जैविक प्रचुरता और प्रतिनिधित्व

24 Jan 2019
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Palm tree
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केन्द्रीय विषय वस्तु को छूने से पूर्व, हमारा प्रयास विषय की गहनता व वैश्विक स्वीकार्यता का एक परिचय कराने का रहेगा। कोशिश यह भी रहेगी कि चयनित क्षेत्र की बात करने से पूर्व हम हिमालय, जिसका छोटा सा प्रतिनिधि क्षेत्र है पिथौरागढ़-चम्पावत, के सन्दर्भ में इस विषय वस्तु की झलक देखें।

विगत कुछ दशकों में, खासकर 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के पश्चात, पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास के मुद्दों पर एक व्यापक सोच व सहमति कायम करने में जैव विविधता विषय एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है। इसे क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं के निदान हेतु बनने वाली नीतियों व कार्य योजनाओं में सम्मिलित किया जाने लगा है। परिणाम स्वरूप विश्वव्यापी परामर्श से विकसित सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत जैव विविधता से जुड़े संकेतकों को विकास के संकेतकों से जोड़ा गया। ये सभी तथ्य जैव विविधता की व्यापक भूमिका को दर्शाते हैं।

जैव विविधता-क्रमिक विकास

वर्तमान में मौजूद जैव विविधता लाखों वर्षों के क्रम-विकास का परिणाम है और पृथ्वी की जैविक सम्पूर्णता का द्योतक भी। इस विषय को समझने के दृष्टिकोण में बदलाव आते रहे हैं, परन्तु बहुधा जैव विविधता को जीवों की भिन्नता के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। तथापि इसके आयामों व जटिलताओं को परिभाषा में समाहित किये जाने पर निरन्तर जोर दिया जाता रहा है।

इसी क्रम में विश्व जैव विविधता नीति (1992) में जैव विविधता को संक्षिप्त परन्तु समग्रता के साथ यों परिभाषित किया गया-जैव विविधता किसी क्षेत्र की आनुवंशिक, प्रजातीय तथा पारितंत्रीय विविधता का समुच्चय है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार-जैव विविधता, जीव धारियों एवं उन जटिल पारिस्थितिक तंत्रों की भिन्नता है जिसमें वे पाए जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जैव विविधता को समझने या समझाने के लिये हमें जीवन के विभिन्न स्तरों, आनुवंशिक से पारिस्थितिक का ज्ञान रखना होगा। यदि हम ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो हमें जीवन की जटिलता का अहसास खुद-ब-खुद होने लगता है। जैव विविधता विषय पर ज्ञान बढ़ने के साथ ही अधिकांश लोग अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि यह न केवल सांसारिक वैभव का पर्याय है, वरन सौन्दर्य का अनन्त भण्डार भी है। यहाँ तक कि अब विश्व स्तर पर जैव विविधता को विकास व समृद्धि का इंजन तथा इसमें आने वाले ह्रास को गरीबी व भुखमरी का कारक माना जाने लगा है। मुख्यतः विकासशील देश, जो कि जैव विविधता से समृद्ध हैं, अपने इस भण्डार पर विकास की दौड़ में निरन्तर आगे बढ़ने हेतु आशा लगाए बैठे हैं।

जैव विविधता के अन्तर्गत विभिन्न पादप प्रजातियाँ, जीव जन्तु, सूक्ष्म एक-कोशिकीय जीव इत्यादि सम्मिलित हैं जो जल, थल एवं वायु में निवास करते हैं। जीवधारियों का परस्पर भिन्न, पृथक एवं असमान होने का यह गुण ही जैव विविधता का मूल है। यह एक ऐसा विशाल एवं विलक्षण विषय है जिसके अनेकानेक रूप हैं। विषय विशेषज्ञों का मानना है कि हम जितना इस विषय को जानते हैं उससे कहीं अधिक अभी हमें जानना है। विविधता को तीन स्तरों में समझा जाता है। 1. पारिस्थितिक विविधता, 2. प्रजातीय विविधता, 3. आनुवंशिक विविधता। अतः किसी स्थान विशेष अथवा भौगोलिक क्षेत्र की जैव विविधता की पूर्णता का ज्ञान तभी हो सकेगा जब हम इन तीनों स्तरों को भली-भाँति समझ पाएँगे।

विकास का आधार स्तम्भ

क्रम विकास से अभिप्राय विकास के साथ हुए परिवर्तनों को प्रदर्शित करना है। जीव जातियों के लक्षणों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। हजारों-लाखों वर्षों में यही परिवर्तन एक जाति से नई और अधिक संगठित एवं जटिल जातियों के विकास का कारण बनते हैं। जैसे मानव सभ्यता के आरम्भ में सम्भवतः धान व मक्का की प्रजातियाँ एक जंगली पौधे से अधिक कुछ नहीं रही होंगी। जिसे एक दिन आदिमानव ने खाना आरम्भ कर दिया और सुविधा के लिये इनकी खेती करने लगा। धीरे-धीरे उसने इन पौधों के गुणों व अवगुणों को परखा और चुने हुए बीजों को ही बोने लगा। इन बीजों से बने धान व मक्के की उन्नत नस्ल के पौधों का संकरण कर उसने अनेक उपजातियों को खोज निकाला। यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है।

यह मानने में हमें कदापि संकोच नहीं करना चाहिए कि धरती पर मानव सभ्यता सदैव ही प्रकृति व उसमें उपलब्ध जैव विविधता पर निर्भर रही है। जंगली प्रजातियों की खेती से बनी फसलें ही आज की कृषि का आधार हैं। वन्य स्थानों से एकत्रित आनुवंशिक संसाधनों ने ही वर्तमान मानव सभ्यता को भोजन, चारा, औषधि एवं अनेक उद्योगों के लिये सामग्री मुहैया कराई है।

जैव विविधता मानव स्वास्थ्य तथा समृद्धि हेतु एक सशक्त कारक है। जोहान्सबर्ग (2002) सम्मेलन में इसे समग्र विकास व गरीबी उन्मूलन हेतु महत्त्वपूर्ण कारक तथा पृथ्वी के ऐसे अवयव के रूप में स्वीकारा गया जो मनुष्य की उन्नति व सांस्कृतिक अक्षुण्णता का द्योतक है। दूसरे शब्दों में जैव विविधता का महत्व आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के अतिरिक्त ऐसी सेवाओं के रूप में भी है जो कि मानव जीवन का अवलम्ब हैं और सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सन्तुष्टि देती हैं। यद्यपि इसका मौद्रिक महत्व ज्ञात करना जटिल है तथा इसकी विधियाँ भी विवादों से परे नहीं हैं। तथापि यह कहना उचित ही होगा कि जैव विविधता के बगैर आर्थिक उन्नति अकल्पनीय है। उदाहरणार्थ आनुवंशिक स्तर पर प्राकृतिक रूप से विद्यमान भिन्नता पादप प्रजनन कार्यक्रम का आधार बनती है और परिमार्जित फसलों व अधिक उपज की कृषि का कारक बन अन्न सुरक्षा प्रदान करती है। इसी प्रकार प्राकृतिक वास तथा पारितंत्र ऐसी सेवाएँ देते हैं, जैसे पानी का प्रवाह, भू-क्षरण रोकना जो मानव को प्राकृतिक त्रासदियों से रक्षा के साथ उसके जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।

इन सबके बावजूद वैश्विक जैव विविधता की स्थिति से जुड़े भयावह तथ्य जैव विविधता सन्धि सचिवालय की एक रपट में परिलक्षित होते हैं। इसके अनुसार – पिछले सौ वर्षें में प्रजातियों का विलुप्तीकरण लगभग 1000 गुना बढ़ा है। ज्ञात संख्या से 20 प्रतिशत पक्षी लुप्त हो चुके हैं। लगभग 41 प्रतिशत स्तनधारियों की जनसंख्या घट रही है व 28 प्रतिशत प्रत्यक्षतः खतरे में हैं। अभी हाल तक पृथ्वी की सतह का 47 प्रतिशत वन आच्छादित था। परन्तु आज करीब 25 देशों से ये पूर्णतः समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा 29 राष्ट्रों में लगभग 90 प्रतिशत वन क्षेत्र घट चुका है। कैरेबियन द्वीप में सामान्य ठोस-कोरल क्षेत्र >50 प्रतिशत पिछले तीन दशकों में कम हुआ है। यहाँ तक कि 35 प्रतिशत मैंग्रोव पिछले 20 वर्षों में समाप्त हो चुके हैं।

सतत विकास का अभिप्राय हमारी आज की आवश्यकता की आपूर्ति बिना भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की पूर्ति में बाधक बने प्राप्त हो। यदि इसको वैश्वीकरण की वर्तमान परिस्थितियों में रखा जाय तो सतत विकास आर्थिक, सामाजिक व पारिस्थितिक विकास के स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व विश्व स्तर पर परस्पर निर्भर सम्बन्धों का युग्मन है। विश्व शिखर सम्मेलन (2002) में जल, ऊर्जा, कृषि व जैव विविधता को जीवन की आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है। ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्य’ की प्राप्ति में जैव विविधता के महत्व को वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया गया है। इन लक्ष्यों को विश्व ने ऐसे समय में अंगीकार किया है जबकि आर्थिक विकास, तकनीकी उन्नति व वैज्ञानिक प्रगति की गति अकल्पनीय है। साथ ही ऐसी परिस्थितियाँ बन पड़ी हैं कि मानव आज अपनी जैविक आवश्यकताओं से लगभग 20 प्रतिशत अधिक उपभोग कर रहा है। आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं।

