जलकथा

(1)‘पोखरा बनवाने का पुण्य’


(नारद पुराण/पूर्व भाग/प्रथम पाद)
गौंड देश में एक वीरभद्र नामक राजा थे। उनकी रानी का नाम चम्पक मंजरी था। उनके मंत्री का नाम बुद्धिसागर था।

एक बार राजा वीरभद्र मंत्री आदि के साथ शिकार खेलने के लिए वन में गये। वे दोपहर तक इधर-उधर घूमते रहे और थक गये। अचानक राजा को वहाँ एक छोटी-सी पोखरी दिखाई दी, जो सूखी हुई थी। उसे देखकर मंत्री ने सोचा कि इतने ऊँचे शिखर पर यह पोखरी किसने बनायी होगी? यहाँ जल कैसे सुलभ होगा, जबकि यह सूखी है? राजा की प्यास कैसे बुझेगी?

अचानक मंत्री के मन में उस पोखरी को खोदने का विचार हुआ। उसने एक हाथ का गड्ढा खोदकर उसमें से जल प्राप्त किया। उस जल को राजा और मंत्री, दोनों ने पिया। उससे दोनों को ही तृप्ति हुई।

मंत्री बुद्धिसागर बोला- राजन्! यह पोखरी पहले वर्षा के जल से भरी थी। मेरी सम्मति है कि इसके चारों ओर बाँध बनवा दिया जाये तो उत्तम होगा। आप इस कार्य के लिए मुझे अनुमति दें।

राजा वीरभद्र ने मंत्री को अपनी अनुमति और बाँध बनवाने की आज्ञा दे दी।

राजा की आज्ञा से मंत्री बुद्धिसागर ने उस पोखरी को खुदवाया, उसके चारों ओर बाँध बनवाया और पक्के घाट बनवा दिये। इससे पोखरी ‘सरोवर’ बन गई। उसकी लम्बाई-चौड़ाई पचास-पचास ‘धनुष’ की हो गई। उस सरोवर में अगाध जलराशि एकत्र हो गई।

पोखरी का सरोवर बन जाने पर मंत्री ने राजा को सूचित किया और घोषणा कर दी कि कोई भी उसका जल ग्रहण कर सकता है। इस घोषणा के बाद सभी प्रकार के वनचर, जीव-जन्तु और प्यासे पथिक उस सरोवर से जल ग्रहण करने लग गये।

कुछ समय बाद आयु पूर्ण हो जाने पर मंत्री बुद्धिसागर की मृत्यु हो गई। उसकी जीवात्मा धर्मराज के लोक में पहुँची।

धर्मराज ने चित्रगुप्त से पूछा कि मंत्री के धर्म-अधर्म का लेखा बताओ।

चित्रगुप्त ने बताया कि मंत्री ने एक पोखरी को लोकहित के लिए सरोवर बनवा देने की सलाह राजा को दी थी। साथ ही पोखरी के निर्माण में भी व्यक्तिगत रुचि ली थी। अतः ये ‘धर्म विमान’ पर चढ़ने के अधिकारी हैं।

धर्मराज ने चित्रगुप्त के कहने पर मंत्री को ‘धर्म विमान’ पर चढ़ने की आज्ञा दे दी।

कालान्तर में राजा वीरभद्र भी मर कर धर्मराज के पास पहँचे। घर्मराज ने राजा के ‘कर्म’ के बारे में भी चित्रगुप्त से पूछा। चित्रगुप्त ने बताया कि राजा ने पोखरी को खुदवा कर उसे सरोवर बनवाने का ‘पूर्त धर्म’ किया है। यह जानकर धर्मराज ने राजा वीरभद्र को एक कथा सुनायी-

पूर्व काल में उस सैकतगिरि के शिखर पर एक लावक पक्षी ने जल के लिए अपनी चोंच से दो अंगुल भूमि खोद ली थी।

तत्पश्चात् एक वाराह (सूकर) ने अपनी थूथन से एक हाथ गहरा गड्ढा खोद डाला था। जिससे उस गड्ढे में एक हाथ भर जल भरा रहने लगा था।

फिर एक ‘काली’ नामक पक्षी ने उस गड्ढे को और खोदकर दो हाथ गहरा कर दिया, जिससे उसमें दो महीने तक जल भरा रहने लगा। फलतः वन के छोटे-छोटे जीव-जन्तु उस जल से अपनी प्यास बुझाने लगे।

इसके तीन वर्ष बाद एक हाथी ने उस गड्ढे को और खोदकर तीन हाथ गहरा कर दिया। इससे उस गड्ढे में जल संचित होकर तीन मास तक रहने लगा और जंगली जीव-जन्तु उससे अपनी प्यास बुझाने लगे।

इसके बाद हे राजन्! जब आप उस गड्ढे के पास आये तब वह सूख चुका था। आपने एक हाथ मिट्टी खोदकर जल प्राप्त किया। तदनन्तर मंत्री बुद्धिसागर ने आपको सलाह दी और आपने पचास-पचास धनुष की लम्बाई-चौड़ाई का पक्का सरोवर बनवा दिया। इस कार्य से उसमें सदैव जल रहने लगा। आपने उसके किनारे पर छायादार वृक्ष भी लगवा दिये थे। अतः यह एक महत्पुण्य कारक धर्म हुआ है। चूँकि लावक, सूकर, काली, हाथी और बुद्धिसागर – इन पाँचों जीवों ने पोखरे के निर्माण में अपना सहयोग दिया है और छठे आप हो। अतः आप सभी जन इस ‘धर्म विमान’ पर चढ़ने के अधिकारी हो।
 

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