हरसूद का संकल्प मेला; अस्वीकृति में उठे हजारों हाथ

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जहां तक विकल्प का सवाल है उसकी चर्चा यहां संभव नहीं है, लेकिन एक ही टिप्पणी पर्याप्त है। नदियों में तो बरसात का पांचवां हिस्सा ही बहता है, तो क्या पानी के प्रबंध का एकमात्र विकल्प बड़े बांध ही है तालाबों तथा अन्य विकल्पों के बारे में क्यों नहीं सोचा गया है? बार-बार बिजली की भारी पैदावार की बात की जाती है क्या कभी किफायत की योजना बनाई गई है? समाज और पर्यावरण की कीमत पर शहर को बहुत ही कम दाम पर बिजली प्रदान की जाती है जिसे शहर भारी मात्रा में फिजूल खर्च करता है, इस पर सोचना जरूरी है। भोपाल की तरह हरसूद को भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली है। भोपाल तो सोया हुआ था वहां दुर्घटना हुई थी लेकिन हरसूद होने वाली त्रासदियों के पहले जाग चुका है।

मानव निर्मित दुर्घटनाओं में भोपाल बेमिसाल था लेकिन अब नर्मदा घाटी में मानव-संहार का एक बीस-पच्चीस वर्षीय सिलसिला मंडरा रहा है, यह संहार भी भोपाल की तरह प्राकृतिक दुर्घटना नहीं होगा। ट्रकों, बसों, रेल गाड़ियों, ट्रैक्टरों और बैलगाड़ियों से उठी हरसूद की धूल उन लोगों से, जो हर कीमत पर सरदार सरोवर और नर्मदा सागर बनाए जाने पर तुले हुए हैं, यह सवाल छेड़ गई है कि क्या अब भी हरसूद डूबेगा?

विशाल जनसमूह के द्वारा चेतावनी दिए जाने के बाद भी क्या नर्मदा घाटी में होने वाला नरसंहार और पर्यावरण विनाश नहीं रुकेगा?

अनगिनत हजारों लोगों का जनसागर मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के एक छोटे से कस्बे हरसूद में पिछले सितंबर की 28 तारीख को उमड़ पड़ा था। देशभर के 150 क्रियाशील समूह, जो अपने-अपने क्षेत्र में पर्यावरण विनाश, विस्थापन और सामाजिक अन्याय के भिन्न-भिन्न पहलुओं को लेकर जूझ रहे हैं, इस ‘संकल्प मेले’ में उपस्थित थे। इन क्रियाशील समूहों ने विशाल जन समुदाय के साथ यह संकल्प लिया कि हम विनाशकारी विकास की योजनाएं नहीं चलने देंगे।

भोपाल ने यह सबक सिखाया था कि कीटनाशक दवाई के निर्माण को हमारी विकास की नीतियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता तथा इस कारण यूनियन कार्बाइड के खिलाफ लड़ाई वास्तव में विकास की पद्धतियों के खिलाफ लड़ाई है। यह भी सिखाया था कि देश में बदलाव लाने के इच्छुक समर्पित लोग आपस में मिल-जूलकर काम करें।

हरसूद ने एक कदम और आगे बढ़ाकर यह संकेत दिया है कि इस देश में एक ऐसी राजनीतिक शक्ति जन्म लेने के लिए मचल रही है जो निहित स्वार्थ में डूबी हुई समस्त राजनीतिक शक्तियों को चुनौती देते हुए आगे बढ़ना चाहती है।

नई वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के उदय की भविष्यवाणी करना चाहे कठिन हो लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि हरसूद के गर्भ से एक ऐसी “हरित शक्ति” जन्म ले रही है जो सामाजिक न्याय पर आधारित ऐसी विकास पद्धतियों के लिए निरंतर संघर्ष करेगी जो पर्यावरण की समुचित रक्षा कर सके।

हरसूद के संकल्प मेले के समाचार संकलन की दृष्टि से भारतीय समाचार एजेंसियों, राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं के करीब 125 प्रतिनिधियों के अलावा बी.बी.सी., एसोसिएटेड (एपी), वाइस ऑफ अमेरिका एवं कुछ अन्य यूरोप के पत्रों के प्रतिनिधि भी थे। हरसूद अंतरराष्ट्रीय दिलचस्पी का कारण क्यों बना है इसे समझने की जरूरत है।

प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी, म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री मोतीलाल वोरा, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री अमरसिंह चौधरी एवं नर्मदा घाटी विकास निगम गुजरात के अध्यक्ष श्री सनत मेहता जिस विकास की बात कर रहे हैं उसका तो विश्व भर में भांडा-फोड़ हो रहा है। वर्तमान विकास की पद्धतियों ने अमेरिका और यूरोप को तो जहरीली गैसों से घेर लिया है अब वे अपनी जान बचाने के लिए तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लगे हैं।

लेकिन तीसरी दुनिया में जो अपने जीवन को बचाने की जागृति पैदा हो रही है। उसके कारण मानव जाति के समक्ष यह प्रश्न मजबूत हो गया है कि जिसे पश्चिम विकास कहता था व जिसे तीसरी दुनिया के हुक्मरानों ने तोते की तरह रटना शुरू किया था, वह विकास था या विनाश? अब तो दुनिया नई करवट ले रही है।

