जहाज का जलागम

4 May 2014
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उजड़ते-बसते तट


पता नहीं, ऊमरी-देवरी में बेटी ब्याह की कहावत पहले की है या बाद की। पर सच है कि ऊमरी को हजारों साल पहले उम्मरगढ़ के नाम से जाना जाता था। कालांतर में उम्मरगढ़ किसी कारण नष्ट हो गया। ऐसा ही देवरी नगर के साथ भी हुआ। समय बीता। नगर की जगह विशाल जंगल आबाद हो गया। कालांतर में ये स्थान पुनः धीरे-धीरे बसे। देवरी गांव में भाभला गोत्र के मीणा आकर बस गए। पर जाने क्यों बाद में उनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती चली गई। सन् 1933 में इस गोत्र का एकमात्र सदस्य दल्ला पटेल ही बचा था। जहाजवाली नदी के जलागम में जहाज नामक स्थान की खास महत्ता है। इस स्थान पर एक अखंड झरना है। यह झरना अमृतधारा की भांति है। स्वच्छ और निर्मल प्रवाह का स्रोत! यहां पर हनुमान जी का एक मंदिर है।

नामकरण - कहते हैं कि पौराणिक काल में यहां जाजलि ऋषि ने तपस्या की थी। जाजलि ऋषि बड़े विद्वान और वेद-वेदांगों के ज्ञाता तो थे ही, वह आयुर्वेद के सोलह प्रमुख विशेषज्ञों में से भी एक थे।

धन्वतरिर्दिवोदासः काशिराजोSश्विनी सुतौ। नकुलः सहदेवार्की च्यवनों जनको बुधः।।
जाबलो जाजलिः पैलः करभोSगस्त्य एवं चSएते वेदा वेदज्ञाः षोडश व्याधिनाशका:।।


अर्थात् धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, दोनों अश्वनि कुमार, नकुल, सहदेव, सूर्यपुत्र यम, च्यवन, जनक, बुध जाबाल, जाजलि, पैल, करभ और अगस्त्य-ये सोलह विद्वान वेद-वेदांगों के ज्ञाता तथा रोगों के नाशक वैद्य हैं।
(स्रोतः ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड, अध्याय 16, श्लोक)

जाजलि मुनि ने आर्युवेद संहिता के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से ‘वेदांग सार तंत्र की रचना भी की थी। बहुत संभव है कि इस तंत्र की रचना वर्तमान ‘जहाज’ नामक स्थान पर ही की गई हो। यह विस्तृत जंगल आर्युवेदिक औषधियों के लिए सदैव प्रसिद्ध रहा है। जाजलि ऋषि के नाम पर ही इस स्थान का नाम अपभ्रंश होते-होते जाजलि से जाजली, जाजल, जाज, ज्हाज और अंत में जहाज हो गया। जहाज के नामकरण की यही संदर्भ कथा मौजूद है।

थांई का डंका - जहाज के वर्तमान कुंड व हनुमान जी के मंदिर के पश्चिमोत्तर में ऊपर दो थांईं हैं। पहली बड़ी थाईं और दूसरी छोटी थांईं के नाम से जानी जाती हैं। कहते हैं कि लगभग 300 वर्ष पूर्व तक यहां सामाजिक पंचायतों का मजबूत ढांचा मौजूद था। तब दोनों थांई बैठक की केंद्र थीं। किसी भी सूचना के लिए बड़ी थाईं पर ढोल बजता था। ढोल की आवाज सुनकर गांवों के लोग यहां एकत्रित हो जाते थे।

छोटी थांई पर छोटी पंचायत और बड़ी थांई पर बड़ी पंचायत होती थी। बड़ी पंचायत तभी होती थी, जब किसी विषय पर अंतिम निर्णय करना होता था समाज की कितनी अच्छी व्यवस्था थी। धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म हो गई। इसीलिए थांई की जगह का भी उपयोग नहीं रहा। थांई के स्थान पर अभी कुछ वर्षों पूर्व एक महात्मा जी की कुटिया थी। उनके चले जाने के बाद से अब थांई की जगह वन-विभाग के लोगों को भा गई है। अब उन्हीं का कब्जा है।

