हवा में घुलते जहर का कहर

15 Jan 2020
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Image Source NIEHS-NIH
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हमारी पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल की एक मोटी परत है। हमारी सांसों का खजाना है यह। इसमें जो हवा भरी है, उसी में हम और इस धरती पर जी रहे असंख्य जीवधारी सांस ले रहे हैं जिनमें पेड़-पौधे भी शामिल हैं। यानी, यों समझ लें कि जैसे हम एक विशाल हवा भरे गुब्बारे के भीतर जी रहे हैं जिसके बीच में पृथ्वी का गोला लटका हुआ है। हवा की यह मोटी परत वायुमंडल कहलाती है। अनुमान है कि यह पृथ्वी की सतह से करीब 110 किलोमीटर ऊपर तक फैली हुई है। वैज्ञानिक कहते हैं, इसकी पांच परतें हैः क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फीयर, समतापमंडल (स्ट्रेटोस्फीयर), मध्य मंडल (मीजोस्फीयर), तापमंडल (थर्मोस्फीयर) और ब्राह्मंडल (एक्जोस्फीयर)।

सभी जीवधारियों के जीवित रहने के लिए कुदरत की एक नायाब सौगात है- हवा। वह हवा, जिसमें प्रकृति ने ठीक उतनी मात्रा में गैसों का मिश्रण बनाया था, जिसमें सांस लेकर हम जीवनधारी जीवित रहें और हमारी सेहत ठीक रहे। यानी, करीब 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.9 प्रतिशत ऑर्गन, 0.038 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड और सूक्ष्म मात्रा में नियॉन, हीलियम क्रिप्टॉन, जेनॉन तथा मीथेन। इन गैसों के अलावा हवा में न्यून मात्रा में जल वाष्प की नन्हीं बूंदे भी मौजूद होती हैं।

सर्दियों से हमारे वायुमंडल में गैसें इसी मिकदार में थीं। कई लोगों को यह गलतफहमी रहती है कि शायद हवा में सबसे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन होती है जबकि यह गैस केवल करीब 21 प्रतिशत ही होती है। लेकिन हां, सभी जीव-जन्तुओं के लिए यह प्राणवायु है। हम अपनी सांस में इसे फेफड़ों में भीतर लेते हैं और फेफड़ों से सांस में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। वह कार्बन डाइऑक्साइड हवा में मिल जाती है और हवा से वह पेड़-पौधों के खाना बनाने के काम आती है। वे अपनी पत्तियों के हरे रंग यानी क्लोरोफिल, हवा से ली हुई कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल वाष्प के साथ सूर्य के प्रकाश में अपना भोजन यानी ग्लूकोज बना लेते हैं। भोजन बनाने की इस क्रिया में वे हवा में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। तो, समझे आप? हमारी सांस में बाहर छोड़ी हुई कार्बन डाइऑक्साइड उनके काम आ जाती है और उनकी छोड़ी हुई ऑक्सीजन हमारे सांस लेने के काम आती है। यह हमारा और पेड़-पौधों का अटूट रिश्ता है। कार्बन डाइऑक्साइड न मिले तो वे नहीं जी सकेंगे और ऑक्सीजन न मिले तो हमारा तथा अन्य जीव-जंतुओं का जीना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए माँ प्रकृति ने हवा की ऐसी घुट्टी बनाई कि इस धरती पर जीवन पनपता रहे।

हजारों साल से प्रकृति के हिसाब से ही सब कुछ ठीक चल रहा था। जीव-जन्तु और पेड़-पौधे वायुमंडल की हवा में खूब पनपते रहे। फिर भी, कभी ज्वालामुखी फूटते और धरती पर गर्म लावा उड़ेलने के साथ-साथ आसमान में बड़े पैमाने पर धुआं उगल देते। कभी जंगलों में आग भड़क उठती और धू-धू कर जलते जंगलों की आग आसमान में काला धुआं भर देती। लेकिन, प्रकृति के लिए इस धुएं से निबटना कोई कठिन काम नहीं था। विशाल वायुमंडल में उस धुएं की कार्बन डाइऑक्साइड को खपा लेने की बड़ी गुंजाइश थी।

लेकिन, तभी आदिमानव ने बस्तियां बना कर रहना और जंगलों को काटकर, जलाकर खेती करना शुरू कर दिया। जंगल कटने लगे और सूखे, जलाए गए पेड़-पौधों का आसमान में धुआं भरने लगा। इसे भी प्रकृति ने सहन कर लिया। मगर, फिर एक दिन भाप का इंजन सामने आ खड़ा हुआ। उससे रेलगाड़ियां चलने लगीं। भाप बनाने के लिए बड़े पैमाने पर कोयला बनाया और जलाया जाने लगा। फिर धरती की कोख में छिपे कोयले और पेट्रोलियम के अकूत भंडारण का पता लग गया। वह फॉसिल फ्यूल यानी जीवाश्म ईंधन था। नए-नए प्रकार के इंजन बने और उनमें जीवाश्म ईंधन जलने लगा। इंजनों ने जीवाश्म ईंधनों का धुआं उगलना शुरू कर दिया जो सीधे वायुमंडल में जाकर उसे प्रदूषित करने लगा। इंजनों से मशीनें चलने लगीं। फैक्ट्रियां खड़ी हो गई। कल-कारखाने लग गए। उनकी चिमनियां आसमान में लगातार काला, जहरीला धुआं उगलने लगीं। बड़े पैमाने पर हवा में जहर घोलता यह धुआं स्वयं मनुष्य के कल-कारखानों, रेलगाड़ियों और सड़कों पर बढ़ती हजारों-लाखों मोटरगाड़ियों का नतीजा था।

तो, इसका नतीजा यह हुआ कि वायुमंडल में धुएं की जहरीली गैसों की मिकदार बढ़ती गई। शहरों के कदम बढ़ते गए तो जंगलों की हरियाली तिरोहित होती चली गई। लहलहाती फसलें पैदा करने वाले खेत और हरे-भरे जंगल कंक्रीट के जंगलों मं तब्दील होते गए। फल यह हुआ कि प्रकृति के तय किए गए हवा के मिश्रण का हिसाब गड़बड़ा गया। वह जीवनदायिनी घुट्टी जहरीले कणों, द्रव कणों और जहरीली गैसों से भर गई।

क्या हैं ये कण

इन कणों को पीएम कहा जाता है। यानी, पार्टिकल पॉल्यूशन। मतलब है, कण प्रदूषण। लेकिन, कण क्या हैं? ये हैं हवा में घुले-मिले ठोस कण और द्रवों की नन्हीं बुंदकियां। बड़े कणों को हम कोरी आंख से देख सकते हैं जैसे कोयला, कालिख, धूल और धुएं के कण। लेकिन, इनसे भी सूक्ष्म कणों को आंख से नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से ही देख सकते हैं।

वैज्ञानिक जब वायु प्रदूषण की बात करते हैं तो वे दो तरह के सूक्ष्म कणों का जिक्र करते हैः पी एम 10 और पी एम 2.5। इन कणों को इनके व्यास से जाना जाता है। जिन कणों का व्यास 10 माइक्रो मीटर या इससे कम होता है, वे पी एम 10 कहलाते हैं। मतलब पार्टिकुलेट मैटर 10। हम जब प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं तो ये कण हमारे फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। इनसे भी छोटे जिन कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या इससे कम होता है, वे पी एम 2.5 कणों की श्रेणी में आते हैं। ये कितने सूक्ष्म होते हैं, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि हमारे सिर के बाल का व्यास करीब 70 माइक्रोमीटर होता है! सवाल है कि ये कण बनते क्यों हैं? असल में ये वायु प्रदूषण की देन हैं और कई आकार-प्रकार के होते हैं। हमारे थर्मल पावर प्लाटों, कल-कारखानों और सड़कों पर दौड़ती लाखों मोटर-कारों से जो मैला धुआं आसमान में जाता है, यह धूल-धक्कड़ और धुएं से गुबार से आसमान में पहुँचे कणों से मिलकर प्रदूषण के कण यानी पीएम बना देता है। प्रदूषण के ये कण हवा में डोलते रहते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। ऐसी हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होती है। पीएम 10 के 10 माइक्रोमीटर या उससे छोटे कण फेफड़ों में जाकर गहरे धंस जाते हैं और खून में भी जा मिलते हैं। यह जहर हमें बीमार बना देता है। 2.5 माइक्रोमीटर व्यास के कण और भी खतरनाक हैं। ये भी फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। ये कण हवा में फैल कर गहरी धुंध भी फैला देते हैं। यह धुंध दृश्यता को कम कर देती है और हवाई यातायात के लिए परेशानियां पैदा कर देती हैं।

