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Jaisalmer

जैसलमेर के पास बसे छोटे से पर्यटन स्थल 'सम' का सजीव संयोजन


जैसलमेर राजस्थान की स्वर्णनगरी या सोने का शहर के नाम से जाना जाता है। सोना यानी मानव सभ्यता द्वारा आविष्कृत और मान्य बहुमूल्य धातु। गुणवत्ता का मानदंड। खरेपन की कसौटी। पीताभ, सुनहरा, चमकीली किरणें बिखेरता। जैसलमेर पहली नजर में लगता भी है सोने का शहर। दूर–दूर तक फैली सुनहरी चमकीली रेत के बीचो–बींच एक बस्ती। सोने के रंग की इमारतें। स्वर्णिम आभा वाला यह इमारती–पत्थर आसपास के इलाके में खूब पाया जाता है। नगर निगम ने भवन–निर्माण के लिए उस पत्थर का उपयोग अनिवार्य कर दिया है। रेत की पीली चमकीली परतों के साथ इस पत्थर की इमारातों की आभा पास ही की त्रिकुट नामक पहाड़ी पर बने प्राचीन एतिहासिक दुर्ग की सुनहरे पत्थरों की दीवारों के रंग से जब एकाकार होती है, खास कर चमकते सूरज की रोशनी में, तो स्वर्ण साक्षात होता है।

स्वर्ण–नगरी की आलीशान इमारतें, भव्य होटल दूर–दूर तक फैले रेत के सागर में उड़ा लाए छोटे–छोटे सुनहरी द्वीपों जैसी लगती है। कहा जाता है कि भूतल के कंपन या किसी बड़े भारी इलाके से समंदर की छाती पर द्वीप उग आते हैं। जैसलमेर के इस ऐतिहासिक इलाके को भी पिछले वर्षों में पर्यटकों के सैलाब से कम धक्का नहीं लगा है। यहां पूरी अर्थव्यवस्था अ–सम हो गई है। बाजारों, खादी भंडारों, राजस्थानी पहरावों, प्राचीन मूर्तियों और साज–सज्जा की चीजों के साथ आलीशान होटलों के भारी–भरकम खर्चों पर पानी की तरह पैसा बहाते देशी–विदेशी पर्यटक . . . . . शहर का बाजार जैसे किसी विदेशी शहर का बाजार लगता है।

दूसरी ओर शहर के बाहर या बस्ती के किसी कोने में दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद गर्मियों में उमस से बदहाल या हड्डियां कंपाती ठंड में अलाव तापते, बटलोई में दाल–रोटी पकाते मजूर–कुली और रेत पर नंगे पांव अधनंगे टाबर–छोकरे। 'ढोलामारू' और 'बनीरो' गीत गानेवाला। कोई सदीक खां या मंगरू चौधरी जैसा देहाती कलाकार अपनी पाटदार आवाज में कहीं तान छेड़ता है . . 'बना . . . रे . . . थे जयपुरिए जी जइजे . . . . बनीरे झमको नथडी लइजे . . . . हां . . . बना रे . . . थे उदयपुरिये जइजे बनीरे . . . . गेंदा रखड़ी लइजे . . . ' तो सैलानी झूम–झूम उठते हैं पता नहीं कितने दूल्हे अपनी दुलहिनों के लिए जयपुर और उदयपुर के बाजारों से झुमका, नथनी और रखड़ी खरीद पाते हैं और कितनों की हसरतें दिल में ही रह जाती हैं। ये गायक कलाकार भी अपने गीत, अपनी आवाज सौ–डेढ़ सौ रूपए में बेच देते हैं . . . . . . हमेशा के लिए। सैंकड़ो कैसेट बना कर दुकानदार मुनाफा बटोरता है।

