जल संसाधन


नदी-तालाब और कुएँ,
गाड़-गदेरे और झरने।
यही हमारी प्यास बुझाते,
इन्हीं में आते मेघ जल भरने।।

खाल पोखर और मंगेरे।
चाल-ढाल और धारे-पंदेरे।
कितना सुन्दर कितना निर्मल।
नित चमकता इनमें पानी रे।।

यही हैं स्रोत धरा पर जल के।
यही जीवन में हमारे रस भरते।
ये न होते अगर धरा पर।
कैसे भला हम जीवन जीते।।

फैली है इन्हीं से हरियाली
धरती बनी है दुल्हन।
रंग-बिरंगे परिधान पहन
नव वधु का हुआ जैसे आगमन।।

इन्हीं से प्राणी प्यास बुझाते।
इन्हीं में हैं वे नहाते।
प्रकृति प्रदत्त ये सभी।
जल संसाधन हैं कहलाते।।

पर्वत शिखरों से कल-निकल
करता जल कल-कल कल-कल।
हमसे तुमसे सबसे कहता यही।
चल रे मनुज आगे बढ़ता चल।।

गंगा यमुना सदृश पतित पावनी
बहती धरा पर जिनकी रसधार।
जल में कल्लोल करती लहरें।
मन को हर्षित करती अपार।।

हिम शिखरों से झर-झर झरते झरने।
देखते ही मन को लगते हरने।
सूरज की किरणें पड़ती जब इन पर।
तब लगते ये चाँदी जैसे चमकने।।

बरसाती जल से कुएँ भर जाते।
मेंढक उनमें टर्र-टर्र करते।
शरद ऋतु में तालाब शोभा पाते।
पुलिन पर उनके हँस तैरते।।

कितना सुन्दर है धरा का रूप।
कितना मधुर है इसका हास।
अनवरत सद्य स्नात जैसा।
मन में भरता नया उल्लास।।

जल ने ही पृथ्वी की शोभा है बढ़ाई।
उसी ने धरती को हरी चादर ओढ़ाई।
जल के कारण ही वह वसुंधरा कहलाई।
उसी ने धरती पर अनगिनत चीजें उगाई।।

श्री भाष्करा नन्द डिमरी (प्रव.-हिन्दी), रा. इ. का. सिमली (चमोली)

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