जल के लिये प्रकृति के आधार पर समाधान

22 Mar 2018
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हम अपने परम्परागत जलस्रोत को भूलाते जा रहे हैं
हम अपने परम्परागत जलस्रोत को भूलाते जा रहे हैं

विश्व जल दिवस, 22 मार्च 2018 पर विशेष


जल संकट का स्थायी तथा सहज समाधान केवल-और-केवल प्रकृति ही कर सकती है। प्रकृति ने हजारों सालों से पानी की सुगम उपलब्धता ही नहीं, पर्याप्तता बनाए रखी है। हमारा तत्कालीन समाज सदियों से प्रकृति के संग्रहित पानी का बुद्धिमत्ता और प्राकृतिक नीति-नियमों के अनुसार ही कम-से-कम जरूरत का पानी लेता रहा। उसने बारिश के संग्रहित पानी का दोहन तो किया लेकिन लालच में आकर अंधाधुंध शोषण नहीं किया।

प्रकृति ने हमें जीवित रखने के लिये पर्याप्त पानी दिया है लेकिन वह कभी भी मनुष्य को उसके शोषण की अनुमति नहीं देती। करीब पचास साल पहले जब से समाज ने पानी को अपने सीमित हितों के लिये अंधाधुंध खर्च कर पीढ़ियों से चले आ रहे समाज स्वीकृत प्राकृतिक नीति-नियमों की अनदेखी करना प्रारम्भ किया है, तभी से पानी की समस्या बढ़ती गई है। समाज ने यदि अब भी प्रकृति के आधार पर समाधान करने का प्रयास नहीं किया तो आने वाली पीढ़ी कभी पानी से लबालब जलस्रोतों को देख भी नहीं सकेगी।

इधर के कुछ सालों में हम पानी के मामले में सबसे ज्यादा घाटे में रहे हैं। कई जगहों पर लोग बाल्टी-बाल्टी पानी को मोहताज हैं तो कहीं पानी की कमी से खेती तक नहीं हो पा रही है। भूजल भण्डार तेजी से खत्म होता जा रहा है। कुछ फीट खोदने पर जहाँ पानी मिल जाया करता था, आज वहाँ आठ सौ से बारह सौ फीट तक खोदने पर भी धूल उड़ती नजर आती रहती है। सदानीरा नदियाँ अब दिसम्बर तक भी नहीं बहतीं। ताल-तलैया सूखते जा रहे हैं। कुएँ-कुण्डियाँ अब बचे नहीं या कम हो गए हैं।

बारिश का पानी नदी-नालों में बह जाता है और हम जमीन में पानी ढूँढते रह जाते हैं। लोग पानी के लिये जान के दुश्मन हुए जा रहे हैं। पानी के लिये पड़ोसी देश और पड़ोसी राज्य आपस में लड़ रहे हैं। कहा जाने लगा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिये हो सकता है।

पानी को किसी भी प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता। जल ही जीवन का आधार है। जल के बिना जीवन की कल्पना बेमानी ही है। कैसे सम्भव है कि पानी के बिना कोई समाज अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है। पानी जीवन की अनिवार्यता है। पानी के बिना जीवन की धड़कन थम जाती है। प्यास दुनिया की सबसे बड़ी विडम्बना है और भारत के लिये तो और भी ज्यादा बड़ी।

जिस देश में कभी 'पग-पग नीर' की उक्ति कही जाती रही हो, वहाँ अब पानी की यह कंगाली हमें बहुत शर्मिन्दा करती है। कहा जाता है कि जल है तो कल है पर अब इसे एक सवाल की तरह देखा जाना चाहिए कि जल ही नहीं होगा तो कल कैसा? जीवन जल से ही सम्भव है, यह हमारे समाज के लिये एक बड़ा सवाल है और बड़ा खतरा भी। पर्यावरण की समझ रखने वाले लोगों को यह सवाल बड़े स्तर पर चिन्तित कर रहा है।