यह बात भी उजागर हो चुकी है कि यदि विश्व में सभी का जीवन स्तर एक आम ब्रिटिश नागरिक की तरह हो जाए तो हमें पृथ्वी से लगभग साढ़े तीन गुना बड़ी पृथ्वी की आवश्यकता पड़ेगी। यदि हम सभी एक आम अमरीकी के समान जैविक संसाधनों का उपयोग करना चाहें तो पृथ्वी का आकार लगभग 5 गुना बढ़ाना पड़ेगा। अतः तय है कि बदलती उपभोगवादी संस्कृति के तहत मनुष्य पृथ्वी की क्षमता से कहीं अधिक इसका उपभोग करने जा रहा है। इससे पारिस्थितिक तंत्र को अपूरणीय क्षति पहुँचनी निश्चित है। अभिप्राय यह है कि मुकाबले की रणनीतियों, यदि कोई हो, में हमें व्यक्तिगत स्तर से लेकर विश्व स्तर तक भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य, खासतौर पर-1, गरीबी उन्मूलन व भुखमरी कम करने के संकल्प को लिये हैं, जो सीधे जैविक संसाधनों के उपयोग से जुड़ा है।

संवेदनशील पर्वतीय पारितंत्र

विगत वर्षों में जैव विविधता के उपयोग व संरक्षण की बन रही विश्व नीतियों के केन्द्र में पर्वतीय पारितंत्र रहे हैं। इन पारितंत्रों की विशेषताओं एवं जीवन सहायक मूल्यों को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है। इनको विकास कार्यक्रमों से अत्यन्त गहनता के साथ जोड़ा जाने लगा है। साथ ही इन पारितंत्रों की भंगुरता व इनकी मानव व जलवायुविक परिवर्तनों के प्रति संवेदनशीलता इन तंत्रों के महत्व को बढ़ाती है।

मानव जीवन के सहायक तंत्र के रूप में एक उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है- विश्व की 80 प्रतिशत भोजन की आवश्यकता पूर्ति हेतु उत्तरदायी 20 पादप प्रजातियों में से 6 की उत्पत्ति पर्वतीय क्षेत्रों में हुई है। इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करते हैं जहाँ पर अत्यन्त संवेदी जैव विविधता घटक जैसे-स्थानिक संकटग्रस्त व बहुमूल्य साथ-साथ रह सकते हैं।

प्रतिनिधित्व, बहुलता व संवेदनशीलता के गुण तथा विस्तृत जीवन सहायक मूल्य के आधार पर हिमालय को राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु प्राथमिक क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है। कंजर्वेशन इंटरनेशनल 2007, की रपट के अनुसार सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र को विश्व में चिन्हित 34 ‘जैव विविधता हॉट स्पॉट’ में स्थान दिया गया है। इस क्षेत्र की जैव विविधता की प्रचुरता व विशिष्टता को तालिका 1 में दर्शाया गया है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में, जो कि सम्पूर्ण हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा बनाता है, जैव विविधता प्रतिनिधित्व का भारत के सापेक्ष विवरण तालिका 2 में दिया गया है। इससे हमें एक अन्दाज मिलता है कि हिमालय क्षेत्र जैव विविधता के दृष्टिकोण से कितना महत्त्वपूर्ण है।

पिथौरागढ़-चम्पावत : एक परिप्रेक्ष्य

हिमालय की जैव विविधता की एक झलक और इसके वैश्विक महत्व को समझने के पश्चात, अब हम कोशिश करते हैं एक प्रतिनिधि क्षेत्र के रूप में पिथौरागढ़ की जैव विविधता के विविध पहलुओं को समझने की। इस क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार, सीमाएँ, जलवायुविक, सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ व अनेक अन्य आवश्यक जानकारियाँ इस अंक के विभिन्न लेखों में दी गई हैं। अतः इन विषयों पर न जाकर हम सीधे यहाँ के जैव विविधता के विविध आयामों को समझने का प्रयास करेंगे।

अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति (पूर्वी व पश्चिमी हिमालय के ‘ट्रांजिशन’ क्षेत्र के कारण लक्षित क्षेत्र का जैव-भौगोलिक महत्व सभी को विदित है। साथ ही अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं (चीन-तिब्बत तथा नेपाल) की अवस्थिति इसे सामरिक व सामाजिक दृष्टिकोण से भी संवेदनशील बना देती है। यह क्षेत्र सुदूर दक्षिण पूर्व के शिवालिक क्षेत्रों की उप उष्ण कटिबन्धीय परिस्थितियों से लेकर उत्तर-पश्चिम की उच्च शिखरीय जलवायु के मध्य अनेक छोटे-बड़े जलवायुविक एवं पारिस्थितिक परिवर्तनों को दर्शाता है। जैव-भौगोलिक दृष्टि से देखा जाय तो यह वास्तव में सम्पूर्ण हिमालय का प्रतिनिधि क्षेत्र बनने का हक रखता है।

 

तालिका – 1 : हिमालय में जैव विविधता – प्रचुरता व स्थानिकता

समूह (Group)

प्रजातियाँ (Species)

स्थानिक प्रजातियाँ (Endemic species)

स्थानिकता (Endemism)

पादप

10,000

3,160

31.6

स्तनधारी

300

12

4.0

पक्षी

977

15

1.5

सरीसृप

176

48

27.3

उभयचर

105

42

40.0

शुद्ध जल की मछलियाँ

269

33

12.3

स्रोत : कंजर्वेशन इण्टरनेशनल 2007 : (http://www.biodiversityhotspots.org)

 

 

तालिका 2 : भारतीय हिमालय में वानस्पतिक विविधता का भारत सापेक्ष प्रतिनिधित्व

स्तर

प्रतिनिधित्व

स्रोत

कुल संख्या

भारत का प्रतिशत

इकोरीजन (Ecoregions)

16

-

यूएनडीपी-डब्लू.डब्लू.एफ. (1998)

समुदाय (Communities)

   

वनस्पति प्रकार (Vegetation type)

21

-

स्वाइनफूर्थ (1957)

वन प्रकार (Forest types)

 

10

26 चम्पियन एवं सेठ (1968)

फॉर्मेशन प्रकार (Formation types)

11

-

सिंह एवं सिंह (1987)

प्रजातियाँ (Species)

   

एन्जियोस्पर्म (Angiosperms)

8000

47

सिंह एवं हाजरा (1996)

जिम्नोस्पर्म (Gymnosperms)

44

81

 

टेरिडोफाइट्स (Pteridophytes)

600

59

 

ब्रायोफाइट्स (Bryophytes)

1737

61

 

लाईकेन्स (Lichens)

1159

59

 

फंजाइ (Fungi)

6900

53

 

मेमल्स (Mammals)

241

65

घोष (1997)

बर्ड्स (Birds)

528

43

 

रैप्टाइल्स (Reptiles)

149

35

 

एम्फिबियन्स (Amphibians)

74

36

 

फिशेज (Fishes)

218

17

 

विशेष समूह (Special Groups)

   

औषधीय पादप (Medicinal Plants)

1748

23

सामन्त इत्यादि (1998)

जंगली खाद्य पादप (Wild edible plants)

675

67

सामन्त एवं धर (1997)

वृक्ष (Trees)

723

28

पुरोहित एवं धर (1997)

 

भारतीय हिमालय क्षेत्र की जैव विविधता के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नवत हैं:

1. भारतवर्ष के 8 कृषि विविध उपकेन्द्रों में से 3 (पश्चिमी हिमालय, पूर्वी हिमालय तथा उत्तर-पूर्व भारतीय क्षेत्र) यहीं पर हैं।
2. यहाँ पर स्थानिक प्रजातियों की प्रचुरता है।

 

तालिका 3 : भारतीय हिमालय में पादप समूहों में स्थानिकता

स्थानिकता

संख्या/प्रतिशत

वंश आधारित

भारत में

141

हिमालय

68

प्रजाति आधारित

 

एन्जियोस्पर्म

40 प्रतिशत

जिम्नोस्पर्म

16 प्रतिशत

टेरिडोफाइट्स

25 प्रतिशत

ब्रायोफाइट्स

32 प्रतिशत

 

1. यह क्षेत्र औषधीय पौधों की विविधता हेतु महत्त्वपूर्ण है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 1750 पादप प्रजातियाँ औषधीय उपयोग में प्रयुक्त होती हैं। इनमें से अनेक प्रजातियाँ स्थानिक हैं।
2. हिमालय में विविधता से भरा एक समूह है जंगली खाद्य पादपों का। सम्पूर्ण भारतीय हिमालय में लगभग 675 ऐसी पौधों की प्रजातियाँ हैं जो कि किसी-न-किसी रूप में खायी जा सकती हैं।

