जलाशय-निर्माण का पुण्य फल

(नारद पुराण/पूर्व भाग/पाद)

- - जो स्वयं अथवा दूसरे के द्वारा तालाब बनवाता है, उसके पुण्य की संख्या बताना असंभव है।
- यदि एक राही भी पोखरे का जल पी ले तो उसके बनाने वाले पुरुष के सब पाप अवश्य नष्ट हो जाते हैं।
- जो मनुष्य एक दिन भी भूमि पर जल का संग्रह एवं संरक्षण कर लेता है, वह सब पापों से छूट कर सौ वर्षों तक स्वर्गलोक में निवास करता है।
- जो मानव अपनी शक्ति भर तालाब खुदवाने में सहायता करता है, जो उससे संतुष्ट होकर उसको प्रेरणा देता है, वह भी पोखरे बनाने का पुण्य फल पा लेता है।
- जो सरसों बराबर मिट्टी भी तालाब से निकालकर बाहर फेंकता है, वह अनेक पापों से मुक्त हो, सौ वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है।
- जिस पर देवता अथवा गुरुजन सन्तुष्ट होते हैं, वह पोखरा खुदाने के पुण्य का भागी होता है- यह सनातन श्रुति है।
- ‘कासार’ (कच्चे पोखरे) बनाने पर तडाग (पक्के पोखरे) बनाने की अपेक्षा आधा फल बताया गया है।
- कुएँ बनाने पर चौथाई फल जानना चाहिए।
- बावड़ी (वापी) बनाने पर कमलों से भरे हुए सरोवर के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
- नहर निकालने पर बावड़ी की अपेक्षा सौ गुना फल प्राप्त होता है।
- धनी पुरुष पत्थर से मंदिर या तालाब बनवावें और दरिद्र पुरुष मिट्टी से बनवावे तो इन दोनों को समान फल प्राप्त होता है, यह ब्रह्माजी का कथन है।
- जो धनी पुरुष उत्तम फल के साधन भूत ‘तडाग’ का निर्माण करता है और दरिद्र एक कुआँ बनवाता है, उन दोनों का पुण्य समान होता है।
- जो पोखरा खुदवाते हैं, वे भगवान् विष्णु के साथ पूजित होते हैं।
 

जलाशय निर्माण का फल


यस्तडागं नवं कुर्पात् पुल्णं वापि खानयेत्।
स सर्वं कुलमुद्धृत्य स्वर्ग लोके महीयते।।62।।

अर्थात्-जो मनुष्य नये तालाब बनवाता है, या पुराने तालाब को खुदवाता है, वह अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार करके स्वर्ग लोक में पूजित होता है।

वापी कूप तडागानि, उद्यानोपवनानि च।
पुनः संस्कार कर्ता च लभते मौक्तिकं फलम्।।63।।

अर्थात्-जो मनुष्य पुरानी बावड़ी, कुआँ, तालाब, बाग और उपवन-इन्हें फिर से खुदवाता या फिर से बनवाता है, उसे नये जलाशय बनवाने तथा नये बाग लगवाने का फल मिलता है।

निदाघ काले पानीयं यस्य तिष्ठति वासव।
स दुर्गविषमं कृत्स्त्रं न कदाचिदवाप्नुयात्।।64।।

अर्थात्-जिसके यहाँ (घर या जलाशय में) ग्रीष्मकाल में भी जल रहता है, वह मनुष्य किसी दुःखजनक दुरावस्था में नहीं पड़ता।

एकाहं तु स्थितं पृथिव्यां राजसन्तम।
कुलानि तारयेत् तस्य सप्त-सप्त पराण्यपि।।65।।

अर्थात्-जिसकी खुदवायी हुई पृथ्वी में केवल एक दिन भी जल स्थित रहता है, वह जल उसके सात कुलों को तार देता है।

दीपालोक प्रदानेन वपुष्मान् स भवेन्नरः।
प्रेक्षणीय प्रदानेन स्मृतिं मेधां च विंदति।।66।।

अर्थात्- ‘दीप दान’ करने से मनुष्य का शरीर उत्तम हो जाता है और जल के दान के कारण उसकी स्मृति और मेधा बढ़ जाती है।

-बृहस्पति स्मृति/61-62-63-64-65-66

तडाग कूप कर्त्ता च लभते पौष्टिकं द्विज।

अर्थात्- जो मनुष्य तालाब और कुएँ बनवाता है, उसे ‘पौष्टिक’ नामक स्वर्ग प्राप्त होता है।

-श्री नरसिंह पुराण/अ.-30/श्लोक-31-1/2

दुर्भिक्षे अन्नदाता च, सुभिक्षे च हिरण्यदः।
पान प्रदस्त्वरण्ये तु स्वर्ग लोके महीयते।।

अर्थात्- अकाल के समय अन्न का, सुकाल के समय सुवर्ण का और निर्जल वन में ‘जल’ का दान करने वाला, स्वर्ग को जाता है।

