होता है।

बहरहाल, एनजीटी ने इस संबंध में सभी प्रतिवादियों को 14 अगस्त तक जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया है। इस पूरे मामले को गंभीर मानते हुए पीठ ने कहा कि अब देश की किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या रेत निकालने से पहले केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेनी जरूरी होगी। फिर वह चाहे छोटा-सा ही क्षेत्र क्यों न हो।

इस आदेश से पहले देश में कहीं भी पांच हेक्टेयर से कम के प्लाट से रेत खनन के लिए पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत की कोई जरूरत नहीं होती थी, लेकिन अब यहां भी मंजूरी लेना जरूरी होगा।

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण देश भर में किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या निकालने से पहले केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेना जरूरी होगा।गौरतलब है कि पीठ ने यह आदेश उत्तर प्रदेश में रेत माफिया के खिलाफ दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान दिया। याचिका में कहा गया था कि राज्य में रेत माफिया सरकारी तंत्र के साथ मिलकर सरकार को लाखों-करोड़ों रुपए का चूना लगा रहा है। याचिका में उत्तर प्रदेश में रेत माफिया की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए राज्य सरकार को सख्त निर्देश देने की भी मांग की गई थी। वरिष्ठ वकील राज पंजवानी और ऋत्विक दत्ता ने अदालत में याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी कि हर साल लाखों टन बालू का अवैध खनन होता है और इससे राजकोष को लाखों-करोड़ों रुपए का नुकसान हो रहा है।

रेत खनन का अवैध व्यवसाय अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं, बल्कि देश के सभी राज्यों में एक जैसी कहानी है। राज्य की सीमा से सटे मध्य प्रदेश में भी सत्ता के संरक्षण में बड़े पैमाने पर अवैध खनन का काम जारी है। चंबल और नर्मदा नदी के किनारे पर रेत माफिया वृहद पैमाने पर अवैध रेत खनन करते हैं। उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। रेत माफियाओं के हौसले इस कदर बढ़ गए हैं कि ओंकारेश्वर क्षेत्र में तो उन्होंने ओंकारेश्वर बांध के निकट तक रेत खनन कर डाला। यहां इतना ज्यादा रेत खनन हुआ है कि अब बांध पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। नदियों के किनारे नियम-कायदों को ताक पर रख रेत निकालने का धंधा कमोबेश सभी राज्यों में धड़ल्ले से चलता रहा है। किसी भी अन्य कारोबार में नियमों का इतना ज्यादा उल्लंघन नहीं होता, जितना कि खनन के क्षेत्र में। फिर वह चाहे रेत का खनन हो या लौह अयस्क या किसी और खनिज का।

बेल्लारी खदानों के बारे में कर्नाटक के तत्कालीन लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट और गोवा के बारे में शाह आयोग की रिपोर्ट इसकी बड़ी मिसाल है। गोया कि इन दोनों रिपोर्टो ने व्यापक भ्रष्टाचार के साथ ही उसमें राजनीतिकों की मिलीभगत की भी कहानी उजागर की है। नदियों के किनारे हो रहे रेत खनन ने जहां नदियों की पारिस्थितिकी पर बहुत बुरा असर डाला है, वहीं मैदानी इलाकों में भी बाढ़ के खतरे को बढ़ाया है।

अवैध खनन के खिलाफ सरकारें कोई वाजिब कार्यवाही करें, इसके उलट वे रेत माफियाओं का ही संरक्षण करती है। देश में हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब राज्य सरकारों ने रेत माफियाओं पर कार्यवाही न कर, उलटे अपने प्रशासनिक अधिकारियों को ही दंडित किया। इन अधिकारियों का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने रेत माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश की थी।

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले की युवा आइएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने की सजा भुगतना पड़ी। अखिलेश सरकार ने रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने पर उन्हें निलंबित कर दिया।

एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल समेत जिन लोगों ने भी इस तरह के अवैध खनन का विरोध किया, उन्हें उसकी सजा मिली। मध्य प्रदेश के जांबाज आईपीएस अफसर नरेन्द्र कुमार को उस वक्त अपनी जान गंवानी पड़ी, जब उन्होंने अकेले खनन माफियाओं से टकराने की कोशिश की। अवैध खनन ने देश भर में जगह-जगह माफिया पैदा कर दिए हैं, जो अपने रास्ते में बाधक बनने वालों को हटाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

कुल मिलाकर हरित पंचाट के हालिया फैसले से अवैध रेत खनन के सिलसिले पर विराम लगने की एक बार फिर उम्मीद जागी है। लेकिन बात फिर वहीं पर जाकर खत्म हो जाती है कि क्या राज्य सरकारें इस निर्देश पर कड़ाई से अमल करेंगी? ऐसे खनन की निगरानी बेहद मुश्किल भरा काम है। अकेले केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के वश की बात नहीं।

केंद्र को पूरी तरह से राज्य सरकारों के तंत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। जब तक राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभातीं, तब तक अवैध रेत खनन रोकना मुश्किलों भरा ही काम होगा। अवैध खनन जहां भी हो, रेत माफियाओं पर सरकार पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत सख्त से सख्त कार्रवाई करे। तभी जाकर देश में अवैध खनन पर लगाम लगेगी।
(लेखक का Email: jahidk.khan@gmail.com)

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