धूणी रमाते तट - जाजलि ऋषि के बाद यहां समय-समय पर अनेक संत-महात्माओं के आने-जाने के किस्से आप गांव वालों से सुन सकते हैं। यह स्थान धूणी रमाने वालों को हमेशा ही प्रिय रहा। बुजुर्गों के अनुसार 70-80 साल पहले यहां एक मुस्लिम फकीर आए थे। उनके बाद यहां एक हिंदू बाबाजी आए। उन्हें लोग “आड़-बंध वाले बाबा जी” के नाम से जानते थे। वे घूमते रहते थे। वह कभी-कभी ही यहां पर आते थे। उन्हीं के समय में घम्मननाथ नामक एक बाबा भी यहां आए। इनके बाद बालकनाथ बाबाजी आए। उनके पास कभी-कभी कल्लूदास बाबाजी आते थे। फिर जगन्नाथदास जी आए। उनके पास जवाहरदास जी भी रहते थे। भाबा जगन्नाथदास जी के जाने के बाद सन् 1985-86 के लगभग यहां पर मल्लादास बाबाजी आए। इनके समय में इस स्थान पर काफी चहल-पहल रहती थी। मल्ला बाबा अलीपुर-हिंगोटा के रहने वाले थे। कहते हैं कि मल्ला बाबा जी प्रतिदिन जानवरों व पक्षियों को लगभग दो-ढाई मन अनाज खिलाते थे। यहां आने वाले सैकड़ों भक्तों-श्रद्धालुओं को प्रतिदिन दाल-बाटी का प्रसाद बांटा जाता था। यह भी कहते हैं कि उनके आश्रम के नीचे बना गोदाम अनाज से भरा रहता था। इस कार्य में चावा का बास के सरपंच लक्ष्मीनारायण शर्मा (मास्टर जी) का बड़ा योगदान रहता था। वह मल्ला बाबा के प्रिय भक्तों में से एक थे।

उल्लेखनीय है कि जहाजवाला बांध के लिए मल्ला बाबा ने ही श्रमदान के रूप में 50 कट्टे सीमेंट व बीस हजार रूपए नकद का सहयोग दिया था। इसे दहड़ा वाला बांध भी कहते हैं। यही नहीं, गांवों के लोगों का सहयोग भी मल्ला बाबा की प्रेरणा से ही मिल पाया था। वर्ष 2000 में मल्ला बाबा के स्वर्ग सिधार जाने के बाद उनके स्थान पर उनके शिष्य टेड्यादास जी बैठे। वह वर्तमान में ऊपर वाले आश्रम में विराजते हैं। नीचे वाले पुराने स्थान पर अब छोटादास जी महाराज का निवास है।

यूं इस स्थान पर प्राचीन काल से ही एक झरना बहता रहा है। वही आकर्षण का केंद्र रहा होगा। लेकिन बीच के दौर में जंगल कम हुए। लगातार अकाल पड़ा। मानव-हस्तक्षेप के कारण भी वर्ष 1984-85 से इस झरने का बहना कम हो गया। इसी ने लोगों का ध्यान खींचा। इसी के लिए गांव, मल्ला बाबा व तरुण भारत संघ के संयुक्त सहयोग से जहाजवाला बांध बना। अब यह पुनः बहना शुरू हो गया है। असलियत में यही झरना है जो कि आज जहाजवाली नदी को सदानीरा बनाए हुए है।

ऊमरी देवरी : सारी दुनिया यहीं समाई - विश्वास नहीं होता लेकिन कहते हैं कि आज का देवरी प्राचीन काम में बहुत बड़ा नगर था। इसकी उत्तरी पहाड़ी के उत्तर में बसे गांव ऊमरी के बारे में भी यही कहते हैं। आस-पास के लोग सभी आवश्यक सामान के लिए ऊमरी-देवरी आते थे। यह माना जाता है कि इन दोनों गांवों के वैवाहिक संबंध आपस में ही हो जाते थे। शायद तभी एक कहावत यहां प्रचलित हैः