धुंध से दृश्यता कम होने और उसके कारण होने वाली परेशानी का एक ताजा उदाहरण सामने आया है। भारत के सर्वेयर जनरल का कहना है कि पृथ्वी के सबसे ऊंचे पहाड़ एवरेस्ट की ऊंचाई की तीसरी बार नापने की तैयारी की जा रही है। लेकिन, भारतीय सर्वेक्षक इस बार उसे नेपाल जाकर नापेंगे क्योंकि धुंध के कारण भारत से अब एवरेस्ट नहीं दिखाई देता। जबकि, पिछले दो सर्वेक्षणों में अंग्रेज तथा भारतीय सर्वेक्षकों ने बिहार में छह स्थानों से एवरेस्ट की ऊंचाई मापी थी। उसके आधार पर एवरेस्ट की औसत ऊंचाई 29,002 फुट तय की गई थी। अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपने उपग्रहों से अध्ययन करके बताया है कि भारत के वायुमंडल की निचली परतों में भारी धुंध फैल चुकी है। यह वायु प्रदूषण का परिणाम है।

यह तो हुई बात पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम की, लेकिन वे कौन से पदार्थ हैं जो हमारी हवा को प्रदूषित करके उसे जहरीली बनाते जा रहे हैं? ये हैः कार्बने डाइऑक्साइड (CO2), सल्फर ऑक्साइड(SO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड(NO2), कार्बन मोनोक्साइड (CO), उड़नशील कार्बनिक यौगिक(VOC), पर्टिकुलेट मैटर (पीएम), विषैले धातु कण, क्लोरोलुओरोकार्बन (CFC), अमोनिया (NH3), तरह-तरह की गंधें और रेडियोएक्टिव प्रदूषक पदार्थ। इनके अलावा स्मॉग और जमीनी स्तर पर मौजूद ओजोन से भी वायु प्रदूषण होता है।

वायु प्रदूषण फैलाने वाले प्रदूषक पदार्थ स्वयं मनुष्य के बनाए स्रोतों से तो फैलते ही हैं, प्राकृतिक स्रोतों से भी ये हवा में जाकर मिल जाते हैं। मनुष्य के लगाए कल-कारखानों, ताप बिजलीघरों, फैक्ट्रियों, भट्टियों, लकड़ी और कोयले से जलने वाले चूल्हों-अंगीठियों, फसल काटने के बाद बची सूखी पराली को जलाने से हवा में प्रदूषक कण पहुँच जाते हैं। इनके अलावा शहरों में दौड़ती हजारों बसों, लाखों मोटर-कारों, जलपोतों और हवाई जहाजों से भी वायु प्रदूषण फैलता है। एयरोसॉल स्प्रे, डीओ, हेयर स्प्रे, पेंट और वार्निश भी वायु प्रदूषण को बढ़ाते हैं। शहरों में जहाँ कचरा फेंका जाता है वे जगहें लैंडफिल कहलाती हैं। उनमें कचरा सड़ता रहता है और उससे मीथेन गैस पैदा होती रहती है। यह बहुत जल्दी आग पकड़ लेती है, इसलिए इससे आग का भी खतरा रहता है। इसकी मौजूदगी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। अगर बंद जगह हो तो मीथेन की मात्रा अधिक होने और ऑक्सीजन कम हो जाने के कारण दम घुटने लगता है। मनुष्य के बनाए बम, नाभिकीय बम, उपग्रहों तथा अंतरिक्षयानों को अंतरिक्ष में छोड़ने वाले शक्तिशाली राकेट, युद्ध में इस्तेमाल की जाने वाली खतरनाक विषैली गैसें और जैविक हथियार भी वायु प्रदूषण में इजाफा करते हैं।

प्राकृतिक स्रोतों से भी प्रदूषक हवा में मिलते रहते हैं, जैसे धूल, मीथेन गैस, रेडॉन गैस, जंगलों की आग से उठा धुआं और उसमें मौजूद कार्बन मोनोक्साइड। इसके अलावा दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर अचानक फूट पड़ने वाले ज्वालामुखी भी आसमान में बड़े पैमाने पर धुआं उगलते हैं।

वे तो रहे घर बाहर के प्रदूषक, लेकिन घर भीतर की हवा भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है। घर हो या ऑफिस या किसी संस्था की इमारत, उसके भीतर हवा में प्रदूषण, फैलाने वाले तरह-तरह के प्रदूषक मौजूद रहते हैं। भवन निर्माण सामग्री, कालीन और दरियां, प्लाइवुड वगैरह से फॉर्मेल्डिहाइड जैसे प्रदूषक निकलते हैं। पेंट आदी रसायनों से उड़नशील कार्बनिक, यौगिक मुक्त होते हैं। सीसे वाला पेंट सूखकर चूर्ण बन जाता है और उसके नन्हें टुकड़े हवा में मिल जाते हैं। हम घर भीतर मच्छर, तिलचट्टे या अन्य कीड़े-मकोड़े मारने के लिए जिन कीटनाशक रसायनों का छिड़काव करते हैं, उनके विषैले कण भी हवा में मिल जाते हैं। कमरे में हम जो एयर फ्रैशनर छिड़कते हैं, अगरबत्तियां जलाते हैं या चूल्हे में आग पर कुछ जलाते-भूनते हैं त उससे भी प्रदूषक कण हवा में मिल जाते हैं। कई लोग बंद कमरों में अंगीठियों में कोयला जला कर सो जाते हैं और जलते कोयले से निकली कार्बन मोनोक्साइड गैस उन्हें मौत की नींद सुला देती है। कई घरों में अब भी छत के लिए एस्बस्टस की चादरों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी धूल से सांस के रोगों के साथ-साथ फेफड़ों का कैंसर भी हो जाता है। पालतू पशुओं के बाल झड़ने से भी वायु प्रदूषण फैलता है।

आइए, एक नजर इन प्रदूषक पदार्थों पर डालें जो हमारी सांसों के खजाने यानी वायुमंडल को जहरीला बना रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड गैस को नम्बर एक प्रदूषक माना जाता है। यह हवा को तो जहरीला बनाती ही है, जलवायु में भी भारी फेर-बदल कर देती है। जलवायु परिवर्तन में इसी का सबसे बड़ा हाथ माना जाता है। अनुमान है कि हर साल करीब 3.2 अरब टन कार्बन ऑक्साइड वायुमंडल में पहुँच रही है।

औद्योगिकीकरण से पहले की तुलना में आज यह गैस 30 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ चुकी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले साढ़े छह लाख वर्षों में वायुमंडल में कभी इतनी कार्बन डाइऑक्साइड नहीं थी। औद्योगिक क्रान्ति से पहले यानी 19वीं सदी की शुरुआत में यह हवा में केवल लगभग 280 भाग प्रति दस लाख भाग थी। जितनी तेजी से हवा में इसकी मात्रा बढ़ी है, अगर यही हाल रहा तो अनुमान है कि 2050 तक वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 450 से 550 भाग प्रति दस लाख भाग तक बढ़ जाएगा। वर्तमान समय में इसका स्तर 405 भाग प्रति दस लाख भाग आंका गया है।

सल्फर के ऑक्साइड और विशेष रूप से सल्फर डाइऑक्साइड गैसे भी प्रमुख वायु प्रदूषकों में मानी जाती है। कोयले और पेट्रोलियम में सल्फर के यौगिक होते हैं। इनके जलने से सल्फर डाइऑक्साइड गैस बनती है। हमारे कल-कारखानों से बड़ी मात्रा में यह गैस निकलकर वायुमंडल में जा रही है। तेजाबी वर्षा इसी के कारण होती है। बहुत ऊंचे तापमान पर नाइट्रोजन डाइऑक्साइड गैस भी बनती है। यह वायुप्रदूषक है। यह लाल-भूरे रंग की विषैली गैस होती है। लेकिन, वायु को प्रदूषित करने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड का न कोई रंग होता है और न उसमें कोई गंध होती है। इसीलिए कोयले की अंगीठी से निकलकर यह बंद कमरे में चुपचाप किसी को मौत की नींद सुला देती है। बसों, ट्रकों और मोटर कारों के धुएं में यह खूब निकलती है और हवा में मिल जाती है।

क्लोरोफ्लोओरो कार्बन यानी सीएफसी ऐसे हानिकारक प्रदूषक हैं जो एयरकंडीशनरों, रेफ्ररीजरेटरों और एयरोसॉल स्प्रे में निकल कर हवा में मिल जाते हैं। हवा में ऊपर उठते-उठते ये प्रदूषक ओजोन की परत तक पहुँच जाते हैं। वहाँ इनसे ओजोन की परत को भारी नुकसान होता है। ओजोन की परत में छेद का मुख्य कारण यही प्रदूषक हैं। इनके अलावा अमोनिया गैस भी वायु में प्रदूषण फैलाती है। इसी तरह कूड़े-कचरे, सीवेज और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली दुर्गंध भी वायु को प्रदूषित करती हैं।

