जलीय घोंघों से पशुओं में जानलेवा ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियाँ

28 Dec 2018
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मीठे पानी के जलाशयों के विभिन्न प्रजाति के घोंघे
मीठे पानी के जलाशयों के विभिन्न प्रजाति के घोंघे
अधिकांश किसानों एवं पशुपालकों को यह नहीं मालूम कि इनके आस-पास स्थित मृदु जलाशयों (तालाब, झील, बाँध, नदी, झरना, नहर इत्यादि) में रह रहे विभिन्न प्रजाति के घोंघे (स्नेल्स) उनके पालतू पशुओं (गाय, भैंस, भेंड़, बकरियाँ, ऊँट इत्यादि) में खतरनाक एवं जानलेवा परजीवी बीमारियाँ भी फैला सकतें हैं। इन बीमारियों के संक्रमण का पता इन्हें अक्सर तब चलता है जब इनके पशु दिनों-दिन सुस्त व कमजोर हो कर एक-एक करके मरने लग जातें हैं।

हाल ही में किये गए शोध अध्ययनों के अनुसार राजस्थान समेत कई प्रदेशों के मीठे पानी के जलाशयों के घोंघे पालतू मवेशियों में ट्रिमैटोडिएसिस नाम की कई तरह की बीमारियाँ फैलाने में सक्षम हैं। समय पर चिकित्सा न मिलने से प्रति वर्ष हजारों मवेशी इन बीमारियों के संक्रमण से मर जातें हैं, जिससे पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान अनायास ही हो जाता है। दरअसल ये जलीय घोंघे ट्रिमैटोड परजीवी जनित ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियों के संवाहक होतें हैं। ये बीमारियाँ न केवल पशुओं में बल्कि इंसानों को भी हो सकती हैं।

ये हैं घोंघो की प्रमुख प्रजातियाँ

प्रकाशित शोध रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न प्रकार के मृदु जलाशयों में घोंघों की लगभग सोलह प्रजातियाँ ऐसी हैं जो पालतू पशुओं में ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियाँ फैलाती हैं। इनमें से घोंघे की सात (लिम्निया ऐकुमिनेटा पतुला, लि. ऐकुमिनेटा क्लेमिस, लि. ऐकुमिनेटा टिपिका, लि. ऐकुमिनेटा रुफेसेंस, लि. लुटिओला ओस्ट्रलिस, लि. लुटिओला टिपिका व लि. लुटिओला इम्पुरा) ऐसी प्रजातियाँ है जो पानी की सतह पर रहती हैं और नौ (प्लैनोर्बिस एक्जस्टस, गाइरोलस कन्वेक्सिस्कुलस, फोनुस एतेर, मेलानिया स्काब्रा, थियरा लिनिएटा, मेलेनोइड ट्युबरकुलेटा, विविपेरा बेंगालेंसिस जाइजेंटिका, वि. बेंगालेंसिस मेंडीएंसिस व पाइला ग्लोबोसा ) प्रजातियाँ घोंघे की ऐसी हैं जो जलाशयों के पेंदे में रेंगती हुई पायी जाती है।


घोंघेघोंघेस्थानीय लोग इन घोंघों को शंखल्या अथवा शंख नाम से जानतें हैं। प्राणी शास्त्र में ये घोंघे प्राणी जगत के मोलस्का संघ के गैस्ट्रोपोडा वर्ग से सम्बन्धित जीव हैं। इनकी कोमल काया कैल्शियम कार्बोनेट से बने कड़े आवरण से ढकी रहती है जो इनकी प्रमुख पहचान होती है। दिखने में ये सुस्त व शान्त स्वभाव के काले-भूरे अथवा मटमैले रंग के जलेबी, सेब, बेर, तीर के भाँति नुकीले इत्यादि आकार के होतें हैं। छेड़ने पर ये आक्रामक नहीं होतें हैं और न ही किसी प्रकार का नुकसान पहुँचाते हैं।

ये हैं जानलेवा ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियाँ

पालतू पशुओं में ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियाँ विभिन्न प्रजाति के डाइजिनेटिक ट्रिमैटोड परजीवियों के संक्रमण के कारण पनपती है। ये अन्त:परजीवी चपटे- कृमि अथवा फ्लूक नाम से जाने जातें हैं जो मवेशियों के यकृत, फेफड़े, आहार नाल, हृदय इत्यादि जैसे महत्त्वपूर्ण नाजुक अंगों में बसर करतें है। इन कृमियों में जबर्दस्त प्रजनन क्षमता होने से ये असंख्य निषेचित अंडे देते रहतें हैं जो मवेशियों के गोबर या मल के साथ बाहर निकलते रहते हैं। ये अंडे वर्षा जल के साथ आस-पास स्थित इन जलाशयों में आ मिलते हैं। इनके जीवन का आगे का सफर जलाशयों में रह रहे घोंघो में परिपूर्ण होता है।


प्रो. शांतिलाल चौबीसाप्रो. शांतिलाल चौबीसाइनमें ट्रिमैटोड परजीवी कृमियों के विभिन्न प्रकार के लारवों का निर्माण होता है। लेकिन इनमें से सिर्फ सर्केरिया लारवा ही पानी में निकल कर जलीय वनस्पति पर सिस्ट (मेटासर्केरिया) के रूप में चिपके रहतें हैं। जब भी कोई पशु इन सिस्टयुक्त पतियों को खातें हैं तब ये सैकड़ों संक्रामक सिस्ट इनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ताजा जानकारी के अनुसार मवेशियों में इन ट्रिमैटोड परजीवियों के संक्रमण से होने वाली प्रमुख बीमारियों में फैसिओलिएसिस, ऐम्फिस्टोमिएसिस, शिस्टोसोमिएसिस व ऐकाईनोस्टोसोमिएसिस है जो घोंघो द्वारा ही फैलती है। शिस्टोसोम्स परजीवियों के संक्रमण से इंसानों में मृत्यु दर तुलनात्मक अधिक होती है।

इन बीमारियों का पूर्वानुमान सम्भव

घोंघे अलग-अलग मौसम में अलग-अलग तरह की ट्रिमैटोडिएसिस बीमारियाँ फैलाते हैं। अमूमन इन बीमारियों का संक्रमण वर्षा ऋतु में सर्वाधिक होने से अफ्रीकी देश जलाशयों में मौजूद घोंघे की प्रजाति तथा इनकी आबादी के आधार पर मनुष्यों व मवेशियों में होने वाली ट्रिमैटोडिएसिस का पूर्वानुमान लगा लेते हैं। जिससे इनके संक्रमण फैलने के पूर्व ही इनके रोकथाम की सारी तैयारियाँ पहले से ही कर ली जाती हैं।

हमारे यहाँ भी आईसीएआर, आईसीएमआर व एनआईसीडी जैसी सरकारी उच्च शोध संस्थाएं इन बीमारियों का पूर्वानुमान लगा सकती हैं। यदि पशुपालकों को इन बीमारियों का पूर्वानुमान ज्ञात हो जाय तो ये भी समय रहते अपने पशुओं को इन बीमारियों के संक्रमण से बचा सकते हैं। इससे इन्हें प्रति वर्ष हो रही आर्थिक हानि भी रुक जाएगी।

(लेखक जीव विज्ञानी हैं)


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