ब्राजील ने तय किया है कि अमेजन के जंगलों की कीमत पर बांध नहीं बनेगा और थाईलैंड ने घोषणा की कि अब एक इंच भी जंगल नहीं काटा जाएगा लेकिन भारत जो गांधी का देश है जिसे दुनिया को नई राह दिखाना था, उसके कर्णधार उसे अंधी दौड़ दौड़ाने पर आमादा है। लेकिन यदि नर्मदा घाटी में फैल रहा आंदोलन सफल होता है तो इसका प्रभाव न केवल भारत की हरित लड़ाई पर पड़ेगा बल्कि पूरा विश्व भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। अंतरराष्ट्रीय दिलचस्पी का यही कारण है।

बाहुल्य, फिजूलखर्ची और ऐशो-आराम पर आधारित पूंजीवादी केंद्रीकृत विकास की पद्धति तो चरमरा ही रही है, साम्यवादी व्यवस्था भी चरमरा रही है। पैदावर की मिल्कियत को बदलकर इस व्यवस्था ने विश्व के एक हिस्से को नई ऊर्जा दी थी लेकिन विकास के पूंजीवादी आधारों को न बदलने के कारण अब यह व्यवस्था भी संकटग्रस्त है। “पैरेस्त्रोइका” पेबंद अधिक दिन तक नहीं चलेगा। न्यूनतम आवश्यकताओं पर आधारित सतत चलने वाली विकास की पद्धति जो विकेंद्रित व्यवस्था एवं पर्यावरण के संरक्षण पर ही संभव है, यदि नहीं अपनाई गई तो मनुष्य जाति जिंदा नहीं रह सकेगी। शीघ्र ही नई पीढ़ी तथाकथित विकास के लंबरदारों से सवाल करेगी कि तुम्हें ऐशो-आराम के लिए भावी पीढ़ी की संपत्ति को लूट लेने और नष्ट-भ्रष्ट कर डालने का क्या हक है? हुक्मरान नीरो की तरह तथाकथित विकास का राग अलाप रहे हैं और उन्हें भित्ती पर लिखे अक्षर “कोई नहीं उठेगा, बांध नहीं बनेगा” न दिखाई दे रहे और न सुनाई दे रहे हैं। जो हरसूद गए थे उन्हें ज्ञात है कि “ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के” या “नर्मदा घाटी में अब लड़ाई जारी है” आदि गीत गाती हुई टोलियां जब प्रवेश कर रही थी तो बरबस देश की आजादी की लड़ाई की यादें ताजी हो उठी थी। लोग कह रहे थे नई क्रांति देश में जगी है।

कुछ अखबारों में उपरोक्त संकल्प मेले के बाद टिप्पणियां लिखी गई। उन टिप्पणियों को देखकर लगता है कि आंदोलन की भूमिका तथा लगातार दिए जा रहे आंकड़ों और तर्कों से या तो वे एकदम अनभिज्ञ है या फिर किन्हीं कारणों से सच नहीं कह रहे हैं । टिप्पणियों का आशय यह है कि गुजरात तो सिंचाई और बिजली फैलाकर खूब विकसित हो जाएगा। इसके अलावा मानव के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा गया है कि पुनर्वसन में यदि त्रुटियां हैं तो उन्हें दूर किया जा सकता है।

जहां तक गुजरात के विकास का सवाल हैं आंकड़ों सहित इसे बार-बार दोहराया गया है कि सरदार सरोवार से केवल मध्य गुजरात को ही पानी मिलेगा, जहां पूर्व से ही सिंचाई एवं पीने के पानी की व्यवस्थाएं हैं। उत्तरी गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ तो फिर भी प्यासे रह जाएंगे। ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज’ (इंटेक) की एक रपट में बतलाया गया है कि सौराष्ट्र की 69 तहसीलों में से 56 तहसीलों को एक बूंद भी पानी नहीं मिलेगा। इसके अलावा सौराष्ट्र की मुश्किल से 10 प्रतिशत तहसीलों को ही पर्याप्त पानी मिलेगा। सरदार सरोवर से जिन 62 तहसीलों को पानी मिलने वाला है उनमें से दो तिहाई सूखाग्रस्त नहीं है जो 52 सूखाग्रस्त तहसीलें गुजरात में हैं उनमें से दो तिहाई को नहीं के बराबार पानी मिलेगा। फिर भी श्री सनत मेहता कहते हैं कि सरदार सरोवर से गुजरात की पानी की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाएगी।

