जलवायु जोखिम और भारत का पर्यावरण

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पर्यावरण विज्ञान में नये पाठ्यक्रम और समवर्ती मुद्दों के बारे में अनुसन्धान पाठ्यक्रमों के लिए विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों को सहायता देना प्रारम्भ किया है और सभी स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए अनिवार्य पर्यावरण अध्ययन की तर्ज पर आपदा प्रबन्धन के बारे में एक मॉडल पाठ्यचर्या अधिसूचित किया है।मुझे योजना के जून, 1993 के अंक में प्रकाशित अपने आलेख का स्मरण है जिसमें भारत के पर्यावरणीय कानून की प्रभावोत्पादकता और स्थिति की समीक्षा की गई थी। यह आलेख तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री नरसिम्हा राव के उस नीतिगत आलेख के बाद प्रकाशित हुआ था जिसमें आर्थिक विकास के स्थायित्व के लिए पर्यावरण और उसके बहिर्वेशन के सरोकार दर्शाए गए थे। पर्यावरण के मोर्चों पर भारत का इतिहास प्रतिष्ठित रहा है— बात चाहे 1972 में आयोजित स्टॉकहोम सम्मेलन की हो, जिसमें स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने हिस्सा लिया था, अथवा 1992 में ब्राजील में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन की, जिसमें ऐतिहासिक एजेण्डा-21 तय करने में भारत के योगदान और पारिस्थितिकी के प्रति उसके सरोकारों को शामिल किया गया था। 1991 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने देश के सभी स्नातक पाठ्यक्रमों में पर्यावरण अध्ययन को अनिवार्य बनाने का निर्देश दिया था। खेद की बात है कि दो दशक बीत जाने पर भी यह निर्देश एक समान रूप से लागू नहीं किया गया है। पर्यावरण नीति सरोकारों के बारे में मेरा एक अन्य आलेख योजना के फरवरी 1996 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें मैंने उन मुद्दों की वरीयता तय करने में सहायता की थी जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

शहरी क्षेत्रों में हरित क्षेत्र बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं और उनमें उल्लेखनीय सफलता भी मिली है लेकिन, अनेक कारणों से जंगलों और ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक हरित क्षेत्र के व्यापक भू-भाग नष्ट हो गए हैं। इन कारणों में बढ़ता हुआ जैविक दबाव, पुनः हरा-भरा बनाने के प्रयासों में कमी और ठीक से तैयार न की गई विकासात्मक परियोजनाओं के विनाशकारी पार्व् वर्ती प्रभाव शामिल हैं। भारत ने 2012 की नयी जल नीति अपनाई है, लेकिन इसे पर्यावरणीय मूल्याँकन की औपचारिक प्रणाली के अधीन नहीं किया गया है। हालाँकि ईआईए यानी नीतियों और योजनाओं का पर्यावरणीय प्रभाव मूल्याँकन, विश्व भर में ‘रणनीतिक पर्यावरणीय मूल्याँकन’ पद्धति का स्वीकार्य साधन है। मैंने जल नीति और समेकित जल प्रबन्धन के बारे में योजना के मई 2000 के अंक में लिखा था, जिसमें एक प्रणालीगत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता जताई गई थी और यह माँग भी की गई थी कि जल, भूमि, ऊर्जा और वन सम्बन्धी नीतियों का व्यापक ‘पर्यावरण नीति’ के साथ सामंजस्य स्थापित किया जाए। सौभाग्य से 2006 की पर्यावरण नीति में इसका उल्लेख किया गया। हाल में पर्यावरण नीति को सुदृढ़ बनाने के प्रयासों में विश्व-स्तर पर इसे आपदा जोखिम कम करने और जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी मुद्दों के साथ जोड़ने की माँग की गई है। संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में पर्यावरण एवं आपदा जोखिम कम करने में भागीदारी (यूएन-पीईडीआरआर) कार्यक्रम के अन्तर्गत इस मुहिम को बल मिला है कि स्थायित्व और समावेशी विकास के लिए पर्यावरण प्रबन्धन की व्यापक धारणा के अन्तर्गत जोखिम सम्बन्धी इन मुद्दों को समाविष्ट किया जाए।

जलवायु जोखिम और भारत का पर्यावरण


देश के अनेक क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से अपूरणीय क्षति होने की आशँका है, फिर भी कुछ मामलों में ऐसे प्रभाव भी हैं जो लाभकारी हो सकते हैं। विश्व बैंक ने इस बारे में एक अध्ययन कराया था जिसका विषय था ‘जलवायु जोखिम प्रबन्धन : विश्व बैंक समूह प्रचालनों में एकीकृत अनुकूलन’। इसके अन्तर्गत दक्षिण एशिया में पर्यावरणीय परिवर्तनों के निम्नांकित परिणामों की पहचान की गई :

