जल संसाधन विकास व भारतीय संविधान- विवेचनात्मक अध्ययन

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जल एक प्रधान प्राकृतिक संसाधन है। जल मानव की आधारभूत आवस्यकता है और सब विकासमान आयोजन का एक मुख्य तत्व है। यह परिस्थितिकी का एक अनिवार्य और नियंत्रक तत्व है। जीवित रहने और बढ़ोत्तरी के लिए मानव पूरी तरह जल पर निर्भर है। जल के प्रबंधन और उसको संभालने के लिए मानव की क्षमता बड़ी तेजी से बदलती रही है। जल का प्रबंधन जटिल किन्तु रोमांचक अनुभव है।

अभिन्न और इष्टतम आधार पर जल संसाधनों का आयोजन, संरक्षण और विकास राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नियंत्रित किया जाना चाहिए, जिसके लिए संबंधित राज्यों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना आवश्यक है। इसको ध्यान में रखकर, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एन.डब्ल्यू.आर.सी. द्वारा एक राष्ट्रीय नीति स्वीकारी गई। (सभी मुख्यमंत्रियों की, जो कि परिषद के सदस्य हैं, सर्वसम्मत सहमति से)

परियोजना आयोजन की नीति में उल्लेख है :

“जल संसाधन का आयोजन एक जल विज्ञानीय इकाई के लिए करना होगा। एक पूरे जल निकास बेसिन को या एक उप बेसिन को एक इकाई माना जाएगा। सब अलग-अलग विकासमान परियोजनाएं और प्रस्ताव राज्यों द्वारा तैयार किए जाएं और एक बेसिन या उपबेसिन के लिए ऐसी समग्र योजना के अंतर्गत ही उन पर विचार किया जाए, ताकि विकल्पों का सर्वोत्तम-संभव संयोग हो सके।”

नीति में आगे कहा गया है-

“जल संसाधन विकास परियोजनाओं का आयोजन और विकास यथासम्भव बहुउद्देशीय परियोजनाओं की तरह होना चाहिए। पेय (पीने योग्य) जल की व्यवस्था का सर्वप्रथम विचार होना चाहिए। परियोजनाओं में जहां तक संभव हो सिंचाई, नौ-वहन, मछली पालन और मनोरंजन के लिए प्रावधान होना चाहिए। संग्रहण क्षेत्र के उपचार और प्रबंधन, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के पहलुओं, प्रभावित लोगों के पुर्नवास और कमान क्षेत्र के विकास समेत परियोजनाओं के आयोजन, निर्माण, अनुमोदन और कार्यान्वयन के लिए एक अभिन्न और बहु-विषयी मार्ग अपनाया जाना चाहिए। राष्ट्रीय जल नीति (1787) और राष्ट्रीय जल आयोजना के क्रियान्वयन के लिए भारतीय संविधान के प्रावधानों की ओर ध्यान देना आवश्यक है (ताकि जल संसाधनों के विकास में संघ और राज्यों की सरकारों के दायित्वों और संबंद्ध कर्तव्यों की पहचान की जा सके। हमें देखना पड़ेगा कि विद्यमान ढांचा पर्याप्त है या नहीं और संविधानिक संशोधनों या विद्यमान उपबंधों के अधीन आवश्यक कानून बनाने की आवश्यकताओं का आंकलन भी करना होगा।”

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