'सम' इसी असमानता के बीच जीते स्वर्ण शहर जैसलमेर से करीब पचासेक मील दूर है। सम नाम की जगह जैैसलमेर के रेतीले इलाके में काफी जाना–पहचाना नाम है। पर इसका अर्थ कोई नहीं बता पाया। बहुतों से पूछा। छोटे–मोटे दुकानदार, स्थानीय रहवासी, ऊंटवाले और मंदिरों के पूजारी, यहां तक कि पर्यटन–कार्यालय का गाइड तक लगभग एक जैसा उत्तर देते हैं। 'मतलब रो कई पूछणो है? जगह देखी है आपने? जरूर जाना। जैैसलमेर आनेवाला 'सम' देखने जरूर जाता है . . . . वो विदेशी लोग दस–दस दिन तक उस इलाके में घुमते–भटकते हैं . . . . 'कैमल–सफारी' में रेगिस्तान के जहाज पर हिचकोले खाते पर थकते नहीं है कमबख्त। हाड़ से मजबूत होते है वर्ना ऊंट पर बैठने की आदत न हो तो एक–दो घंटे बाद ही शरीर की चूलें हिलने लगती है . . . . अब इसका मतबल तो हम नहीं जाणते . . . . पर मतबल ने करणो कई है? जगै देखने के मतबल की है . . . . ।'

हिंदी या मारवाडी में 'सम' का अर्थ तलाश करें तो संभवतः समान या एक जैसा कुछ होगा। पर मन नहीं मानता इस मतलब को। 'सम' तो जैसलमेर ही क्या इस पूरे इलाके में कुछ नहीं लगता। स्वर्ण शहर कहां शुरू होता है, कहां रेत सागर, पता लगाना मुश्किल है। शहर के बीच बीच में रेत है और रेत के बीचों–बींच बस्तियां . . . . अठारहवी शती के वैभव समेटे विश्व–प्रसिद्ध पटुओं की हवेलियों के पारदर्शी झरोखों पर सोने की कलम से की गई चित्रकारी को मंत्रमुग्ध निहारते सैलानी और उधर अपनी मरियल काया पर आस्तीन से उधड़ी, दान में मिली टेरलीन की कमीज लटकाएं पर्यटन–साहित्य और माला–मूर्तियां बेचने की कोशिश में सैलानियों के इर्द–गिर्द मंडराते पंद्रह–सोलह वर्ष के किशोर जिन्हें इस उम्र में विद्यालय की कक्षाओं में होना चाहिए था पर विद्या से रोटी ज्यादा जरूरी है न . . . . सब विषम ही तो है . . . . ।

पटुओं की हवेलियों के गोखड़ों, मेहराबों और दरवाजों पर की गई महीन और कलात्मक शिल्पकारी में घंटों रूके रहने वाले विदेशी पर्यटकों की तन्मयता और देशी आदमी की उदासीनता में भी 'सम' का कोई सुर नहीं है पटुओं की हवेली की शिल्पकला का जो बारीक काम है उसी से नाम है जैसलमेर का दुनिया के पर्यटन के नक्शे पर। ठीक है चार घर का जोगी जोगड़ा।

पटुए जैसलमेर के राजघराने की खजांची हुआ करते थे। धन–दौलत और मालभत्ते की देखभाल और हिसाब–किताब में आठों प्रहर रमा रहनेवाला मन शिल्पकारी के प्रति इतना आत्मिय रहा होगा यह भी कम 'असम' नहीं हैं। 'सम' तो स्थापत्य कला के भव्य प्रतीक जैन मंदिरों में भी नहीं दिखता श्रद्धालु भक्तगण माथा नवाते और सैलानी स्थापत्य–सौंदर्य को कैमरे में कैद करके लौटते हैं। सैंकड़ो में कोई इक्का–दुक्का ही मिलता है जो पाश्र्वनाथ, संभवनाथ और श्रषभदेव के मंदिरों के उन तहखानों में झांकने का वक्त निकालें जहां प्राचीन विद्याभंडार के गौरवग्रंथों की पांडुलिपियां अजनबीपन और गुमनामी का जीवन जी रहा है।

पुराना तो सब बेकार ही है न सांस्कृतिक चेतना का अर्थ 'हैंडिक्राफ' के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया है। बहुत हुआ तो 'फोक सांग' और 'फोक डांस' को पंचतारा होटलों तक ले आए। नुमायशी चीजसाहित्य, दर्शन और चिंतन का संस्कृति से क्या लेना–देना।