-अत्रि स्मृति/328

(1) जिसके खुदवाये हुए पोखरे में गौएँ एक मास सात दिनों तक तृप्त रहती हैं, वह पवित्र होकर सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित होता है।
(2) पोखरे में जब मेघ वर्षा करता है, उस समय जल के जितने छींटे उछलते हैं, उतने ही सहस्त्र वर्ष तक पोखरा बनवाने वाला स्वर्ग लोक का भोग करता है।
(3) नष्ट होते हुए जलाशय को पुनः खुदवा कर उसका उद्धार करने से जो पुण्य होता है, उसके द्वारा वह मनुष्य स्वर्ग में निवास करता है।
(4) जो अपनी शक्ति के अनुसार जलाशय का निर्माण करता है, वह ‘पापक्षय’ हो जाने पर ‘मोक्ष’ प्राप्त करता है।
(5) जहाँ जल का अभाव हो, ऐसे मार्ग में पवित्र स्थान पर एक मण्डप बनाये। वहाँ जल का प्रबंध रखे और गर्मी, बरसात तथा शरद ऋतु में बटोहियों को जल पिलाता रहे। तीन वर्ष तक ऐसा करने से पोखरा खुदवाने का पुण्य प्राप्त होता है।
(6) जो जलहीन प्रदेश में ग्रीष्म के समय एक मास तक ‘पौंसला’ (प्याऊ) चलाता है, वह एक ‘कल्प’ तक स्वर्ग में सम्मानपूर्वक निवास करता है।

जलाशय नष्ट करने का फल


सनातन हिन्दू धर्मशास्त्रों में जहाँ एक ओर जलाशयों (कूप, वापी, पुष्कर,तडाग) के निर्माण और पुनर्निर्माण को पुण्य फलदायक अथवा स्वर्ग प्राप्ति का साधन माना गया है, वहीं दूसरी और जल को रोकने, उसे दूषित करने अथवा जल के साधनों को नष्ट भ्रष्ट करने का परिणाम बहुत ही भयावह और अनिष्टकारक बताया गया है। इस सन्दर्भ में ऋषि-मुनियों के विचार और अनुशासन दृष्टव्य हैं-

वापी कूप तडागानामारामस्य सरः सु च।
निःशंकं रोधकश्चैव स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।379।।

अर्थात्- जो ब्राह्मण, बिना धर्म-अधर्म का विचार किये, निःशंकतापूर्वक (पाप के भय के बिना) किसी वापी, कूप, तालाब आदि जलाशय को अवरोधित अथवा दूषित करता है। और जो किसी बाग-बगीचे को नष्ट करता है, वह ‘म्लेच्छ’ के समान है अर्थात् वर्णाश्रम धर्म से अलग तथा पातकी है।

-अत्रि स्मृति

पूरणे कूप वापीनां वृक्षच्छेदन पातने।
विक्रीणीत गजं चाश्वं गोवधं तस्य निर्द्दिशेत्।।

अर्थात्- जो मनुष्य कुआँ या बावड़ी को पाट देता है, वृक्षों को काट कर गिरा देता है तथा हाथी या घोड़े को बेचता है, उसे ‘गौ के हत्यारे’ के समान मानकर दण्डित करना चाहिए।

-लिखित स्मृति/77

मूत्रश्लेष्म पुरीषाणि यैरुत्सृष्टानि वारिणि।
ते पात्यन्ते च विण्मूत्रे दुर्गन्धे पूय पूरिते।।

अर्थात्- जो मनुष्य जल (या जलाशय) में मूत्र, कफ (थूक) एवं मल का त्याग करते हैं, उन्हें दुर्गन्धयुक्त विष्ठा और पीब से पूर्ण ‘विण्मूत्र’ नामक ‘नरक’ में गिराया जाता है।

-वामन पुराण/अ.-12/श्लोक-12

प्रपादेवकुलारामान् विप्रवेश्म सभामठान्।
कूप वापी तडागांश्च भङ्क्वा विध्वंसयन्तिये।
तेषां विलपतां चर्म देहतः क्रियते पृथक्।
कर्त्तिकाभिः सुतीक्ष्णाभिः सुरौद्रैर्यम किंकरैः।।

अर्थात्- जो मनुष्य प्याऊ, देवमंदिर, बगीचा, ब्राह्मणगृह, सभा, मठ, कुआँ, बावड़ी एवं तडाग को तोड़ते-फोड़ते या नष्ट करते हैं, उनके विलाप करने (रोने-धोने) पर भी भयंकर ‘यमकिंकर’ तीक्ष्ण धुरियों द्वारा खाल उघेड़ते हैं और उनके शरीर की खाल को काट-काट कर अलग करते हैं।

-वामन पुराण/अ.-12/23-24

‘अग्नि पुराण’ में राजाओं के लिए स्पष्ट निर्देश है कि यदि कोई व्यक्ति जलाशय या देवमंदिर को नष्ट करता है तो राजा उसे ‘मृत्युदण्ड’ से दण्डित करे-

‘तडाग देवतागार भेदकान् घातयेन्नृपः।।‘

‘स्कंद पुराण के माहेश्वर खण्ड’ में कहा गया है कि जो व्यक्ति पोखरा को बेच देते हैं, जो जल में मैथुन करते हैं तथा जो तालाब और कुओं को नष्ट करते हैं, वे ‘उपपातकी’ हैं। ऐसे व्यक्ति जब दुबारा जन्म लेते हैं तो वे अपने ‘हाथों’ से वंचित होते हैं।

-पृ.-132 और 165

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