 

तालिका 4 : जंगली खाद्य पौधों की ज्ञात विविधता

जैव भौगोलिक क्षेत्र

प्रजाति संख्या (प्रतिशत)

प्रदेश/उपक्षेत्र

प्रजाति संख्या (प्रतिशत)

ट्रांस, उत्तर पश्चिम हिमालय

169 (25.0)

जम्मू व कश्मीर

132 (19.6)

हिमाचल

94 (13.9)

पश्चिम हिमालय

344 (50.9)

कुमाऊँ

344 (50.9)

गढ़वाल

176 (26.1)

मध्य हिमालय

173 (25.6)

सिक्किम-दार्जलिंग

173 (25.6)

पूर्वी हिमालय

221 (32.7)

अरुणाचल प्रदेश

221 (32.7)

स्रोत : सामन्त, धर एवं रावल (2001)

 

हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र से प्राप्त सेवाओं का मूल्य अकल्पनीय है। इसका अन्दाजा लीड इंडिया (2007) के एक अध्ययन से लगाया जा सकता है। अध्ययन के अनुसार उत्तराखण्ड के वनों की पारिस्थितिक सेवाओं का वार्षिक मूल्य यू.एस. डॉलर 1150 प्रति हेक्टेयर के बराबर आंका गया है। इसका मतलब हुआ कि उत्तराखण्ड के वनों की सेवाओं का कुल वार्षिक मूल्य लगभग रुपए 107 खरब होगा। इसी कारण योजना आयोग भारत सरकार द्वारा पर्वतीय पारितंत्र हेतु गठित टास्क फोर्स ने हिमालय से मिल रही सेवाओं की गणना 11वीं पंचवर्षीय योजना में किये जाने व समुचित मुआवजे की व्यवस्था पर्वतीय क्षेत्र, विशेषकर हिमालय के लिये किये जाने पर जोर दिया है।

वानस्पतिक विविधता- सामुदायिक भिन्नता

भौगोलिक परिस्थितियों में भिन्नता तथा इसके परिणामस्वरूप जलवायु में परिवर्तन के कारण इस क्षेत्र में विविध वानस्पतिक समुदायों की बहुलता है। अध्ययन की सरलता हेतु वनस्पति समुदायों की विविधता को सामन्त (1997) ने 4 जलवायुविक वन प्रकारों में समायोजित किया है।

1. उप उष्ण कटिबन्ध (सब ट्रॉपिकल) वन

बहुधा समुद्र सतह से 300 से 1800 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाले इन वनों में मुख्यतया साल (शोरिया रोबुस्टा), चीड़-पाइन (पाइनस रोक्सवार्घाई), फलियाट ओक (क्वेरकस ग्लौंका), मवा (ऐन्जलहार्डिया स्पीकाटा), रामल (मैकेरंगा पुस्चुलाटा), मिश्रित और चीड़-पाइन एवं बांज-ओक (क्वेरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा) मिश्रित समुदाय पाए जाते हैं। इन समुदायों में पायी जाने वाली प्रमुख प्रजातियाँ निम्नवत हैं-

(अ) साल (शोरिया रोबुस्टा) समुदाय : यह ग्रीष्म कालीन पतझड़ वाले समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। इस समुदाय की मुख्य प्रजातियाँ भिलाऊ (सेमीकार्पस अनाकार्डियम), हल्दू (अडिना कार्डिर्फोलिया), रून (मैलोटस फिलिनेनसिस), डायोसपाइरोस मोन्टाना, अल्बीजिया प्रोसरा, साइजाइजियम फ्रोन्डोसम, अलस्टोनिया स्कोलरिस, हेनिया ट्रइजूगा, विसचोफिया जैवेनिका, मधुका लोंगीफोलिया, केसिया फिस्टुला, टेक्टोना ग्रेन्डिस, अहरेसिया अकुमिनाटा, जीजाइफस मौरीसियाना, बौहिनिया बैहलाइ इत्यादि हैं।

(ब) चीड़-पाइन (पाइनस रोक्सवार्धाई) समुदाय : मुख्यतः सूखे दक्षिणी ढलानों में पाए जाने वाले ये समुदाय अत्यन्त फैलाव लिये हैं। इम्बलिका ओफिसिलेलिस, साइजाइजियम क्यूमिनि, माइरिका ऐस्कुलेन्टा, कैसीरिया इलिप्टिका, पाइरस पैसिया, लायोनिया ओवेलिफोलिया, बुजिनिया बुजीनेनसिस, बोहमेरिया रूगुलोसा, डलबरजिया सेरिसिया, ऐन्जेलहार्डिया स्पीकाटा एवं ल्यूकोमेरिस स्पेक्टैबलिस इस वन में उगने वाली प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(स) मवा, विजयसाल (ऐन्जेलहार्डिया स्पीकाटा) समुदाय : मुख्यतया छायादार तथा नम स्थानों, नदी के किनारों और पानी के स्रोतों के आस-पास 800 मीटर से 1500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियों में डलबरजिया सेरिसिया, सैपियम इनसिगनी, साइजाइजियम क्यूमिनी, मैलाटस फिलीपेनसिस, पाइरैकैन्था क्रेनुलाटा और मीजा इन्डिका हैं।

(द) रामल (मैकेरंगा पुस्चुलाटा) समुदाय : मुख्यतया भू-स्खलन वाले क्षेत्रों तथा नदी के किनारों में पाए जाते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ मैलोटस फिलीपेनसिस, टूना सिलिएटा, मीजा इन्डिका, कैलीकार्पा मैक्रोफिल्ला तथा ऐन्जेलहार्डिया स्पीकाटा हैं।

(य) मिश्रित समुदाय : स्टर्कुलिया पैलेन्स, कैसीरिया इलिप्टिका, गरूगा पिन्नाटा, वुजिनिया वुजीनेनसिस, ग्लौचिडियोन वेलुटिनम, डलवर्जिया सेरिसिया, ऐन्जेलहार्डिया स्पीकाटा, मैकेरंगा पुस्चुलाटा, बेन्डलेंडिया ऐक्सर्टा, फोबी लेनसियोलाटा, मैलोटस फिलीपेनसिस, ब्राईडेलिया मोनटाना, बौहिनिया बैरीगाटा तथा अन्टिडेस्मा एसिडम इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं। मुख्यतः नदी के किनारों, गधेरों या पथरीले ढालों पर ये समुदाय मिलते हैं।

(र) फलियाट ओक (क्वेरकस ग्लौका) समुदाय : मुख्यतया छायादार, नम स्थानों तथा नदी के किनारों में समुद्र सतह से 1500 मीटर ऊँचाई तक पाया जाता है। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ पाइरस पैसिया, जाइलोज्मा लोंगीफोलिया, इम्बलिका औफिसिनेलिस, कैलीकार्पा आर्बोरिया, रूबस इलिप्टिकस, मिरसिन अफ्रीकाना तथा जीरोम्फिस स्पाइनोसा हैं।

(ल) चीड़ पाइन (पाइनस रोक्सवार्घाई) एवं बांज ओक (क्वेरकस ल्यूकोट्राइकाफोरा) मिश्रित समुदाय : यह समुदाय मुख्यतया 1500 से 1800 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। माइरिका एस्कुलेन्टा, टर्मिनेलिया चीबुला, कास्टेनोप्सिस ट्राइबुलोइडिस, ग्लौचिडियोन बेलुटिनम, रस वालीचाई, पाइरस पैसिया, साइजाइजियम क्यूमिनि और रोडोडेन्ड्रान आर्वोरियम इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

पिथौरागढ़ में जन्तु प्रजातियों की विविध आवासों में प्रचुरतापिथौरागढ़ में जन्तु प्रजातियों की विविध आवासों में प्रचुरता 2 – समशीतोष्ण (टेम्प्रेट) कटिबन्ध वन

समुद्र सतह से 1500 से 2800 मीटर की ऊँचाई के मध्य अवस्थित ये वन मुख्यतः देवदार (सीड्रस देवदार), पांगर (ऐस्कुलस इन्डिका), अमियस (हिप्पोफी सैलिसिफोसिया), उतीस (अलनस नेपालेनसिस), कैल (पाइनस वालीचियाना), बाँज ओक (क्वेरकस ल्यूकोट्राइकाफोरा), रियांज ओक (क्वेरकस लेनुजिनोसा) तथा तिलौंज ओक (क्वेरकस फलारिबन्डा) के समुदायों के रूप में मिलते हैं। इन समुदायों की प्रमुख प्रजातियों का उल्लेख निम्न है-

(अ) देवदार (सीड्रस देवदार) समुदाय : 1600 से 2200 मीटर के मध्य मिलने वाले इन समुदायों में प्रमुख प्रजातियाँ पाइरस पैसिया, रूबस इलिप्टिकस, पाइरैकैन्था क्रेनुलाटा तथा बरबेरिस एसियाटिका हैं।

(ब) उतीस (अलनस नेपालेनसिस) समुदाय : मुख्यतया 1400 से 2200 मीटर के मध्य पाए जाते हैं। परन्तु कहीं-कहीं पर 1000 मीटर की ऊँचाई तक भी पाए जाते हैं। डलबर्जिया सेरिसिया, बेटुला अलनोइडिस, ऐसर ओबलोंगम, मेटीनस रूफा, कोरियरिया नेपालेनसिस, पाइरैकैन्था क्रेनुलाटा तथा रूबस इलिप्टीकस इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(स) पांगर (ऐस्कुलस इन्डिका) समुदाय : छायादार एवं नम स्थानों में मुख्यतः 2000 मीटर से 2500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ बेटुला अलनोइडिस, जुगलेन्स रेजिया, लिटसिया अम्ब्रोसा, लिन्डेरा पुलचिरिमा तथा रस पंजाबेनसिस हैं।

(द) कैल (पाइनस वालीचाना) समुदाय : मुख्यतया 2400 मीटर से 2800 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। कहीं-कहीं पर ये समुदाय 1500 मीटर की ऊँचाई तक भी पाए जाते हैं। पोपुलस सिलिएटा, अबिलिया ट्राइफलोरा, रेमनस विरगेटस तथा ऐसर कैपैडोसिकम इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(य) अमियस (हिप्पोफी सैलिसिफोलिया) समुदाय : ये समुदाय 2000 मीटर से 2800 मीटर की ऊँचाई तक नदी के किनारों तथा भू-स्खलन वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। बेटुला अलनाइडिस, पोपुलस सिलिएटा, फिलएडेल्कस, टोमेन्टोसस तथा पिपटेन्थस नेपालेनसिस इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(र) बांज-ओक (क्वेरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा) समुदाय : मुख्यतया 1500 मीटर से 2200 मीटर के मध्य पाए जाते हैं। कहीं-कहीं पर 1200 मीटर की ऊँचाई तक भी ये समुदाय देखने को मिलते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ सिमप्लाकोस चाइनेनसिंस, यूरिया अकुमिनाटा, रोडोडेन्ड्रान आर्बोरियम, माइरिका ऐस्कुलेन्टा, लायोनिया ओवेल्कोलिया, आइलेक्स डीपाइरीना, लिटसिया अम्ब्रोसा, महोनिया नैपौलेनसिस, बरबेरिस अरिस्टाटा तथा अरून्डिनेरिया फलकाटा हैं।

(ल) रियांज ओक (क्वेरकस लेनुजिनोसा) समुदाय : 1800 से 2500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। कार्पीनस विमिनिया, बेटुला अलनोइडिस, माइरिका ऐस्कुलेन्टा, यूरिया अकुमिनाटा, परसिया डथी, लिन्डेरा पुलचेरिया, फ्रैक्सिनस माइक्रैन्था, डोडीकाडेनिया ग्रैंडिफलोरा, पाइसर पैसिया, लायोनिया, ओवेलिफोलिया तथा रोडोडेन्ड्रोन आर्वोरियम इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(व) तिलौंज ओक (क्वेरकस फलोरिबन्डा) समुदाय : सदाबहार समुदाय 2200 से 2700 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ लिन्डेरा पुलचेरिमा, सिम्लोकोस रैमासिसिमा, लायोनिया विलोसा, डोडेकाडेनिया ग्रैंडिफलोरा, इओनिमस टिनजेन्स, आइलेक्स डिपाइरीना, फ्रैक्सीनस माइक्रैन्था तथा रोडोडेन्ड्रान आर्बोरियम हैं।

3- उप-उच्च शिखरीय (सब अल्पाईन) वन

2800 से 3800 मीटर तक पाए जाने वाले इन वनों में खरसू ओक (क्वेरकस सेमिकार्फिलिया), सिल्वर फर (एबीज पिण्ड्रो), बर्च, भोजपत्र (बेटुला यूटीलिस) के समुदाय तथा विभिन्न प्रकार की झाड़ियों के समुदाय पाए जाते हैं। प्रत्येक समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ निम्न हैं-

(अ) खरसू-ओक (क्वेरकस सेमीकार्फिलिया) समुदाय : मुख्यतया 2800 से 3500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस समुदाय में पायी जाने वाली प्रमुख प्रजातियाँ प्रूनस कोरनूटा, पाइरस वेस्टिटा, आइलेक्स डीपाइरीना, पाइरस फोलियोलोसा, टैक्सस बकाटा सबस्पी. वालीचियाना, रोडोडेन्ड्रान बारबेटम, रो. आर्बोरियम, थैम्नोकेलेमस स्पैथीफलोरा, रोजा सेरिसिया, रोजा मैक्रोफिला तथा रूबस निवियस हैं।

(ब) सिल्वर फर (एबीस पिण्ड्रो) समुदाय : 2600 से 3800 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। बेटुला यूटिलिस, पाइरस फोलियोलोसा, प्रूनस कोरनूटा, रोजा सेरिसिया, रोजा मैक्रोफिला तथा थैम्नोकैलेमस स्पैथिफलोरा इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

(स) भोजपत्र (बेटुला यूटिलिस) समुदाय : मुख्यतया 3000 से 3800 मीटर तक पाए जाते हैं। इस समुदाय की प्रमुख प्रजातियाँ पाइरस फोलियोलोसा, लोनिसेरा औबोवाटा, राइबीस ग्लेसिएल, इओनिमस फिम्ब्रिएटस, रूबस फालियोलोसस, रोडोडेन्ड्रान कैम्पेनुलेटम, ऐसर अमिनेटम तथा प्रूनस कोरनूटा हैं।

(द) उच्च शिखरीय झाड़ियाँ (सबबेरीज) : 3200 से 4000 मीटर की ऊँचाई के मध्य इस आवास की मुख्य प्रजातियाँ हैं- रोडोडेन्ड्रान कैम्पेनुलेटम, रो. एन्थोपोगोन, सैलिक्स लिन्डलेयाना, सै. डेन्टिकुलाटा, लोनिसेरा, प्रजा., कैसियोपी फास्टीजिएटा, जूनिपेरस इन्डिका, कोआनियास्टर माइक्रोफिल्ला, पिपटेन्थस नेपालेनसिस, रोजा सेरिसिया, रोजा मैक्रोफिला तथा रूबस फोलियोलोसस।

4. उच्च शिखरीय (अल्पाइन) चारागाह

प्रायः 3500 से 5000 मीटर तक पाए जाते हैं। लेकिन घाटियों में 3000 मीटर से भी यह वनस्पति शुरू हो जाती है। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से शाकीय पौधे पाए जाते हैं। लेकिन कहीं-कहीं पर उच्च शिखरीय झाड़ियों की प्रजातियाँ भी देखने को मिलती हैं। पोटेनटिला अट्रासेंगूनिया, पो. पेडंकुलेरिस, प्राइमुला डेन्टिकुलाटा, प्राइमुला रेपटान्स, प्राइमुला मैक्रोफिला, ज्यूम इलेटम, ऐलियम हूमाइल, ऐलियम वालीचाई, पेडिकुलेरिस बाइकोरनूटा, जिरेयनियम वालिचियानम, कोराइडेलिस गोवानियाना, रूमेक्स नेपालेनसिस, डेन्थोनिया कैचीमिरियाना, कोब्रीसिया डथी, कैरेक्स नुबीजीना, लेयोन्टोपोडियम हिमालयानम, यूफ्रेसिया हिमालयका, अकोनिटम वायोलेसियम, अकोमिटिम हेटरोफिल्लम, अकोनिटम बालफरोई, रयूम आस्ट्रेल, रयूम वबियानम, सेलिनम वेजीनेटम, सेलीनम टेन्यूफोलियम, अनीमोन ओबट्यूसिलोबा, डेल्फिनियम वेस्टिटम, पिक्रोरहिजा कुरूवा, अथाइरियम वालीचाई, ड्रायोप्टेरिस बार्बीजेरा, पोली स्टीकम प्रेसकोटियानम तथा ओसमुन्डा क्लेटोनियाना इस क्षेत्र की प्रमुख प्रजातियाँ हैं।

यदि पिथौरागढ़ वन प्रभाग की प्रबन्ध योजना की सूचना को आधार बनाया जाय (कुमाऊँ वृत्त, प्रबन्धन योजना-पिथौरागढ़, वन प्रभाग 1991-92 से 2000) तो प्रभाग में चीड़ (42.4 प्रतिशत) तथा बाँज प्रजातियाँ (23.9 प्रतिशत) का प्रभुत्व स्पष्ट दिखता है। अन्य मुख्य प्रजातियों के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र का विवरण दिया गया है।

पादप प्रजातियों की बहुलता क्षेत्रवासियों की अपने जीवन यापन हेतु इन पर निर्भरता में भी परिलक्षित होती है। सामन्त (1997) को आधार मानते हुए क्षेत्रवासियों द्वारा भोजन, चारा व ईंधन के रूप में बहुधा उपयोग में लायी जाने वाली प्रजातियों की सूचना क्रमशः तालिका 6,7 व 8 में दी गई है।

