जलवायु परिवर्तन (ग्लोबल वार्मिंग) : एक विश्लेषण

पर्यावरण हमारे सामने एक ज्वलंत समस्या बन गई है। यह संपूर्ण विश्व के लिए समान रूप से खतरनाक होती जा रही है। पर्यावरण के नष्ट होने से करीब 800 करोड़ से ऊपर प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो करीब 11,000 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम मानवों के विकास की कीमत बेजुबान प्राणी तथा हरी-भरी वनस्पतियां अपनी जान देकर क्यों दें? प्रकृति एक ऐसी अनमोल धरोहर है, जिसने हर समय मानव की हर संभव जरूरत का ध्यान रखा एवं मानव हित के लिए अपने संसाधनों का असीमित खजाना खोल दिया किंतु मानव द्वारा जिस प्रकार से इन प्राकृतिक संसाधनों का अनियमित व अतिरेक दोहन किया जा रहा है, वह चिंतनीय है, जो भविष्य में भयंकर परिणाम के रूप में पुनः मानव व पृथ्वी के अन्य जीवों को उपहार स्वरूप लौटा दिया जाएगा।

शायद प्रकृति भी मानव के इस असीमित संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए एक संकेत या चेतावनी दे रही है, जो कि पर्यावरण में हुए परिवर्तन के रूप में है, वैसे तो प्रकृति प्रतिपल परिवर्तित हो रही है, किंतु यह परिवर्तन पेड़-पौधों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. जैसे कि पलाश और आम के पेड़ पर असमय पुष्पन होना, सामान्यतः इन पेड़ों पर पुष्पन फरवरी-मार्च माह (बसंत ऋतु) के बाद होता है। किंतु इन्हीं पौधों में यह पुष्पन नवंबर-दिसंबर माह (शरद ऋतु) से ही देखा गया है, जिनको समय-समय पर हमारे द्वारा विषय विशेषज्ञ की हैसियत से कुछ राष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्रों के माध्यम से आम लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की गई है।

इन पौधों में पुष्पन के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं, जैसे बढ़ता तापमान, दिनों की आपेक्षिक लंबाई, घटता जलस्तर, वातावरण में नमी का प्रतिशत घटना तथा आनुवांशिक लक्षण आदि हैं। प्रकृति में हुए इन असमय परिवर्तनों से आज भी सचेत नहीं हुए तो आने वाले समय में पर्यावरण के विनाश की भयावहता को रोका नहीं जा सकता है।

पर्यावरण जैव मंडल का आधार है, लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद से विकास की जो तीव्र-प्रक्रिया अपनाई गई है, उसमें पर्यावरण के आधारभूत नियमों की अवहेलना की गई है। जिसका परिणाम पारिस्थितिक असंतुलन एवं पर्यावरणीय निम्नीकरण के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। ऐसे ही कुछ कारक हमारे सामने उपस्थित हैं, जिन्होंने पर्यावरण को परिवर्तित करने में विशेष योगदान दिया है और सभी जीवों, पेड़-पौधों इत्यादि की दैनिक दिनचर्या एवं रहन-सहन के ढंग को बदल दिया। यह पर्यावरण परिवर्तन के ही लक्षण हैं कि कई जीव-जातियां एवं वनस्पति विलुप्त हो गई हैं और कई विलुप्त होने की कगार पर हैं। मानव जाति यदि अभी भी सचेत नहीं हुई तो इसे भयंकर परिणाम भुगतने होंगे और यह सब वातावरण में परिवर्तन के कारण हो होगा।

प्रकृति का कण-कण तथा तृण-तृण स्वयं को अनुकूलित का अपना सामंजस्य स्थापित कर केवल स्वयं अपनी ही रक्षा नहीं करता, वरना संपूर्ण जीव-जगत् का वन पोषण कर उनकी भी रक्षा करता है, परंतु औद्योगिक क्रांति के बाद से विकास की जो तीव्र प्रक्रिया अपनाई गई, उसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन एवं पर्यावरणीय निम्नीकरण की स्थिति हमारे समक्ष उपस्थित हो गई। इसके परिणामस्वरूप कहीं तापमान बढ़ रहा है तो कहीं बर्फ पिघल रही है, कहीं भारी वर्षा हो रही है तो कहीं मरुभूमि का निर्माण हो रहा है। जो जीवन या वनस्पति-प्रजातियां स्वयं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल नहीं बना पाते, वे धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।

तीव्र औद्योगीकरण एवं वाहनों के प्रदूषण के कारण धरती दिन-प्रतिदिन गरमाती जा रही है। इससे फसल-चक्र भी अनियमित हो रहा है तथा कृषि उत्पादकता भी प्रभावित हो रही है।

