जब ईंधन नहीं रहेगा

4 Jul 2015
0 mins read

दस साल से ऊपर की उम्र वाले अभी मोटरगाड़ियों को भूले नहीं हैं। बुजुर्गों को तो आज भी वे दिन याद हैं जब पेट्रोल के दाम आसमान छूने लगे थे। सड़कों पर रोज-रोज मोटरों की तादाद घटने लगी थी। पेट्रोल खरीदना सामान्य लोगों के बूते की बात नहीं बच पाई थी। केवल कुछ इने-गिने सम्पन्न लोग अपनी मोटरें चला पा रहे थे। ये मोटरें अब बे-शर्म अमीरी का सबूत बन गई थीं।इस बार का पुराना चावल यों देखा जाए तो बिल्कुल पुराना नहीं है। नया चावल है, यह कहना भी ठीक नहीं। यह चावल आज से कोई बारह बरस बाद उगने वाले धान में से निकलेगा। बिजली, कोयला, पेट्रोल, परमाणु ईंधनों की अंधाधुंध खपत करते जा रहे लोगों को शायद इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि कभी ऐसा भी समय आ सकता है जब ये सारे भण्डार चुग जाएँगे। तब हमारे देश की हालत कैसी हो- इस पर एक भविष्यदृष्टा, विज्ञान लेखक श्री आईजैक असिमोव ने प्रसिद्ध अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका ‘टाईम’ में एक लेख लिखा था। सन 1978 में। लेखक ने इस छोटे-से लेख की एक छोटी-सी भूमिका भी लिखी थी। कहा था, “यह शब्दचित्र बहुत खरा तो नहीं कहा जा सकता पर यदि आज जैसी फ़िज़ूलखर्ची चलती रही तो इस हालत को आने में सच में कोई देरी नहीं लगेगी।” उन्होंने इस फ़िज़ूलखर्ची का उदाहरण दिया कि अमेरिका में दाँत माँजने वाले ब्रशों में भी बिजली लगती है! तो यह पुराना चावल नहीं है क्या? नया चावल-सा दिखता है, लगता है कि यह लेख सन 2027 में लिखा गया है। सच इसकी खुशबू तो देखें!

सन 2027 की एक सुबह! पानी गिर रहा है। आज फिर से आपको अपने दफ्तर पैदल ही जाना होगा। उपनगरीय रेलें ठसाठस भरी हैं। बसों के तो दिन ही लद गए हैं। गीली सड़कों पर साईकिल भी बेहद फिसलती है। गनीमत है कि आपको बहुत दूर नहीं जाना है। छाता है ही आपके पास, उसे तानिए और बस चल पड़िए।

बहुत सौभाग्यशाली हैं आप कि आपको पास में ही खड़ी बहुमंजिली इमारत को तोड़ने का काम मिल गया है। बिजली के बाद ऊँची इमारतें नरक बन गई हैं। लोग छोटे-छोटे एक मंजिल के सादे खुले हवादार मकानों में रहने लगे हैं। अब इन बड़ी इमारतों को तेजी से तोड़ने का काम चल रहा है क्योंकि धरती में छिपी धातुओं के सारे भण्डार खोदे जा चुके हैं और अब जरूरत आ पड़ने पर इस्पात आदि इन्हीं बेकार पड़ी इमारतों से निकाला जा रहा है। अपने इन महलों को खुद ही तोड़िए और जरूरत की चीजें निकाल लीजिए। पेट्रोल व बिजली की तरह कोयला भी खत्म हो चुका है। परमाणु ईंधन का अनुभव बेहद खतरनाक साबित हो चुका है। सौर ऊर्जा भी अव्यावहारिक ही थी।

दस साल से ऊपर की उम्र वाले अभी मोटरगाड़ियों को भूले नहीं हैं। बुजुर्गों को तो आज भी वे दिन याद हैं जब पेट्रोल के दाम आसमान छूने लगे थे। सड़कों पर रोज-रोज मोटरों की तादाद घटने लगी थी। पेट्रोल खरीदना सामान्य लोगों के बूते की बात नहीं बच पाई थी। केवल कुछ इने-गिने सम्पन्न लोग अपनी मोटरें चला पा रहे थे। ये मोटरें अब बे-शर्म अमीरी का सबूत बन गई थीं। और इसीलिए बाकी लोग इन गाड़ियों को देखकर खीज उठते थे। सड़कों पर दौड़ने वाली इक्की-दुक्की गाड़ियों को कभी लोग रोक लेते, उन्हें पलटकर आग लगा देते। फिर राशनिंग हुई पेट्रोल की। सड़कों पर मोटरें और भी कम हो गईं। हर तीन महीने बाद राशनिंग में पेट्रोल की तादाद कम से कम होती गई।

वह दिन भी आ गया जब राशनिंग भी बंद हो गई। गाड़ियाँ जहाँ की तहाँ गड़ गईं। लेकिन इस निराशा भरे समय में भी आशा की किरणें चमक रही हैं, शर्त इतनी ही है कि आप उस चमक को देखना पसंद करें। सन 2027 के ये अखबार तो उठाइए। इनका कहना है कि हमारे शहरों की हवा अब कितनी साफ हो गई है। यहाँ अब न उद्योगों की चिमनी से निकलने वाला धुआँ है, न मोटरों का।

आशंका थी कि पुलिस की गश्ती जीपों के अभाव से शहर में अपराध बेहद बढ़ जाएँगे। पर ताज्जुब की बात है कि अपराधों की संख्या में खासी गिरावट आ गई है। अब पुलिस वाले भी पैदल गश्त लगाते हैं। सड़कें अब पहले जैसी वीरान नहीं हैं। पैदल चलने वालों से शहर भरा पड़ा है। बजाय अपनी-अपनी लम्बी मोटरों में एकाकी घूमने के, अब लोग एक दूसरे के साथ पैदल घूमते हैं। जानी पहचानी भीड़ में लोगों को एक दूसरे का संरक्षण मिल जाता है। सड़कों पर होने वाले अपराधों की तो कोई गुंजाईश ही नहीं बची है।

मौसम? यदि अधिक ठण्ड है तो लोग बाहर धूप में बैठे हैं। और गर्मी है तो भी लोग बाहर छाँव में बैठते हैं। खुला वातावरण ही अब वातानुकूलन का एकमात्र तरीका है। घरों में बिजली नहीं दी जा सकती। वह बहुत कम रह गई है। गनीमत है कि अभी सड़कों पर बिजली की रोशनी उपलब्ध है।

नगर के मुख्य भाग में रहने वालों को इस बात की काफी तसल्ली है कि उनकी जिंदगी उपनगरीय क्षेत्रों में रहने वालों के मुकाबले बेहतर है। ये भव्य उपनगर मोटरगाड़ियों के बलबूते पर ही पनपे थे, उन्हीं के बल पर उनकी भव्यता कायम थी और आज उन्हीं के कारण वे अपनी आखिरी सांस ले रहे हैं। आज उन उपनगरों में रहने वालों को भयानक मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। चौड़ी सड़कों के दोनों किनारों पर बने भव्य बंगलों में रहने वाले आज खाने-पीने का सामान हाथ-ठेलों पर लादकर ला रहे हैं। बर्फीले तूफान के दिनों में तो हालत खस्ता हो जाती है। बिजली चले जाने के बाद से फ्रिज बस टीन की अलमारी बनकर रह गए हैं। खाने-पीने की चीजों का अधिक संग्रह सम्भव नहीं। अलबत्ता घर के बाहर जमी बर्फ में खाने-पीने का सामान जरूर गड़ाया जा सकता है, पर वैसी हालत में गली के कुत्तों पर लगातार निगरानी रखनी पड़ती है!

