जब बन रहा था भाखड़ा नंगल बाँध

22 May 2016
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शिवालिक की पहाड़ियों में रुपहली गोटे की पट्टी-जैसी जगमगाती हुई सतलज को आज कई हजार भगीरथ अपने दिन-रात के अथक परिश्रम से सहस्त्रधार बनाकर उन मनमानी गैलों में बहाए जा रहे हैं, जो अब तक सतलज के लिये अनजानी रही है। मिट्टी के बाँध बनाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुराने जमाने से चली आ रही है। सभ्यता के आदिमकाल में जब आज के अनेक सभ्य और महान देश के पुरखे पशुओं की तरह गुफाओं में पड़े सोया करते थे तब हमारे यहाँ के मजदूर और इंजीनियर नगर पर नगर बना रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के एक पुरखे भगीरथ अपने अथक प्रयत्नों और तप के प्रभाव से स्वर्ग की गंगा को धरती पर उतार लाये थे। विष्णु के चरणामृत सरीखी भागीरथी गंगा शिव के जटाजूट में प्रतिष्ठित होकर पृथ्वी पर उतरी थीं। पुराण की बातें आज इतिहास बन रही हैं। शिवालिक की पहाड़ियों में रुपहली गोटे की पट्टी-जैसी जगमगाती हुई सतलज को आज कई हजार भगीरथ अपने दिन-रात के अथक परिश्रम से सहस्त्रधार बनाकर उन मनमानी गैलों में बहाए जा रहे हैं, जो अब तक सतलज के लिये अनजानी रही है।

मिट्टी के बाँध बनाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुराने जमाने से चली आ रही है। सभ्यता के आदिमकाल में जब आज के अनेक सभ्य और महान देश के पुरखे पशुओं की तरह गुफाओं में पड़े सोया करते थे तब हमारे यहाँ के मजदूर और इंजीनियर नगर पर नगर बना रहे थे। अयोध्या, मथुरा, मायावती, हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारका, मदुरै, कावेरी, पूंपट्टणम, शूर्पारक आदि न जाने कितने वैभवशाली नगर, गगनचुम्बी अटारियाँ, मन्दिर, जलाशय, बाँध बने-बने और मिटे, फिर बने। विश्वकर्मा और मयदानव के देश के इंजीनियर सदियों की अगति के बाद, आजादी पाते ही, आज फिर से अपनी शानदार परम्परा को हौसले से आगे बढ़ा रहे हैं। यहाँ दुनिया का दूसरा बड़ा बाँध बाँधा जा रहा है।

आमने-सामने की पहाड़ियों में चक्करदार सड़कों पर-ऊँची चोटियों तक हर सतह पर बड़े-बड़े दानवों-जैसी मशीनें आदमी के इशारों की गुलाम बनी काम कर रही हैं। एक हजार आदमियों का काम करने वाली एक शॉवेल मशीन एक आदमी के इशारे पर पहाड़ खोद रही है।

आमने-सामने चहुँओर शोर-दूर-दूर तक पहाड़ियों से टकराकर मनुष्य की कर्मशक्ति बिजली-सी कौंध रही है-कड़क रही है। हर सतह पर, हर सड़क पर चलने वाली मशीनें और उन्हें चलाने वाले उनके साथ-साथ हाथो हाथ काम बँटाने वाले मजदूरों की टोलियाँ इधर-उधर जुटी हुई हैं। कहीं एलुमिनियम के सफेद टोप लगाए इंजीनियर खड़े बातें कर रहे हैं, दूसरे पार टीन के लम्बे-लम्बे शेडों में मोटर का कारखाना दिखलाई पड़ रहा है, कल-पुर्जों और जरूरत के तमाम सामानों के गोदाम बने हैं। मशीन, आदमी, लोहे के पम्प, बिजली के तार और खम्भे-हरसू मेहनत की लौ ऊँची उठ रही है। जिसके आगे प्रखर किरणों वाले जून के इस तपते सूरज का तेज भी झंप-झंप-सा जाता है।

