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जलवायु पर प्रभाव

हसन जावेद खान


अपनी विशिष्ट ऊंचाई के कारण पर्वत अपनी जलवायु का स्वयं निर्धारण करते हैं चाहे वह कहीं भी स्थित हों। सामान्यतः पर्वतीय जलवायु एक विशिष्ट ऊंचाई पर लगभग 3000 मीटर (10,000 फीट), जहां हिम का स्थायित्व होता है, के ‘मौसम’ का ही एक अस्पष्ट सा नाम है।

मौलिक रूप से पर्वतीय मौसम की विशेषता है वायु का तीव्र वेग, गिरता हुआ तापमान और ऊंचाई बढ़ने के साथ पानी का हिम में बदल जाना, साथ ही शीत ऋतु का अधिक ठंडी तथा ग्रीष्म ऋतु का कम गर्म रहना है।

पर्वतों पर मौसम बहुत तेजी से, कभी-कभी नाटकीय रूप से बदलता रहता है। कहा जाता है कि पर्वतों पर कभी-कभी एक ही दिन में वर्ष के चार विभिन्न मौसमों को देखा जा सकता हैं। कभी निर्मल आकाश में खिली धूप चंद क्षणों मंक ठंडी हवा, उड़ते हुए बादल, घनघोर वर्षा व कड़कड़ाती ठंड में बदल जाती है। मौसम की अनिश्चितता पर्वतों की विशेषता होती है।

पर्वत के विभिन्न स्तरों यानी ऊंचाई पर भांति-भांति की जलवायु पाई जाती है। जहां निचले भागों में गर्म जलवायु होती है वहीं ऊपर जाने पर तापमान लगातार गिरता जाता है। इसी प्रकार जलवायु का परिवर्तन वहां के जीव-जंतु तथा वनस्पतियों की उपस्थिति पर भी व्यापक प्रभाव डालता है।

भूमंडलीय जलवायु पर प्रभाव


पर्वत स्थानीय जलवायु पर ही नहीं अपितु भूमंडलीय जलवायु को भी प्रभावित करते हैं। लेकिन पृथ्वी की पर्वत श्रृंखलाएं नाटकीय ढंग से भूमंडलीय जलवायु पर प्रभाव डालती हैं।

पृथ्वी के वायुमंडल में हवा का अधिकतर बहाव पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने और कोरिऑलिस बल के कारण पूर्व-पश्चिम प्रवृत्ति का है। परिणामतः उत्तर-दक्षिण में स्थित पर्वत श्रृंखलाएं सामान्य परिसंचरण को प्रभावित कर सकती हैं। यद्यपि कुछ हवा बल के साथ पर्वतों के ऊपर उठती हैं जो ऊपर उठने के कारण स्थानीय मौसमी परिघटना को प्रभावित करती है।

जलवायु का स्थानीय प्रभाव


पर्वत स्थानीय जलवायु पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। पर्वतीय जलवायु मुख्यतः तीन कारकों तापमान, नमी तथा वायु के दबाव के अंतर पर निर्भर करती है। वायु का दबाव पर्वत की ऊंचाई के साथ कम होता जाता है। वायु का दबाव मौसम पर भी निर्भर करता है किन्तु सामान्य नियमानुसार 2000-3000 मीटर तक प्रत्येक 8 मीटर की ऊंचाई पर यह 1 मिलीबार कम हो जाता है। लेकिन उससे ऊपर बहुत कम गिरावट होती है जैसे कि माउंट एवरेस्ट के शिखर (8,848 मीटर) पर यह 300 से 360 मिलीबार होता है। यह जानना भी आवश्यक है कि समुद्र तट पर वायु का दबाव 1013 मिलीबार होता है।

वायु के दबाव में कमी होने के कारण पर्वतों की विभिन्न ऊंचाइयों पर नमी की मात्रा समीप के निचले क्षेत्र से अधिक होती जाती है। समुद्र तल के अनुपात में अधिक ऊंचाई होने के कारण पर्वतों पर तापमान ठंडा होता है। इसके फलस्वरूप वहां वर्षा भी अधिक होती है और ऊंची चोटियां तो सदैव हिम से ढकी रहती हैं। समुद्र सतह से कोई स्थान जितनी अधिक ऊंचाई पर स्थित होगा वहां ठंड भी उतनी ही अधिक होगी।