ऊर्जा के इस संकट ने एक बड़ा काम और कर दिखाया है- हर राष्ट्र से उसकी सेनाएँ न जाने कहाँ गायब हो गई हैं। पेट्रोल को हजम करने की भयानक ताकत रखने वाली इन सेनाओं को आज भला कौन रख सकता है? कँधे पर बँदूक लगाए इने-गिने वर्दी-धारी सैनिक यहाँ-वहाँ बच ज़रूर गए हैं। पर अब वे पैदल घिसटते हैं। फुर्र-फुर्र उड़ने वाले वायुसेना के हवाई जहाज, दौड़ने वाले टैंक, टंक, जीपें सब पड़े-पड़े धूल खा रहे हैं।रही सही जो ऊर्जा उपलब्ध है, उसे अब निजी सुख-सुविधा में उड़ाया नहीं जा सकता। राष्ट्र को तब तक हर कीमत पर चलाना है जब तक ऊर्जा के अन्य स्रोत नहीं हाथ लगते। इसलिए बची-खुची ऊर्जा को खेती के कामों में लगाया जा रहा है। कार बनाने वाली कम्पनियाँ अब बस खेती के औजार बनाने में लगी हुई हैं। कड़ाके की ठण्ड होगी तो एक-दूसरे के साथ चिपककर बिस्तरों में सोया जा सकता है, गर्मी पड़ी तो हाथ पंखा झेला जा सकता है। कार न सही, टाँगे तो बरकरार हैं। पर अनाज न हुआ तो क्या करेंगे भाई? माना कि हमारी आबादी अधिक नहीं बढ़ रही है, फिर भी अनाज की वितरण-व्यवस्था को एक स्तर पर कायम रखना रोज-रोज कठिन होता जा रहा है। फिर कुछ अनाज का निर्यात भी करना पड़ रहा है ताकि हम दूसरे देशों से पेट्रोल आदि की कुछ बूँदें यहाँ टपकवाते रहें।

जाहिर है दुनिया का बाकी हिस्सा हमारे हिस्से जितना भाग्यशाली नहीं है। कुछ सिरफिरे लोगों का यह भी मानना है कि शेष भाग की बहुत बुरी खबर ही हम अमेरिकियों को तसल्ली दे रही है। पृथ्वी की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है, इसलिए उन हिस्सों में लोग भूख से तड़प रहे हैं। आबादी है लगभग साढ़े पाँच अरब। और अमेरिका तथा यूरोप से बाहर बसने वाली आबादी में हर पाँच में एक व्यक्ति के पास भी दो जून की रोटी नहीं है।

पर अब आँकड़े बताते हैं कि आबादी तेजी से घट चलेगी। इसका मुख्य कारण है शिशु मृत्यु दर में आई तेजी। भुखमरी का पहला शिकार ये बच्चे ही हैं। बहरहाल अमेरिका के कुछ अखबारों में इस प्रवृत्ति को अच्छा ही माना जा रहा है। क्यों? इस भुखमरी से आबादी जो कम हो रही है! जी हाँ ऐसी विकट परिस्थिति में भी कुछ अखबार भद्दी खबरों से ठसे आठ पृष्ठ बराबर छापे जा रहे हैं।

एक यह भी खबर है कि भुखमरी से ग्रस्त इलाकों में काफी बड़ी आबादी ऐसी भी है जो थोड़ा-सा ही खा पा रही है। इस नए कुपोषण से एक और विचित्र समस्या सामने आ रही है। ऐसे लोगों का शरीर तो चल रहा है पर कुपोषण के कारण उनका दिमाग लगातार कमजोर होता जा रहा है। हर साल ऐसे कमजोर या विकृत हो चुके दिमागों की संख्या बढ़ती जा रही है। हमारे यहाँ यह भी कहा जाने लगा है कि ऐसे लोगों को चुपचाप मार देना चाहिए। उनके हिसाब से यह ‘व्यावहारिक कदम’ होगा। ऐसे आपात्काल में पृथ्वी को इस अनावश्यक बोझ से छुटकारा दिलाना चाहिए। यों अखबारों में ऐसी खबरें तो छपी नहीं हैं कि कहीं यह ‘व्यावहारिक कदम’ व्यवहार में लाया गया है। पर दुनिया के दूसरे भागों से आने वाले कुछ यात्री ऐसे भयंकर किस्से दबी जुबान से सुनाने लगे हैं।