1. अनेक शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में जल उपलब्धता और जल गुणवत्ता में कमी।
2. बाढ़, सूखे और पानी से होने वाली बीमारियों/महामारियों के जोखिम में वृद्धि।
3. पर्वतीय बस्तियों में जल नियमन में कमी।
4. जल विद्युत और बायोमास उत्पादन की विश्वसनीयता में कमी।
5. विषम जलवायु गतिविधियों से जान-माल के नुकसान में वृद्धि।
6. कृषि, मत्स्य उद्योग और पारिस्थितिकी प्रणालियों के स्थायित्व में कमी।

विश्व बैंक ने इन परिणामों के प्रभावों की व्याख्या करते हुए इनसे गहन आर्थिक क्षति का अनुमान लगाया। इसके अनुसार सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याएँ बढ़ेंगी और देश के भीतर एवं बाहर पलायन बढ़ेगा।

अभी तक जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अधिकतर नीतिगत उपाय दुष्प्रभाव कम करने पर केन्द्रित रहे हैं और वे भू-भौतिकी मानदण्डों पर आधारित हैं। किन्तु, अब कमजोरी दूर करने और अनुकूलन दृष्टिकोण अपनाने पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों और आपदा जोखिम कम करने के लिए अनुकूलन समाभिरूपता का सिद्धान्त अपनाया जा रहा है। सहस्राब्दि पारिस्थितिकी प्रणाली मूल्याँकन (2005) में इस बात पर जोर दिया गया था कि आजीविका और खाद्य सुरक्षा की महत्वपूर्ण चुनौतियाँ मानव कमजोरी के रूप में सामने आई हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अन्तरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) के महत्वपूर्ण प्रयासों को इसी अन्तर्दृष्टि के साथ समझा जा सकता है। विशेष रूप से विषम मौसम घटनाओं के बारे में चौथी मूल्याँकन रिपोर्ट और अद्यतन विशेष रिपोर्ट दक्षिण एशिया और विशेषकर भारत सम्बन्धी सरोकारों की ओर ध्यान आकृष्ट करती है।

पर्यावरण और वन मन्त्रालय ने 2010 में भारत के बारे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का 4×4 मूल्याँकन अध्ययन कराया था, जिसमें कृषि, जल सुरक्षा, स्वास्थ्य और वनों, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र और तटवर्ती क्षेत्रों में पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर गम्भीर चिन्ता प्रकट की गई। ये दुष्प्रभाव वर्षा के बदलते स्वरूप, सघनता, वर्षा के दिनों की संख्या, सबसे गर्म और सबसे ठण्डे दिनों, गर्म/शीत लहरों, बढ़ते समुद्री स्तर, चक्रवाती तूफानों आदि के सन्दर्भ में महसूस किए गए। दूसरी तरफ, भूमि के अनुचित उपयोग और पारिस्थितिकी ह्रास के कारण इन जलवायु सम्बन्धी और भूकम्प, भूस्खलन आदि भौगोलिक आपदाओं से निपटने में मानव की कमजोरी बढ़ी है।

जल उपलब्धता के सरोकार के अलावा उसकी गुणवत्ता (भू-जल व सतह जल) स्वास्थ्य और कृषि की दृष्टि से चिन्ताजनक है। पिछले दशकों में सरकार के प्रयासों के बावजूद वायु की गुणवत्ता बिगड़ रही है। अनेक शहरों में कचरा प्रबन्धन में सुधार हुआ है, लेकिन उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। शहरों में बाढ़ आना एक सामान्य वार्षिक संकट बन गया है।

पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाएँ : अर्थव्यवस्था और आजीविकाएँ


भारत में पर्यावरणीय समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। निरन्तर बढ़ रहे आर्थिक विकास और तेजी से बढ़ रही जनसंख्या, जो 1947 की 30 करोड़ से बढ़ कर आज एक अरब को पार कर गई है, हमारे पर्यावरण, बुनियादी ढाँचे और देश के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही है। आपदा जोखिम में कमी के बारे में वैश्विक मूल्याँकन रिपोर्ट (2009), जिसमें परिवर्तित जलवायु के सन्दर्भ में जोखिम और गरीबी का अध्ययन किया गया था, के अनुसार भविष्य में प्राकृतिक जोखिमों को बढ़ाने में पारिस्थितिकी प्रणाली में आई गिरावट मुख्य रूप से जिम्मेदार है। 2013 में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास 6.4 प्रतिशत की दर से होने की सम्भावना है जो इसी अवधि में एशिया प्रशान्त की विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की 6 प्रतिशत वृद्धि दर से कहीं अधिक है किन्तु, अनुमानित वृद्धि दर अतीत की बढ़ोत्तरी से कम है। 2008 में शुरू हुई वैश्विक आर्थिक मन्दी ने हमें आर्थिक वृद्धि के प्रति जिम्मेदार अपनी पारिस्थितिकी प्रणालियों और अनवीकरणीय संसाधनों की सीमाओं की समीक्षा के लिए बाध्य किया है। विभिन्न समयावधियों में पर्यावरण ह्रास के परिणामों के रूप में आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए किए जाने वाले खर्च के बारे में हमें अपने राजकोषीय तुलन-पत्रकों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