अधिक ऊंचाई पर वायु का घनत्व कम होने के कारण वायु कम ऊष्मा अवशोषित कर पाती है। अतएव वायु ठंडी हो जाती है। कम तापमान होने के कारण वहां वाष्पीकरण की दर कम होने से हवा में नमी अधिक होती है। जैसे यह नमीयुक्त वायु ऊपर उठती है तो और अधिक ठंडी होकर वायु में स्थित वाष्प के कणों को द्रवित कर देती है। इस प्रकार बादलों की रचना होती है। जब वायु पर्वत श्रृंखला के विपरीत ऊपर उठती है तब पर्वत के बल से हवा ऊपर उठती है। जब वायु पहाड़ी ढलान पर ऊपर की ओर बहती है तब ऊपर उठती हवा ठंडी होती है। इस बल के कारण वायु में उपस्थित जलवाष्प संघनित हो जाती है। यदि हवा पर्वत श्रृंखला के पवनाभिमुख भाग (वह भाग जहां से पवनें चलती हैं) से ऊपर की ओर बल लगाती है तब बादल बनते हैं और या तो वर्षा होती है या हिमपात। इसे ‘ऑरोग्राफिक लिफ्टिंग’ यानी ‘पर्वतीय उत्थान’ कहते हैं और यह बताता है कि संघनन क्यों होता है अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में पर्वतीय प्रभाव बहुत ऊंचाई पर और पवनाभिमुख भाग की ओर स्थित होते हैं। यही कारण है कि पर्वतों पर निकट की घाटियों की अपेक्षा अधिक हिम जमा होता है। पर्वतों पर होने वाली भारी वर्षा अकस्मात बाढ़ का कारण बनती है।

पर्वतीय प्रभाव के साथ-साथ एक प्रभाव और दृष्टिगोचर होता है। ‘पर्वतीय प्रभाव’ जहां वायु के प्रवाह की दिशा में वर्षा या हिमपात का कारण बनता है वहीं पर्वत लीवर्ड यानी प्रतिपवन दिशा में सूखे की स्थिति (वर्षा व हिम विहीन) को उत्पन्न करता है। पर्वत के वायु प्रवाह की दिशा में वायु की नमी का अधिकांश भाग द्रवीकरण (वर्षा व हिम) में उपयोग हो जाने के कारण वायु पर्वत के अन्य भाग व दूसरी ओर से जब नीचे की ओर बहती है तो दबाव उत्पन्न होता है जिसके फलस्वरूप वायु गर्म हो जाती है, आपेक्षित घनत्व कम हो जाता है और बादलों के विघटन से आकाश साफ हो जाता है। यही कारण है कि पर्वतों के वायु प्रवाह की दिशा में वर्षा या हिमपात होती है जबकि ‘प्रतिपवन दिशा’ में वर्षा नहीं होती। इस सूखे भाग को ‘रेन शैडो’ यानी ‘वृष्टिछाया’ कहते हैं। अतः इस प्रभाव को वर्षा की छाया का प्रभाव भी कहते हैं।

अनेक पर्वतों की प्रतिपवन दिशा में रेगिस्तान पाए जाते हैं। पर्वत श्रृंखलाएं नमी वाहित हवाओं के लिए अवरोधक का कार्य करती हैं। भारत के मौसम का उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं ग्रीष्मकालीन मानसून का मुख्य कारण हैं। यह विश्व की सबसे ऊंची चोटी को रखती हैं। यह ऊंची चोटी मौसम को बाधित करती हैं। भारत की हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं दक्षिण-पश्चिमी हवाओं के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न कर भारत में वर्षा का कारण बनती हैं जबकि हिमालय के पठार के अन्य भाग बिल्कुल सूखे, रेगिस्तान की भांति रह जाते हैं। रॉकी पर्वत श्रृंखला भी मौसम अवरोधक का अच्छा उदाहरण है। जहां वाशिंगटन राज्य को प्रर्याप्त वर्षा मिलती है, वहीं अमेरिका के उत्तरी पठार के क्षेत्र सूखे रह जाते हैं।

लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता कि पर्वतों की प्रतिपवन दिशा रेगिस्तान ही हो। ऐसा होना अधिकतर समीप के क्षेत्र की स्थलाकृति और स्वयं पर्वत की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करता है।

अत्यधिक ऊंचे पर्वतों पर ठंडी हवा के मिलने का अर्थ है कि आस-पास के तराई क्षेत्रों की तुलना में अत्यधिक ऊंचाई के फलस्वरुप भूमध्य रेखा पर भी बर्फ पाई जा सकती है, उदाहरण के लिए केन्या स्थित केन्या पर्वत (5,199 मीटर), तंजानिया में किलिमनजारो पर्वत (5,895 मीटर), तथा इक्वाडाट में कोटापाक्सी (6,310 मीटर)।