ऊर्जा के इस संकट ने एक बड़ा काम और कर दिखाया है- हर राष्ट्र से उसकी सेनाएँ न जाने कहाँ गायब हो गई हैं। पेट्रोल को हजम करने की भयानक ताकत रखने वाली इन सेनाओं को आज भला कौन रख सकता है? कँधे पर बँदूक लगाए इने-गिने वर्दी-धारी सैनिक यहाँ-वहाँ बच ज़रूर गए हैं। पर अब वे पैदल घिसटते हैं। फुर्र-फुर्र उड़ने वाले वायुसेना के हवाई जहाज, दौड़ने वाले टैंक, टंक, जीपें सब पड़े-पड़े धूल खा रहे हैं।

रही-सही ऊर्जा के स्रोत लगातार चुकते जा रहे हैं और इसीलिए अब मशीनों की जगह हाथों को लेनी पड़ रही है। मशीनों की विदाई ने काम के घण्टे बढ़ा दिए हैं और बेमतलब आराम के घण्टे कम कर दिए हैं। पर वैसा आराम करके क्या करेंगे- बिजली की कमी ने आराम और मनोरंजन के निरर्थक साधनों को यों भी चौपट कर दिया है। चौबीस घण्टे ऊल-जलूल विज्ञापन और कार्यक्रम उगलने वाला टेलीविजन अब रात को सिर्फ तीन घण्टे चलता है। सिनेमाघर हफ्ते में सिर्फ तीन शो दिखा सकता है। नई किताबों का छपना तो बंद हो ही गया है। सन 2027 में बस तीन चीजें ही बाकी रह गई हैं- काम करो, सोओ और खाओ। आखिरी चीज की गारण्टी नहीं है भाई!

यह परिस्थिति कहाँ जाकर खत्म होगी? आगे नहीं पीछे लौटेगी। एक मोटा-सा अन्दाज है कि यह सन 1800 के दिनों तक वापस खिंचेंगी- शहरों में एकत्र हो गई आबादी को वापस गाँवों में लौटना पड़ेगा, छोटे-छोटे स्वावलम्बी उद्योगों और छोटी खेती पर निर्भर करना पड़ेगा। हस्तउद्योग और ग्रामोद्योग बिना नारे के वापस आ रहे हैं।

क्या हम आज इस परिस्थिति में कोई सुधार नहीं ला सकते हैं? जी नहीं, अब कोई रास्ता नहीं बचा है ऐसा। हाँ, यदि आज से पचास साल पहले यानी 1978 में कुछ निर्णय लेते तो आज सन 2027 की परिस्थिति को टाला जा सकता था। और यदि कहीं हम 1958 में सही दिशा में चलने लगते तो चीजें और भी आसान होती आज!

हिन्दी भावानुवाद अ.मि. द्वारा

 

अज्ञान भी ज्ञान है

(इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

अज्ञान भी ज्ञान है

2

मेंढा गांव की गल्ली सरकार

3

धर्म की देहरी और समय देवता

4

आने वाली पीढ़ियों से कुछ सवाल

5

शिक्षा के कठिन दौर में एक सरल स्कूल

6

चुटकी भर नमकः पसेरी भर अन्याय

7

दुर्योधन का दरबार

8

जल का भंडारा

9

उर्वरता की हिंसक भूमि

10

एक निर्मल कथा

11

संस्थाएं नारायण-परायण बनें

12

दिव्य प्रवाह से अनंत तक

13

जब ईंधन नहीं रहेगा

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading