जीवट का धनी है वीरपुर

7 Nov 2016
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नदी संवाद यात्रा-4, (कोसी कथा)


वीरपुर कोसी परियोजना के मुख्यालय के तौर पर चमक-दमक के साथ विकसित वीरपुर अनुमण्डल मुख्यालय (सहरसा जिला) बन गया। पर कुसहा में कोसी बराज का रक्षात्मक तटबन्ध टूटने से हुई बर्बादी का पहला शिकार भी बना। पूरा शहर पानी-बालू में डूब गया। कुसहा-विध्वंस (अगस्त 2008 )के अवशेष आज भी दिख जाते हैं। सड़कों पर जहाँ-तहाँ बालू की मोटी परत बिछी हुई है। हालांकि जीवट के मजबूत लोगों ने शहर को फिर से जिन्दा कर लिया है और कोसी की समस्याओं को नए सिरे से समझने में लगे हैं।

नदी संवाद यात्रा की सभा में इसके स्वभाव- भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक महत्त्व, सामाजिक सम्बन्ध के साथ ही उसे बाँधने की राजनीति के विभिन्न पहलुओं की चर्चा हुई। पर बातें सिर्फ कोसी तक सिमटी नहीं रही, कोसी जिस गंगा में विसर्जित होती है उस पर बना फरक्का बराज और दूसरे प्रश्न भी उठे।

कोसी क्लब में हुई सभा की शुरूआत अध्यक्ष देव नारायण खैरवार ने की। उन्होंने बताया कि कुसहा विध्वंस के बाद चार महीने तक पूरा इलाका पाँच फीट से अधिक पानी में डूबा रहा। जहाँ से पानी निकलता, वहाँ बालू पटा होता था। धूप में तपते बालू पर चलना कठिन था। लोगों ने बाँस का चचरा डालकर कामचलाऊ इन्तजाम किया। पर खेतों में पाँच से दस फीट बालू आज भी भरा है। कई इलाकों में उसे निकालने या किसी तकनीक से खेती लायक बनाने का काम नहीं हुआ है। कोसी 148 किलोमीटर लम्बी है। इस पूरी लम्बाई और 20 से 30 किलोमीटर की पट्टी में कमोबेश यही हालत है।

कई समाजकर्मियों का कहना था कि अगर छोटी-छोटी नदियों और दूसरे परम्परागत जलस्रोतों की स्थिति ठीक रहती तो कुसहा जैसी त्रासदी भी शायद इतनी तबाही नहीं लाती। पंचम भाई ने कहा कि कोसी क्षेत्र में अनेक छोटी-छोटी नदियाँ हैं, कई अभी जिन्दा हैं। उनमें भी उफान आता है और बस्तियों -खेतों में पानी भर जाता है। पर रामजी सन्मुख का कहना था कि अनेक धाराएँ मर चुकी हैं।

ऐसी मृत नदियों की सूची उनके पास थी। नदियों की ज़मीन (लगभग पाँच हजार एकड़ ) पर कब्जा हो गया है। जल क्षेत्रों पर कब्जा होने से रिहाइशी इलाकों में जलजमाव होता है। तो सिंचाई के समय केवल भूजल का सहारा रह जाता है। इन समाजकर्मियों का मानना है कि इन छोटी नदी-क्षेत्रों की बेहतर व्यवस्था हो जाए तो कोसी की बड़ी समस्या का हल स्वयं हो जाएगा। कंचन सिंह ने कहा कि हम नदियों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं।

अगर छोटी नदियाँ सक्रिय होती तो हालत हमेशा नियन्त्रित रहती। अभी स्वयं कोसी के पेट में छह मीटर से अधिक बालू जमा हो गया है। उसे निकालना और तटबन्धों को मजबूत करना अत्यन्त आवश्यक है। कुछ वक्ताओं की सलाह थी कि कोसी के बालू को निकालकर कोयला खदानों को भरने के लिये भेजा जा सकता है। पर यह इतना बड़ा और ख़र्चीला काम होगा कि इसके बारे में कोई सोचता भी नहीं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रंजीत कुमार मिश्र ने कहा कि कोसी को बिहार का शोक कहना गलत है। यह वास्तव में बिहार की कोष है और तटवर्ती समुदायों का पोषण करती है। सोचना यह होगा कि इसे फिर से कैसे सम्पन्नता का कोष बनाया जाए? राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में जल-संरक्षण के माध्यम से सूखी नदियों को पुनर्जीवित करने के अनुभव इस क्षेत्र में भी उपयोगी हो सकते हैं।

अनेक वक्ताओं को सूनने के बाद श्री राजेन्द्र सिंह ने कहा कि नदियों का सूखना और मरना इस क्षेत्र के रेगिस्तान बनने का संकेत है। एक तरफ बाढ़ और दूसरी तरफ सूखाड़-यह बड़ा खतरा है। नदियों के स्वभाव का सम्मान किए बिना उसके साथ बर्ताव का यह नतीजा है। कुसहा-विध्वंस उसका छोटा नमूना है। नई तकनीक व नई इंजीनियरिंग में नदी और तटवर्ती समाज के आपसी रिश्ते की समझ नहीं है।

नदियों के स्वभाव को तटवर्ती समाज बेहतर ढंग से समझता है। पर हालत यह है कि जिन तटबन्धों को सरकार ने बनाया है और उसकी देखरेख की जिम्मेवारी निभाने में चूक होती है। उनके कामों पर नजरदारी करना आमलोगों का काम है। नजरदारी के इस काम में लापरवाही आमलोगों की तरफ से हुई है। फल भी उसे ही भुगतना पड़ा है। इस लिहाज से श्री सिंह ने कोसी पंचायत जैसी संस्था बनाने का प्रस्ताव दिया जो राज और समाज की साझा संस्था हो। यह कोसी से सम्बन्धित सर्वोच्च संस्था हो जो उद्गम से मुहाने तक के पूरी इलाके की स्थिति और कामकाज की निगरानी करे।

कोसी नदीकोसी की समस्याएँ गंगा और फरक्का के कारण भी बढ़ी हैं। इसे बिहार प्रदेश किसान संगठन के राम बिहारी सिंह ने विस्तार से बताया। बिहार के बीचोंबीच से प्रवाहित होने वाली गंगा में गंगा का पानी रहता ही नहीं। ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में बने बराज व डैम उसका पूरा पानी निकाल लेते हैं। बक्सर में बिहार में प्रवेश के समय गंगा में चम्बल, कर्मनाशा जैसी छोटी नदियों का पानी रहता है।

बिहार की नदियों (कोसी, गण्डक, घाघरा, सिकरहना समेत अनेक छोटी-बड़ी धाराओं) का पानी समेटते हुए सागर में समाहित होने चलती है तो फरक्का बराज उसके प्रवाह में अड़चन पैदा करता है। जिससे गंगा तटीय इलाके और सहायक धाराओं के किनारे जबरदस्त कटाव, धारा का फैलाव और जलजमाव होता है। कोसी में हिमालय के सर्वोच्च शिखरों से पानी आता है, उसे समेटकर गंगा आगे बढ़ती है तो फरक्का बराज प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है। जिससे पानी पीछे की ओर लौटता है। तटों की ओर फैलता है और तल में सिल्ट जमती है।

इस तरह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। अब गंगा पर 16 बराज बनाने की बात हो रही है। अगर ऐसा हुआ तो हालत अधिक तेजी बिगड़ेगी। पहले से निर्मित बराजों से उत्पन्न समस्याओं का समाधान किए बगैर नए बराज बनाने की योजना को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने ठोस ढंग से तीन माँगें रखीं:-

1. गंगाजल में बिहार का हिस्सा तय हो और ऐसी व्यवस्था हो ताकि बिहार को गंगा के मूल स्रोत गंगोत्री का पानी मिले।
2. फरक्का बराज को तोड़ा जाये ताकि बिहार की नदियों के पानी का प्रवाह अवरुद्ध न हो
3. परम्परागत जलस्रोतों और संसाधनों का संरक्षण और संवर्द्धन किया जाए।

जीपीएसवीएस के संस्थापक तपेश्वर सिंह ने बताया कि भूदान के काम से पहले इधर बराबर आया करते थे। कोसी की धारा बदलने से इस क्षेत्र का भूगोल पहले भी बदलता रहा है। पर बराज और तटबन्ध बनने के बाद स्थिति तेजी से बदल रही है। वक्ताओं की सूची बहुत लम्बी थी। वक्ताओं के बीच विषयों का विभाजन था, पर वह विभाजन बन्धनकरी नहीं था।

