जल संरक्षण की अनूठी पहल

26 Jul 2009
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प्रभात कुमार शांडिल्य, जे.पी. की सहयोगी रही सुशीला सहाय, नन्द कुमार सिंह, प्रमिला पाठक, फरासत हुसैन और उनके साथियों की पहल पर मगध जल जमात का गठन हुआ और जन सहयोग से तालाबों, आहारों और पईन की उड़ाही और जीणोद्धार का काम शुरू हुआ। देखते ही देखते शहर के सरयू तालाब, गंगा यमुना तालाब, बिरनिया कुआं, पुलिस लाइन तालाब, सिगरा स्थान तालाब, इसके बगल के एक तालाब समेत सात तालाबों की उड़ाही कर दी गई। एक मई से 15 मई 2006 के बीच मात्र 15 दिनों में हजारों लोगों ने श्रमदान करके इन तालाबों को साफ कर दिया। आज उन तालाबों में ब्रह्मायोनी पहाड़ का पानी जमा होता है और शहर का आधा जल संकट दूर हो गया है।

 

फल्गू नदी के किनारे वट वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ तपस्या में लीन थे। बगल के गांव के चरवाहे बैजू महतो की बेटी सुजाता ने एक दिन सिद्धार्थ से कहा-‘संन्यासी, वीणा के तार को इतना मत कसो कि वह टूट जाए और इतना ढीला भी मत करो कि उससे आवाज ही न निकले, लो खीर खाओ।’ इसी बात ने सिद्धार्थ के ज्ञानचक्षु खोल दिए, उन्होंने सुजाता की खीर खाई, बुद्ध बने और सारे संसार में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। सुजाता का गांव बैजू बिगहा आज भी मौजूद है, बोधगया भी और मगध के तमाम गांव और शहर भी। लेकिन ये इलाके आज जल संकट से त्रस्त हैं, कलह तथा खूनखराबे से ग्रस्त भी, पर जल संकट का हल निकालने की एक नई जन पहल शुरू हुई है, जिसमें हजारों लोग शामिल हो रहे हैं और समाप्तप्राय: परम्परागत जल स्त्रोतों के पुनरोद्धार और पुनर्जीवन का सिलसिला चल पड़ा है।

दक्षिण बिहार की नदियां सदानीरा नहीं हैं, बरसाती हैं। बरसात में यहां की नदियां पहाड़ों से आने वाली जलधारा से उफना जाती हैं और बरसात के बाद सूख जाती हैं। यहां के पठारी इलाके में पानी ठहरता नहीं। भीषण गर्मी पड़ती है।

जेठ-बैशाख की दुपहरी में सूखी फल्गू नदी का बालू तपने लगता है, आसपास की पहाड़ियां भी तपती हैं। रात में भी हवा अत्यधिक गर्म रहती है। प्रतिकूलता के बावजूद पहले यहां न पेयजल की समस्या होती थी और न खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी थी। जब-जब बिहार में अकाल पड़ता था गया और उसके आस-पास के इलाके दुष्प्रभाव से बचे रहते थे। सन्‌ 1919 के सर्वे को देखने से पता चलता है कि इस इलाके में तालाब, आहर और पईन (नालों) का जाल फैला हुआ था। बरसात में उफनती नदी या पहाड़ के झरनों से बहता पानी पईन होकर आता था और अनगिनत तालाबों, आहरों को भर देता था। बरसाती पानी भी खेतों से बहकर आहर में जमा होता था। गांव के लोग आहर, तालाब, पईन की खुदाई और मरम्मत का काम हर साल किया करते थे। शहर में भी अच्छी संख्या में तालाब और आहर थे। लेकिन पिछले 50 साल के दौरान इन आहर, तालाबों और पईन की घोर उपेक्षा हुई। अधिकांश मिट्टी से भर गए। कई लोगों ने उन पर अपने खेत बना लिए। गया शहर के कई मुहल्ले तालाबों को भर कर बसा दिये गए। ये मुहल्ले हैं- तालाब पर, बनिया पोखर, गंगटी पोखर, कोइली पोखर, कठोकर तालाब।

गया कॉलेज कैम्पस तीन आहरों को मिट्टी से भर कर बनाया गया। कलक्ट्रेट के सामने के तालाब को भर कर शहीद पार्क और कमिश्नर कार्यालय बना दिया गया। अंग्रेजों के जमाने में ही पिलग्रिम अस्पताल के सामने वाले तालाब को भर कर तत्कालीन कलक्टर के नाम पर हीटी पार्क बना, जो अब आजाद पार्क कहलाता है। जो तालाब बचे वे भी उड़ाही के अभाव में बेकार हो गए। सन्‌ 1960 के बाद डायमंड रिंग के सहारे पत्थरों को छेद कर बोरिंग करने और मोटर पम्प लगाने का सिलसिला शुरू हुआ। इसने कुछ लोगों को ताकतवर बनाया शेष को पानी से वंचित किया। लेकिन कुछ दशकों में ही ये बोरिंग बेकार होने लगे। समाजशास्त्री प्रभात कुमार शांडिल्य वर्षों से मगध क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक स्थितियों को अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि मगध में कलह और खून खराबे का एक बड़ा कारण वनों तथा पेड़ पौधों की समाप्ति है। ये न केवल, फल, चारा, औषधि, जलावन तथा इमारती लकड़ी देते थे, बल्कि अपनी जड़ों के माध्यम से भूमि के अन्दर जल का संचय भी करते थे। परम्परागत जल स्त्रोतों के समाप्त होते जाने से पेयजल संकट के साथ-साथ खेती चौपट हो रही है और इससे उपजा अभाव आपसी विद्वेष और हिंसा पैदा कर रहा है।

इन्हीं परिस्थितियों में प्रभात कुमार शांडिल्य, जे.पी. की सहयोगी रही सुशीला सहाय, नन्द कुमार सिंह, प्रमिला पाठक, फरासत हुसैन और उनके साथियों की पहल पर मगध जल जमात का गठन हुआ और जन सहयोग से तालाबों, आहारों और पईन की उड़ाही और जीणोद्धार का काम शुरू हुआ। देखते ही देखते शहर के सरयू तालाब, गंगा यमुना तालाब, बिरनिया कुआं, पुलिस लाइन तालाब, सिगरा स्थान तालाब, इसके बगल के एक तालाब समेत सात तालाबों की उड़ाही कर दी गई। एक मई से 15 मई 2006 के बीच मात्र 15 दिनों में हजारों लोगों ने शमदान करके इन तालाबों को साफ कर दिया। आज उन तालाबों में ब्रह्मायोनी पहाड़ का पानी जमा होता है और शहर का आधा जल संकट दूर हो गया है। इस अभियान में न किसी सरकारी फंड की दरकार हुई न किसी एनजीओ के पैसे की। स्कूल कॉलेज के छात्र, आम नागरिक, बुद्धिजीवी, शमजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक दलों के लोग, डॉक्टरों के संघ, सेना, सीआरपी, जेल के वार्डर और कैदी, विभिन्न पेशों से जुड़े लोग यहां तक कि जाति संगठनों ने भी इस अभियान में खुले मन से योगदान दिया।

यह अभियान गांवों में भी फैलने लगा है। सन्‌ 2006 से 2007 के दौरान मानपुर ब्लॉक से ननौक गांव तक 8 किलोमीटर पईन की उड़ाही गांव वालों ने कर दी। इससे ननौक गांव के सात तालाब और रास्ते के बत्तीस तालाबों में सिंचाई का पानी भर गया। फसल इतनी अच्छी हुई कि लोग आपसी कलह भूल गए। यहां भूमिहारों और कुशवाहा जाति के लोगों के बीच लम्बे समय से झगड़ा-लड़ाई और विद्वेष चल रहा था। आज वहां सौहार्द कायम हो चुका है। बाराचट्टी के पहाड़ से आने वाला पानी पैमार नदी में बह जाता था, क्योंकि वंशी नाला मिट्टी से भर गया था। गांववालों ने 11 किलोमीटर लम्बे वंशी नाले की उड़ाही कर दी, अब पहाड़ का पानी इस नाले में आने लगा और 25-30 आहर पानी से भर गए। चपरदह गांव (गया मेडिकल कॉलेज के पास) से बेलागंज के थनेटा गांव तक की14 पंचायतों के बीच 26 किलोमीटर पईन की उड़ाही का काम गांव वाले पूरे उत्साह से कर रहे हैं। वैश्विक जल संकट के इस दौर में गया के लोग एक नई राह दिखा रहे हैं। बोध गया गौतम बुद्ध की ज्ञान स्थली और तीर्थस्थली तो है ही देशभर के लोग फल्गू किनारे पहुंच कर अपने पूर्वजों को शद्धा भी अर्पित करते हैं। लगता है गया अब जल संरक्षण, पर्यावरण रक्षण का प्रेरणा स्थल भी बनेगा और मगध के गांव कलह, द्वेष, खून खराबे से निकलकर रचना, सृजन, समानता और शांति का संदेश भी देंगे।

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