आज के समाज से पानी क्यों दूर होता चला गया, इसकी भी बड़ी रोचक कहानी है। ठीक उसी तरह जैसे सेठ के पास अकूत सम्पत्ति हो और उसी के बेटों को अपनी रोटी कमाने तक के लिये हाड़तोड़ मजदूरी करना पड़े। ठीक यही बात हमारे समाज पर भी लागू होती है कि कैसे हमने इधर कुछ ही सालों में पानी के अकूत भण्डारों को गँवा दिया और अब प्यास भर पानी के लिये भी सरकारों के भरोसे मोहताज होते जा रहे हैं।

प्रकृति ने हमें पानी का अनमोल खजाना सौंपा था, लेकिन हम ही सदुपयोग नहीं कर पाये। हमने दोहन की जगह शोषण करना आरम्भ कर दिया। हमने उत्पादन और मुनाफे की होड़ में धरती की छाती में गहरे-से-गहरे छेद कर हजारों सालों में संग्रहित सारा पानी उलीच लिया। नलों में पानी क्या आया, कुएँ-कुण्डियाँ पाट दीं। ताल-तलैया की जमीनों पर अतिक्रमण कर लिया। नदियों का मीठा पानी पाइप लाइनों से शहरों तक भेजा। बारिश का पानी नदियों तक पहुँचाने वाले जंगल चन्द रुपयों के लालच में काटे जाने लगे।

अब हर साल सूखा और जल संकट जैसे हमारी नियति में शामिल होते जा रहे हैं। साल-दर-साल बारिश के आँकड़े कम-से-कमतर होते जा रहे हैं। इस साल भी लगातार पाँचवें साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ा है। इस साल भी 15 फीसदी से कम बारिश हुई है। 60 करोड़ किसान सूखे की मार से विचलित हैं।

देश के 20 करोड़ छोटे किसान खेती के लिये मानसून पर निर्भर होते हैं। कमजोर मानसून का प्रभाव देश की 60 फीसदी आबादी पर पड़ता है। जमीनी पानी लगातार गहरा होता जा रहा है। साल-दर-साल भूजल स्तर 3.2 फीसदी तक घट रहा है। तमाम जलस्रोतों के सूखने के साथ ही सदानीरा नदियों में भी अब पानी की कमी नजर आने लगी है।

नर्मदा जैसी नदियों में भी अब पानी की कमी हो जाती है। नदियों के कायाकल्प और उन्हें जिन्दा करने की कोशिशों पर अरबों रुपए खर्च होने के बाद भी कोई खास बदलाव कहीं नजर नहीं आता बल्कि वे और ज्यादा गन्दी होकर सिकुड़ती जा रही हैं।

संकट इसलिये भयावह होता जा रहा है कि बारिश कम होने लगी है। जमीनी पानी का भण्डार कम होता जा रहा है। बारिश का पानी जमीनी पानी के भण्डार तक पहुँचकर उसे बढ़ा नहीं पा रहा। धरती लगातार गरम होती जा रही है। उसका बुखार बढ़ता ही जा रहा है। इसके प्रभाव से कई पर्यावरणीय बदलाव हो रहे हैं। मौसम मनमाने तरीके से बदलने लगा है।

मौसम का अब न तो कोई निश्चित समय रहता है और न ही उसकी तीव्रता का कोई निर्धारित मापदण्ड। कभी कुछ इलाकों में जमकर बारिश होती है तो कहीं बिलकुल नहीं। देश के कुछ हिस्सों में बाढ़ तो ठीक उसी समय बाकी इलाके में सूखा। ओजोन परत में क्षरण का खतरा मँडराने लगा है। खेती में किसानों को नए-नए संकटों का सामना करना पड़ रहा है।

पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। साल-दर-साल जंगल कम होते जा रहे हैं, जबकि नदियों तक पानी पहुँचाने में इन्हीं जंगलों का बड़ा योगदान होता है। जंगल कम होने तथा जंगलों में जलस्रोत सूखने का सीधा असर वन्य प्राणियों पर पड़ रहा है। गर्मी शुरू होते ही पानी के लिये वे जंगल से गाँवों और बस्तियों की तरफ आने लगते हैं। जंगलों के पोखर, नदी-नाले सूख जाने से उनके सामने पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाता है। वन्य प्राणियों की तादाद घटने के पीछे भी वन्य प्राणी विशेषज्ञ जल संकट को बड़ा कारण मानते हैं।

इससे जैवविविधता को भी बड़ा संकट है। नर्मदा में कुछ सालों पहले तक 70 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ हुआ करती थीं, लेकिन मप्र में इस पर जगह-जगह बाँध बन जाने से अब महज 40 प्रजातियों तक ही सिमट गई है।

बाँध बन जाने से नर्मदा में कई जगह पानी काफी छिछला हो गया है तो कई जगह नगरीय निकायों का सीवेज का पानी मिलते रहने से नदी का पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि इनमें मछलियाँ और अन्य जलीय जीव नहीं पनप पा रहे हैं। मप्र में राज्य मछली का दर्जा प्राप्त महाशीर मछली अब नर्मदा के पानी से लुप्त हो चली है। नदियाँ सूख रही हैं तो इसका असर जलीय जीवों की प्रजातियों के अस्तित्व पर इसका प्रभाव पड़ रहा है।

हजारों सालों से संग्रहित धरती का भूजल भण्डार अब चूकने की कगार पर है। कई जगह जमीनी पानी का जल स्तर 600 से एक हजार फीट तक गहरा चला गया है। धरती की छाती में छेद-पर-छेद करते हुए खेतों में लगातार ट्यूबवेल किये गए। खेती में पानी के लिये ट्यूबवेल को ही एकमात्र संसाधन मान लिया गया।

कुएँ और तालाब के परम्परागत स्रोत बिसरा दिये गए। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हजारों सालों से जमीन के भीतर रिसकर इकट्ठा होने वाला भूजल भण्डार का पानी अंधाधुंध तरीके से उलीच लिया गया। बाद के दिनों में किसी ने भी जमीन के भीतर पानी रिसाने के बारे में न कभी गम्भीरता से सोचा और न ही कभी कोई ठोस काम जमीन पर हुआ।

बैंक खाते की तरह पूर्वजों का सहेजा पानी तो हमने इस्तेमाल कर लिया लेकिन हम उस खाते में कुछ भी जमा नहीं कर सके। इसलिये धीरे-धीरे वह पानी भी अब खत्म होने की कगार पर पहुँच गया है। अब किसानों पर पानी के लिये होने वाले खर्च का कर्ज इतना बढ़ गया है कि कई जगह आत्महत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं। न ट्यूबवेल में पानी आ रहा, न फसलें ले पा रहे हैं, उल्टे कर्ज पर ब्याज बढ़ता जा रहा है।

पानी की कमी का असर मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। पानी की कमी से कई इलाकों में लोगों को प्रदूषित पानी पीना पड़ता है। इससे उन्हें कई तरह की बीमारियाँ हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में हालत बहुत चिन्ताजनक है।

देश में करीब 70 फीसदी लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। प्रदूषित पानी में कई जगह फ्लोराइड, आर्सेनिक और नाइट्रेट जैसे घातक तत्व भी शामिल हैं। स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा करीब 80 फीसदी केवल जलजनित बीमारियों के लिये ही खर्च करना पड़ रहा है। हर साल करीब छह लाख से ज्यादा लोग पेट और संक्रमण की बीमारियों से ग्रस्त होकर दम तोड़ देते हैं। दस फीसदी पाँच साल की उम्र से छोटे बच्चे डायरिया दस्त से पीड़ित होकर मर जाते हैं।

देश में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता प्रति व्यक्ति एक हजार घन मीटर है, जबकि 1951 में यह तीन से चार हजार घन मीटर हुआ करती थी। यह जानना भी रोचक है कि 1951 से अब तक 65 सालों में जल संसाधन जुटाने के नाम पर खरबों रुपए का सरकारी धन भी खर्च हो चुका है और नतीजा यह कि पानी अब पहले के मुकाबले चौथाई ही रह गया। ऐसा क्यों हुआ, यह सब जानते हैं।

प्रकृति हमें हमेशा से ही सब कुछ देती रही है। साँस लेने के लिये हवा, पीने के लिये पानी, खाने के लिये पेड़-पौधे। उसकी इन अनमोल नेमतों का हमारे पूर्वज हजारों सालों से समझदारीपूर्वक उपयोग करते रहे हैं। प्रकृति का आवश्यक उपयोग भर ही दोहन करने से वे कई पीढ़ियों तक इसका लाभ लेते रहे लेकिन इधर के सालों में मनुष्य के लालच ने सारी सीमाएँ तोड़ते हुए इनके दोहन की जगह इनका शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। इससे प्रकृति के नीति-नियम टूट गए. प्रकृति चाहती है उसके संसाधनों का हमारा समाज दोहन करे लेकिन कुछ नीति-नियमों और आचार संहिता में रहते हुए।

जब हम इन नियमों से परे जाकर दोहन की जगह शोषण करने लगते हैं तो फिर हमारे समाज को ऐसे ही कई संकटों का सामना करना पड़ता है। जल संकट इसका एक बड़ा रूप है लेकिन इससे कई बातें जुड़ती हैं। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, जंगल का घटना, जैवविविधता और वन्य प्राणियों की तादाद में कमी, खेती के संकट और सेहत पर असर आदि कई रूपों में सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकटों का सामना करना पड़ रहा है। आने वाले कुछ सालों में ये खतरे हमारे सामने और भी बड़ी चुनौतियों के रूप में दिखने लगेंगे।

पानी का मनमाना, अंधाधुंध और बेतरतीब दोहन ही नहीं हुआ है, हमने पानी को बाजार के उत्पाद की तरह व्यापार का हिस्सा बना लिया। बोतलबन्द पानी का व्यापार साल-दर-साल 15 से 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। अब हमें सिखाया जा रहा है कि शुद्ध और साफ पानी यानी बोतल का पानी। समाज में प्यासे को पानी पिलाना हमेशा से पुण्य और सामाजिक जिम्मेदारी रही है।

गर्मियों में कई स्थानों पर प्याऊ लगाई जाती थी। पर कुछ व्यवसायी मानसिकता के लोगों ने इसे भी बाजार में ला खड़ा किया है। जब हम किसी वस्तु को बाजार में ले आते हैं तो फिर हमेशा उसे मुनाफे के गणित से ही जोड़कर देखा जाता है। तालाबों और नदियों के प्रवाह क्षेत्र को तहस-नहस कर अतिक्रमण किये। रेत खनन करते हुए व्यापारी खनन माफिया बन बैठे।

प्राकृतिक नदी तंत्र को समझे बिना थोड़ी-सी बिजली या पानी के लिये बाँधना शुरू किया। बड़े बाँधों ने इनके पर्यावरणीय सरोकारों को नुकसान ही पहुँचाया है। नदियों का पानी पाइप लाइनों से पचास से डेढ़ सौ किमी तक पहुँचा दिया। नदी के आसपास जंगल बचे नहीं।

अपने पारम्परिक व प्राकृतिक संसाधनों और पानी सहेजने की तकनीकों, तरीकों को भुला दिया गया। स्थानीय रिवायतों को बिसरा दिया और लोगों के परम्परागत ज्ञान और समझ को हाशिए पर धकेल दिया। पढ़े-लिखे लोगों ने समझा कि उन्हें अपढ़ और अनपढ़ों के अर्जित ज्ञान से कोई सरोकार नहीं और उनके किताबी ज्ञान की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं।

जबकि समाज का परम्परागत ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से छन-छनकर लोगों के पास तक पहुँचा था। समाज में पानी बचाने, सहेजने और उसके समझ की कई ऐसी तकनीकें मौजूद रही हैं, जो अधुनातन तकनीकी ज्ञान के मुकाबले आज भी मार्के की बात कहती है।