तीव्र वेग से बहती हवाएं


पर्वतीय जलवायु में सामान्यतः तेज गति से हवाएं चलती हैं। पर्वत पर सामान्य वेग से बहती हवाएं जब पर्वत शिखर की ओर अग्रसर होती हैं तो ऊपर चलती हवाएं नीचे से ऊपर की ओर आने वाली वायु को नीचे की ओर धकेलने का प्रयत्न करती हैं। ऐसी स्थिति में पर्याप्त निकासी न होने के कारण वायु का तीव्र वेग ही उसे ऊपर उठाने में सहायक होता है। यह तीव्र वेग ऊपर से नीचे अग्रसर होकर पर्वत के अधिकांश भागों में हवा के प्रभाव को तेज करता है। इसकी तुलना नदी में जल के बहाव से की जा सकती है। जब जल की धारा चैड़ी होती है तो बहाव मंद गति से होता है लेकिन जब नदी संकरी होती है तो धारा का प्रवाह तेज हो जाता है। भौतिकी के तरल गतिकी के सिद्धांत के अनुसार पर्वतों पर अति शीतल व तेज हवाएं बर्फीले तूफान का कारण बनती हैं।

लेकिन पर्वतों द्वारा उत्पत्रा विभिन्न हवाओं को अनेक नामों से जाना जाता है। ऐसी हवाओं को एज्प्स पर्वत पर फॉन, अमेरिका के कोलॅराडो में चिनूक तथा लॉस एंजेलिस में ”सेंटा एना“ तथा आस्ट्रेलिया के सिडनी में ‘ब्रिकफील्डर’ कहते हैं। जब वायु पर्वतों के ढलानों में ऊपर से नीचे की ओर बहती है तो दबाव के फलस्वरूप गर्म हो जाती है लेकिन फिर भी जिस वायु को हटाकर उसका स्थान लेती है, उससे कई अधिक कंपकंपाती ठंड का अनुभव कराती है। जब ठंडी, सघन व नम हवाएं पर्वतों के ढलान पर ऊपर से नीचे की ओर अथवा घाटी में आती हैं तो उन्हें ‘अवरोही हवाएं’ कहते हैं। फ्रांस में इन्हें ‘मिस्ट्रल’ व एड्रियाटिक समुद्र तट पर ‘बोरा’ कहते हैं।

मिस्ट्रल की उत्पत्ति का कारण हवाओं पर पर्वतों का फनल प्रभाव है। यह उत्तर की ठंडी हवा है जो फ्रांस की रॉन घाटी में आसपास की हवाओं से अनुप्रेषित होती है। ऐसा पर्वतों पर उच्च दाब या विकिरणी ठंडाई के कारण होता है। मिस्ट्रल के मामले में हवा मैसिक सेन्ट्रल, जो फ्रांस का सेन्ट्रल पठार है, और एल्प्स के ऊपर ठंडी होती है। क्योंकि इनका घनत्व आसपास की हवा से अधिक होता है इसलिए वहां से यह रॉन घाटी के नीचे की ओर बहती है। रॉन घाटी की उपस्थिति फनल प्रभाव उत्पन्न करती है जिससे कारण ये गल्फ की ओर त्वरित होती हैं। इसके परिणामस्वरूप इसकी गति 100 मील प्रति घंटे तक पहुंच जाती है जो पहले 20 से 30 मील प्रति घंटे थी।

समुद्र तल से 5 से 10 मील बीच की ऊंचाई पर बहुत तेज हवाएं चलती हैं जिनकी रफ्तार 310 मील प्रति घंटा तक होती है। इन हवाओं को जैट प्रवाह कहते हैं। यह अधिक ऊंचाई पर चलती हैं। सामान्यतः जैट प्रवाह पर्वत शिखरों पर पहुंचने की योजना बनाने वालों की लिए ये महत्वपूर्ण होती है। ऐसा सामान्यतः तब होता है जब एशियाई मानसून उत्तर में बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ता है जिससे जैट पर उत्तर की ओर जाने का दबाव पड़ता है। ऊंचे पर्वतों पर पर्वतारोही दल तभी अपने अभियान आगे बढ़ाने में सफल हो पाते हैं जब यह हवाएं कुछ शांत हो जाती हैं। हिमालय क्षेत्र में वायु की गति औसतन 75 मील प्रति घंटे होता है, जो कई बार 100 मील प्रति घंटे से भी ज्यादा पहुंच जाती है।

अनायास होते मौसम के बदलाव, सरसराती तेज हवाएं, अचानक हो जाने वाली कंपकंपाती ठंड, घुमड़ते हुए मेघ तथा भारी वर्षा, हिमपात आदि पर्वतारोही दलों को अथवा सैलानियों को अवश्य ही असमंजस की स्थिति में डालते हैं और सावधान भी करते हैं। लेकिन जलवायु की अथवा स्थानीय मौसम की विविधता या अनायास बदलते मौसम के मिज़ाज के अतिरिक्त अनेक विषम परिस्थितियां और भी होती हैं जो कि पर्वत की ओर जाने वालों को सावधान करती हैं।

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