पता नहीं, ऊमरी-देवरी में बेटी ब्याह की कहावत पहले की है या बाद की। पर सच है कि ऊमरी को हजारों साल पहले उम्मरगढ़ के नाम से जाना जाता था। कालांतर में उम्मरगढ़ किसी कारण नष्ट हो गया। ऐसा ही देवरी नगर के साथ भी हुआ। समय बीता। नगर की जगह विशाल जंगल आबाद हो गया। कालांतर में ये स्थान पुनः धीरे-धीरे बसे। देवरी गांव में भाभला गोत्र के मीणा आकर बस गए। पर जाने क्यों बाद में उनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती चली गई। सन् 1933 में इस गोत्र का एकमात्र सदस्य दल्ला पटेल ही बचा था। वह प्रभात पटेल को अलवर से गोद लेकर यहां आया। प्रभात पटेल अलवर के छुट्टनलाल कप्तान के साथ रियासती फौज में कैंटीन आदि की व्यवस्था संभालते थे।

भाभला छावड़ी भैंभाई - किंवदंती है कि सन् 1594 में देवरी गांव में भाभला गोत्र के मीणाओं की बस्ती थी। उसी दौर में लूणपुर की जोहड़ी (वर्तमान में धमरेड़ गांव) नामक गांव से छावड़ी का गुर्जर यहां आया। जेठ-आषाढ़ का महीना था। लूणपुर व देवरी की सीमा पर वह अपनी गाएं चराने आया था। उसके पास बहुत सारी गाएं थीं। उनमें एक बिणजार (सांड) भी था। भाभला गोत्र का एक मीणा अपने खेत में हल चला रहा था। उधर छावड़ी गोत्र के गुर्जर की गाएं प्यासी थीं। गाएं प्यास से बेहाल होकर देवरी के जुवारा वाला जोहड़ की तरफ दौड़ पड़ी। वह गुर्जर बार-बार उन्हें रोक रहा था। वह प्यासी गायों की मजबूरी को भी समझता था और अपने बिणजार की प्रवृत्ति को भी जानता था। वह जानता था कि यदि गाएं नीचे उतरीं, तो उसका बिणजार भी नीचे उतरकर हल में चल रहे बैलों पर हमला कर सकता था। उसकी विवशता व पानी क लिए बेचैनी को देख हल चला रहे मीणा ने कहा- “गायों को नीचे ले आओ और जुवारा वाले जोहड़ से उन्हें पानी पिला दो।” इस पर पशुपालक गुर्जर ने कहा-मेरा बिणजार मरखना है। वह आपके बैलों को मार सकता है। इसीलिए मैं वहां नहीं आ रहा। प्रत्युत्तर में किसान बोला-भाई! बिणजार और बैल ही तो लड़ेगे, हम तो नहीं लड़ेगे। तुम गायों को ले आओ और उन्हें पानी पिला लो। बिणजार के डर से गायों को प्यासा क्यों मार रहे हो? तब वह गुर्जर गायों को नीचे उतारकर जुवारा वाले जोहड़ पर पानी पिलाने ले आया। उसका नीचे उतरना था कि पास में ही हल में चल रहे बैलों पर बिणजार ने हमला बोल दिया। देखते ही देखते बिणजार ने हल में जुते एक बैल को जान से मार दिया। बैल के मर जाने से पशुपालक गुर्जर दुःखी हुआ। उसने अपने एक तगड़े से बछड़े को नाथकर उस किसान मीणा को दे दिया। भाभला मीणा छावड़ी गोत्र के गुर्जर के इस बर्ताव से बहुत प्रभावित हुआ। उस मीणा ने उस गुर्जर को ‘भैंभाई’ बना लिया।

भैंभाई वे कहलाते हैं जो अपनी दोनों की संपूर्ण सम्पत्ति को एक जगह करके सगे भाई की तरह आपस में बराबर बांट लेते हैं। भाभला गोत्र के मीणा किसान ने छावड़ी गोत्र के गुर्जर को अपनी संपूर्ण सम्पत्ति में बराबर का हिस्सेदार बना लिया। इतना ही नहीं, उसे गायों समेत वहीं बसा लिया।

गुवाड़ा गांव के नामकरण के पीछे यही किंवदंती है। जहां छावड़ी गोत्र का वह गुर्जर बसा, वह जगह ‘गुवाड़ा’ कहलाई। इस गुवाड़े में बाद में चेची, देवतवाल, लांगड़ी, कसाणा व दड़गस गोत्र के गुर्जर भी आकर बस गए। इसी गुवाड़ा में से चेची गोत्र के गुर्जरों ने सन् 1950 में बांकाला कुआं व वहां की जमीन खरीद ली। वहीं रहने लगे। जहां वे सबे, वहां गांव ‘बांकाला’ कहलाया।

ऐसा ही देवरी में हुआ। देवरी में भाभला गोत्र के मीणाओं के बाद ब्याडवाल, उसार्रा और कंवाल्य गोत्र के मीणा भी धीरे-धीरे आकर बस गए। गुवाड़ा के भगवान सहाय गुर्जर बताते हैं कि किसी जमाने में उक्त इन तीनों गांवों में मीणा व गुर्जरों के भानजों के ही लगभग 360 हल चला करते थे। यह गांव काफी बड़ा व कृषि सम्पन्न गांव था। बांध बनाकर वर्षा के पानी को रोकने की पारंपरिक व्यवस्था यहां काफी पहले से थी। हालांकि बाद में अधिकांश का तो अस्तित्व ही खत्म हो गया। पुराने जोहड़ों में से मात्र ‘जुवारा वाला जोहड़’ व ‘लुहारी वाला जोहड़’ आदि ही बचे थे। इसी बीच तरुण भारत संघ ने दस्तक दी। अब इन तीनों गांवों में 25 जोहड़-बांध बन गए हैं। इनमें से चार जोहड़ों का पानी रूपारेल नदी में, एक जोहड़ का पानी पलासान नदी में और 20 जोहड़ों का पानी जहाजवाली नदी को सीधे समृद्ध करता है।

देवरी का मंदिर - देवरी में एक प्राचीन मंदिर है। इसकी पूजा आदि व्यवस्था के लिए जमीन भी है। कहते हैं कि अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह जी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। किसी समय इस मंदिर में डांगरवाड़ा के एक सरल चित्त ब्राह्मण पुजारी रहते थे। उन्हें लेकर एक दिलचस्प प्रसंग यहां चर्चित है।

पुजारी जी पढ़े-लिखे ज्यादा नहीं थे, पर बुद्धिमान बहुत थे। उनके पास पंचांग आदि की व्यवस्था तो नहीं थी, लेकिन उन्होंने भारतीय तिथियों और वारों को जानने के लिए एक व्यवस्था बना रही थी। उनके पास पंद्रह पंख मोर के और सात पंख मोरनी के थे। उन्हें व मंदिर के अंदर किसी जगह पर रखते थे। पड़वा को मोर का एक पंख, दूज को दो पंख, तीज को तीन पंख और इसी क्रम में पूर्णिमा को पंद्रह पंख किसी नियत स्थान पर रखते जाते थे। उन्हें गिनकर ही वे गांव वालों को तिथि बता देते थे। वार के लिए मोरनी के तास पंख थे। वे उन्हें क्रम से रखकर सोमवार, मंगलवार, बुधवार आदि के बारे में जानकारी कर लेते थे। एक बार आंधी आने से अथवा किसी के हस्तक्षेप से सभी पंख आपस में मिल गए। उसी दिन किसी ने उनसे तिथि और वार की जानकारी लेनी चाही। वह रोज की तरह मंदिर के अंदर गए। उन्होंने वहां सभी पंखों को मिले हुए पाया, बहुत देर बाद वह बाहर निकले! सोचते हुए यूं ही बोले-आज तो ‘घमरोल तिथि’ और ‘घसलवार’ है। आगंतुक ने उनसे पूछा कि पंडित जी! घमरोल तिथि और घसलवार क्या होता है? पंडित जी क्या जवाब देते! सच्चाई बता दी - “क्या बताऊं?” आज तो तिथि और वार उड़कर सब एक जगह हो गए हैं। इसी को ‘घमरोल तिथि’ और ‘घसलवार’ कहते हैं। वहां मौजूद लोगों ने जब वस्तुस्थिति समझी, तो सभी हंसने लगे। यह प्रसंग याद कर आज भी देवरी के लोग मुस्कुरा उठते हैं।

रूपनाथ जी का मंदिर - बांकाला गांव के सामने दक्षिणी पहाड़ी पर एक प्राचीन मंदिर है। रूपनाथ जी का मंदिर! माना जाता है कि रूपनाथ जी बगड़ावतों के गुरू थे। बगड़ावत लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुए थे। रूपनाथ जी की यह पहाड़ी देशभर के श्रद्धालुओं में “बांका डूंगरा” के नाम से जानी जाती है क्योंकि डूंगर इसी जगह पर आकर बांका हो गया है। ‘डूंगर’ यानी पहाड़ और ‘बांका’ यानी टेढ़ा। इसी कारण नीचे उत्तर में एक कुएं का भी नाम बांकाला कुआं है। इसके पास बस जाने के कारण निकट गांव का नाम भी बांकाला पड़ गया।

रूपनाथ जी का मंदिर पूरे भारत में केवल यहीं पर है। स्थानीय सभी जातियों के लोगों के अलावा पारीक, पुरोहित, नायक और रैबारी लोग यहां ज्यादा आते हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और जम्मू व कश्मीर तक से लोग यहां आते हैं। यहां पर पहाड़ के ऊपर ही तरूण भारत संघ व स्थानीय लोगों ने पानी के टांके और जोहड़ का निर्माण किया है।

नांडी से नांडू - देवरी गांव के दक्षिण में पहाड़ी को पार करते ही राड़ा गांव आता है। राड़ा गांव, नांडू गांव की ही एक ढाणी है। नांडू गांव किसी जमाने में बड़गुर्जर राजपूतों का गांव था। इस गांव के पूर्वोत्तर में थोड़ी ही दूर पर गोवर्धनपुरा नाम का एक गांव कभी था। गोवर्धनपुरा वर्तमान में गैर आबाद है। गोवर्धनपुरा में देवनारायण जी की एक पाट मिली है। ‘पाट’ … पूजा का स्थान होता है। इससे यह भी लगता है कि यहां पर बड़गुर्जरों के साथ ही गुर्जर भी रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि देवनारायण जी के मंदिरों की स्थापना अक्सर गुर्जर बाहुल्य क्षेत्रों में ही होती थी। बड़गुर्जरों ने पुरोहिताई के लिए डांगरवाड़ा के ब्रह्माणों को बुलाया था। डांगरवाड़ा से आए ब्राह्मणों को यहां की जमीन का पूरा रकबा मिल गया था। यहां के बड़गुर्जर राजपूत कैसे नष्ट हुए? … या कैसे...कहां गए? इसका अभी पता नहीं है। खोज करने की जरूरत है।

यहां पर घोड़ों के पुराने ठाण से देवी की एक प्रतिमा मिली है। मान्यता है कि यह देवी गांव क पशुधन आदि की सुरक्षा करती थी। किस्सा है कि बड़गुर्जरों के काल में एक बार किसी की भैंसों को चोर ले गए। देवी ने आभास कराया- आपकी भैंसे इस समय ‘सीम के नले’ में हैं। यह जानकारी मिलने पर तुरंत कुछ लोग वहां गए। भैंसे मिल गईं।

गांव में एक पुरानी बावड़ी है जो मलबे आदि से भरती जा रही है। बावड़ी में तीन कमरे हैं। राड़ी गांव के पूर्वोत्तर में ‘पुराना नांडू की जोहड़ी’ नाम से एक जोहड़ी है। इसके उत्तर में पुराना नांडू की बसावट के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं। प्रारम्भ में जब बड़गुर्जर यहां आए थे, तब किसी ने इस जोहड़ी को ‘नांडी’ नाम से संबोधित किया था।

इसी नांडी के पास बस जाने के कारण इस गांव का नाम पहले नांडी हुआ और अपभ्रंश होते-होते अब नांडू हो गया है। नांडू क्षेत्र में छह धार्मिक स्थान हैं। जहाज में हनुमान जी का मंदिर, बांसरोल में भोमिया बाबा का स्थान, सोना में सिद्ध बाबा, नांडू के ऊपर देवी जी का मंदिर तथा दो मंदिर ठाकूर जी के हैं। ठाकूर जी का एक मंदिर बणियों का बनाया हुआ है. इसमें अब मूर्ति नहीं है। दूसरे मंदिर में ठाकूर जी (सीताराम जी) की मूर्ति विद्यमान है। इस मंदिर के नाम वर्तमान में नौ बीघा जमीन है।

नांडू गांव के अंतर्गत ही एक ढाणी ‘राड़ी’ है। किसी समय यहां पर मोड़ा नाम से प्रख्यात ब्राह्मणों के ऊंट बैठते थे। इसीलिए यह ‘मोडान की राड़ी’ भी कहलाती है। नांडू गांव के अंतर्गत ही दूसरी ढाणी ‘कैरवाड़ा’ है। इसमें दूसरे गांवों से आकर कुछ गुर्जर बस गए। जाहिर है कि इस इलाके में एक गांव से दूसरे गांव, दूसरे गांव से तीसरे गांव बसने का सिलसिला आम रहा है।

वर्तमान में नांडू गांव के हर परिवार के पास लगभग छः सात भैंसें हैं। पहले भैंसे ज्यादा थीं। यूं यदि बहुत पहले की बात करें, तो उस समय गायें ही ज्यादा होती थीं। 40 वर्ष पूर्व नांडू के लक्ष्मण जी शर्मा के यहां प्रतिदिन एक पीपा घी निकलता था। लक्ष्मण शर्मा बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे। अलवर महाराज जयसिंह जी जब भी यहां आते थे, तो इनके यहां अवश्य आते थे। नांडू को आज भी अतिथि सत्कार तथा घी-दूध के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।

तालाब गांव : कुंवर बाई की नींव पर - जनश्रुति के अनुसार तालाब गांव लगभग 1300 वर्ष पूर्व वर्तमान जगह पर बसा था। इससे पहले यह गांव इसी गांव के तालाब के दक्षिण में ‘रामबास रम्माणा’ के नाम से बसा हुआ था। वहां का राजा ‘मैण’ था। वह बड़गूर्जर राजपूत था। यह काल आज से लगभग 1700 वर्ष पूर्व का माना जाता है। राजा के एक बेटा और एक बेटी थी। राजा मैण की तमन्ना थी कि वह एक तालाब अपने गांव रामबास रम्माणा के उत्तर में और एक तालाब पश्चिम में बनाए। दोनों तालाब बने भी, पर वे दोनों ही टूट गए। दोबारा बनाने पर भी फिर टूट गए। इस प्रकार उस ने सात बार तालाब बनाए, पर सातों बार वे टूट गए। राजा बहुत निराश हुआ। तब किसी ज्योतिषी या तांत्रिक ने कहा - राजा ! आप उत्तर दिशा वाले तालाब पर अपने बेटे की बलि दें और पश्चिम वाले तालाब पर अपनी बेटी की बलि दें, तो ये तालाब टूटने से बच सकते हैं। कहते हैं कि राजा ने रामबास रम्माणा के उत्तर में बनाए जा रहे तालाब में अपने बेटे की बलि तो दे दी, पर पश्चिम वाले तालाब में वह अपनी बेटी की बलि नहीं दे सका। इसलिए रामबास रम्माणा के उत्तर की तरफ वाला तालाब तो बच गया, पर पश्चिम का तालाब टूट गया। जिस तालाब में राजा ने अपने कुंवर (बेटे) की बलि दी थी, वह तालाब ‘कुंवर जी का तालाब’ कहलाता है। उस कुंवर को लोग आज ‘जल श्री भोमिया जी’ के नाम से पूजते हैं। रामबास रम्माणा के लोग इसी तालाब के उत्तरी किनारे पर बस गए। यह बस्ती ही आज ‘तालाब’ गांव के नाम से जानी जाती है। जिस तालाब में राजा को अपनी बेटी की बलि देनी थी, उसे लोग आज ‘बाई जी का तालाब’ के नाम से जानते हैं। यह तालाब आज भी टूटा हुआ ही है। ‘कुंवर जी का तालाब’ हमेशा पानी से भरा रहता है। ऐसी कई कहानियों व किंवदंतियों में उजड़ता-बसता रहा है जहाजवाली नदी जलागम का अतीत!

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