तारीफ उन लोगों की है, जिन्होंने बाँध बनाने के लिये इस जगह को चुना। मैदानों में प्रवेश करने से पहले सतलज इन पहाड़ियों के संकरे मार्ग से होकर बहती है। इस जगह 680 फिट ऊँचा सीमेंट-कंक्रीट का बाँध बनाकर पहाड़ों के बीच में पचपन मील तक फैली हुई एक झील तैयार की जाएगी। यहाँ दो पॉवर हाउस भी बनेंगे। सिंचाई के लिये आवश्यक पानी को मुक्त कर, यहाँ पानी से बिजली तैयार की जाएगी। अनुमान यह है कि दस जनरेटिंग यूनिटों द्वारा, प्रत्येक से 90 किलोवाट बिजली तैयार हो सकेगी।

यह बाँध हमारी नदी-घाटी योजनाओं में प्रथम महत्त्व का है। यह संसार का दूसरा सबसे बड़ा बाँध होगा। इससे बड़ा बोल्डर बाँध केवल अमेरिका में है। सतलज पर मिट्टी पत्थर की आड़ी लगा दी गई है। उसकी धारा को बाएँ हाथ वाले पहाड़ में आध मील लम्बी और पचास फिट डायमीटर वाली सुरंग से बहाया जा रहा है। जिस पहाड़ पर हम खड़े हैं उसके नीचे भी ऐसी ही सुरंग तैयार की गई है। कुछ दिनों बाद नदी को इस सुरंग से भी प्रवाहित किया जाएगा और इस प्रकार पहाड़ियों के बीच की जगह को सुखाकर बाँध की नींव डाली जाएगी। इतनी ऊँची सुरंगे भारत में और नहीं बनीं।

भाखड़ा बाँध से आठ मील नीचे, बहाव की ओर नंगल में सतलज पर 91 फिट ऊँचा और 1000 फिट लम्बा सीमेंट-कंक्रीट का बाँध बाँधा जा चुका है। ‘भाखड़ा-नांगल बाँध योजना’ में पहला बाँध यहीं बाँधा गया। सन 1951 से यह बाँध चालू है। पास से वह नहर भी निकाली गई जो इस सारे श्रम की कुंजी है। नंगल हाइडल नहर में पानी समुचित रूप से परिचालित करने के अलावा नंगल का बाँध पानी को जमा करने के लिये दूसरे खजाने के तौर पर काम करेगा।

इस स्थान पर भारतीय इंजीनियरों ने कई नए प्रयोग सिद्ध किये हैं। पानी के साथ जो कंकड़-पत्थर आते हैं उन्हें रोकना, साफ पानी को बहाना-यह नंगल बाँध की एक विशेषता है। ऐसे त्रिकोण खंभे भी जल में खड़े किये गए हैं जो पानी की तेज धार से निरन्तर टकराकर जल्द ही कमजोर न पड़ें।

बीस फुट गहरी कंक्रीट की पक्की नहर वास्तव में अनोखी है। पहले नौ हजार सात सौ फिट तक पानी का बहाव 14,500 क्यूबिक फिट प्रति सेकेंड रहेगा। फिर उसके बाद बहाव 12,500 क्यूबिक फिट प्रति सेकेंड रह जाएगा। नंगल बाँध के ऊपर से निकाली गई नहर सतलज के साथ ही शिवालिक की पहाड़ियों में घूमती अनेक नालों और पहाड़ी नदियों से कतराती हुई बढ़ती है। ऐसी क्रासिंग अट्ठावन जगहों पर होती है। और इस विकट समस्या को हल करने में भारतीय इंजीनियरों ने अपना कमाल दिखलाया है।

कहीं नहर के ऊपर से नहर गुजारी गई है, कहीं नालों और पहाड़ी नदियों के नीचे से होकर नंगल हाइडल नहर गुजरती है। नहर को इसलिये पक्की बनाया गया कि पानी की एक बूँद नष्ट न हो और नहर की उम्र बढ़ जाये। गूंगवाल जाते हुए रास्ते में जगह-जगह पुलों पर खड़ी हुई स्त्रियाँ, कहीं-कहीं पुरुष भी, रस्सी द्वारा बाल्टियाँ गगरे लटकाकर पानी भर रहे थे।

जहाँ पानी का अभाव था वहाँ अब पानी लोगों के घर के द्वारे बहता है। तैयार होने के बाद जिस दिन परीक्षा के लिये नहर खोली गई और पानी दौड़ा उस दिन दूर तक गाँवों में लोग-लुगाइयाँ और बच्चे खुशी से नाचते, किलकारियाँ भरते, तालियाँ बजाते बहते हुए पानी का स्वागत करने के लिये जगह-जगह जमा हो गए। जनता का आनन्द और उत्साह में भरकर पानी का स्वागत करना-यह अनुपम दृश्य सचमुच काव्य का विषय है।

‘भाखड़ा नंगल बाँध योजना’ का कार्य प्रसार देखकर लौटते हुए मेरा मन अपने देश के नए गौरव से ऊँचा उठ रहा था। अपने महान उद्देश्य को सामने रखकर यहाँ मजदूर और इंजीनियर पूरे सहयोग के साथ काम कर रहे हैं। पेट भरने की बात तो अनिवार्य रूप से है ही, पर इसके साथ-ही-साथ प्रत्येक मजदूर को इस बात की चेतना भी पूरी तौर से है कि वह देश के लिये काम कर रहा है। यह सचमुच बड़ी बात है।

यहाँ का वातावरण देखकर प्राण हरे हो गए। मेरे पास अगर अलादीन का चिराग होता, तो सारे देश को यहाँ बुलाकर दिखलाता कि पंजाबी पुरुषार्थी कैसी अथक लगन के साथ अपना पुनर्निर्माण-नहीं, नवनिर्माण कर रहे हैं। देश के बँटवारे से उन्हें जो करारा धक्का लगा है उसे सहकर भी वे हिम्मत नहीं हारे। इन्हें देखकर देश भर के नवयुवकों को महाकवि निराला की ये पंक्तियाँ सुनाने की जी चाहता है कि-

‘जागो, जागो आया प्रभात/बीती, वह बीती,
अंध रात/झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल।’


शिवालिक में चौमुखी बिजलियाँ प्रकाश कर रही हैं। प्रकाश और छाया का अद्भुत खेल यहाँ चल रहा है। दो पहाड़ों के बीच लगभग 1600 फीट लम्बी बिजली की बंदनवार तो मजा बाँध देती है। इस समय सबसे अधिक शोभा सतलज की ही है- बिजली के प्रकाश में चांद-सी झिलमिलाती वह रूप की रानी बनी हुई है। और सारा वातावरण, ये ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ उसके दरबारी और मुसाहब-से लगते हैं। सचमुच बात भी ऐसी ही है।

सतलज के कारण इन पहाड़ियों को यह वैभव मिला है!-यहाँ रात में वैसे ही काम चल रहा है जैसे दिन में चलता है-वही शॉवेल, वहीं यूक्लिड, वही मशीनों का शोर। रात में भी मजदूरों को बर्फ का ठंडा पानी पिलाने के लिये जगह-जगह रखी टंकियों में बर्फ और पानी भरने के लिये मोटर बराबर उसी तरह आ रही है। जैसे दिन में आती है। ये शिव-शिल्पी और मजदूर भारत की आत्मा पे प्रतीक हैं-इनका श्रमगीत परम्परा से इस देश का बीजमंत्र रहा है। इस मंत्र की शक्ति से सदियाँ बनीं-बन रही हैं-बनती रहेंगी।

(राजपाल एंड संस से प्रकाशित पुस्तक ‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’ से संपादित अंश)

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