पिछले कुछ वर्षों में रेत के बीचों–बीच कई मील इधर–उधर यह शहर काफी फैला–पसरा है। यह फैलाव ही शायद 'नवी चेतना' ही सबकी ओकखांण है। यानी नई चेतना की सशक्त पहचानभूरी मटमैली रेत के रंग के साथ भूरे, सुनहरे मटमैले पत्थरों की इमारतें।

धूप में स्वर्णछाया को मूर्त करती हुई। है न नगरपालिका की सूझबूझ काबिले तारीफ शहर के ऊंट वालों, कुली–कबाडियों और सेठों–साहबों की अमीरी–गरीबी की खाइयों को पार कर 'सम' नहीं किया जा सकता, तो चलो शहर को तो कम से कम एक रंग में रंग दिया जाए। रेत के रंग में।

रेत के आसमान में आकाशगंगा सी बल खाती कोलतार की सड़क शहर से 'सम' तक ले जाती हैरास्ते में दोनों ओर झड़बेरी की झाड़ियों तले बकरियां चराते बच्चों के लिए 'सम' की ओर जाते सैलानी अब विशेष दिलचस्पी की चीज नहीं रह गए हैं। हां, बेतरतीब आधी पतलून और अजीबेगरीब सी कमीज वाली ऊंट पर बैठी विदेशी महिला को देख कर कभी–कभार आपसमें कुछ हंस–बोल कर फिर अपनी बकरियों से मुखातिब हो जाते हैं।

'सम' पहुंचते ही लगता है जैसे रेत का एक दरिया है आगे। तट पर कतार में कोई दर्जन भर ऊंट वाले बैठे हैं। पगड़–साफा बांधे कुछ धोती में, कुछ तहमद लपेटे, कुछ चूडीदार पाजामा और अंगरखा डाले खलिस राजस्थानी सजधज में . . . . . हुक्का–विलत साथ। सैलानियों को देखते ही दौड़ पड़ते हैं : 'सर . . . . . . साबजी . . . . . बाबूसाब . . . . म्हारा ऊंट है . . . . . वो वाला जवान पठ्ठा . . . . ' 'इधर आइए साबजी . . . . वो 'रेसमा और सेरा ' में अमिताभ का ऊंट था न . . . . वोई है म्हारा ऊंट . . . . खुश हो जाएंगे आप . . . उधर चलेंगे आगे . . . . टीले से 'सनसेट' देखना साब'

रेत के जहाज में सैर करने का आकर्षण . . . . रेत के दरिया में नौका विहार . . . . . चंद मिनटों में ही सारे जहाज खुल जाते हैं। ऊंटोें पर लद जाती है सवारियां? कुछ लोग घंटे–भर में एक–दो मील चक्कर लगा कर लौटेंगे। कुछ निकल गए हैं हफ्ते भर के लिए। जो पहले भी आ चुके हैं या ऊंट की सवारी नहीं करना चाहते? वे रूक जाते हैं। आसपास रेत और चहलकदमी करते हुए। अधिक उत्साही रेत के टीलों पर फिसलने और दौड़ लगाने निकल पड़ते हैं।

हम दो–तीन मित्र पास ही के 'होटल गुलजार' के सामने रखी लकड़ी की एक छोटी सी बेंच पर बैठ जाते हैं। होटल गुलजार। सम के रेगिस्तान में किसी 'फाइव–स्टार' होटल से कम रूतबा नहीं है इसका। बांस की खपच्चियों पर घास–फूस बांध कर किसी तरह एक छप्पर खड़ा किया गया है। एक गंभीर से बुजुर्ग हैं इसके मालिक। एक लड़का है साथ में। दस बारह साल का। धुंआ देते स्टोव में फटाफट पंप मारता वह चाय की केतली चढ़ा देता है। बड़े मियां प्यालियां धोते–धोते पूछ बैठते हैं ' 'गए नहीं आप लोग ऊंट की सवारी का शौक नहीं है सर?'

चाय की चुस्कियां लेते हुए हम लोग बड़े मियां से बतियाने लगते हैं : 'कैसा चलता है बाबा आपका यह होटल गुलजार?'

'चलना क्या है सरजी बस दाल–रोटी निकल आती है . . . क्यों?