यात्रा के संयोजक रमेश कुमार ने जलपुरुष राजेन्द्र सिंह का परिचय कराते हुए सभा को केन्द्रित रखने की कोशिश की थी। वे चाहते थे कि बातचीत स्थानीय समस्याओं को समझाने और राजस्थान के अनुभवों को समझने पर केन्द्रित रहे। उन्हें कमोबेश सफलता भी मिली। कोसी क्षेत्र में बाढ़ की विभीषिका और सूखाड़ के प्रकोप से निपटने की आदत रही है। पर बराज और दूसरी संरचनाओं ने उसे आपदा बना दिया है।

कुसहा-विध्वंस की स्मृति से सहमे लोगों की इस सभा में सारी बातचीत का निचोड़ था कि बराज से जुड़ी संरचनाओं की हकीक़त को पहचान लिया और अब नए सिरे से सोचने की जरूरत है। नदी के तल में जमते बालू को निकालना सम्भव नहीं हो, तो बराज व सेतुओं के आसपास आधुनिक तकनीक से ड्रेजिंग कर धारा को सीधा और गहरा बनाने की जरूरत है ताकि रक्षात्मक तटबन्धों पर दबाव कम हो।

 

 

छोटी धाराओं, जलस्रोतों के उद्धार को तत्पर सुपौल के जिलाधिकारी


सुपौल जिलाधिकारी के सम्मेलन कक्ष में अगली संगोष्ठी हुई जिसमें सरकारी अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की अच्छी भागीदारी हुई। इस संगोष्ठी में सूखती नदियों और परम्परागत जलस्रोतों की सुरक्षा का प्रश्न केन्द्र में रहा। जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने यहाँ कहा कि धरती को बुखार चढ़ना शुरू हो गया है, पहाड़ पर बाढ़ आने लगी है और अतिवृृष्टि वाले क्षेत्रों में वर्षा लगातार घटती जा रही है। पर हम कोसी की बाढ़ को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर नहीं देखते।

सोचने की जरूरत यह है कि बरसात के अधिकाई पानी को भूजल भण्डारों में संचित कर सकते हैं क्या? तालाब इसके परम्परासिद्ध मॉडल रहे हैं। फ्लैश फ्लड को रोकने का कारगर उपाय होगा भूगर्भ का पुर्नभरण बढ़ा देना। धारा के विभिन्न मोड़ों पर ड्रेजिंग करके सीधा करने और प्रवाह को अबाध बनाने का इन्तजाम भी करना होगा। जल प्रबन्धन के पुराने तरीकों को पुनर्जीवित करने का उपाय करना चाहिए। इस दिषा में पहला काम परम्परागत जल क्षेत्रों को चिन्हित करना, उनका सीमांकन करना और फिर पंजीकरण करना है। इसे तत्काल करने की जरूरत है।

कोसी क्षेत्र की नदियाँ पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से सूखती जा रही हैं, इसे रेखांकित करते हुए उप विकास आयुक्त हरिहर प्रसाद ने कहा कि प्रकृति को उसके मूल रूप में रखते हुए विकास करना गम्भीर चुनौती है। प्रश्न यह होता है कि प्रकृति की आज़ादी को कितना बनाए रखें कि मनुष्य की आज़ादी बाधित नहीं हो। हम भी जब महासेतु की ओर से गुजरते हैं तो मन में आता है कि हमने इन धाराओं को कितना संकुचित कर दिया गया है।

कोसी नदीजब कोसी की यह हालत है तो बाकी नदियों की हालत क्या होगी? अपर समाहर्ता, (आपदा प्रबन्धन) अरुण प्रकाष ने कोसी तटबन्धों के नाजुक स्थलों का विवरण देते हुए बाढ़ का समय, इलाका और सरकारी तैयारियों का विवरण दिया। हालांकि कोसी तटबन्धों के भीतर बसी आबादी की हर साल तबाही होने का जिक्र भी आया। उन्होंने कहा कि अवरुद्ध धाराओं को अगर इंजीनियरिंग गणना के अनुसार कुछ जगहों पर खोल दिया जाए तो शायद धारा बीचों बीच से बहने लगेगी और तटवर्ती क्षेत्र को खतरा कम होगा।

यह सही है कि वर्षा कम हो रही है, पर यहाँ पानी की कमी नहीं है। हालांकि कोसी तटबन्ध के भीतर फँसे 36 पंचायतों की बदहाली का जिक्र आने पर स्थानीय कार्यकर्ताओं और अपर समाहर्ता अरुण प्रकाश में थोड़ी नोंक-झोक हो गई। पर माहौल सौहार्दपूर्ण बना रहा।