जन्तु विविधता

आवासों की बहुलता के परिणामस्वरूप क्षेत्र में जन्तुओं की उपलब्धता में बहुत भिन्नता देखने को मिलती है। वर्तमान अध्ययन में हमने विभिन्न स्रोतों से सूचना एकत्र कर स्तनधारी, पक्षी व सरीसृप वर्ग में जन्तुओं की प्रजातीय विविधता का विश्लेषण करने का प्रयास किया है। इस क्षेत्र में स्तनधारी वर्ग में कुल 83 प्रजातियाँ (59 जातियाँ 23 वंश व 12 कुल) पक्षी वर्ग में 196 प्रजातियाँ (116 जातियाँ, 33 वंश, 12 कुल) तथा सरीसृप वर्ग में 15 प्रजातियाँ (14 जातियाँ 8 वंश) चिन्हित हुई हैं।

यदि जन्तु विविधता का समुद्र सतह से ऊँचाई के अनुसार विभिन्न जलवायुविक क्षेत्रों में वितरण देखा जाय तो 0-1000 मीटर ऊँचाई (उप उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र) का क्षेत्र प्रजाति बहुल है (255: 69 स्तनधारी, 176 पक्षी, 10 सरीसृप)। जबकि उच्च हिमालयी क्षेत्र (>4000 मीटर) में सबसे कम 30 प्रजातियाँ पाई गईं। स्पष्टतः वन क्षेत्र (266 प्रजातियाँ) इन जन्तुओं के मुख्य आवास हैं। पर विशिष्टता की दृष्टि से देखा जाय तो पहाड़ी चट्टानी क्षेत्र (जहाँ पर इण्डियन गिद्धों की अनेक संवेदी प्रजातियाँ (व्हाइट वैक्ड वल्चर) इण्डियन ग्रिफौन वल्चर, हिमालयन लोंगाविल्ड वल्चर आदि), अन्य संवेदी पक्षी (मोनाल, अलपाईन स्किट आदि) तथा हिम तेंदुआ व भरल जैसे संवेदनशील स्तनधारी मुख्यतः वास करते हैं; अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवास हैं।

 

तालिका 5 : पिथौरागढ़ वन प्रभाग प्रजातिवार क्षेत्रफल

मुख्य प्रजाति

सकल क्षेत्र (हेक्टेयर मे)

कुल क्षेत्र का प्रतिशत

चीड़

36739.3

42.4

ओक प्रजाति

20748.0

23.9

साल

4513.7

5.2

तानसेन

4319.9

5.0

देवदार

380.7

0.4

खैर-शीशम

236.1

0.3

फर

242.2

0.3

कैल

87.6

0.1

उच्चतलीय प्रजाति

1058.7

1.2

निम्नतलीय प्रजाति

6263.8

7.2

हिमाद्रि

2405.2

2.8

चट्टानी/रिक्त

9714.9

11.2

योग

86710.3

100.0

 

 

तालिका 6 : पिथौरागढ़ क्षेत्र की मुख्य जंगली खाद्य प्रजातियाँ

स्थानीय नाम

वनस्पति नाम

खाया जाने वाला भाग

खोदा

अहरेसिया लेविस

फल

खसटिया

फाइकस सेमिकोर्डाटा

फल

झनकार

फौगोपाइरम डीब्रोटिस

तना, पत्ती

इमली

टैमैरिन्डस इन्डिका

फल

बथुवा

चीनोपोडियम अल्वम

तना, पत्ती, फूल

बरर

टर्मिनेलिया बेलेरिका

फल

बेर

जीजीफस मौरीसियाना

फल

बेर

जीजीफस नुमोलेरिया

फल

बेल

इजेल मार्मीलोस

फल

कबासू

कोलियस फोर्सकोहलाइ

जड़

काफल

माइरिका ऐस्कुलेन्टा

फल

क्वेराल

बौहिनिया वैरीगाटा

फूल

कचनार

बौहिनिया रेटूसा

फूल

कैरुवा

असपैरेगस क्यूरीलस

पत्ती, बीज

सतावरी

  

कटौंज

कास्टेनोप्सिस ट्राइबुलोइडिस

बीज

मखौल

कोरियेरिया नेपौलेनसिस

फल

महवा

मधुका लोंगीफोलिया

फल

मालू

बोहिनिय बैहलाइ

बीज

मेहल

पाइरस पैसिया

फल

घिंगारू

पाइरैकेन्था क्रेनुलाटा

फल

किरमोर

बरबेरिस एसियाटिका

फल

हिसालू

रूबस इलिप्टिकस

फल

भिलाऊ

सेमीकार्पस अनाकार्डियम

फल

थाकल

फोइनिक्स ह्यूमिलिस

पिथ, तना

थोया

कैरम कार्वी

बीज

सिदम

रोजा मैक्रोफिला

फल

तिमिल

फाइकस रॉक्सवार्घाइ

फल

तितमर

गरूगा पिन्नाटा

फल

नियोली

मेटीनस रूका

फल

गिवाई

इलीगनस कन्कर्टा

फल

भमौर

कोर्नस कैपिटाटा

फल

पुयौन

स्माइलेसिना ओलीरेसिया

पत्ती

पन्याली

रोरिवा नेस्टरसियम एक्वेटियम

सम्पूर्ण पौधा

सकिन

इन्डिगोफेरा अट्रोपरप्यूरिया

फूल

सालम मिश्री

पौलीगोनेटम वर्टीसिलेटम

जड़

सेमल

बाम्बेक्स सीवा

फूल

डोलू

रियूम औस्ट्रेल

पत्ती, तना

दरबांग

राइबीज ग्लसिएल

फल

दालचीनी

सिनमोमम टमाला

पत्ती, छाल

दुबका

साइजाइजियम वीनोसम

फल

च्यूरा

डिप्लोकनीमा व्यूटाइरेसि

फल

चीड़

पाइनस रॉक्सवर्घाइ

बीज

चूख

एन्टिडेस्मा एसिडम

फल

चुथर

बरबेरिस आरिस्टाटा

फल

चलमोर

रूमेक्स हेस्टेटस

पत्ती, तना

तरूर

डायोस्कोरिया डेल्टोइडिया

जड़

जंगली पालक

रूमेक्स नेपालेनसिस

पत्ती

जामुन

साइजाइजियम क्यूमिनी

फल

जोगिया

हिंसालू रूबस पैनीकुलेटस

फल

अखरोट

जुगलेन्स रेजिया

बीज

आँवला

इम्बलिका ओफिसिनेलिस

फल

गनिया

मुराया कोनिगी

पत्ती

गोगिन

सौरौया नैपौलेनसिस

फल

गेठी

बोहमेरिया रूगुलोसा

छाल

 

 

तालिका 7 : पिथौरागढ़ में प्रयोग होने वाली मुख्य चारा प्रजातियाँ

स्थानीय नाम

वनस्पति नाम

घोगसा

मेलियोज्मा डाइलिनिफोलिया

खरीक

सेलटिस आस्ट्रेलिस

खरीक

सेलटिस टेट्रैन्ड्रा

खरसू

क्वेरकस सेमीकार्फिलिया

खोदा

अहरेसिया लेविस

खसटिया

फाइकस सेमिकार्डटा

बरगद

फाइकस बेंगालेन्स

बांज

क्वेरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा

बोदाला

स्टर्कुलिया पैलेन्स

बेडुली

फाइकस स्कैनडेन्स

काभौर

फाइकस रम्फी

कौल

परसिया डथी

कौल

फोबी लेनसियोलाटा

काला सिरिस

अल्बीजिया चाइनेनसिस

क्वेराल

बौहिनिया वैरीगाटा

कचनार

बौहिनिया रेटूसा

कुंजी

विस्चौफिया जैवेनिका

कैब, कौल

परसिया गैम्बली

कटौंज

कास्टेनोप्सिस ट्राइबुलेइडिस

मालू

बौहिनिया वैहलाइ

भिमल

ग्रेविया अपोडिटीफोलिया

रियांज

क्वेरकस लनुजिनोसा

रिंगाल

अरून्डिनेरिया फल्काटा

तिमल

फाइकस रॉक्सवार्घाई

तिलौंज

क्वेरकस फलोरीबण्डा

सकिन

इन्डिगोफेरा अट्रोपरप्यूरिया

सानन

वुजीनिया बुजीनेनसिस

उमर, गूलर

फाइकस रेसीमोसा

दुदिल

फाइकस नेमोरेलिस

वैगनिया

लिटसिया मोनोपिटैला

चमखरीक

कार्पीनस विमिनिया

चमला

डेस्मोडियम इलीगेन्स

फलियाट

क्वेरकस ग्लौका

फरोलिया

ब्राइडेलिया रेटूसा

फरसेन

ग्रेविया इलास्टिका

तोतमिल

फाइकस हिसपिडा

तुषियार

डेब्रीजिएसिया लोंगीफोलिया

तेरच्यून

वेन्डलेडिया एक्सेर्टा

गोगिन

सौरौया नेपौलेनसिस

गौज

माइलीसिया औरीकुलाटा

गुगुर

डलबरजिया सेरिसिया

गेठी

बोहमेरिया रूगुलोसा

 

