जल, जंगल, जमीन को बचाने की जद्दोजहद

6 Dec 2012
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एक तरफ जल, जंगल और जमीन का बड़े पैमाने पर दोहन जारी है तो दूसरी तरफ इन्हें बचाने का संघर्ष भी तेज हुआ है। देश भर में इस संदर्भ में जगह-जगह आंदोलन हुए और हो रहे हैं। जल, जंगल, जमीन को लेकर चल रहे इन आंदोलनों का एक जायजा।
बिहार को हर साल उपजाऊ मिट्टी बिछाकर पूरा इलाका धन-धान्य से पूर्ण रखने वाली बागमती नदी को तटबंधों में बांधा जाने लगा। नदी के जिन-जिन हिस्सों में तटबंध बने वहां के लोग उजड़ गए। खेतों में बालू रह गया। तटबंध के बाहर भी लाखों लाख एकड़ जमीन में जल जमाव होने लगा। उसमें उगने वाली जहरीली घास की वजह से साठ फीसदी गाय भैंस, बैल, बकरी, पक्षी मर गए। हजारों गांवों को तटबंध ने काला पानी में तब्दील कर दिया। अब जिन इलाकों में तटबंध नहीं बने हैं, वहां के लोग इसका विरोध कर रहे हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान सरला बहन गांधी जी की शिष्या बन कर इंग्लैंड से भारत आईं और यहीं की हो गईं। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने हिमालय के पहाड़ों और वनों के बीच अपना डेरा डाला। तब हिमालय के वनों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन्होंने एक सारगर्भित किताब भी लिखी– अवर डाइंग प्लेनेट। उस समय बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन किया जाने लगा, निर्मल जलधाराओं वाली हमारी नदियां प्रदूषित होकर गंदे नालों में तब्दील होने लगीं। बड़े बांधों से बड़े पैमाने पर आदिवासियों का विस्थापन हुआ। सरला बहन ने जब देखा कि हिमालय के सघन प्राकृतिक वनों को बेरहमी से काट-काट कर नष्ट किया जा रहा है और उसकी जगह व्यापारिक उपयोग वाले चीड़ के पेड़ लगाए जा रहे हैं तो उनका मन चीत्कार उठा।

वनों को बचाने के लिए उन्होंने अनेक लोगों को तैयार किया। उनमें प्रमुख थे सुंदरलाल बहुगुणा, जिन्होंने मुख्यधारा की सत्ता वाली राजनीति का आकर्षण छोड़कर वनों को बचाने की चेतना जगाने का काम शुरू किया। बहुगुणा जी तथा उनके साथियों ने निरंतर पदयात्राएं कीं, समय-समय पर जान को जोखिम में डाल कर अनशन भी किए। इसी क्रम में चंडीप्रसाद भट्ट भी बस कंडक्टर की नौकरी छोड़कर इस अभियान के अग्रणी बने। एक महिला मंगल दल बना। गौरा देवी ने अगुवाई की और बड़ी संख्या में महिलाएं पेड़ों को कटाई से बचाने के लिए उनसे चिपक गईं और ठेकेदारों तथा कुल्हाड़ी लिए मजदूरों से कहा कि पेड़ों को काटने से पहले हमें काट दो और यहीं से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई। बाद में तो इसी की प्रेरणा से कर्नाटक में अप्पिको आंदोलन चला। जब टिहरी में बांध बनाए जाने लगे तो उसका भी जोरदार विरोध किया गया।

केरल में सायलेंट वैली को बचाने के लिए केरल शास्त्र साहित्य परिषद की पहल पर व्यापक आंदोलन हुआ था, जिसमें लाखों लोग शामिल हुए थे और अंततः सरकार को सायलेंट वैली परियोजना को वापस लेना पड़ा। इससे इस क्षेत्र के वनों, जल स्रोतों तथा जैव विविधता की रक्षा हुई। केरल से एक और आंदोलन शुरू हुआ था। एक दिन वहां के समुद्री मछुआरों ने देखा कि कुछ विदेशी जहाज आकर बड़े-बड़े जाल लगा रहे हैं और एक साथ बड़े पैमाने पर मछलियां पकड़ रहे हैं। उनके महीन जाल में मछलियों तथा अन्य जीव जंतुओं का अंडा भी फंस जाता था। इससे छोटे-छोटे मछुआरों को मछली मिलना मुहाल हो गया। यहां से विरोध शुरू हुआ। वहां चर्च के एक पादरी थे थॉमस कोचरी। उन्होंने मछुआरों की इस लड़ाई का साथ दिया। उन्होंने पादरी का काम छोड़कर समुद्री मछुआरों को संगठित करना शुरू किया। यह लड़ाई भारत के सभी समुद्री इलाकों-पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोआ और गुजरात तक फैल गई।

सरकार को मुखर्जी कमीशन बनाना पड़ा और उस कमीशन की सिफारिश पर समुद्री किनारे से सात मील की दूरी तक का इलाका छोटे-छोटे मछुआरों के लिए सुरक्षित कर दिया गया। यह लड़ाई आज भी जारी है। 1982 में कहलगांव (जिलाः भागलपुर, बिहार) से गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। गंगा क्षेत्र के मछुआरों पर जलकर जमींदारों तथा टेकेदारों के गुंडों का भारी शोषण एवं जुल्म चल रहा था। 1990 आते-आते इस आंदोलन में बिहार के बक्सर से लेकर राजमहल तक के पांच सौ किलोमीटर के इलाके के गंगा क्षेत्र के लाखों मछुआरे, किसान, संस्कृति कर्मी और बुद्धिजीवी उठ खड़े हुए। इस पूरे क्षेत्र में गंगा के जमींदारों तथा टेकेदारों को टैक्स देना बंद कर दिया गया। दमन की भारी कोशिश हुई, लेकिन अंततः बिहार के पूरे गंगा क्षेत्र में जमींदारी और ठेकेदारी प्रथा का अंत हुआ तथा गंगा समेत बिहार की सभी नदियों में परंपरागत मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर मुक्त कर दिया गया।

नर्मदा बांध का निर्माण न रोका जा सका, लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नदियों तथा पर्यावरण रक्षण के संदर्भ में जिस प्रकार की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय चेतना जगाई है, वह अविस्मरणीय है। राजस्थान में तालाबों को पुनर्जीवित करने का तरुण भारत संघ का अभियान भी अत्यंत उल्लेखनीय है। इसके साथ ही मेघालय, असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड तथा देश के अन्य इलाकों में भी नदियों तथा पानी को बचाने के अनेक प्रयत्न चल रहे हैं। नेपाल से एक नदी आती है बागमती। यह बिहार में सीतामढ़ी जिले में ढेंग के पास प्रवेश करती है। 374 किलोमीटर लंबी बिहार की इस नदी को 1954 से ही तटबंधों से बांधा जा रहा है। 12 किलोमीटर की चौड़ाई में फैलने वाली यह नदी हर साल उपजाऊ मिट्टी बिछा देती थी। पूरा इलाका धन-धान्य से पूर्ण रहता था। लेकिन इस नदी को तीन किलोमीटर की चौड़ाई में बांधा जाने लगा। नदी के जिन-जिन हिस्सों में तटबंध बन गए वहां के लोग उजड़ गए। खेतों में बालू रह गया। तटबंध के बाहर भी लाखों लाख एकड़ जमीन में जल जमाव होने लगा। उसमें उगने वाली जहरीली घास की वजह से साठ फीसदी गाय भैंस, बैल, बकरी, पक्षी मर गए। हजारों गांवों को तटबंध ने काला पानी में तब्दील कर दिया। अब जिन इलाकों में तटबंध नहीं बने हैं, वहां के लोग इसका विरोध कर रहे हैं। हजारों महिलाएं और पुरुष जेल जाने, लाठी-गोली खाने को तैयार हैं उनका अहिंसक संघर्ष जारी है।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)

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