जल जीवों द्वारा जल शोधन (Water purification by water organisms in Hindi)


डॉल्फिनकरोड़ों वर्ष पहले आदिसागर के जल में प्रथम जीव का निर्माण हुआ। तब से लेकर अब तक जलाशय धरती के समस्त जीव-जन्तुओं के न सिर्फ शरण-स्थल रहे हैं, बल्कि उनके जीने का एक प्रमुख साधन भी रहे हैं। विश्व की ज्यादातर सभ्यताएँ नदियों अथवा अन्य जलाशयों के किनारे ही फली-फूलीं। आज भी विश्व के अनेक नगर-महानगर नदियों के किनारे ही बसे हैं और उसके जल का उपयोग पीने, नहाने, सिंचाई करने जैसे अनेक कामों में करते रहे हैं। इसी वजह से नदियों को धरती की धमनी कहा जाता है। जिस प्रकार हमारे शरीर में प्राणरक्षक शुद्ध रक्त धमनियों अथवा रक्त शिराओं द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक संचारित होता है, ठीक उसी प्रकार नदियों द्वारा स्वच्छ जल प्रवाहित होता है। लेकिन पिछले 4 दशकों में औद्योगिक तथा रासायनिक कचरे, सीवेज या मल-विसर्जन, घरेलू अपमार्जक डिटर्जेन्ट तथा साबुन का प्रयोग तथा मरे हुए पशुओं के प्रवाह आदि से धरती की सभी स्वच्छ जलीय नदियाँ व सागर भयंकर प्रदूषण युक्त हो गए हैं।

जलाशयों को अब पूरी दुनिया में कचरा डालने का स्थान माना जाने लगा है। जल प्रदूषित करने में हमारा देश भी पीछे नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने लोगों को दूषित जल पिलाने में बेल्जियम तथा मोरक्को के बाद तीसरे स्थान पर है। भारत मानव आबादी के लिहाज से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। यहाँ की ज्यादातर मानव आबादी जलाशयों के किनारे ही रहा करती है और अपने घरों का कूड़ा-कचरा आदि उसी में डाला करती है। ऐसे में यहाँ के जलाशय भी पूरी तरह से प्रदूषण युक्त हो गए हैं। उदाहरण-गोमुख से करीब 300 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता तय कर हरिद्वार तक आते-आते गंगा के निर्मल जल में करीब 80 मिलियन लीटर सीवर का मैल घुल जाता है, तो जरा सोचिए गंगा की 2525 किलोमीटर की लम्बी यात्रा के दौरान कितना कूड़ा-कचरा घुलता होगा। जल संरक्षण के लिये काम करने वाले एक संगठन, ‘एवरीथिंग एबाउट वाटर प्राइवेट लिमिटेड’ के अनुसार गंगा नदी में प्रतिवर्ष करीब 1.3 अरब लीटर गन्दा पानी और 25 करोड़ लीटर औद्योगिक कचरा बहा दिया जाता है।

अकेले दिल्ली महानगर में एक दिन में वजीराबाद से ओखला होकर गुजरने वाली यमुना नदी में लगभग 25000 लाख लीटर से अधिक मल-मूत्र और घरों का गन्दा पानी डाला जाता है। कमोबेश यही हाल विश्व की नदियों व जलाशयों का है जिसकी वजह से आज हमारे जलाशयों का जल न तो पीने लायक रह गया है और न ही जल जीवों के रहने लायक। आज पूरा विश्व प्रदूषित जल की विभिषिका का दंश झेल रहा है। प्रदूषित जल पीने से प्रतिवर्ष लाखों लोग मारे जाते हैं।

जल प्रदूषण की परिभाषा


Soil Related Constraints    Industrial Wasteविश्व स्वास्थ संगठन ने जल प्रदूषण की परिभाषा निम्नवत दी है- “प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थ के कारण जल प्रदूषित हो जाता है तथा यह जल विषाक्तता एवं सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन होने के कारण जीवधारियों के लिये हानिकारक हो जाता है तथा संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है”।

जल प्रदूषण को मापने के लिये बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (BOD) परीक्षण


इस परीक्षण में ऑक्सीजन और O2 की मात्रा मापी जाती है जो जल के एक नमूने में जीवाणुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों को नष्ट करने के लिये आवश्यक होती है। घर की गन्दी नाली से निकले गन्दे पदार्थों की बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड की वैल्यू 200 से 400 पीपीएम ऑक्सीजन (एक लीटर गन्दे जल के लिये) होती है जबकि पीने के स्वच्छ जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (BOD) एक पीपीएम से कम होनी चाहिए।

जल प्रदूषण से उत्पन्न समस्याएँ


पेयजल में फ्लोराइड की अधिकता से मानव शरीर पर कुप्रभावजल प्रदूषण से मानवीय एवं वन्य जीवन में कई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो निम्न प्रकार है-

1. प्रदूषित जल पीने से ‘त्वचा रोग’, पीलिया, टाइफाइड, पेचीस, हैजा, एवं कैंसर जैसी जल जन्य बीमारियाँ होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
2. प्रदूषित जल में निवास करने वाले जलीय जीव-जन्तु तेजी से स्वच्छ व प्राकृतिक जल के अभाव में मरने लगते हैं। कई तो प्रदूषित जल की वजह से विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं।
3. जलाशयों में परमाणु विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ जैसे कार्बन 14, स्ट्रांशियम-99, कैल्शियम-173 तथा आयोडिन 131 की वजह से भी बहुत से जलीय जीव मारे जाते हैं। मानवों में इन रेडियोधर्मी प्रदूषकों की वजह से ल्यूकोमिया तथा कैंसर जैसे भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा सन्तानों में अपंगता की सम्भावना बढ़ जाती है।

जल प्रदूषण पर नियंत्रण


जल प्रदूषण को रोकने व जलाशयों को शुद्ध रखने के लिये आज विश्व के लगभग सभी देशों के सरकारी तथा अथवा गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रयास किया जा रहा है और भारी मात्रा में पैसा खर्च किया जा रहा है फिर भी जलाशयों की सफाई नहीं हो पा रही है कारण जल में रहने वाले जीवों की निरन्तर होती कमी है क्योंकि जल जीव न सिर्फ जलीय पारितंत्र (Ecosystem) को सन्तुलित रखते हैं बल्कि जलाशयों को शुद्ध भी करते हैं। अतः जलाशयों में पर्याप्त मात्रा में जल जीवों का होना अति आवश्यक है। ये जल जीव जलाशयों की गन्दगी को बड़ी मात्रा में बिना किसी गम्भीर हानि से बचा लेते हैं अथवा जटिल कार्बनिक यौगिकों को सरल यौगिकों में बदल देते हैं। जल जीवों द्वारा जल का शुद्धिकरण कैसे होता है इसकी जानकारी आपको निम्नांकित पंक्तियों से प्राप्त हो सकती है।

जीवाणुओं द्वारा जल शोधन


अज्ञानतावश कुछ लोग पशुओं अथवा मनुष्यों के मरने पर उनके शवों को सीधे जलाशयों में प्रवाहित कर देते हैं जिसके सड़ने से भारी मात्रा में जल अशुद्ध हो जाता है। ऐसे मृत प्राणियों को जल्दी से सड़ाने में कुछ नन्हें जीवाणु मृत जीवों के शरीर में वृद्धि करके उनके जटिल कार्बनिक यौगिकों को सरल पदार्थों में जैसे-कार्बन डाइऑक्साइड, पानी, नाइट्रेट, सल्फेट इत्यादि में बदल देते हैं। उनके द्वारा अपघटित पदार्थ एक आवश्यक तत्व के रूप में पुनः जीवधारियों के लिये उपयोगी हो जाता है। क्लोस्ट्रीडियम ब्युटीरियम (Clostridium Butyrium) नामक जीवाणु जलाशयों में उपस्थित जूट, पटसन, तथा सनई आदि के तनों को जल्दी से सड़ा देते हैं जिसकी वजह से वह ज्यादा दिनों तक पानी में नहीं रह पाता इससे जल्द ही पानी स्वच्छ हो जाता है।

कुछ जीवाणु समुद्र में अथवा अन्य जलस्रोतों में फैले खनिज तेलों को सोखकर समुद्री पारितंत्र को बचाते हैं जैसे कि सर्वविदित है समुद्र एक देश से दूसरे देश के लिये व्यापार करने के सबसे सस्ते व सुलभ मार्ग हैं ऐसे में ज्यादातर देशों का व्यापार समुद्री मार्ग से ही बड़े-बड़े जहाजों द्वारा होता है और जाहिर सी बात है जहाँ ज्यादा धमा चौकड़ी होगी वहाँ दुर्घटनाएँ भी होंगी। ऐसे में जब कभी तेल से भरे जहाज समुद्र में टकराते हैं तो भारी मात्रा में खनिज तेल निकलकर समुद्र के ऊपरी तल पर बिखर जाता है जिससे जल में रहने वाले जीवों की भारी हानि होती है। ऐसे में समुद्र में फैले तेल की सफाई कैसे की जाय यह बहुत बड़ी चुनौती है।

भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. आनन्द चक्रवर्ती ने पहली बार विश्व में किसी भी जीव का पहला पेटेन्ट करवाया था। यह जीवाणु स्यूडोमोनास नामक जीवाणु की एक किस्म थी जो तेलभक्षी थी। इस जीवाणु को लेकर डॉ. चक्रवर्ती ने बड़ी रोचक पहल की। उन्होंने एक ऐसी कम्पनी खोली जो समुद्र तल में या अन्य स्थान पर फैले तेल को साफ करने का काम करती है। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये उन्होंने तेल-भक्षी जीव स्यूडोमानस का प्रयोग किया। यह जैव-प्रौद्योगिकी प्रयोग की एक रोचक और हैरतअंगेज करने वाली पहल थी।

गंगा में प्रदूषणहालांकि प्राकृतिक रूप से बहुत से जीवाणु मिट्टी और जल में उपलब्ध होते हैं और धीरे-धीरे स्वच्छीकरण की क्रिया में लगे रहते हैं। परन्तु इसे त्वरित और प्रभावी बनाने के लिये जीवाणु विशेष की तलाश और उनमें जेनेटिक इंजीनियरिंग यानी आनुवंशिक अभियांत्रिकी और जैव प्रौद्योगिकी के सहारे प्रभावी परिवर्तन पर कार्य जारी है। इस दिशा में महत्त्वपूर्ण सफलताएँ भी हाथ लगी हैं। इन जीवाणुओं द्वारा जटिल यौगिकों को तोड़ा जाना सम्भव हुआ है। इस दिशा में कई हैरान करने वाले परिणाम सामने आये हैं। स्यूडोमोनास जैसे जटिल यौगिकों को तोड़ने की क्षमता अन्य जीवाणुओं में नहीं देखी गई है। पाया गया है कि इसके विभिन्न स्ट्रेन (विभेद) सहज ही हाइड्रोकार्बन, को निगलने यानी पचाने की क्षमता रखते हैं।

इन्हीं सफल परीक्षणों की शृंखला में डॉ. आनंद चक्रवर्ती ने सुपरबग की रचना की है। ये सुपरबग समुद्र समुद्र में फैले तेल को पीकर उसको समाप्त कर देते हैं। तेल की सफाई के लिये अब हमारे देश में भी नन्हें जीवों की मदद ली जाने लगी है। कुछ समय पूर्व उड़ीसा तट पर फैले तेल की सफाई में इस तकनीक का सफल प्रयोग किया जा चुका है, इसके लिये ‘ऑयली वोट्स-एस’ यानी तेल भक्षी मिश्रण तैयार किया गया था जो पाँच ऐसे सूक्ष्म जीवों को लेकर बना था जिसमें हाइड्रोकार्बन तैलीय गन्दगी, सल्फर यौगिक आदि को चट कर जाने की क्षमता थी। इन्हें तेल से प्रभावित तटीय भूमि को साफ करने में महारत हासिल है। विशेषज्ञों का कहना है कि इन सूक्ष्म जीवों को लक्ष्य यानी ‘टारगेट अटैक’ के लिये बेहतरीन तरीके से प्रयोग किया जा सकता है।

हमारे कुछ सार्वजनिक स्थलों, जलाशयों, आदि में अपशिष्ट पदार्थों, सड़े-गले पदार्थों, एवं मल-मूत्र के एकत्रित होने से वहाँ भारी दुर्गन्ध एवं रोग उत्पन्न हो जाने की सम्भावना रहती है। ऐसे समय में कुछ भूमि के जीवाणु इन पदार्थों का अपघटन कर देते हैं जिसकी वजह से वहाँ फैलने वाली गन्दगी समाप्त हो जाती है और सभी जटिल कार्बनिक पदार्थ, सरल अकार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाते हैं।

इसके अन्तर्गत कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) निर्मित होती है जिसका उपयोग शैवाल (Algae) करके ऑक्सीजन (O2) मुक्त करती है और अपघटन में ऑक्सीजन (O2) का उपयोग होता है।

बैक्टीरियोफेज विषाणु द्वारा जल शोधन


नालियों, सीवरों, तालाबों तथा नदियों के प्रदूषित जल में उपस्थित रोगजनिक जीवाणुओं (Pathogenic Bacteria) का फेजेज (Phages) भक्षण करके जल को शुद्ध कर देते हैं।

शैवालों द्वारा जल शोधन


.शैवाल स्वपोषी होते हैं जो क्लोरोफिल तथा प्रकाश की उपस्थिति में अपनी कोशिकाओं में भोजन का निर्माण करते हैं। जलीय शैवाल (Aqatic Algae) कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) जल, (H2O) से अवशोषण द्वारा प्राप्त करते हैं। कुछ शैवाल तेल (Oils) तथा प्रोटींस का संश्लेषण करते हैं। शैवालों द्वारा खनिज लवण तथा नाइट्रोजनीय यौगिक भी अवशोषित किये जाते हैं। पानी के बड़े-बड़े जलाशय में थोड़ी मात्रा में शैवालों को उगाने से जैविक फील्टर्स (Biological Filters) का कार्य करते हैं। जिनमें जीवाणु तथा कवक म्यूसिलेज में उलझ कर जल से पृथक हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ शैवाल जैसे डाइएटम (Diatom) को पीने वाले पानी के जलाशयों में उगाया जाता है।