 

तालिका 8 : पिथौरागढ़ में ईंधन के रूप में प्रयोग होने वाली प्रमुख प्रजातियाँ

स्थानीय नाम

वनस्पति नाम

रून

मैलोटस फिलिपेनसिस

घौल

वुडफोर्डिया फ्रूटीकोसा

बकरियाँ

मीजा इन्डिका

बांज

क्वेरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा

बुरांस

रोडोडेन्ड्रान आर्वोरियम

काफल

माइरिका ऐस्कुलेन्टा

कौल

फोबी लेनसियोलाटा

कैल

पाइनस वालीचियाना

मखौल

कोरियेरिया नेपौलेनसिस

महवा

मधुका लौंगीफोलिया

मेहल

पाइरस पैसिया

घिंगारू

पाइरैकेन्था क्रेनुलाटा

किरमोर

बरबेरिस एसियाटिका

पिपड़ी

कैसीरिया इलिप्टिका

रियाज

क्वेरकस लेनुजिनोसा

हरड़

टर्मिनेलिया चीबुला

हल्दू

अडिना कोर्डिफोलिया

भैर

ग्लौचिडियोन बेलटिनम

रामल

मैकेरंगा पुस्चुलाटा

साल

शोरिया रोबुस्टा

देवदार

सीड्रस देवदारा

चीड़

पाइनस रॉक्सवार्घाई

चुथर

बरबेरिस आरिस्काटा

अयार

लायोनिया ओवेलिफोलिया

टीक

टेक्टोना ग्रैन्डिस

आँवला

इम्बलिका ओफिसिनेलिस

 

यदि हम जनपद के जन्तुओं का विश्व में भौगोलिक वितरण के आधार पर विश्लेषण करें तो सर्वाधिक प्रजातियाँ एशिया महाद्वीप में निवास करने वाली प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो कि स्वाभाविक भी है।

संरक्षण की प्राथमिकता के आधार पर देखा जाय तो भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 (संशोधन 2003) की अनुसूची I-IV के तहत जनपद में चिन्हित कुल 293 प्रजातियों में से 260 प्रजातियों (88.7 प्रतिशत) को इन अनुसूचियों में सम्मिलित किया गया है।

यदि वैश्विक स्थिति के आधार पर संवेदनशीलता का विश्लेषण करें तो जनपद में लगभग 35 ऐसी प्रजातियाँ विद्यमान हैं जो कि विश्व स्तर पर संकट-ग्रस्त श्रेणियों में रखी गई हैं। इन संकटग्रस्त प्रजातियों को संकट की श्रेणी अनुसार तालिका-9 में दर्शाया गया है।

प्रतिनिधि क्षेत्र-अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य

पिथौरागढ़ की जैव विविधता की प्रचुरता, प्रतिनिधित्व व विशिष्टता को दर्शाने के लिये इसके एक प्रतिनिधि क्षेत्र अस्कोट वन्य जीव अभयारण्य से प्राप्त आँकड़ों/सूचनाओं की सहायता ली जा सकती है। समुद्र सतह से लगभग 600 से 7000 मीटर ऊँचाई के मध्य 600 वर्ग किमी का यह क्षेत्र पिथौरागढ़ जनपद में उपलब्ध सभी जैव-भौगोलिक स्थितियों का प्रतिनिधित्व करता है। अभयारण्य का लगभग 52 प्रतिशत भाग वनाच्छादित, 12 प्रतिशत चारागाह, 12 प्रतिशत कृषि योग्य बंजर, 8 प्रतिशत बागवानी, 6 प्रतिशत कृषि, 5 प्रतिशत बंजर और 5 प्रतिशत ऊसर है।

अस्कोट वन्य अभयारण्य प्रतिनिधित्व के दृष्टिकोण से हिमालय के उपोष्ण साल, मिश्रित पतझड़ वन व चीड़ (शीतोष्ण चौड़ी पत्ती के वन व शंकुधारी वन एवं उप उच्च शिखरीय व उच्च शिखरीय वायोम का प्रतिनिधित्व लिये हैं। यदि और नजदीकी तौर पर देखना हो तो वनों के प्रतिनिधित्व की एक झलक पश्चिमी हिमालय (कुमाऊँ) के वर्णित वन प्रकारों की इस अभयारण्य में बहुलता के रूप में दृष्टिगत होती है।

इस अभयारण्य में यदि आवास व सामुदायिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो इसकी विशिष्ट भौगोलिक अवस्थिति के कारण यह पूर्व व पश्चिमी हिमालय दोनों की जैव विविधता के अवयवों को लिये है। प्रतिनिधित्व के इन गुणों को निम्न तालिका से समझा जा सकेगा।

 

तालिका 9 : पिथौरागढ़ क्षेत्र के संकट-ग्रस्त जन्तुओं की आई.यू.सी.एन. स्थिति

सार्वभौमिक संकट स्थिति

प्राणी का नाम

वैज्ञानिक नाम

अति संकट-ग्रस्त (क्रिटिकली इन्डेन्जर्ड)

हटन्स बैट

मुरिना हटोनी (Murina huttoni)

 

व्हाइट बैक्ड वल्चर (गिद्ध)

जिप्स बैंगालेन्सिस (Gyps bengalensis)

 

हिमालयन लौंगबिल्ड वल्चर (गिद्ध)

जिप्स टेन्यूरोसट्रिस (Gyps tenuirostris)

संकटग्रस्त (इन्डेन्जर्ड)

इण्डियन वाइल्ड डॉग

क्यूओन अल्पाइनस (Cuon alpineS)

 

फिसिंग कैट

फेलिस विवेरिना (Felis viverrina)

 

टाइगर

पैन्थरा टाइग्रिस (Panthera tigris)

 

स्नो लैपर्ड

पैंथरा उनसिया (Panthera uncia)

 

हिमालयन गोल्डन ईगल (सुनहरा चील)

एक्वीला क्रायसेटोस (Aquila chrysaetos)

 

इजिप्टियन वल्चर (गिद्ध)

नियापेफ्रोन परकोनोपटेरस (Neophron percnopterus)

 

हिमालयन बियर्ड वल्चर (गिद्ध)

जिपेटस बारबेटस

असुरक्षित (वल्नरेबल)

हिमालयन ब्लैक बियर

सेलेनारक्टैस थिबटेनस (Selenarctos thibetanus)

 

स्लोथ बियर

मैलअर्सस अर्सिनस (Melursus ursinus)

 

चौसिंघा

 
 

टेट्रासिरोज

क्वाड्रीकार्निस (Tetraceros quadricornis)

 

सिरो

 
 

कैप्रिकौर्निस

सुमात्रन्सिस (Capricornis synatraensis)

 

हिमालयन थार

 
 

हेमीट्रेगस

जैमलैहीकस (Hemitragus jemlahicus)

 

अरगाली

ओविस अमोन (Ovis amon)

 

कोकलास फिजेंट (कोकलास)

 
 

पुकरेशिया

मैकोलोफस (Pucrasia macrolopha)

खतरे में (नियर थ्रेटन्ड)

इण्डियन फाल्स वैम्पायर

मेगाडर्मा लायरा (Megaderma lyra)

 

लिटिल जैपनीज हौर्स शू बैट

राइनोलोफस कार्नूट्स (Rhinolophus cornutus)

 

हेयरी आर्मड बैट

नाइटेलस लिसर्ली (Nyetalus leisleri)

 

हनुमान लंगूर

प्रेसवाईटिस एन्टीलस (Presbytis entellus)

 

रीसस मैकाक

मकाका मुलाटा (Macaca mulata)

 

स्माल इण्डियन सिवेट

विवेरीकुला इण्डिका (Viverricula Indica)

 

स्ट्राइप्ड हाइना

हाइना हाइना (Hyaena hyaena)

 

मस्क डियर

माश्चस क्रायसोगास्टर

 

(कस्तूरी मृग)

(Moschus chrysogaster)

 

गोराल

निमोरहीड्स गोराल (Naemorhedus goral)

 

लैपर्ड

पेन्थरा पार्डस (Panthera pardus)

 

रोयल्स हाई माउन्टेन वोल

एल्टीकोला रोयली (Alticola roylei)

 

सिनेरियस वल्चर (गिद्ध)

ऐजिप्स मोनाचस (Aegypius monachus)

 

क्रिमशन हार्न ट्रेगोपान

ट्रेगोपान सटायरा (Tragopan satyra)

 

इण्डियन गार्डन लिजार्ड (छिपकली)

कैलोटस वर्सीकॉलर (Calotes versicolor)

 

माउन्टेन कील ब्लैक

एम्फाइस्मा स्टोलाटा (Amphiesma stolata)

 

चैकर्ड कील बैक

जीनोकोरोफिस पिसकेटर (Xenochorophis piscator)

 

कॉमन क्रैट

बंगारस कैरयूलियस (Bangarus caeruleus)

 

कॉमन (नाग)

नाजा नाजा (Naja naja)

स्रोत : विविध स्रोत (जेड.एस.आई. 1995, जेड.एस.आई. 1997, आई.यू.सी.एन. 2008)