बाद में जिलाधिकारी एलपी चौहान ने बताया कि सरकार के पास जिले के जलस्रोतों की पूरी सूची है। उनके सर्वेक्षण का काम उन्होंने पहले ही करा लिया है। जलपुरुष ने सूची का पंचायतों में पंजीकरण करने, उनका वास्तविक सीमांकन और फिर पुनरुद्धार की व्यवस्था करने का अनुरोध किया।

संगोष्ठी में अनुमण्डल (सदर) अधिकारी विमल कुमार मण्डल समेत अनेक अफ़सर व सरकारी इंजीनियर उपस्थित थे।

महिषी के सर्वोदय आश्रम में रात्रि विश्राम के बार यात्रा दल ने दूसरे नवनिर्मित पुल, बलुआहा घाट से कोसी को पार किया और पश्चिमी तटबन्ध से होकर निर्मली की ओर चल पड़ा। रास्ते में दो जगहों पर छोटी-छोटी सभाएँ हुईं। दोनों कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के सटे और कमला के पूर्वी तटबन्ध से घिरे इलाके में हुई जो स्थाई तौर पर जलजमाव का शिकार है। कोसी और कमला के बीच गेहुंमा नदी का पानी जमा है।

गेहूंमा पहले कोसी के तिलजुगा धार में मिलती थी। कोसी तटबन्ध बन जाने पर कमला में मिलने लगी। उस पर भी तटबन्ध बन गया और इसके विसर्जित होने का मार्ग बन्द हो गया। गेहूंमा में सुगरवे और सुपैन जैसी नदियों का पानी भी आता है। सारा पानी लगातार जमा होता है। इसके निकलने का कोई मार्ग उपलब्ध नहीं है। इस क्षेत्र में 1968 में कोसी तटबन्ध टूटने से पानी भरा था, गेहूंमा का मुहाना तभी जाम हो गया था। बाद में कमला तटबन्ध ने उसे स्थाई तौर पर बन्द कर दिया गया है।

इस जलजमाव को सरकार ने भी सम्भवतः स्थाई मान लिया है। कोसी तटबन्ध की ओर से गाँवों में जाने के लिये जगह-जगह पुल बने हैं या बन रहे हैं। तलवाड़ा और जमालपुर गाँव की सभा में पता चला कि भेजा से कुशेश्वर स्थान तक जल-ही-जल है। पेड़-पौधे खत्म हो गए हैं। चारा की किल्लत हो जाने से पशुपालन खत्म हो गया है। लोग आक्रोश से भरे हैं जिसकी अभिव्यक्ति का रास्ता उन्हें नहीं मिला।

आजीविका का साधन आमतौर दिल्ली-पंजाब कमाने जाना है और प्रवासी मजदूरों के आगमन के समय राहजनी और छिनझपट की घटनाएँ बहुत बढ़ जाती हैं। अब नई समस्या आ गई है। 2008 के बाद नदी में पानी आना काफी कम हो गया है। इस बार धान की फसल नहीं हो पाएगी क्योंकि गेहूंमा सूख गई थी, उसमें पानी काफी बाद में आया तब तक मौसम गुजर चुका था। लोग मानते हैं कि समस्या नदी नहीं है, समस्या व्यवस्था है।

 

 

 

 

कोसी पंचायत पर निर्मली में लगी मुहर


निर्मली में संवाद यात्रा की आखिरी सभा हुई। यह कोसी क्षेत्र का ऐतिहासिक स्थान है। निर्मली में 6 अप्रैल 1947 को प्रसिद्ध वैज्ञानिक सी.एच. भाभा ने पहली बार कोसी परियोजना का प्रारूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया था। उस सम्मेलन में देष के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद, बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह आदि बिहार के सभी प्रमुख नेता उपस्थित थे। बाद में डॉ राजेन्द्र प्रसाद का भाषण हुआ।

फिर 14 जनवरी 1955 को निर्मली के पास भुतहा में मिट्टी डालकर मुख्यमन्त्री श्रीकृष्ण सिंह ने कोसी के पश्चिमी तटबन्ध का विधिवत उद्घाटन किया। वह एक जनज्वार का दौर था। पर अब परिस्थिति बदल गई है। स्वयं निर्मली को रिंग बांध से घेरना पड़ा है। जोरदार वर्षा हो तो मोटरपम्प से पानी निकालने के अलावा कोई चारा नहीं। रिंगबाँध के बाहर, कोसी तटबन्ध के बीच के समूचे इलाके में बरसाती पानी का जमाव और बाकी दिनों सूखाड़ का आलम होता है। यह क्षेत्र में इतना महत्त्वपूर्ण जरूर है कि अनुमण्डल बन गया है, पर आर्थिक गतिविधियाँ सिमटती गई हैं।

जिला पार्षद बिन्देश्वरी साह की अध्यक्षता में हुई सभा में नई लड़ाई आरम्भ करने की बात हुई। यह दूसरे तरह की लड़ाई होगी। रामजी सन्मुख ने कहा कि कोसी क्षेत्र के 11 जिलों में छह-सात सौ नदियाँ मर चुकी हैं। कोसी के सन्तानों को उससे अलग कर दिया गया है। प्रदेश किसान संगठन के राम बिहारी सिंह ने कहा कि कोसी और सहायक नदियों का पानी हमारी पूँजी है। नदी और पानी पर विचार करते समय हमें इन सवालों को उठाना होगा कि सूखी नदियों को बचाने मतलब क्या है?

कोसी क्षेत्र में बाढ़ और जलजमाव से मुक्ति के लिये गंगा को साफ करना जरूरी है। गंगा को साफ करने के लिये जरूरी है कि उसमें अधिक पानी आए और वह तेजी से निकल भी जाए। पर भीमगौड़ा व दूसरे बाँध पानी रोक लेते हैं और फरक्का तेजी से निकलने नहीं देता। राजसत्ता के समक्ष यह प्रश्न है, उसके विरुद्ध नहीं। बिहार में पानी की लड़ाई वस्तुतः विपन्नता के खिलाफ समृद्धि की लड़ाई है।

जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने कहा कि अविरल गंगा का अर्थ है कि गोमुख से आने वाला जल गंगासागर तक जाए। पर भीमगौड़ा से लेकर बिजनौर , कानपुर तक बने बराज सारा पानी रोक लेते हैं। इलाहाबाद में चम्बल और फिर कर्मनाशा आदि नदियों का पानी लेकर गंगा बिहार में प्रवेश करती है। यहाँ घाघरा, गण्डक और कोसी जैसी बड़ी और अनेक छोटी-छोटी नदियों को लेकर उफनती हुई चलती है तो फरक्का उसे रोक देता है। लौटी धारा अगल-बगल कटाव करती हुई मोकामा तक की जिन्दगी को तबाह कर चुकी है। उलटे प्रवाह का प्रभाव कोसी पर भी होता है। अब अगर गंगा पर 16 बराज और बने तो इससे भी बड़ी समस्या जगह-जगह उत्पन्न होगी। सभी सहायक नदियों के तटवासी समुदाय तबाह होंगे।

श्री सिंह ने कहा कि कोसी और कमला तटबन्धों से घिरे क्षेत्र में जो छोटी-छोटी धाराएँ हैं, उन्हें जीवित करने का प्रयास करना चाहिए। उस क्षेत्र की हालत बहुत ही विकट है। बहुत बड़े इलाके में पानी जमा है। उसके निकलने की कोई राह नहीं है। कमला की तीन सहायक नदियों -सुपैन, सुगरवे और गेहूंमा का पानी वहाँ आकर जमा हो जाता है।

तीनों नदियों का मुहाना तटबन्ध में बन्द हो गया है। पानी जहाँ बरसे, वहाँ रोकना-उसके प्रवाह को कम करना, भूगर्भ को भरना और जहाँ जम जाए, वहाँ से फौरन निकलने की राह बनाना जल विज्ञान का बुनियादी सूत्र है जिसके सहारे राजस्थान के जल विहिन इलाके की सात नदियों को फिर से सदानीरा बनाया गया। यहाँ भी स्थानीय समाधान खोजना होगा।

झाल-पाल-ताल राजेन्द्र जी के शब्द हैं। वर्षा के तेज प्रवाह को रोकना और उसकी गति को कम करना, ताल में जमा करना और बाकी पानी को तेजी से निकलने का रास्ता बनाना-इन तीन कार्यों से किसी भी नदी को सदानीरा और संयमित बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र प्रमुख समस्या तटबन्ध से जुड़ी है। अगर तटबन्ध टूटते हैं, तो गाँव-के-गाँव समा जाते हैं। अगर नहीं टूटे तो छोटी नदियों के प्रवाह को रोककर जगह-जगह जलजमाव के कारण बनते हैं।