चीन और अमेरिका के बाद भारत कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जित करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। अक्टूबर, 2010 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित नये उत्सर्जन आँकड़े भविष्य में भारत के जलवायु निषेधों के लिए सम्भावित चिन्ता का कारण हैं। अनुकूलन और राहत के लिए पारिस्थितिकी प्रणाली पर आधारित दृष्टिकोण अभी भी उपयुक्त विकल्प है। हमें ऐसे दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है जिनमें अनुकूलन विकल्पों और कार्यनीतियों के बलबूते दुष्प्रभाव कम करने और साथ ही लाभ के रूप में आपदा जोखिम कम करने में सफलता हासिल की जा सके। हमने न केवल आर्द्र भूमि और नदी प्रणालियों को बर्बाद किया है, बल्कि तत्काल अधिक लाभ के लिए रासायनिक संघटन में बदलाव करके समूची भू-मृदा प्रणाली को नुकसान पहुँचाया है।

हरित क्रान्ति अनिवार्य थी क्योंकि भारत को लोगों के लिए अपेक्षित भोजन की व्यवस्था करनी थी। दूसरी हरित क्रान्ति की धारणा सावधानीपूर्वक तैयार करनी होगी और उसमें स्थायित्व के सरोकारों को शामिल करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित गतिविधियाँ भारत के लोगों की आजीविका का प्रमुख हिस्सा हैं। भूमि, जल और जैव-उत्पादकता का प्रबन्धन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सहस्राब्दि पारिस्थितिकी मूल्याँकन (2005) में प्राकृतिक प्रणालियों को मानव-मात्र के लिए ‘जीवन समर्थक प्रणाली’ के रूप में आँका गया था, जो अस्तित्व और सामाजिक-आर्थिक खुशहाली के लिए अनिवार्य ‘पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाएँ’ प्रदान करती हैं। 24 सेवाओं को चार प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।

1. प्रावधान विषयक सेवाएँ, जिनके माध्यम से लोग पारिस्थितिकी प्रणालियों से सीधे सामग्री ग्रहण करते हैं, जैसे भोजन, जल और वन उत्पाद;
2. नियामक सेवाएँ, जो जलवायु में परिवर्तनों को नियन्त्रित करती हैं और बाढ़, सूखा, बीमारी, कचरा और पानी की गुणवत्ता पर नियन्त्रण करती हैं;
3. सांस्कृतिक सेवाएँ, जिनका सम्बन्ध मनोरंजनात्मक (पर्यटन), सौन्दर्यपरक और आध्यात्मिक लाभों के साथ है, और
4. सहयोगी सेवाएँ, जैसे मृदा निर्माण, प्रकाश-संश्लेषण (भोजन उत्पादन, ऑक्सीजन सृजन) और पोषक तत्त्व पुनर्चक्रण सम्बन्धी सेवाएँ।

मानव सुरक्षा और आपदा प्रबन्धन


सामाजिक विकास सम्बन्धी विश्व सम्मेलन (2005) में महसूस किया गया कि पर्यावरण सामंजस्य, सामाजिक समानता और आर्थिक जरूरतें—स्थायित्व के ‘तीन स्तम्भ’ हैं। इनमें से एक या अधिक का असन्तुलन किसी प्राकृतिक या आसन्न मानवीय संकट के दुष्प्रभाव को बढ़ा सकता है, जिससे आपदा जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। नक्सलवाद की चुनौतियों को जंगलों, लोगों और आजीविकाओं की पारिस्थितिकी के सन्दर्भ में समझा जा सकता है, और चूँकि हम उनका समाधान नहीं कर पाएँ हैं, इसलिए ऐसे क्षेत्रों में वे एक आपात स्थिति के रूप में उभरी हैं। प्राकृतिक आपदाओं, विघटनकारी गतिविधियों से उत्पन्न पर्यावरण विषयक शरणार्थी, या बड़े बाँधों के निर्माण जैसी विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित लोगों या आजीविका के लिए पलायन करने वाले लोगों की समस्या, न केवल भारत में बल्कि समूचे विश्व में प्रमुख मानवीय सरोकारों में से एक है।