 

1. अभयारण्य जहाँ एक ओर पश्चिम हिमालयी अवयवों (जैसे-चीड़ व पश्चिम हिमालय की बाँज प्रजातियाँ) का प्रभुत्व दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर तानसेन (सूगा डुयोसा) तथा रामला (मैकरंगा पस्टूलेटा) जैसी पूर्वी हिमालय के अवयवों की पश्चिमी सीमा को प्रस्तुत करता है।

2. दक्षिण से उत्तर तक लगभग 80 किमी व 600 से 7000 मीटर की ऊँचाई का फैलाव अभयारण्य को अत्यधिक आवासीय व सामुदायिक विविधता प्रदान करता है। उदाहरणार्थ (अ) अस्कोट अभयारण्य भारत का सम्भवतः एकमात्र संरक्षित क्षेत्र होगा जिसमें उप-उष्ण साल से अल्पाइन चारागाह तक के आवास हैं, (ब) यह कुमाऊँ (पश्चिमी हिमालय) के ज्ञात वन समुदायों (प्रभुत्व प्रकार) का पूर्ण प्रतिनिधित्व (78.5 प्रतिशत) करता है, (स) तानसेन व रामल वन समुदाय जो इस अभयारण्य में उपस्थित हैं, पूरे पश्चिमी हिमालय के एकमात्र प्रतिनिधि समूह हैं, (द) अभयारण्य का 10-15 प्रतिशत क्षेत्र जो अल्पाइन क्षेत्र के तहत आता है उच्च शिखरीय शुष्क व नम दोनों आवासों का प्रतिनिधित्व दर्शाता है।

 

तालिका 10 : अस्कोट अभयारण्य में पादप समूहों की प्रजातीय विविधता

समूह

कुल

जाति

प्रजाति

जीवन प्रकार (लाइफ फार्म)

    

शाकीय

झाड़ीनुमा

वृक्ष

फर्न

एन्जियोस्पर्म

136

641

1112

771

191

150

-

जिम्नोस्पर्म

4

7

7

-

2

5

-

टैरिडोफाइटा

33

59

143

-

-

-

143

योग

173

707

1262

771

193

155

143

स्रोत – सामन्त, धर व रावल (1998)

 

3. अभयारण्य के वन प्रकार हिमालय में ज्ञात वन-प्रकार का लगभग 64 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दर्शाते हैं। आवास व सामुदायिक विविधता की प्रचुरता ने अभयारण्य को अत्यन्त प्रजाति विविध क्षेत्र के रूप में स्थापित किया है।

यदि क्षेत्र की ऊँचाई के साथ प्रजातीय विविधता की बात की जाय तो 1000 मीटर से नीचे लगभग 505, 1001 से 2000 मीटर के मध्य 860, 2001 से 3000 मीटर तक 551, 3001-4000 मीटर तक 353 व इससे ऊपर के क्षेत्रों में लगभग 42 प्रजातियाँ चिन्हित की गई हैं। यदि उत्पत्ति व विवरण के दृष्टिकोण से देखा जाय तो अभयारण्य की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियाँ हिमालय की मूल प्रजातियाँ हैं।

अभयारण्य की लगभग 21 प्रतिशत पादप प्रजातियों (258 प्रजातियाँ) का हिमालय का स्थानिक होना संरक्षणवादियों व प्रबन्धकों के हिसाब से महत्त्वपूर्ण है- क्योंकि (i) स्थानिक जैसे संवेदी तत्वों की उपलब्धता किसी भी प्रणाली की संरचना, क्रियाशीलता व क्रम विकास की जटिलता को दर्शाता है, (ii) जैव स्थानिकता संरक्षण प्राथमिकता निर्धारण व संरक्षण क्षेत्रों के विधान हेतु कारक साधन के रूप में उभरी है, (iii) हिमालय की पादप स्थानिकता की सूचना का उपयोग संरक्षण के लिये क्षेत्र व जाति के चिन्हीकरण में हो रहा है। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संकट-ग्रस्त घोषित की जा चुकी प्रजातियों का अभयारण्य में उपस्थित होना इसके लिये संरक्षण महत्व को बढ़ा देता है।

1. प्रजाति केन्द्रित संवेदनशीलता से हटकर विश्लेषण करें तो इस अभयारण्य का महत्व कुछ अत्यन्त संवेदी आवासों व समुदायों के प्रतिनिधित्व के कारण काफी बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ-पंचचूली बेसिन व अभयारण्य के निकटवर्ती रालम घाटी में अवस्थित काष्ठ रेखा परिक्षेत्र (Timberline zone) को पश्चिम हिमालय के चिन्हित प्राथमिक क्षेत्रों में स्थान मिला है। जबकि जैव विविधता की प्राकृतिक दशा, स्थानिकता व उपयोगिता के आधार पर इन दोनों क्षेत्रों को विशिष्टता क्रम में सर्वोच्च स्थान मिला है। जैविक स्थिरता (मूलता) के दृष्टिकोण से विश्लेषण करने पर इन स्रोतों की पादप प्रजातियों में मूल प्रजातियों का प्रतिशत काफी अधिक है। जैसे वृक्ष/झाड़ी प्रजाति 100 प्रतिशत; शाकीय प्रजातियाँ 70 प्रतिशत। पश्चिम हिमालय के काष्ठ रेखा परिक्षेत्र का क्षेत्रीय जैव विविधता के समुच्च को बरकरार रखने तथा वर्तमान मे इसकी विश्व जलवायु परिवर्तन तथा मानव हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए, इस अभयारण्य में सबसे विशिष्ट काष्ठ रेखा परिक्षेत्र की उपस्थिति स्वतः ही इसके संरक्षण महत्व को न केवल क्षेत्रीय बल्कि राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर करती है।

 

तालिका 11 : अभयायरण्य में चिन्हित आवासों में प्रजातीय विविधता व स्थानिकता

क्रम

आवास प्रकार

कुल प्रजातियाँ (प्रतिशत)

स्थानिक प्रजातियाँ (प्रतिशत)

1.

वन

623 (49.4)

236 (37.9)

2.

छायादार नम स्थान

234 (18.5)

72 (30.8)

3.

खुले व घास वाले ढाल

366 (29.0)

84 (23.0)

4.

सड़क व रास्तों के किनारे

130 (10.4)

10 (7.7)

5.

सिमार/गीले स्थल

68 (5.5)

13 (19.1)

6.

गधेरे

176 (13.9)

58 (32.0)

7.

पत्थर/चट्टान/दीवार

175 (13.9)

68 (38.9)

8.

खेतों के किनारे

175 (13.9)

27 (15.4)

9.

खेत (कृषि)

38 (3.0)

01 (2.6)

10.

ईपिफाईट

111 (8.8)

.51 (46.0)

11.

परजीवी

8 (0.6)

2 (25.2)

12.

झाड़ियाँ (उच्च शिखरीय)

169 (13.4)

115 (68.1)

13.

उच्च शिखरीय चारागाह

219 (17.4)

145 (66.2)

14.

बागवानी क्षेत्र

85 (6.7)

3 (3.5)

15.

कैम्प स्थल/रिहायशी क्षेत्र

22 (1.7)

5 (22.7)

स्रोत : सामन्त, धर व रावल (1998)

 

 

तालिका 12 : अस्कोट वन्य अभयारण्य में प्रजातियों की उपस्थिति

समूह/प्रजातियाँ

भारतीय रेड डाटा बुक स्थिति/शेड्यूल

अस्कोट वन्य अ. में उपस्थिति

ऊँचाई क्षेत्र (मीटर)

बहुलता

कैनिस आरियस (सियार)

EeII

2400 से नीचे

यदा-कदा

कैप्रीकौर्निस सुमात्रन्सिस (सीरो)

Eel

2500 से 3300 तक

छितरा हुआ

हेमीट्रैगस जैमलैहीकस (हिमालयन थार)

-I

2000 से 3500 तक

यदा-कदा

लुट्रा लुट्रा (उदविलाव)

TeII

2000 से नीचे

छितरा हुआ

मार्टिस फलैविगुला (चित्रौल)

-eI

1800 से 3600 तक

छितरा

मॉश्चस क्राइसोगेस्टर (कस्तूरी मृग)

VeI

2500 से 4000 तक

छितरा

निमोरहेडस गोराल (गोराल)

VeIII

1800 से 3300 तक

छितरा

पैन्थरा पारडस (तेंदुआ)

Tel

300 से नीचे

छितरा

पिटोरिस्टा पिटोरिस्टा (उड़ने वाली लाल गिलहरी)

el

2500 से 3200

तक छितरा

सिलेनारक्टैस थिवितेनस (हिमालयी काला भालू)

Tel

1600 से 3500

तक यदा-कदा

अन्सिया अन्सिया (हिम तेंदुआ)

Eel

3600 से 5000 तक

छितरा

वुल्पस वुल्पस (लाल लोमड़ी)

TelV

3400 से 4500 तक

छितरा

कार्टियस वालिचि (चीर फीजेन्ट)

-el

2600 तक

छितरा

लोफोफोरस इम्पिजीनस (मोनाल)