लोग तो बहुत आते हैं यहां। आप अपने इस होटल को जरा ठीक ठाक क्यों नहीं कर लेते। पत्थर तो इस तरफ काफी मिलते हैं। जरा पक्का करवा लें और कुछ कुर्सियां और पत्थर की बेंचे लगवा लें। जगह भी है सामने। अच्छा छायादार छप्पर लग सकता है। थोड़ा 'कोल्ड ड्रिंक' वगैरह भी रखें।

बड़े मियां की दुनिया देखी आखें दूर रेत के ढुहीं की ओर ताकने लगती हैं। 'होने को तो सरजी सब कुछ हो सकता है पर हम गरीबों के पास इतना पैसा कहां? उधर शहरमें बड़े–बड़े होटल खुल रहें हैं सरकारी मदद से। हमारी मदद कौन करता है ये छप्पर भी बड़ी मुश्किल से खड़ा किया है . . . . सरकारी 'परमीसन' भी नहीं मिलता . . . .' 'आपने कोशिश की कुछ?'

'कोशिश . . . . अरे साबजी, नगरपालिका, टूरिस्ट ऑफिस, सबके चक्कर लगा लिए। वो जो सामने वाला छप्पर है न, होटल गीरीन? वे रूपचंद मेधवाल का है। हम दोनों एक बार तो जयपुर भी हो आए। कोई सुनवाई नहीं। कहते हैं, उधर एक टुरिस्ट होटल है, फिर 'सम' पर चाय की दुकान की क्या जरूरत है? . . . . अब सरजी टूरिस्ट होटल में तो वहीं चाय पीएंगे न जो वहां ठहरते हैं या फिर जो फुरसत में आते हैं। हर कोई तो मील भर दूर चाय पीने नहीं न जाता'

'परमीसन' मिले, रूपए–पैसे की कुछ मदद हो तो हमारा जन्म भी सुधरे।'

बड़े मियां एक लंबी सांस लेकर फिर बोलने लगते हैं, 'लोग भी तो साल भर कहां आते हैं . . . . बस 'सीजन' में कुछ कमाई हो जाती है। इस साल 'टूरिस्ट इयर' है . . . . अल्ला रहम करेगा . . . . '

'सम कहां है बाबा?' 'बस इधर ही पास में . . . . . पांच–छः मील पर एक छोटासा गामड़ा है : 'सम' . . . . ' 'ओह तो गांव का नाम है 'सम'। इसलिए इस जगह को 'सम' कहते हैं क्या? . . . . 'हां सरजी'

'घरमें कौन कौन है बाबा?' 'बस म्हारी घरवाली है। एक ये टाबर है और एक बेटी है बड़ी . . . उसकी शादी की जुगत भी करनी है इस साल . . . .

यह टाबर होटल के काम में मेरी मदद करता है . . . . हां एक भतीजा भी है . . . खलील। किसी तरह दो साल पहले एक ऊंट लिया है। अभी आपके साथ एक साबजी थे न, वो ऊंचे तगड़े चश्मा लगाए . . . उन्हीं को ले के गया है . . . . बस आता ही होगा . . . ' 'बेटे को पढ़ने नहीं भेजा? . . . . . ' 'पढ़ने . . . उधर गामड़े में स्कूल कहां है सरजी . . . . फिर शहर में पढ़ाने का पैसा भी तो हो . . . . हमारी मदद को भी कोई चाहिए . . . पढ़ना–लिखना बड़े लोगों को सोभा देता है . . . एैसा सपना क्यों देखना जो पूरा ही न हो' बड़े मियां के चेहरे पर गहरे अवसाद की छाया उतर आती है।

चाय पीकर प्यालियां हम लड़के को थमा देतें हैं। जो साथी ऊंट पर गए वे लौट रहे हैं। सबसे आगे खलील का ऊंट था। 'यार अच्छी खासी कसरत है यह ऊंट की सवारी . . . . फिर जवान दौड़ाता भी खूब है . . . ।' हमारे साथी ऊंट से उतरते हुए कमर तोड़ने लगते हैं।

