जल स्रोत का जल समेट क्षेत्र

जल स्रोत का जल समेट वह भूक्षेत्र है जिसमें पड़ने वाली वर्षा के अवशोषण से उस स्रोत का पानी प्रवाह निर्धारित होता है। किसी भी स्रोत के जल प्रवाह को निर्धारित करने वाले अनेक कारक होते हैं जिनको मुख्यतः निम्न भागों में बाँटा जा सकता हैः

जल स्रोत का जल समेट क्षेत्र

1. जल समेट क्षेत्र का आयतन


जल स्रोत में पानी का निर्धारण उसके समेट क्षेत्र के आयतन पर निर्भर करता है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जिस जल स्रोत का जल ग्रहण क्षेत्र जितना बड़ा होगा उस स्रोत से जल का प्रवाह उतना अधिक होगा।

2. भूगर्भीय चट्टानी संरचना


यदि जल समेट क्षेत्र में मिट्टी व सरन्ध्र शिलाओं का आयतन कम है तो उनमें कम पानी ठहरेगा और यदि आयतन अधिक है तो अधिक पानी ठहरेगा जिससे स्रोत का प्रवाह अधिक होगा और लम्बे समय तक चलेगा। ऊपर वाले जल स्रोत के जल समेट क्षेत्र का सतही क्षेत्रफल तथा मिट्टी व सरन्ध्र शिलाओं का आयतन नीचे वाले स्रोत की अपेक्षा कम है अतः ऊपर वाला जल स्रोत एक वर्ष में नीचे वाले जल स्रोत की अपेक्षा कम पानी देगा। हिमालयी क्षेत्र में अनेक भूगर्भीय हलचलें होती रहती हैं। भूकम्प आने से भूगर्भीय संरचनाओं में परिवर्तन होते रहते हैं जिससे कि स्रोत में पानी का प्रवाह प्रभावित होता है। भूकम्प आने से कुछ स्रोतों में पानी का प्रवाह बढ़ जाता है जबकि अन्य स्रोत बिल्कुल सूख जाते हैं।

3. भू उपयोग


जल समेट क्षेत्र की कुल भूमि का विभिन्न प्रयोजन हेतु उपयोग (कृषि-बागवानी, अधिवास क्षेत्र, वन क्षेत्र, परती भूमि क्षेत्र, खनन क्षेत्र आदि) स्रोत से जल के प्रवाह को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि जल समेट क्षेत्र में जितनी वर्षा गिरती है उसमें से कितनी जमीन द्वारा सोखी जाती है तथा कितनी सतह से बह जाती है इसका निर्धारण उस क्षेत्र के भूउपयोग द्वारा तय होता है। यदि समेट क्षेत्र में परती भूमि व कृषि भूमि का क्षेत्र अधिक है तो भूमि में पानी का अवशोषण वन भूमि की अपेक्षा कम होगा। जल समेट क्षेत्र में मानव जनित हस्तक्षेप जैसे- सड़क निर्माण, भवन निर्माण, खनन आदि कार्यों से भी स्रोत के जल प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

4. वानस्पतिक आवरण


जल क्षेत्र के समेट क्षेत्र में वानस्पतिक आवरण की स्थिति स्रोत से पानी के निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य सामने आया है कि यदि कोई पहाड़ी ढ़लान घने जंगलों से आच्छादित है तो उस पर गिरने वाली वार्षिक वर्षा का काफी बड़ा प्रतिशत (90 प्रतिशत तक) जमीन द्वारा सोख लिया जाता है। और यदि किसी पहाड़ी क्षेत्र में वानस्पतिक आवरण कम है अनियन्त्रित चराई होती है या निरन्तर आग लगती है तो वहाँ वार्षिक वर्षा के जल का कम प्रतिशत (70 प्रतिशत) जमीन द्वारा सोखा जाता है जबकि 30 प्रतिशत तक पानी सतह से बह सकता है।

वर्षा जल का अवशोषणबहुत से गाँव के जल स्रोत जिनमें पहले वर्षभर पानी रहता था अब गर्मियों में सूख जाते हैं इसका मुख्य कारण उस क्षेत्र का वानस्पतिक आवरण नष्ट होना है। ऐसे क्षेत्र पर गिरने वाला अधिकतर वर्षा का जल सतह से बहकर गधेरों में चला जाता है इस तरह से जल स्रोतों को पानी देने वाले जमीन के अन्दर के टैंक बरसात में नहीं भर पाते हैं इसलिए जल्दी सूख जाते हैं।

वनस्पति रहित जमीन पर बारिश का पानी ढलान पर तेजी से बह जाता है और अपने साथ मिट्टी के उन कणों को ले जाता है जिन्हें गिरती बूँदों के आघात ने उखाड़ दिया होता है। क्योंकि पानी के बहाव को रोकने के लिए सूखी पत्तियाँ या पौधे ऐसी जमीन पर नहीं होते हैं इसलिए ढ़लान के नीचे की ओर जाते हुए बहाव और तेज हो जाता है। यह प्रक्रिया जिसमें बारिश का पानी मिट्टी के कणों का उखाड़कर बहा ले जाता है भू क्षरण कहलाती है। जिस क्षेत्र में जितना अधिक भू क्षरण होगा उस क्षेत्र से उतना ही कम पानी का अवशोषण होगा।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading