जल संस्कृति बनाम भौतिकवादी संस्कृति

2 Jan 2017
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गंगनानी धारा
गंगनानी धारा


आज की भौतिकवादी सभ्यता ‘पानी’ को व्यावसायिक दृष्टि से आँकने लगी है। इस परिस्थिति में जल संस्कृति को जीवित रखना बहुत कठिन कार्य होता जा रहा है। एक तरफ लोग पानी से व्यवसाय कमाना चाह रहे हैं। दूसरी तरफ लोगों का मानना है कि जल एक प्रकृति प्रदत्त पदार्थ है।

भविष्य में पानी के व्यावसायीकरण से जीव और जीवन दोनों खतरे के निशान पर आने वाले हैं। जबकि समाज में लोगों ने ‘जल की संस्कृति’ पूजनीय और तीर्थाटन के रूप में कायम की थी। अपितु जल को आध्यात्मिक व सांस्कृतिक रूप में ही उपयोग में लाया गया था। सो जल का दोहन ही हो रहा है, संरक्षण हमारे जेहन में दूर-दूर तलक नहीं दिखाई दे रहा है।

यहाँ एक अध्ययन के दौरान पता चला कि जन सहभागिता वाली जल संस्कृति समाप्ति की ओर बढ़ रही है। मौजूदा समय में अधिकांश जनप्रतिनिधि ‘जल संरक्षण हेतु’ विभिन्न योजनाओं के माध्यम से सिर्फ व सिर्फ बजट ठिकाने लगाने का काम ही कर रहे हैं।

अब तक एक भी उदाहरण सामने नहीं आया कि सरकार द्वारा चलाए गए जल संरक्षण के काम से अमुक गाँव और उसके आस-पास के जलस्रोत रिचार्ज हो गए हैं। बजाय ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि विकासीय योजनाओं के कारण से गाँव का जलस्रोत सूखने की कगार पर आ चुका है वगैरह।

पिछले छः माह में उत्तराखण्ड की यमुना घाटी के देवरा, गुराड़ी, पैंसर, हल्टाड़ी, सुच्चाण गाँव, दणगाण गाँव, पुजेली, खन्यासणी, भितरी, देवल, दोणी, सट्टा, मसरी, ग्वाल गाँव, खन्ना, सेवा, बरी, हडवाड़ी, गंगटाड़ी, खाण्ड, कोटी, नागणगाँव, थान, सरनौल, सर, बडियाड़, बाड़िया, खरसाली, यमनोत्री आदि लगभग 30 गाँवों में ‘जल संस्कृति एक अध्ययन’ हेतु भ्रमण किया गया।

अध्ययन के दौरान यह बात सामने आई कि फलाँ गाँव में जल संरक्षण की योजना से अमुक जनप्रतिनिधि ने अच्छा-खासा पैसा कमाया है। स्पष्ट हो रहा है कि अमुक जल सरंक्षण की योजना उनके लिये सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी साबित हो रही है। पंचायत प्रतिनिधियों का स्पष्ट वक्तव्य है कि जल मनुष्य की मूलभूत व प्रमुख आवश्यकता है। सरकार भी इसके लिये खूब बजट देती है।

पूछा गया कि जल संरक्षण की योजनाओं पर कार्य ‘जल संस्कृति’ के अनुरूप होता है? इस पर सभी का स्पष्ट जवाब था कि योजनाओं में परम्परा कोई मायना नहीं रखती। उदाहरणतः यमनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बर्नीगाड़ स्थित एक गंगनाणी नाम की जलधारा है। यह धारा पहाड़ से निकलती है। इस धारा से इतना पानी निकलता है कि पाँच-पाँच किलोवाट के दो माईक्रोहाईडिल चल सकते हैं। स्थानीय लोग कहते हैं कि पहले-पहल यहाँ पर घराट (पनचक्कियाँ) खूब चलती थीं। जब से मशीन का जमाना आया तब से घराट बन्द हो गए हैं। बस इस जलधारा के सौन्दर्यीकरण और संरक्षण बाबत हर वर्ष सरकार स्थानीय जनप्रतिनिधियों के सहयोग से बजट जरूर खर्च करती है। क्योंकि इस धारा की आध्यात्मिक पवित्रता भी है, मगर इस जलधारा की हालात बिगड़ती ही जा रही है।

उल्लेखनीय हो कि स्थानीय छुटभैया नेताओं ने अपने आकाओं के साथ बैठकर इस जलधारा के सौन्दर्यीकरण के लिये 14 लाख रुपए की योजना बनाई और बजट भी स्वीकृत करवा लाये। इस जलधारे का सौन्दर्यीकरण सीमेंट, रेत, सरिया आदि से आरम्भ कर दिया गया। जिस दिन निर्माण कार्य आरम्भ हुआ और मजदूर इस जलधारा के समीप गए, सभी की नजरें कुदरती ही बन्द हो गई।

मजदूर यदि वापस आ रहे थे तो उनकी नजर खुल जाती थी। ऐसा चमत्कार होते लोगों ने कहा कि यह पानी देवता का है, वहाँ पहले पूजा-पाठ करो और जो भी कार्य करे वह नंगे पाँव। एक सप्ताह पश्चात् पूजा-पाठ का आयोजन करके सौन्दर्यीकरण का कार्य आरम्भ किया गया, किन्तु धारा का प्रवाह वर्तमान में कम होते जा रहा है और जलधारा की पूर्व की सुन्दरता भी बिगड़ती नजर आ रही है।

 