ये शैवाल पानी में पाये जाने वाले हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार झीलों, तालाबों, नदियों तथा अन्य जलस्रोतों को शुद्ध रखने में शैवालों का प्रयोग करना आवश्यक है। यह शैवाल बिना किसी गम्भीर हानि के जलाशयों की गन्दगी को पचा लेते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक सिल्वा एवं पेपनफस ने सन 1953 के अनुसार गण-क्लोरोकूकेल्स, वाल्वोकेल्स तथा यूग्लीनोफाइसी के अनेक शैवाल सदस्य वाहित मल के पानी के सतह पर उगते हुए पाये जाते हैं। ये शैवाल इस पानी को ऑक्सीजन (O2) प्रदान करते हैं तथा खनिज लवणों का अवशोषण करके जटिल पदार्थों को सरल पदार्थों में विघटित कर देते हैं जैसे सेंडेस्मस, माइक्रोएक्टीनम, पारोबोट्रिस, क्लेमाइडोमोनास तथा युग्लीना आदि।

पक्षियों, कछुओं तथा मछलियों द्वारा जल शोधन


जहाँ गिद्धों, लकड़बग्घों, सुअरों, सियारों आदि से थलीय तथा वायवीय इलाका शुद्ध होता रहता है ठीक उसी तरह कुछ मछलियों, पक्षियों तथा कछुओं (सॉफ्ट शेल्ड टर्टल) द्वारा जलीय परितंत्र शुद्ध होता है। जल में फेंके गए मृत पशुओं एवं वनस्पतियों आदि को खाकर ये जल जीव वातावरण को शुद्ध करते हैं। जलाशयों में इनके कमी से मृत जीव जन्तुओं का शरीर काफी दिनों तक सड़ता रहता है तथा जल प्रदूषित होता रहता है।

गंगा की सफाई में डॉल्फिनों का योगदान


डॉल्फिनहमारी राष्ट्रीय नदी गंगा की सफाई में गांगेय डॉल्फिनों की विशेष भूमिका होती है। गंगा तथा उसके सहायक नदी प्रणालियों में गागेय डॉल्फिनें यानि सूसें सफाई का प्रमुख साधन हैं। गांगेय डॉल्फिन (प्लैटेनिष्टा गैंगेटिका) एक स्तनधारी प्राणी है जिसके कारण उनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। अतः श्वसन हेतु व जल के ऊपर बार-बार आती रहती है जिसकी वजह से उनके साथ तलछटी में जमी गन्दगी ऊपर आती रहती है। इसके साथ-साथ सूंसें भैंसों की भाँति लोटती भी हैं जिसकी वजह से शैवालों व जलाशयों में जमी गाद तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थ पानी के ऊपर आ जाता है और जलधारा के साथ बहकर दूर चला जाता है। इस तरह गंगा की तलछटी में गाद नहीं जमने पाती और उसके दहों की गहराई तथा स्वतः स्वच्छ होने वाली क्षमता बनी रहती है परन्तु इनके अवैध शिकार के चलते गंगा नदी में पाया जाने वाला यह शानदार प्राणी सूंस जिसे राष्ट्रीय जल जीव भी घोषित किया जा चुका है आज अन्तिम साँसें ले रहा है कभी गंगा तथा उसकी सहायक नदी प्रणालियों में इनकी संख्या लाखों थी जो अब खत्म होते-होते महज बारह सौ से अट्ठारह सौ ही रह गई है। सूंसों के अवैध शिकार पर अगर पूर्णरूपेण प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया तो बहुत जल्द यह भी भारतीय चीतों की भाँति इस धरती से समाप्त हो जाएगा। तब हमारी जीवनदायिनी गंगा मृत्युदायिनी बन जाएगी।

उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट होता है कि अगर हम लोग वाकई में जलाशयों को प्रदूषण मुक्त रखना चाहते हैं तो हमें जल शोधन की अनेक विधियों के साथ-साथ जल जीवों को भी बचाना होगा अन्यथा हम कभी भी जलाशयों की सफाई नहीं कर पाएँगे।

सम्पर्क करें
सुरेश कुमार कुशवाहा, ग्राम-पोस्ट चिरांव, तहसील कोरांव, जिला इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश 212306, मो. न. 9984863681, ईमेल : suresh998486@gmail.com

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