पर्यावरण और आपदाओं के बीच विकट सम्बन्ध है। हमें संघर्षों, कमजोरियों, मानव व्यवहार आदि की पारिस्थितिकी को आपदाओं के सन्दर्भ में समझना होगा ताकि उनका कारगर और निवारक प्रबन्धन किया जा सके।

सामाजिक विकास सम्बन्धी विश्व सम्मेलन (2005) में महसूस किया गया कि पर्यावरण सामंजस्य, सामाजिक समानता और आर्थिक जरूरतें—स्थायित्व के ‘तीन स्तम्भ’ हैं। इनमें से एक या अधिक का असन्तुलन किसी प्राकृतिक या आसन्न मानवीय संकट के दुष्प्रभाव को बढ़ा सकता है, जिससे आपदा जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। 2008-09 के दौरान समेकित पर्यावरण और आपदा जोखिम प्रबन्धन की दिशा में भारत द्वारा किए गए उपायों ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का भी ध्यान आकर्षित किया और जर्मनी में बोन स्थित संयुक्त राष्ट्र परिसर में एक उच्च स्तरीय बैठक आयोजित की गई, जिसमें पर्यावरण और आपदा जोखिम कम करने के बारे में संयुक्त राष्ट्र की भागीदारी विकसित करने पर विचार किया गया। आपदा जोखिम कम करने के प्रति पारिस्थितिकी प्रणाली विषयक उपायों के बारे में पहला क्षमता निर्माण कार्यक्रम श्रीलंका में चलाया गया और 2011 में स्वयं भारत में यह कार्यक्रम चलाया गया। आपदा जोखिम कम करने के प्रति पारिस्थितिकी प्रणाली विषयक दृष्टिकोण (2013) के बारे में भारत सरकार के प्रकाशन (एनआईडीएम) की तर्ज पर नरोसा पब्लिकेशन (2013) ने ‘आपदा प्रबन्धन और जोखिम कम करने के उपाय’ प्रकाशित किए, जो ‘आपदा जोखिम कम करने में पारिस्थितिकी प्रणालियों की भूमिका’ के बारे में संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित विशेषाँक से सम्बन्धित थे।

महत्वपूर्ण सरोकार के मुद्दे
भारत के पर्यावरण की वर्तमान स्थिति और जलवायु परिवर्तन, आपदाएँ और कॉर्पोरेट पर्यावरण प्रबन्धन के सन्दर्भ को देखते हुए शैक्षिक जगत और नीति आयोजन में इन मुद्दों की पहचान महत्वपूर्ण सरोकारों के रूप में की गई है :

1. प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन : भारत और इस समूचे क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जिनसे मानव जीवन, पर्यावरण और अर्थव्यवस्थाओं की भारी क्षति हो रही है। जल और जलवायु सम्बन्धी आपदाओं से हो रहा नुकसान विशुद्ध भू-भौतिकीय कारणों से होने वाले नुकसान को पार कर गया है। दूसरी तरफ रसायन सघनतायुक्त आर्थिक विकास से औद्योगिक-रासायनिक आपदाओं का जोखिम बढ़ गया है। आपदा प्रबन्धन को उच्च-वरीयता वाला विषय समझने की आवश्यकता है, क्योंकि इसके महत्वपूर्ण मानवीय पहलू हैं।

2. पर्यावरण विषयक स्वास्थ्य : आवश्यकता के बावजूद, नीतिगत उपायों की कमी के कारण, जल, स्वच्छता, कचरा प्रबन्धन, विषाक्तता सहित पर्यावरण विषयक स्वास्थ्य के पहलुओं का पर्याप्त समाधान नहीं किया गया है। हमें देश में नीति-निर्माण को निवारक एवं सामाजिक स्वास्थ्य के मुद्दों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है।

3. पर्यावरण संसाधन प्रणाली : नदी, आर्द्र भूमि, जंगल, भूमि या मृदा, शहरी क्षेत्र या फसल क्षेत्र आदि, प्राकृतिक संसाधनों का एक ‘प्रणाली’ के रूप में प्रबन्धन विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें इन्हें प्राथमिक ‘स्रोत’ समझने की बजाय ‘संसाधन’ के रूप में इनके प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जा सके।

4. पर्यावरणीय दायित्व : पूर्ण दायित्व तय किए बिना पर्यावरण सम्बन्धी नीति कार्यान्वयन कारगर ढंग से नहीं किया जा सकता। न केवल औद्योगिक जोखिम या प्रदूषण के सन्दर्भ में बल्कि पारिस्थितिकी प्रणाली एकीकरण, स्थायित्व और प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में भी दायित्व तय करना उतना ही महत्वपूर्ण है। दायित्व को जवाबदेही के साथ जोड़ने की आवश्यकता है और उसमें सरकार, निगरानी एजेंसियों और निर्णय करने वालों को अवश्य शामिल करना चाहिए।

5. राज्य/जिला पर्यावरणीय कार्ययोजनाएँ : हम राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) बनाने के बाद भी राज्य, जिला और स्थानीय स्तरों पर ‘पर्यावरणीय कार्य योजनाओं’ के लक्ष्य को विनियमित नहीं कर सके। कार्य योजना समयबद्ध करने की तत्काल आवश्यकता है।

6. ईआईए और एसईए सुधार : ईआईए यानी पर्यावरणीय प्रभाव मूल्याँकन नीति एवं विधि प्रवर्तन का एक कारगर और सक्षम साधन है, लेकिन अपनी बाजारू छवि के कारण भारत में इसे लेकर सवाल उठाया गया है। इसके लिए आवश्यक है कि वैज्ञानिक और शैक्षिक समुदाय एक साथ आगे बढ़कर हस्तक्षेप करें और ऐसी रिपोर्टों के वैधीकरण के बारे में अनुसन्धान अध्ययन को अंजाम दे। अन्य दृष्टिकोण, जिसमें निर्णय करने के लिए जिम्मेदार सरकारी एजेंसियों द्वारा पर्यावरण प्रभाव मूल्याँकन की बात की जाती है, पर भी विचार किया जा सकता है, लेकिन इसमें उनकी व्याख्याओं के लिए जवाबदेही तय करने का प्रावधान होना चाहिए। स्ट्रैटेजिक एनवायरमेण्टल असेसमेण्ट (एसईए) अर्थात नीतिगत पर्यावरणीय मूल्याँकन, एक स्वीकृत साधन है, जो विशेषकर विकसित देशों में नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों की पर्यावरणीय जाँच के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की पहल पर हमने आपदा प्रबन्धन में ईआईए और एसईए अनुप्रयोग के बारे में एक समझौता किया है। हाल ही में श्रीलंका ने संघर्ष परवर्ती विकास योजना प्रारम्भ करने से पहले अपने उत्तरी प्रान्त का नीतिगत पर्यावरणीय मूल्याँकन कराया। हमें सीख लेकर ऐसी पद्धति विकसित करने की आवश्यकता है जिससे पर्यावरणीय गुणवत्ता और संसाधनों के विभिन्न पहलुओं पर अपने आर्थिक और अन्य नीतिगत निर्णयों के प्रभाव की जाँच कर सकें।

7. पर्यावरणीय लेखा-जोखा : भारत में अनिवार्य पर्यावरणीय लेखा-जोखा एक औपचारिक प्रक्रिया है। बड़े उद्योगों और निगमों द्वारा विस्तृत लेखा-जोखा स्वेच्छा से रखा जाता है। वास्तव में आवास परिसरों, नगर निगमों और जल, ऊर्जा एवं सामग्री सन्तुलन या जोखिम सम्बन्धी संस्थानों सहित सभी उद्योगों, प्रतिष्ठानों आदि के लिए व्यापक पर्यावरणीय लेखा-जोखा पद्धति अनिवार्य होनी चाहिए।

8. प्राकृतिक संसाधन गणना : प्राकृतिक संसाधन गणना या हरित गणना की धारणा और पद्धति की शुरुआत 1990 के दशक में की गई और तत्सम्बन्धी प्रायोगिक अध्ययन कराए गए लेकिन यह जारी नहीं रखी गई। हरित गणना और हरित सकल घरेलू उत्पाद की धारणा को पर्यावरणीय कार्य योजनाओं और विकासात्मक योजनाओं के साथ अवश्य जोड़ा जाना चाहिए।

9. पर्यावरणीय प्रभावों का आर्थिक मूल्याँकन : समुचित आर्थिक मूल्याँकन के अभाव में पर्यावरणीय प्रभावों और जोखिमों को आयोजना एवं निर्णय की प्रक्रिया में समुचित महत्व नहीं दिया जा रहा है। यथा किसी आपदा के बाद आपदाओं और पर्यावरण सम्बन्धी जरूरतों के कारण होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का मूल्याँकन आर्थिक सन्दर्भ में नहीं किया गया है। अनुसन्धान, योजना और विकासात्मक योजनाओं एवं नीतियों की निगरानी में पारिस्थितिकी विषयक आर्थिक प्रभावों के मूल्याँकन की पद्धति को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