समाज और सरकारों ने व्यक्ति की बुनियादी जरूरत और जिन्दगी के लिये सबसे अहम होने के बाद भी पानी को कभी अपनी प्राथमिकता सूची में पहले नम्बर पर नहीं रखा। हमेशा इसके लिये शार्ट कट के रास्ते ही अमल में लाये गए। कभी इन पर समग्र और दूरगामी परिणामों को सोचते हुए निर्णय नहीं लिये गए। प्राकृतिक संसाधनों के पर्यावरणीय हितों की लम्बे समय तक लगातार अनदेखी की जाती रही। जल संकट का सामना करने के लिये दूर स्थित नदियों से पाइप लाइनों में पानी मँगवाया या धरती का सीना छलनी कर बोरिंग से हजारों साल से जमा हो रहे पानी के खजाने को उलीच डाला।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लेशियर पानी के पारम्परिक स्रोत रहे हैं और हिमालय से आने वाली गंगा सहित अन्य नदियाँ इन पर निर्भर हैं। सिर्फ नदियाँ ही नहीं इन पर आश्रित करीब 40 करोड़ से ज्यादा लोगों के पानी पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा खतरा बारिश पर होगा। बारिश की अनिश्चितता और भी बढ़ सकती है। यह जुड़ी है सीधे तौर पर हमारी खेती से। किसानों की आर्थिक दशा पहले ही खराब है और खेती अब फायदे का सौदा नहीं रहकर लगातार घाटे का सौदा होती जा रही है।

मध्य प्रदेश के मालवा जैसे पानीदार इलाके के शहरों और कस्बों में पीने का पानी तक नर्मदा से आ रहा है। यहाँ के उद्योगों को चलाने के लिये जरूरी पानी भी सवा सौ किमी दूर नर्मदा से आ रहा है। क्षिप्रा में कुम्भ स्नान के लिये भी नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डाला जा रहा है। उधर पानी सहेजने के कुछ छोटे और खरे उपाय जैसे स्थानीय पारम्परिक जलस्रोतों को संरक्षित करने, बरसाती पानी के ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग और इसमें संरचनाओं का निर्माण। नदी-नालों में छोटे बंधान और तालाब बनाने आदि में अब समाज और सरकार दोनों का विश्वास नहीं बचा।

समाज को हमने कभी जल साक्षर नहीं बनाया। नई पीढ़ी के लोगों का पानी के मामले में ज्ञान बहुत थोड़ा और सतही है। उन्हें नए समय की तकनीकों और किताबी ज्ञान का बोध तो है पर जीवन के लिये सबसे जरूरी पानी के इस्तेमाल और जरूरी खास जानकारी नहीं है। मसलन पानी कहाँ से आता है। पानी क्यों कम से कमतर होता जा रहा है। जमीनी पानी कैसे खत्म होता जा रहा है। बरसाती पानी को जमीन में रिसाना क्यों जरूरी है।

बरसाती पानी को कैसे सहेजा जा सकता है। नदियों और तालाबों के खत्म होते जाने के दुष्परिणाम क्या होंगे। इनके पानी के मनमाने दोहन का क्या और कितना बुरा असर पड़ेगा। हमें इन मुद्दों पर समझ बढ़ानी होगी। जल-जंगल और जमीन के आपसी सम्बन्धों को समझने की नए सिरे से कोशिश करनी होगी।

अकेले बड़ी लागत की योजनाएँ बना लेने या पानी के लिये हमेशा नदियों और जमीनी पानी पर निर्भर रहने भर से जल संकट का निदान सम्भव नहीं है। इस पर समूची दृष्टि से सोचने और शिद्दत से, पूरी गम्भीरता से सोच-समझ कर परम्परागत अनुभवजन्य ज्ञान को भी जोड़ते हुए इस पर काम करने की महती जरूरत है।

पानी के प्राकृतिक तौर-तरीकों को समझकर प्रकृति में ही इसका समाधान ढूँढने की कोशिश करनी होगी। बारिश के पानी के साथ प्राकृतिक जल संरचनाओं को सहेजने पर जोर देना होगा। जलस्रोतों और खासकर नदियों के अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति को रोकना होगा। रेत खनन में भू-वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना होगा। छोटी नदी परियोजनाओं पर जोर देकर भूजल भण्डार बढ़ाने की तकनीकें जमीनी स्तर पर अमल में आएँ। जंगलों और पेड़-पौधों को संरक्षित कर जल प्रदूषण पर कठोर कार्यवाही की जाये तो प्रकृति की नेमत का पानी हमें बरसों बरस तक लगातार मिलता रहेगा। जल संकट का प्राकृतिक समाधान ही बेहतर विकल्प है।
 

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