'तुम्हारा नाम है खलील?' धोती–कमीज और पग्गड डाले नाटा सा तंदुरूस्त जवान मुस्कराता हुआ चेहरा 'जी साबजी। म्हारा ही नाम है . . . . म्हारा फोटू भी छपा है। हवाई जहाज की किताबों में . . . आपने देखा . . . पिछले महीने अंग्रेज साब लोगों को तीन हफ्ते पूरे रेगिस्तान में घुमा के लाया।'

'अच्छा। तो खूब पैसे भी मिले होंगे . . . . ।

'हां साबजी . . . . ये अंग्रेज लोग खुश होते हैं तो बख्शीश भी खूब देते हैं। अपना इधर का देसी साब लोग की जेब से पैसा जल्दी नहीं निकलता . . . . ' 'मतलब अच्छी कमाई कर लेते हो?' 'अच्छी तो क्या साबजी, पर गुजारे भर को मिल जाता है। . . . . ऊंट का खर्चा भी तो है . . . . हजारेक रूपया तो ऊंट के चारे–पानी में निकल जाता है . . . . महिने का। फिर 'सीजन' तो सालभर रहता नहीं . . . . घर में मां हैं . . . . दो छोटे भाई हैं . . . . उनको भी देखना पड़ता है . . . . '

'क्या मतलब?'


'अब क्या बताएं साबजी ये जो बड़े–बड़े प्राइवेट कंटैक्टर है 'कैमल सफारी' चलाते हैं। जरूरत पड़ती है तो दस–पंद्रह दिन के लिए ऊंट उनको भी देना पड़ता है। वो हजारों रूपए कमाते हैं हमको भाड़े का दो–चार सौ रूपया थमा देते हैं . . . . नहीं दे तो मुश्किल . . . पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करना ठिक नहीं हैं न . . . . कोई सरकारी रेट तो है नहीं। जो दे देते हैं लेना पड़ता है। वैसे भी ज्यादा सवारी तो वो शहर में ही तै कर लेते हैं। हमें तो लंबी सफर के लिए कोई –कोई ही मिलता है . . . '

खलील के मन का गुब्बार एक ही बार में निकल आता है। 'तो तुम लोग कुछ करते क्यों नहीं?'

'क्या करें साबजी। हमारी कौन सुनता है। . . . टूरिस्टवालों के यहां गए . . . गामड़े के सरपंच को लेकर इधर के जो नेताजी हैं . . . उनके यहां भी गए थे . . . उनको 'टेम' नहीं है। . . . . 'टेम' तो तभी होता है जब 'भोट' मांगना होता है . . . .तब गामड़े–गामड़े घूमने का 'टेम' भी निकल आता है . . . बातें भी लंबी–लंबी . . . इस्कूल बनाएंगे . . . दवा देंगे . . . ऊंट करीदने को पैसे भी दिलाएंगे . . . टैम निकल गया तो दरबान बंगले में घुसने भी नहीं देता . . . 'टैम' नहीं है . . . अब देखो साब जी। हम जवान आदमी है . . . मेहनत करने की हिम्मत है . . . थोड़ी मदद मिले तो हम भी आगे बढ़े।'

खलील की आंखों में एक सपना और स्वर में एक कड़वाहट है। दिन ढ़लने को है। ऊंट के स्फर से लौटे लोग 'सूर्यास्त' देखने लगे हैं। 'सम' का सूर्यास्त भी एक अनुभव है। डुबते सूरज की परछाई नहीं पड़ती, जैैसे सागर में पड़ती है। रेत के सागर में मद्धम होता–होता लाल सूरज का गोला धीरे–धीरे डूबता है। भूरा–मटमैला रेगिस्तान रक्ताभ हो उठता है। मटमैले रंग पर फैलती लालिमा घनी होती जाती है। सारे माहोल को उदास और अकेला करती हुई। कुछ ही देर में अंधेरा घिरने लगता है।

निस्तब्ध रेगिस्तान का अंधेरा फैलता जाता है एक अवसाद की तरह। अंधेरे में 'सम' अर्थहीन हो गया है। ढलती शाम है। रेत अब भी तप रही है। पटुओं की हवेली के बाहर किताबें बेचता वह मरियल किशोर . . . होटल गुलजार के बड़े मिया . . . जिनके खुशहाली के सपने इस तपती रेत में दबे हैं।

अन्य स्रोतों से:

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संदर्भ: