जल की वह अविराम धारा

17 May 2016
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सृष्टि की शुरुआत जल से हुई। जल तब एक विचार था। उसी विचार से प्रजापति का जन्म हुआ। प्रजापति ने सृष्टि की रचना की। यह जल के बिना सम्भव नहीं थीं। जल ने नए विचारों को जन्म दिया। फिर पृथ्वी बनी, देवता और मनुष्य अस्तित्व में आये। ऋषियों ने जल की महिमा गाई और अग्नि को शान्त किया। प्रजापति नेत्र मूँदे लेटे थे। मन में एक उत्फुल्ल भाव सिर उठा रहा था। जैसे शान्त जल अन्दर-ही-अन्दर खदबदा उठे। कुछ था जिसे यह नया रूप दे रहा था। यह था तप, किन्तु जो परिवर्तित हो रहा था, वह क्या था? वह था मन-विचार जो बदल रहा था। एक ऊष्मा थी। अस्थियों के पीछे धधकती ज्वाला।

अन्धकार की पृष्ठभूमि में उभरते-मिटते रूपाकारों का निरन्तर क्रम और जो कुछ घट रहा था उसे जानने की सनसनी। जो था वह वस्तुतः कुछ और था। हर विचार जैसे किसी दूसरी प्रतीति से जुड़ा था। केवल सचेतन की प्रतीति ही सबसे अलग, एकल थी। उसका कोई प्रतिरूप नहीं था, फिर भी हर साम्यता रह-रहकर उसी में प्रवाहित हो रही थी अन्दर और बाहर। एक अस्पष्ट लहर।

हर समरूपता उस लहर का शीर्ष थी, तब यह सृष्टि जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं थी। और लहरों के बीच था एक दृष्टा ऋषि। जल ही विचार थे, किन्तु वह दृष्टि? विचारों में अन्तराल आया जिसमें शेष सब समाहित था। एक थी चेतना। और एक थी आँख, जो चेतना को देख रही थी। उस एक मस्तिष्क में दो सत्ताएँ थीं जिनकी संख्या तीन, तीस, तीन हजार भी हो सकती थी। नेत्रों को देखते नेत्र, उन्हें निरखते नेत्र। यह था प्रथम पग, किन्तु अपने में प्रर्याप्त। अन्य सारे नेत्रों का अस्तित्व उस एक दृष्टा ऋषि में था, जल में था।

जल में ललक उभरी-जल धधक उठा। जल अपनी ऊष्मा को ही जला रहा था और तब लहर में एक स्वर्णिम खोल का आकार उभरा। इस एक का जन्म उस ऊष्मा की शक्ति से हुआ था और उस खोल में एक वर्ष के मान में प्रजापति की देह ने आकार लिया, लेकिन तब ‘वर्ष’ का अस्तित्व नहीं था।

समय एक अकेले का ही स्वर था, उसी अकेले में समाहित था। वह जो जल की सतह पर आधारहीन तिर रहा था। एक वर्ष बीतने पर उसने अक्षरों का उच्चारण आरम्भ कर दिया-यही थे पृथ्वी, वायु और सुदूर आकाश। वह जान चुके थे कि वही समय के जनक हैं। प्रजापति को एक हजार वर्ष का जीवन मिला था। अब वह फेनिल लहरों से कहीं आगे, दूर देख रहे थे और तब बहुत दूर पर उन्हें धरती का एक टुकड़ा दिखाई दिया-सुदूर तट की क्षीण रेखा-उनकी मृत्यु।

अकेले प्रजापति ही स्वजन्मा, स्वयंभू थे। किन्तु इस विशिष्टता के बाद भी वह अन्य जीवधारियों जितने ही दुर्बल थे। उन्हें अभी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था, उनमें कोई गुण नहीं था। वह प्रथम स्वनिर्मित दिव्य तत्व थे। आरम्भ में उन्हें छंदज्ञान भी नहीं था और फिर उन्हें में एक स्फुरण की अनुभूति हुई। वह थी एक स्तुति। प्रजापति ने उसे मुखरित होने दिया। आखिर उस स्फुरण का स्रोत क्या था? वह था उनका कपाल। उसके संधिस्थल से जन्मी थी वह स्तुति।

जल से प्रसूत कामनारत प्रजापति को प्राप्त हुआ था यह सब। इदम् सर्वम्। लेकिन एक वही थे जो किसी को अपना पिता नहीं कह सकते थे, उनकी माँ भी नहीं थी। यों कहने को उनकी एक नहीं, अनेक माताएँ थी, क्योंकि समस्त जलराशियाँ बहुवाची नारियाँ ही तो हैं। और वही जलराशियाँ उनकी बेटियाँ भी थीं।

विचार या मन एक कूलहीन प्रवाह। उस पर रह-रह विद्युत कौंधती और लुप्त हो जाती। एक वृत्त की रचना करनी होगी। ‘अब स्थिर हो जाओ।’ प्रजापति ने स्वयं से कहा, किन्तु सब कुछ उद्वेलित-अस्थिर था। ‘एक घनीभूत आधार की आवश्यकता है।’ उन्होंने कहा था, ‘अन्यथा मेरे बच्चे बुद्धिहीन रहकर भटकते रह जाएँगे। यदि कुछ भी स्थिर-स्थायी नहीं है, तो फिर वे गणना कैसे करेेंगे? समतुल्यता को देख कैसे पाएँगे?’

हवा में हिलते, नाजुक, पतले कमल-पत्र पर लेटे प्रजापति यही सब सोच-विचार कर रहे थे- जल ही सबका आधार है। जल ही सिद्धांत भी है, वेद हैं। किन्तु इसे समझना अत्यन्त कठिन है। भविष्य में जन्म लेने वाले कैसे जान पाएँगे इस सबका अर्थ? अब यह आवश्यक हो गया है कि जल के कुछ भाग को आच्छादित किया जाये। पृथ्वी अब एक आवश्यकता है।

एक शूकर का रूप धारण कर वह जल में बहुत गहरे उतर गए। ऊपर आये तो शूकर का थूथन कीचड़ में सना हुआ था। प्रजापति ने कीचड़ को कमलपत्र के ऊपर सावधानी से फैला दिया। ‘यही पृथ्वी है।’ उन्होंने कहा। ‘अब इसे स्थिर रखने के लिये मुझे चाहिए कुछ पत्थर।’ और वे फिर पानी में अदृश्य हो गए।

इस बार उन्होंने सूख गई कीचड़ के सब तरफ सफेद पत्थरों को गोलाकार लगा दिया। “तुम सब इसके रक्षक रहोगे।” प्रजापति ने कहा। अब पृथ्वी एक गोचर्म की तरह तन गई थी। थककर प्रजापति उसी पर लेट गए। उन्होंने पृथ्वी का प्रथम स्पर्श किया और पहली बार पृथ्वी पर कोई भार पड़ा था।

अपने एकान्त में सबके जनक प्रजापति के मन में विचार आया, ‘कैसे मैं स्वयं को फिर से जन्म दे सकता हूँ?’ वह गहन मंथन में डूब गए। अन्दर-ही-अन्दर एक गहन ऊष्मा संचरित होने लगी। और फिर उन्होंने अपना मुँह खोल दिया। बाहर निकली सर्वभक्षी अग्नि। प्रजापति ने अग्नि पर दृष्टिपात किया।

अपने खुले मुँह से उन्होंने अग्नि को प्रकट किया था, उसे जन्म दिया था और अब वही आग मुँह खोेलकर उनकी ओर बढ़ रही थी। क्या सच में वह उन्हें, अपने जनक को इतनी जल्दी खा जाना चाहती थी और अब प्रजापति को पहली बार आतंक का अनुभव हुआ, उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली।

पृथ्वी बंजर थी, घास-पात, वृक्षों का अस्तित्व अभी केवल उनके मन का विचार मात्र था। ‘तब यह किसे अपना भोजन बनाना चाहती है? मेरे अतिरिक्त तो कोई और है ही नहीं।’ उन्होंने स्यवं से कई बार प्रश्न किया। आतंक ने जैसे उनकी वाणी छीन ली। अगर उन्होंने अग्नि के खाने के लिये तुरन्त कुछ नहीं बनाया, तो वह स्वयं उसका भोजन बन जाएँगे।

प्रजापति अर्घ्य देने की मुद्रा में अपनी दोनों हथेलियाँ आपस में रगड़ने लगे, लेकिन जो केशों से भरा तत्व प्रकट हुआ उसे अग्नि ने नहीं खाया। उन्होंने हथेलियों को पुनः रगड़ा और उस क्रिया से इस बार सफेद द्रव प्रकट हुआ। ‘मैं इसे अग्नि को समर्पित करुँ या नहीं?’ आतंकित प्रजापति सोचने लगे। फिर तूफानी हवा बहने लगी, आकाश चमकने लगा, अग्नि ने आहुति ग्रहण की और वहाँ से अदृश्य हो गए।

प्रजापति को अनुभव हुआ उनके अतिरिक्त कोई और भी है, उनका साथी-द्वितीय, जो उनके अन्दर है। वह एक स्त्री थी। वाक-वाणी। प्रजापति ने उसे बाहर आने दिया। प्रजापति ने स्त्री पर दृष्टि डाली। वह थी वाणी-जल की अविराम धारा के रूप में। एक जलस्तम्भ की तरह अनादि, अनन्त।

(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘क’ से सम्पादित अंश)
 

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