-el

3000 से 3500 तक

यदा-कदा

ट्रैगोपन सैटिरा (सत्थर ट्रैगोपन)

-el

3000 से 3500 तक

छितरा

एथारियम ड्यूथी

T

3000 से 3500 तक

यदा-कदा

एसर सीजियम

V

2800 से 3200 तक

छितरा

सिम्बिडियम इबुर्नियम

T

1000 से 1400 तक

यदा-कदा

सिप्रिपीडियम कार्डिजिरम

R

2600 से 3000 तक

छितरा

सिप्रिपीडियम इलिगान्स

R

3000 से 3500 तक

छितरा

सिप्रिपीडियम हिमालेकम

R

3000 से 4000 तक

छितरा

डायस्कोरिया डेल्टोडिया

V

1500 से 2800 तक

यदा-कदा

इरिया ओसिडेन्टिलिस

R

1400 से 1600 तक

छितरा

नार्डोस्टेकस ग्रेन्डिफ्लोरा

V

3300 से 4200 तक

यदा-कदा

पिक्रोरिजा कुरूवा

V

3300 से 4200 तक

छितरा

स्रोत : रावल एवं धर (2001) E-इण्डेन्जर्ड, V-वल्नरेबल, T-थ्रेटेन्ड, R-रेअर

 

2. व्यापक परिक्षेत्र में, हिमालय के संकट-ग्रस्त परिक्षेत्रों में से यह अभयारण्य चौड़ी पत्ती वनों (145 वर्ग किमी) व हिमालय के उपोष्ण चीड़ वन (78 वर्ग किमी) के काफी बड़े हिस्सों को संरक्षण देता है। परन्तु यह विडम्बना है कि 1988 से 1996 के मध्य चीड़ के क्षेत्रफल में 5 प्रतिशत व चौड़ी पत्ती वनों में 10 प्रतिशत कमी देखी गई। इसके अतिरिक्त इन वनों में बाह्य प्रजातियों के प्रसार में भी वृद्धि देखी गई है।

3. अभयारण्य की अन्य विशेषताओं में यहाँ पर निवास कर रही दो जनजातियों- भोटिया व राजी का प्राकृतिक संसाधनों से लगाव मुख्य है। राजी भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक है, जो अब भी एक प्रकार से वनों के ही बाशिन्दे हैं तथा काफी हद तक जंगल के संसाधनों पर निर्भर हैं। इस जनजाति की कुल जनसंख्या का काफी अधिक प्रतिशत अभयारण्य के आस-पास ही केन्द्रित होना अत्यन्त रोचक है। इस क्षेत्र की अन्य जनजाति भोटिया- एक व्यापारिक जनजाति के रूप में जानी जाती है। इनकी परम्परागत पशु चारण व कृषि व्यवस्था अपने आप में विशेष है तथा पूर्णतः स्थानीय जैव विविधता के उपयोग व संरक्षण से जुड़ी है। इनका उपयोग व संरक्षण का परम्परागत ज्ञान बदलती परिस्थितियों के तहत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका एक उदाहरण अभयारण्य के जैव संसाधनों के उपयोग पर सूचना तैयार करने के दौरान मिलता है। इस क्षेत्र में लगभग 172 पादप प्रजातियों के उपयोग का ज्ञान है जिसमें 69-औषध, 72- जंगली खाद्य, 57- चारा, 31- ईंधन, 9-इमारती लकड़ी, 7-धार्मिक व 2 रेशे देने वाली प्रजातियाँ हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन उपयोगी प्रजातियों का काफी बड़ा हिस्सा (69.2 प्रतिशत) हिमालय की मूल प्रजातियों का है। इसके अतिरिक्त भोटिया समुदाय का पशुपालन/प्रजनन से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान भी एक सशक्त पहलू है।

अस्कोट अभयारण्य की जैव विविधता का एक प्रतिनिधि क्षेत्र के रूप में विश्लेषण इस बात की ओर इंगित करता है कि पिथौरागढ़ क्षेत्र जैव-भौगोलिक दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः संरक्षण व उपयोग की योजनाओं में इसको विशेष स्थान देने की आवश्यकता है। इसके तहत अस्कोट अभयारण्य के अतिरिक्त लधिया घाटी को भी संरक्षित किये जाने का प्रस्ताव है। साथ ही नन्दादेवी जैव मण्डल के तहत आने वाले पिथौरागढ़ उच्चशिखरीय क्षेत्रों में जैव विकास कार्यक्रमों की आवश्यकता पर बहुधा बात उठती आई है। इनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, यहाँ के जनमानस में संरक्षण के प्रति ललक पैदा करने की। परम्परागत तौर पर उपलब्ध यह ललक वर्तमान में धुंधली पड़ती महसूस होती है। ऐसे अभियानों व कार्यक्रमों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जो आम जनता को अपने आस-पास के जैव संसाधनों से जोड़ सकें तथा उन्हें इसके व्यापक महत्व को समझा सकें।

विगत वर्षों में क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान हमें यह भी महसूस हुआ कि ग्रामीण जनों की मानसिकता में निरन्तर आ रहे बदलाव का काफी बुरा प्रभाव जैव विविधता और इससे जुड़े पारम्परिक ज्ञान पर पड़ा है। आयातित सामग्री पर निर्भरता ने हमारी कृषि परम्परा खासकर परम्परागत तौर पर आनुवंशिक विविधता कायम रखने की विधियों को नुकसान पहुँचाया है। विविध स्थानीय उपजातियाँ निरन्तर विलुप्त हो रही हैं। इसके व्यापक नुकसान से हम सभी अनभिज्ञ बने रहने का प्रयास कर रहे हैं। इसी प्रकार अनियोजित विकास कार्यक्रमों ने भी प्रकृति की इस धरोहर को नुकसान पहुँचाया है। पर्वतीय क्षेत्रों के परिप्रेक्ष्य में जैव विविधता के विविध आयामों की बात चलने पर सबसे पीड़ादायक पहलू है- नई पीढ़ी (बच्चों) का विभिन्न कारणों से इसके प्रति अलगाव या अभिरुचि में कमी। स्कूल से जुड़े अपने कार्यक्रमों में हमने पाया कि विद्यार्थी वर्ग में अपने आस-पास के जैविक संसाधनों के प्रति कोई लगाव नहीं रह गया है, यह स्थिति शोचनीय है। सफलता हेतु सभी स्तरों से शीघ्रता की आवश्यकता है। कार्यक्रमों को धरातल पर चलाने व आयोजकों को खुद को कार्यक्रमों से जोड़ने की आवश्यकता है। अन्यथा हम कहते ही रहेंगे कि हमारे ये पर्वत जैव विविधता प्रचुर व विशिष्ट हैं।

(आभार : निदेशक गोविन्द बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा द्वारा प्रदत्त सहायता व प्रेरणा हेतु हम आभारी हैं। डॉ. उपेन्द्र धर व डॉ. एस.एस. सामन्त द्वारा विभिन्न शोध परियोजनाओं के तहत पिथौरागढ़ क्षेत्र में कार्य करने के दौरान मिले सहयोग के लिये उन्हें धन्यवाद देते हैं। हमारे सहयोगी जगदीश बिष्ट व मन्जू पाण्डे का इस लेख के संकलन में जो योगदान मिला, उसके लिये भी हम आभारी हैं।)

सन्दर्भ

1. आर्य, के.एल. (1991-92 से 2000-2001) पिथौरागढ़ वन प्रभाग प्रबन्ध योजना खण्ड एक (भाग 1)।
2. आई.यू.सी.एन. (2008) रिव्यू ऑफ द आई.यू.सी.एन रेड लिस्ट ऑफ थ्रेटेन्ड स्पिशीज, द ग्लैण्ड स्विट्जरलैण्ड।
3. कन्जर्वेशन इंटरनेशनल (2007) www.biodiversityhotspots.org
4. जुलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (1995) फौना ऑफ वेस्टर्न हिमालया, हिमालयन इकोसिस्टम सीरीज 1, जुलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, कलकत्ता।
5. जुलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया (1997) फौना ऑफ नन्दादेवी बायोस्फेयर रिजर्व, फौना ऑफ कन्जर्वेशन एरिया 9, जुलाजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, कलकत्ता।
6. धर, यू., रावल, आर.एस., सामन्त, एस.एस. (1997) बायोडाइवर्सिटी एंड कन्जर्वेशन 6: 1045-1062।
7. धर, यू., रावल, आर.एस. (2001) करेन्ट साइन्स 81: 175-184।
8. सामन्त, एस.एस. (1997) हिमालय की जैव विविधता (संरक्षण में जनता की भागीदारी) पेज: 1-26।
9. सामन्त, एस.एस., धर, यू., रावल, आर.एस. (1998) इण्टरनेशनल जनरल ऑफ सस्टेनेबल डेवलपमेंट एण्ड वर्ल्ड इकोलॉजी 5: 194-203।
10. सामन्त, एस.एस., धर, यू., रावल, आर.एस. (2001) प्लान्ट डाइवर्सिटी ऑफ हिमालया पेज: 421-482।


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