स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है वायु प्रदूषण। इससे हमें सांस के रोग हो सकते हैं, दिल का दौरा पड़ सकता है और फेफड़ों का कैंसर हो सकता है। वायु प्रदूषण अधिक होने पर खांसी, कफ, छींके आना, सांस लेने में कठिनाई और अस्थमा तक कि शिकायत हो सकती है। राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषित माहौल में इसीलिए डॉक्टर राय देते रहते हैं कि सुबह-शाम की सैर से लाभ के बजाय हानि अधिक हो सकती है। ऐसा प्रदूषित माहौल बुर्जुर्गो और पांच वर्ष की उम्र तक के बच्चों के लिए विशेष रूप से नुकसानदेह हो सकता है। वायु प्रदूषण क्रोनिक ब्रोकाइटिस और एम्फिसीमा रोग का कारण माना जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में दीपावली के त्योहार के दौरान इतने बड़े पैमाने पर पटाखे और आतिशबाजी छोड़ी जाती है कि आसमान बुरी तरह धुएं से भर जाता है और अस्पतालों में उन दिनों बिस्तरों की संख्या बढ़ा दी जाती है।

वायु प्रदूषण से हृदय और धमिनियों के रोग भी बढ़ जाते हैं। पता लगा है कि पीएम 2.5 की बहुलता वाले माहौल में लम्बे समय तक रहने पर फेफड़े और हृदय रोगों के मामले बढ़ जाते हैं। इन अति सूक्ष्म कणों का दिल के दौरे से सम्बन्ध पाया गया है। इसी तरह नाइट्रोजन ऑक्साइड की बहुलता वाले माहौल में अधिक रहने पर फेफड़ों के कैंसर का खतरा अधिक होता है। वायु प्रदूषण से दिमाग और स्नायुतंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है।

प्रदूषित शहर

इतने गम्भीर खतरे, फिर भी हमारे शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की सूचना के अनुसार सन 2018 में विश्व के 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 13 प्रदूषित शहर हमारे देश में थे। कानपुर विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में प्रथम स्थान पर रहा। पार्टिकुलेट कणों के हिसाब से इसके बाद सबसे प्रदूषित शहर रहे- फरीदाबाद, गया, वाराणसी, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, गुड़गांव, मुजफरपुर, जयपुर, पटियाला और जोधपुर। अक्टूबर 2019 तक गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश शहरों में सर्वोच्च स्थान पर पहुँच गया।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में भारत प्रथम स्थान पर रहा। अगले सात स्थानों पर भी भारत के ही शहर रहे। आठवें स्थान पर कैमरून, बारहवे-तेरहवें स्थान पर पेशावर तथा रावलपिंडि

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले शहरों में भारत प्रथम स्थान पर रहा। अगले सात स्थानों पर भी भारत के ही शहर रहे। आठवें स्थान पर कैमरून, बारहवे-तेरहवें स्थान पर पेशावर तथा रावलपिंडि (पाकिस्तान), पद्रहवें स्थान पर यूगांडा, अठारहवें स्थान पर बांग्ला देश, फिर चीन और कतर रहे। ये स्थान हवा में पीएम 10 की मात्रा 2.5 माइक्रोग्राम प्रति मिलीलीटर वर्ग के रेंज में पाई गई। यों, अगर पूरे देश पर विचार किया जाए तो उत्तरी भारत में वायु प्रदूषण बहुत अधिक पाया गया है। उपग्रहों और भूमि पर स्थित निगरानी केन्द्रों आदि के सर्वेक्षणों से यह नतीजा निकला है कि वायु प्रदूषण से भारत में हर साल लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती है। अनुमान है कि वर्ष 2018 में विश्व में वायु प्रदूषण के कारण लगभग 70 लाख लोग मौत के शिकार हुए।

पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था ग्रीनपीस इंडिया ने वायु प्रदूषण को भारत की राष्ट्रीय समस्या बताया है। वैश्विक वायु प्रदूषण के एक अध्ययन से पता चला है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत में हर साल लगभग 10.10 लाख से अधिक लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। वर्ष 2017 में वायु प्रदूषण के कारण 12 लाख 40 हजार लोगों की मृत्यु हुई। अब तक चीन में वायु प्रदूषण के कारण मरने वालों की संख्या विश्व में सबसे अधिक थी, लेकिन, भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण के हालात शायद इस मामले में चीन को पीछे छोड़ देंगे। उक्त अध्ययन के अनुसार वर्ष 1990 से 2015 के दौरान वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु दर में 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इतनी ही नहीं, देश में औद्योगिकरण जितना ही अधिक बढ़ रहा है, वायु प्रदूषण में भी उतना ही इजाफा होता जा रहा है। इसलिए भारत को वायु प्रदूषण में कमी करने के लिए ठोस नीतिगत निर्णय लेने होंगे और इससे सम्बन्धित कानूनों का सख्ती से पालन कराना होगा।