संरक्षण के नहीं सौन्दर्यीकरण के नाम पर होता है बजट खर्च


इसी तरह यमनोत्री हिन्दुओं का प्रसिद्व तीर्थ स्थल है। यहाँ प्राकृतिक पानी का कुण्ड आगन्तुकों को बरबस अभिभूत करता है। दो गरम पानी के कुण्ड हैं। एक अतिगर्म जिसमें लोग पोटली में चावल बाँधकर पकाते हैं। दूसरा उसी क्रम में बना गर्म पानी का कुण्ड, जिसमें लोग स्नान करते है। यहाँ भी सौन्दर्यीकरण के नाम पर इन कुण्डों की बनावट पर खतरा मण्डरा रहा है।

यमुना घाटी में स्थित टौंस घाटी यानि कि टौंस नदी बहती है। यह घाटी हिमाचल प्रदेश की सीमा से सटी है। हिमाचल की तरह इस घाटी में भी जल बावड़ियाँ थीं, ऐसा स्थानीय लोग कहते हैं। टौंस घाटी में 18 गाँव में हुए अध्ययन के दौरान एक भी बावड़ी कहीं नजर नहीं आई है। जहाँ-तहाँ बावड़ी थी वहाँ सीमेंट और एक छोटी सी मूर्ति देखने को मिली। अधिकांश जलधाराएँ सूखती हुई नजर आईं।

राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित अवकाश प्राप्त शिक्षक अतर सिंह पंवार का कहना है कि वर्तमान में जल संस्कृति को पहाड़ के प्ररिप्रेक्ष्य में और भी समझने की आवश्यकता है, कहा कि पहले गाँव में पेयजल के स्रोत बावड़ी, धारा, पन्यारा अथवा नौलों के रूप में होते थे। इन जलस्रोत के निकलने वाले स्थान पर सिलवाणी (सैवाल अथवा ऐलगी) होता था, जो पानी को फिल्टर करता था।

हनोल-त्यूणी जलविद्युत परियोजनासिलवाणी एक स्थानीय शब्द है। जिसे ऐलगी नाम से जाना जाता है। सिलवाणी न कि सिर्फ पानी को स्वच्छ रखता था यह पानी के रिचार्ज में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कहते हैं कि जल स्रोतों पर जबसे सीमेंट का प्रचलन बढ़ा तबसे यह सिलवाणी समाप्त होता गया और जलस्रोत भी सूखने की कगार पर आ गए।

 

एक आध्यात्मिक जलधारा


यमुनाय पूर्वभागे सूर्यकुण्डमिति स्मृतमम्। यः स्नाति तत्, विप्तेश सूर्यलोके महीयते।।

अर्थात यमुना के पूर्वभाग में सूर्यकुण्ड है, विप्तेश-जो उसमें स्नान करता है। वह सूर्यलोक में पूजित होता है। उत्तर दिशा भाग में विष्णुकुण्ड है। वहाँ पीला जल आता है। और बज्र शिला अर्थ देने वाली है। सूर्यकुण्ड में लोक आलू और चावल को पोटली में बाँधकर कुण्ड में अर्पित करते हैं, जो चन्द क्षणों में पककर कुण्ड से ऊपर आ जाता है। इसको लोग यमुनोत्री के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। कहा जाता है कि यहाँ पर यमुना ने अपने पिता सूर्य देव की उपासना की है, इसलिये सूर्य ने अपनी एक किरण यमुनोत्री में प्रवाहित की है, जिसे लोग सूर्यकुण्ड कहते हैं। यमनोत्री में स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिये गर्म पानी का कुण्ड है। जहाँ लोग स्नान करके अपने को धन्य मानते हैं।

 

जलविद्युत परियोजनाओं का सच


टौंस नदी पर भी पन्द्रह बाँध बनने हैं उनमें से हमने उन स्थानों के लोगो से सम्पर्क किया जो निर्माण के लिये तैयार हैं जैसे- तालुका-सांकरी, जखोल-नैटवाड़, नैटवाड़-मोरी, मोरी-हनोल, हनोल-त्यूणी। हनोल-त्यूणी जल विद्युत परियोजना की लगभग सात किमी लम्बी सुरंग बनेगी इससे सबसे अधिक प्रभावित वेगल, कुकरेड़ा, तलवाड़, मैन्द्रथ, हनोल गाँव होंगे। क्योंकि इनके नीचे से परियोजना की सुरंग जा रही है तथा इनकी जमीन पर डम्पिंगयार्ड और आऊटलेट एवं इनलेट बनाया जा रहा है।

इस परियोजना की जनसुनवाई हो चुकी है। परन्तु ग्रामीणों को मालूम ही नहीं है कि जन सुनवाई हुई है। क्योंकि जनसुनवाई की सूचना एक अंग्रेजी अखबार में छपाई गई थी। यह अचरज का विषय है कि जहाँ के लोगों को हिन्दी का अखबार पढ़ना नसीब नहीं है वहाँ के लोग अंग्रेजी में छपी सूचना से कैसे वाकिफ होंगे? फिर भी जो लोग कही-सुनी बातों के मार्फत जनसुनवाई में गए उनका कहना है कि जनसुनवाई में एक कोरे कागज पर हस्ताक्षर जरूर करवाए गए।

 

पहले लोगों की जरूरत और बाद में योजनाएँ


लोक विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रवि चोपड़ा मानते है कि लोक और प्रकृति का मांस और हाड़ का सम्बन्ध है। उनकी लोक जीवन के प्रति गहरी संवदेनशीलता है। कहते हैं कि जब पानी के बिना जीवन नहीं है तो आये दिन पानी का घटता रूप यह साबित कर देगा कि धरती जीवविहीन हो जाएगी। यह एक परिस्थिति अनुकूल कल्पना हो सकती है, किन्तु जिस तरह मानव प्राणी प्राकृतिक संसाधनों का विद्रुपदा से दोहन कर रहा है। वह भविष्य के लिये संकट मोल ले रहा है।

 

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