तटबन्ध असल में इंजीनियरिंग की गलत पढ़ाई की वजह से बन गए। इंजीनियरिंग में नदियों का विज्ञान (रीवर मार्फोलॉजी) नहीं पढ़ाया जाता। उसे स्थानीय लोग अपने अनुभव से जानते हैं। आधुनिक सिविल इंजीनियरिग पर बात करें तो हमारे इंजीनियर मुख्यतः पानी की गणना के आधार पर डैम का डिज़ाइन करते हैं, पर डैम का डिज़ाइन जियो-साइंस और जियो-हाइड्रो-मारफोलोजी के आधार पर बननी चाहिए। इसलिये समस्या और समाधान का विवेचन एकदम स्थानीय स्तर पर हो, तभी कुछ कारगर निकल सकेगा।

कोसी नदीअगर एक इलाके में पानी जमा है तो उस पानी का उपयोग दूसरे वैसे इलाके में करने की सम्भावना खोजी जाए जहाँ पानी की जरूरत है। बाढ़ और सुखाड़ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तटबन्ध और नहर इसके उपाय नहीं हैं। वे असफल हो गए हैं, विनाशकारी हुए हैं। नदी जोड़ना बकवास है, पर नदी जीवित करना सराहनीय। सम्यक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है ताकि जनजीवन की बदहाली दूर हो और खुशहाली बढ़े।

राज और समाज की समान भागीदारी में कोसी पंचायत बनाने का प्रस्ताव इस सभा में ध्वनिमत से स्वीकृत हुआ। जलपुरूष राजेन्द्र सिंह ने इसका प्रस्ताव रखते हुए कहा कि बराज और तटबन्ध बनाने के बारे में विचार और फैसले तब सरकार के उच्चस्तर पर थे, इस बार स्थानीय स्तर पर राज और समाज के प्रतिनिधि मिलकर समाधान निकालेंगे। इसके लिये राज या सरकार के प्रतिनिधि निर्मली के अनुमण्डल अधिकारी और समाज के प्रतिनिधि के तौर पर यात्रा के संयोजक रमेश कुमार की समिति बना दी गई।

अनुमण्डल पदाधिकारी अरुण कुमार सिंह ने सभा के प्रस्ताव को न सिर्फ सहृदयता से स्वीकार किया, बल्कि सम्पूर्ण सहभागिता की घोषणा की। समिति कोसी क्षेत्र के ऐसे लोगों की पहचान करेगी जो अभियान में सहायक हो सकते हैं और आपस में बैठक कर पंचायत के कामकाज की रूपरेखा तय करेगी।

 

 

यात्रा की उपलब्धियाँ और सिफ़ारिशें


1. कमला नदी के उलटे प्रवाह का अध्ययन, विश्लेषण और निराकरण करना होगा अन्यथा तटबन्ध टूटने की घटनाएँ अधिक होंगी और तटबन्धों के भीतर फँसी आबादी का संकट भी बढ़ेगा।
2. छोटी नदियों के पानी की निकासी का मार्ग खोलना होगा। उनके और दूसरे जलस्रोतों को साफ, स्वच्छ और उपयोगी बनाए रखना होगा।
3. कमला और कोसी तटबन्धों के बीच स्थाई जलजमाव का समुचित समाधान करना होगा। भूमि उपयोग का उपयुक्त तरीका खोजना और आजीविका का उपाय करना आवश्यक है।
4. कोसी महासेतु की वजह से तबाह इटहरी-सनपतहा जैसे गाँवों के पुनर्वास की उपयुक्त व्यवस्था करनी होगी।
5. समूचे इलाके के परम्परागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित, संरक्षित और स्वच्छ रखने का इन्तजाम करना होगा।
6. कोसी पंचायत के गठन के लिये यात्रा के संयोजक रमेश कुमार और निर्मली के अनुमण्डलाधिकारी अरुण कुमार सिंह की समिति अपनी बैठक करेगी। समिति में दूसरे उपयुक्त व्यक्तियों, अधिकारियों और समाजकर्मियों का मनोयन करेगी और पंचायत के कामकाज की रूपरेखा तय करेगी।
 

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