एक और चिन्ता का विषय यह है कि भारत में ओजोन प्रदूषण और इसके कारण पैदा हुए सांस के रोगों के कारण अकाल मृत्यु की दर बढ़ रही है। फरवरी 2014 में जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2017 रिपोर्ट के अनुसार ओजोन तथा इससे जनित सांस के रोगों से विश्व भर में लगभग 2.54 लाख मौतें हुई हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व की 92 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में जी रही है।

हमारे आस-पास ओजोन का स्तर बढ़ने का मुख्य कारण है तापमान का बढ़ते जाना। होता यह है कि लाखों मोटर-कारों से धुएं और उसमें मौजूद हाइड्रोकार्बन रसायनों के कारण तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक हो जाता है। हवा में मौजूद गैसें इस ऊंचे तापमान पर आपस में क्रिया करके ओजोन गैस बनाने लगती हैं। दिल्ली में इसका स्तर 300 एक्यूआई यानी एयर क्वालिटी इंडैक्स तक मापा गया है जबकि इसे 100 एक्यूआई से अधिक नहीं होना चाहिए।

वायु प्रदूषण के खतरे इतने, लेकिन इसमें कमी कैसे की जाए? पहली बात तो यह कि हमें स्वीकार करना चाहिए कि इस निराले ग्रह के वायुमंडल को प्रदूषित करने में सबसे बड़ा हाथ स्वयं हम मनुष्यों का है। हमने इसे इतना प्रदूषित कर दिया है कि इसमें सांस तक लेना दूभर हो गया है। वर्ष 2016 की दीपावली के बाद काफी समय तक आसमान बुरी तरह धुंध से ढका रहा। तब कुछ अन्य देशों की तरह राजधानी दिल्ली में भी सप्ताह के विभिन्न दिनों में सम और विषम नम्बर की कारें चलाने का प्रयोग किया गया। नवम्बर 2019 में यह प्रयोग फिर दोहराया गया। पड़ोसी देश चीन के लिए कहा जाता है कि वहाँ कई दिन हवा में इतना प्रदूषण हो जाता है कि उसमें सांस लेने वाले व्यक्ति को एक दिन में 60 सिगरेट पीने वाले व्यक्ति के बराबर नुकसान होता है। हमारे प्रदूषित शहरों में भी हालात बेहतर नहीं हैं।

वायु प्रदूषण में कमी करने के लिए सबसे पहले तो हमें कड़ा कानून बनाकर सड़कों पर दौड़ती मोटर-कारों के धुएं में कमी करनी होगी। इसके लिए कारगर तरीके अपनाने होंगे। इसके अलावा जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को भी कम करना होगा। वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना होगा। प्रकृति ने हवा को स्वच्छ बनाए रखने के लिए धरती पर हरियाली बढ़ाई। लेकिन, हम विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर जगंलों का सफाया करते जा रहे हैं। कभी घर-आंगन में नीम की छांव होती थी। पीपल, बरगद और अमराइयां गांव-कस्बे की पहचान होती थी। सड़कों और राजमार्गों के किनारे घने, छायादार पेड़ लगाए जाते थे। हमें फिर पेड़ों से प्यार करना होगा और यह महसूस करना होगा कि वे हमें हमारी सांसें देते हैं। अस्पताल के बिस्तर पर वेंटिलेटर से ऑक्सीजन लेते हुए यह याद आए तो क्या लाभ? बल्कि, घर भीतर और घर की बगिया या बालकनी में भी पौधे लगाएं। घर के भीतर धुआं न फैलाएं और न धूम्रपालन करें।

शहरों में आस-पास खेतों में फसल की कटाई के बाद बची पराली को आग न लगाएं। उस धुएं से आसमान में प्रदूषण फैलाने वाले कण फैल जाते हैं जिनसे आस-पास के शहर की हवा प्रदूषित हो जाती है। दिल्ली में इस कारण वायु प्रदूषण गम्भीर समस्या बनता जा रहा है। मतलब यह कि अगर सावधानी बरती जाए तो वायु प्रदूषण के खतरों में कमी की जा सकती है।

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