सत्ताधारी दल ही नहीं, विरोधी दलों के नेता भी अवसरवाद नीतियां अपनाते हैं। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बड़े बांधों के विरोध में अपना मत जाहिर किया लेकिन जब गुजरात में उनका विरोध हुआ तो कहने लगे कि सरदार सरोवर पर चूंकि बड़ी रकम खर्च हो गई है, इसलिए बन जाना चाहिए। श्री राजीव गांधी ने गुजरात में कहा कि विश्वनाथ प्रताप सिंह गुजरात के विकास में रोड़ा अटका रहे हैं। कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार तथा ज्ञानपीठ पुरस्कृत श्री शिवराम कारंत हरित आंदोलन में अग्रणी रहते हैं, वे हरसूद भी आए थे। उन्होंने उस विशाल सभा में नार्वे की प्रधानमंत्री श्रीमती बुटलैंड की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग की रपट का जिक्र किया। यह बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो यह बतलाता है कि वर्तमान विकास की पद्धतियों ने मनुष्य को कैसी विकट परिस्थितियों में जकड़ दिया है।

आयोग ने सिफारिश की है कि वर्तमान विकास की पद्धतियों के स्थान पर निरंतर चल सकने वाली वैकल्पिक विडंबना यह है कि उपरोक्त रपट पर प्रस्तावना लिखते हुए श्री राजीव गांधी कहते हैं कि “अधिक अन्न और आराम की वस्तुएं पैदा करने के लिए हमने हमारे जंगल नष्ट कर दिए हैं। औद्योगिक विकास के नाम पर हमने हमारी नदियों और समुद्रों को प्रदूषित कर दिया है। विश्व का तापमान बढ़ा दिया है तथा ओजोन की छतरी को पतला कर दिया है जो सूर्य की विकिरणों से हमारी रक्षा करती है।” श्री गांधी आगे कहते हैं- “हम भारतीय इसे अच्छी तरह समझते हैं, हम अपनी बढ़ती हुई आबादी की न्यूनतम आवश्यकताओं की हमेशा के लिए पूर्ति कर सकते हैं जब हमारी पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) पर अब और कोई आक्रमण न करें।” अभी-अभी बेलग्रेड में हुए निर्गुट सम्मेलन में तो भी श्री गांधी ने पृथ्वी रक्षा कोष बनाने तक का सुझाव दिया है। क्या हमारे समाचार पत्र प्रधानमंत्री से पूछेंगे कि आप देश के बाहर तो पर्यावरण को बचाने की बात करते हैं और प्रदेश के भीतर ऐसी योजनाओं को स्वीकृति देते हैं जो तकनीकी, पर्यावरण, सामाजिक न्याय एवं लाभ-हानि की दृष्टि से गलत साबित हो चुकी है? बड़ी मुश्किल यह है कि हमारे देश का प्रभावशाली वर्ग अपने निहित स्वार्थ और ऐशो-आराम की खातिर पाखंडी और झूठा हो गया है।

जो लोग उदार शर्तों के आधार पर बांध की स्वीकृति दिए जाने की वकालत करते हैं, वे होते कौन हैं यह फैसला करने वाले कि अमुक-अमुक शर्तें उदार शर्तें हैं, इसका फैसला उन्हें ही करने दीजिए जो प्रभावित है। यह कितनी अजीब बात है कि जिनकी खुशहाली के नाम पर बांध बांधा जा रहा है उनकी स्वीकृति अथवा अस्वीकृति के अधिकार को माना ही नहीं जा रहा है।

उदार शर्तों के आधार पर बड़े बांधों को स्वीकार करने की दलील देने वाले लोगों को क्या अब तक का इतिहास ज्ञात नहीं है? सरकार ने पुनर्बसाहट का संपूर्ण नक्शा ही नहीं बनाया है यह बात बार-बार कही जा चुकी है। सरकार के पास न जंगल लगाने को पर्याप्त जमीन है और न ही लोगों को बसाने के लिए जमीन है फिर भी कुछ लोग उदार शर्तों की दलील दुहराते रहते हैं।

जहां तक विकल्प का सवाल है उसकी चर्चा यहां संभव नहीं है, लेकिन एक ही टिप्पणी पर्याप्त है। नदियों में तो बरसात का पांचवां हिस्सा ही बहता है, तो क्या पानी के प्रबंध का एकमात्र विकल्प बड़े बांध ही है तालाबों तथा अन्य विकल्पों के बारे में क्यों नहीं सोचा गया है? बार-बार बिजली की भारी पैदावार की बात की जाती है क्या कभी किफायत की योजना बनाई गई है? समाज और पर्यावरण की कीमत पर शहर को बहुत ही कम दाम पर बिजली प्रदान की जाती है जिसे शहर भारी मात्रा में फिजूल खर्च करता है, इस पर सोचना जरूरी है।

असली सवाल बहुत गहरा है, राष्ट्रहित और विकास के नाम पर 15 फिसदी या अधिक से अधिक 20 फीसदी लोगों को सुख-सुविधा मुहैया की जा रही है। इसके लिए एक बड़ी तादाद में गरीब लोगों को बलिवेदी पर चढ़ाया जाता है किसकी कीमत पर किसका विकास, अहम् प्रश्न यह है।

इस प्रश्न को समझकर विकास की ऐसी वैकल्पिक नीति चलानी होगी जो हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहे तथा जो पर्यावरण की भी रक्षा करे और सामाजिक न्याय भी स्थापित करें।

(सप्रेस द्वारा पेनोस, पर्यावरण कक्ष एवं गांधी शांति केंद्र के सहयोग से)साभार-नई दुनिया, इंदौर, 16-10-1989

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