10. पारिस्थितिकी लेखा-जोखा : यह अपेक्षाकृत एक नया साधन है जिसका विकास एक दशक पहले सिद्धान्त रूप में हुआ है। इसके अन्तर्गत पारिस्थितिकी प्रणाली पद्धति में प्राकृतिक संसाधन प्रणालियों और पर्यावरणीय गुणवत्ता पहलुओं के लेखा-जोखा पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसमें पारिस्थितिकी प्रणाली क्षमताओं, सेवाओं और सम्बद्ध स्थायित्व मानदण्डों की गणना आन्तरिक, बाहरी और मानव सम्बन्धी घटकों के सन्दर्भ में की जाती है।

आर्थिक विकास का स्थायित्व के सन्दर्भ में पुनर्मूल्याँकन


स्थायित्व का अर्थ है टिके रहने की क्षमता। पारिस्थितिकी में स्थायित्व हमें यह बोध कराता है कि जैविक प्रणालियाँ समय के साथ-साथ किस तरह विविध और उत्पादक रही हैं। मानव के लिए स्थायित्व का अर्थ है खुशहाली को दीर्घावधि तक बनाए रखने की क्षमता, जिसके पारिस्थितिकी विषयक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयाम हैं। चेन्नई स्थित सेण्टर फॉर डेवलपमेण्ट फाइनेंस ने पर्यावरण की उपलब्धियों, चुनौतियों, प्राथमिकताओं और वर्तमान स्थिति पर विचार करते हुए भारतीय राज्यों के लिए पर्यावरणीय स्थिरता सूचकांक 2011 विकसित किया है। इसमें पूर्वोत्तर राज्यों को सर्वाधिक स्थिर पाया गया है जबकि सबसे कम स्थिर राज्यों में बिहार, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को रखा गया है।

गरीबी, भेदभाव और असमानता जोखिम के प्रति मनुष्य को कमजोर बनाते हैं, भले ही जोखिम प्राकृतिक हो, मानव निर्मित, प्रौद्योगिकी सम्बन्धी या सामाजिक-राजनीतिक वजह से पैदा हुई विनाशकारी स्थिति या संकट से पैदा हुआ हो। ये घटक पारिस्थितिकी की उपेक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के खराब प्रबन्धन तथा तकनीकी-राजकोषीय तीव्रीकरण के कारण और भी आक्रामक हो जाते हैं। आर्थिक विकास का कोई भी मॉडल टिकाऊ नहीं हो सकता यदि वह स्थानीय और क्षेत्रीय सन्दर्भ में पारिस्थितिकी और साथ ही प्राकृतिक, मानव निर्मित और सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरणों के बीच परस्पर सम्बन्ध सहित, व्यापक सन्दर्भ में पर्यावरण का सम्मान नहीं करता। जब तक हम संघर्षों और स्थानीय/ क्षेत्रीय आतंकवाद पनपने के पारिस्थितिकीय आधार को नहीं समझेंगे, तब तक हम अक्सर स्थायी संघर्ष विराम के समाधनों से वंचित रहेंगे। स्थायी भूमि इस्तेमाल सम्बन्धी अर्थव्यवस्थाओं के वैकल्पिक मॉडल तैयार करने की आवश्यकता है जिनमें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और आपदा जोखिम सरोकारों का ध्यान रखा जाए।

.स्थायित्व का अर्थव्यवस्था के साथ सामना किसी आर्थिक गतिविधि के सामाजिक और पर्यावरणीय परिणामों के रूप में होता है। स्थिर अर्थव्यवस्था में पारिस्थितिकी विषयक अर्थव्यवस्था शामिल है जिसके साथ सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी पहलू एकीकृत हैं। आज, जब हम ‘समेकित जिला आयोजना प्रक्रिया’ की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं, तो हमारे लिए यह जरूरी है कि हम राज्य, जिला और स्थानीय स्तर पर ‘पारिस्थितिकी सक्षम समेकित आयोजना’ के लिए मॉडलों और समझौतों का विकास करें। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि शहरी, ग्रामीण और औद्योगिक विकास आयोजना के बीच पारिस्थितिकी प्रणाली सम्बन्धों की पहचान की जाए।

चित्र : 1 में अर्थव्यवस्था को पर्यावरण के सामाजिक क्षेत्र में एक कार्य के रूप में दर्शाया गया है, जिसकी पहचान स्कॉट कैटो (ग्रीन इकोनोमिक्स, 2009, अर्थ स्कैन) द्वारा की गई थी। एडम्स (2006) ने एक स्थिरता फ्रेम वर्क (इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर, चित्र: 2) के अन्तर्गत पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और सामाजिक कार्यों के बीच दबाव सन्तुलन की गणना की है। किन्तु, पर्यावरणीय अर्थशास्त्र में पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाओं के तात्कालिक और दीर्घावधि आर्थिक मूल्याँकन पर नया ध्यान केन्द्रित किया गया है, जो पारिस्थितिकी की दृष्टि से संवेदनशील विकासात्मक आयोजना प्रक्रिया की आवश्यकता को समझने में मदद करता है। भारत में भी हरित सकल घरेलू उत्पाद की धारणा विकसित हो रही है, जिससे विकासात्मक अर्थव्यवस्था में स्थिरता के सरोकारों को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी।

राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षा एजेंसी


‘आपदा प्रबन्धन’ राज्य का विषय है, जबकि ‘पर्यावरण’ एक व्यापक सरोकार है जो केन्द्र एवं राज्यों के बीच विभाजित है और भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में आता है। अधिकतर मामलों में राज्य केन्द्र सरकार द्वारा प्रत्यायोजित अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए, एक शीर्ष एजेंसी को न केवल व्यापक नीतियाँ और दिशा-निर्देश विकसित करने के लिए प्राधिकृत होना चाहिए बल्कि स्वयं के मानक तय करने में भी सक्षम होना चाहिए। यह एजेंसी जमीनी स्तर पर उन नीतियों और दिशा-निर्देशों के समुचित और सक्षम कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह भी होनी चाहिए। हमें अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के मॉडल से सीखने की आवश्यकता है। ‘प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड’ की धारणा अप्रचलित है और इसे समाप्त करने की आवश्यकता है ताकि पर्यावरण प्रबन्धन में एक सांस्कृतिक परिवर्तन लाया जा सके। इस धारणा के स्थान पर पर्यावरण संरक्षण एजेंसियों की स्थापना की जानी चाहिए, ताकि राज्य, जिला और शहरी स्थानीय निकायों के स्तर पर एक समान संस्थागत ढाँचा कायम किया जा सके।

नीतिगत उपाय : राष्ट्रीय पर्यावरण परिषद


‘खण्डित और तत्क्षण’ उपाय करने या ‘आपात स्थिति पैदा होने तक इन्तजार करने’ जैसी नीतियों में व्यापक बदलाव लाने की आवश्यकता है। इनके स्थान पर जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन, रासायनिक सुरक्षा, पर्यावरणीय स्वास्थ्य और समग्र प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन प्रणाली सहित पर्यावरण संरक्षण कार्यों में ‘जवाबदेही और दायित्व आधारित सक्रिय’ दृष्टिकोण एवं ‘निवारक एवं दुष्प्रभाव कम करने’ वाली संस्कृति अपनाने की आवश्यकता है। प्रधानमन्त्री की जलवायु परिवर्तन परिषद का नया नामकरण प्रधानमन्त्री की राष्ट्रीय पर्यावरण परिषद के रूप में किया जा सकता है, जिसके तहत पर्यावरण और वन मन्त्रालय, डीएसटी, आईसीएआर, आईसीएमआर, डीबीटी, सीएसआईआर, आईसीएफआरई, आईसीएसएसआर, यूजीसी, राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड आदि की भू-विज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण सम्बन्धी डिवीजन और अंन्तरराष्ट्रीय संगठनों जैसे यूएनपीपी, आईपीसीसी, डब्ल्यूएमओ, डब्ल्यूएचओ, यूएनडीपी, यूनेस्को आदि के कार्यों के बीच समन्वय कायम किया जा सके।

गाँव, तालुक और जिला स्तरों पर समावेशी विकास और स्थायी आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण की दृष्टि से सक्षम मॉडलों का विकास और प्रोत्साहन प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। इसके लक्ष्यों को हासिल करने के लिए क्षमता निर्माण और जागरुकता पैदा करने वाले गहन एवं कारगर संचालक विकसित करने की आवश्यकता होगी। ‘पर्यावरण की दृष्टि से सक्षम एकीकृत जिला आयोजना’ के बारे में नीतिगत दिशा-निर्देश विकसित करने की आवश्यकता है। भारत स्टॉकहोम और रिओ डि-जेनेरो जैसे वैश्विक मंचों पर पर्याप्त मुखर रहा है लेकिन योजना आयोग, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण, राष्ट्रीय निवेश एजेंसी आदि रणनीतिक एवं आयोजना संगठनों के निर्माण में पारिस्थितिकी को प्रस्तुत करने में विफल रहा है।

शिक्षा और अनुसन्धान


देश में पर्यावरण अनुसन्धान का कार्य खण्डित है और उसमें काफी दोहरापन, अन्तराल और कभी-कभी परस्पर विरोधी निष्कर्ष भी शामिल होते हैं। इन चुनौतियों को दूर करने के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय परिषद और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को एक व्यापक नेटवर्क फोरम के रूप में सम्बद्ध एजेंसियों के साथ कार्यनीतिक दायित्वों के संचालन और समन्वय का कार्य सौंपा जा सकता है। कुछ राज्यों/संघ शासित प्रदेशों ने अपनी विज्ञान और औद्योगिक परिषदों को पर्यावरण के साथ जोड़ा है और यह एक स्वागत योग्य कदम हैं। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में पर्यावरण अध्ययन से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में विविधता लाने की आवश्यकता है ताकि इसके उप-विषयों जैसे— पर्यावरणीय स्वास्थ्य, प्रणाली पारिस्थितिकी, जलवायु परिवर्तन, आपदा प्रबन्धन, ईआईए, कानून एवं नीति, पर्यावरणीय अर्थव्यवस्था, औद्योगिक जोखिम आदि के बारे में विशेषज्ञों की जरूरतें पूरी की जा सकें।

पर्यावरण अध्ययन में शिक्षा एवं प्रशिक्षण में विविधता लाने के लिए विश्वविद्यालय/कॉलेज स्तरों पर विशेषज्ञताएँ शामिल की जानी चाहिए। युवाओं और बच्चों सहित व्यापक जनसमुदाय में पर्यावरण के प्रति जागरुकता पैदा करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं लेकिन उप-जिला और स्थानीय स्तर सहित सरकारी अधिकारियों और कानून-निर्माताओं के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं हो पाई है, जो शासन की प्रशासनिक प्राथमिकताओं को तय करते हैं।

राष्ट्रीय पर्यावरण और स्थायित्व विश्वविद्यालय


दो दशक से अधिक समय से यह माँग की जा रही है कि पर्यावरण अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण के बारे में एक केनद्रीय संस्थान होना चाहिए जो पर्यावरण के क्षेत्र में डिग्रियाँ और व्यावसायिक पाठ्यक्रम प्रदान कर सके। वर्तमान समय में जबकि आपदाएँ, जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम आपातकालीन चुनौतियाँ पैदा कर रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि केन्द्र सरकार द्वारा गुणवत्तापूर्ण अनुसन्धान, प्रशिक्षण और शिक्षा की स्नातकोत्तर एवं अनुसन्धान उपाधियों सम्बन्धी जरूरतें पूरी करने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण एवं स्थायित्व अध्ययन विश्वविद्यालय (यूएनईएसटी) की स्थापना की जाए। ऐसा विश्वविद्यालय मूल्याँकनों, आयोजना और नीति-निर्माण में परामर्शी सहायता भी प्रदान कर सकता है। ऐसे संस्थान को देश में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और आपदा प्रबन्धन सम्बन्धी मुद्दों के लिए काम करने वाले संगठनों और संस्थानों के फोरम की निगरानी करने का लक्ष्य भी सौंपा जा सकता है ताकि ज्ञान, कौशल और व्यावसायिक मूल्य संवर्धन के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जा सके।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पर्यावरण विज्ञान में नये पाठ्यक्रम और समवर्ती मुद्दों के बारे में अनुसन्धान पाठ्यक्रमों के लिए विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों को सहायता देना प्रारम्भ किया है और सभी स्नातक पाठ्यक्रमों के लिए अनिवार्य पर्यावरण अध्ययन की तर्ज पर आपदा प्रबन्धन के बारे में एक मॉडल पाठ्यचर्या अधिसूचित किया है। पर्यावरण और वन मन्त्रालय तथा पृथ्वी विज्ञान मन्त्रालय ने भी पर्यावरण और जलवायु अनुसन्धान को सहायता देने के कार्यक्रम शुरू किए हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भारतीय विश्वविद्यालयों में ईको-डीआरआर पाठ्यचर्या को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया है, जो अन्य देशों में पहले ही शामिल किया जा चुका है। हाल ही में यूनेस्को ने एशिया में महात्मा गाँधी पर्यावरण, शान्ति एवं स्थिरता संस्थान नाम के एक उच्चस्तरीय शैक्षिक संगठन की स्थापना की है। यह संस्थान एशिया से सम्बन्धित पर्यावरण, जलवायु और आपदाओं के बारे में पाठ्यक्रमों एवं अनुसन्धान का संचालन करेगा।

(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान, नयी दिल्ली में नीति आयोजना के वरिष्ठ एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
ई-मेल: envirosafe@gmail.com

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