कुछ साल पहले पर्यावरण कार्यकर्ता प्रो. बांगाख एम मथाई पर्यावरण के प्रति समर्पण को शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया। पुरस्कार संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित अंतरराष्ट्रीय समिति और अमेरिका के उपराष्ट्रपति अल गैर को संयुक्त रूप से दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन खासकर वैश्विक गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग) में बढ़ोतरी को लेकर विश्व में चिंता बढ़ती ही जा रही है। जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित समस्या है, इसलिए दुनिया भर में इसके लिए सामूहिक प्रयास किए जाने बेहद जरूरी हैं। इसमें ग्रीन हाउस गैसों में कटौती और स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों की खोज प्रमुख है।

IPPC के लगभग 3000 वैज्ञानिकों ने कड़ी मेहनत कर विश्व भर में जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आंकड़ों का संग्रह और मिलान किया। इस रिपोर्ट में यह दर्शाया गया कि किस प्रकार पृथ्वी के तापमान और समुद्र के जल-स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है, जिसके दुष्परिणाम अकाल, समुद्री तूफान, आदि के रूप में देखने को मिलेंगे। IPPC को संस्थागत स्तर पर प्रयास करने के लिए पुरस्कृत किया गया। भारत के लिए यह गौरव की बात है कि इस संगठन के अध्यक्ष के रूप में एक भारतीय श्री आर.के. पचौरी जुड़े हुए हैं। श्री पचौरी ने जलवायु परिवर्तन के लिए निम्न कारकों को उत्तरदायी बताया है-

1. औद्योगिकरण (1880) से पूर्व CO2 की मात्रा 180 पी.पी.एम. थी, जो अब बढ़कर 380 पी.पी.एम. हो गई है।
2. औद्योगिकरण से पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पार्टस पर बिलियन थी, जो वर्तमान में बढ़कर 1734 पी.पी.बी. हो गई है।
3. मीथेन की सांद्रगता में वृद्धि के लिए कृषि एवं जीवाश्म ईंधन को उत्तरदायी माना गया है।
4. नाइट्स ऑक्साइड की सांद्रता क्रमशः 270 पी.पी.बी. से बढ़कर 319 पी.पी.बी. हो गई है।

5. समुद्री तापमान में भी वृद्धि हुई है।
6. समुद्र जल में वृद्धि 1961 के मुकाबले 2050 तक 1 मीटर से अधिक हो जाएगी।
7. पिछले 100 वर्षों में अंटार्कटिक तापमान में दो गुनी वृद्धि हुई है, जिससे जहां एक ओर बर्फीले क्षेत्र कम होते जा रहै हैं, वहीं सागरीय तटों के डूबने की संभावना बढ़ती जा रही है।
8. उत्तरी अटलांटिक से उत्पन्न चक्रवातों की संख्या में वृद्धि हुई है।
9. मध्य अक्षांशों में वायु प्रवाह में तीव्रता आई है।
10. मध्य एशिया, उत्तरी यूरोप, दक्षिणी अमेरिका आदि में वर्षा की मात्रा में वृद्धि हुई है तथा भूमध्य सागर, दक्षिण एशिया और अफ्रीका में सूखे की वृद्धि दर्ज की गई है।

तालिका क्रमांक 1


विश्व के विभिन्न देशों में CO2 की मात्रा

क्र.

देश

CO2 की मात्रा (बिलियन टन प्रतिवर्ष)

प्रति व्यक्ति (प्रतिवर्ष)

1

भारत

1.1

1.2 टन

2

जापान

1.3

12 टन

3

रूस

1.7

4.7 टन

4

चीन

4.7

1 टन

5.

अमेरिका

5.9

23.6 टन

 



उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि CO2 की मात्रा को बढ़ाने में विश्व के विकसित देशों का सर्वाधिक योगदान है।

तालिका क्रमांक-2


ग्लोबल वार्मिंग में विभिन्न देशों का योगदान (प्रतिवर्ष में)

क्र.

देश

प्रतिवर्ष योगदान

1

अमेरिका

30.3

2

यूरोप

27.7

3

सोवियत संघ

14.7

4.

भारत, चीन एवं विकासशील देश

12.2

5.

दक्षिण और मध्य अमेरिका

3.8

6

जापान

3.7

7.

पश्चिमी एशिया

2.6

8.

अफ्रीका

2.5

9

ऑस्ट्रेलिया

1.1

10

कनाडा

2.3

 



उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि विश्व की विभिन्न विकसित अर्थव्यवस्थाओं का संपूर्ण धरातल को गर्माहट प्रदान करने में कितना महत्वपूर्ण योगदान है।

तापमान में तीव्र गति से हो रही बढ़ोतरी, जहां हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रही है, वहीं हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को भी कम कर रही है। मानव-समाज नई-नई बीमारियों का शिकार होता जा रहा है।

ग्लेशियर पिघलने से बढ़ने वाला समुद्री जल-स्तर कई छोटे-छोटे द्वीपों को लील लेगा। इसके चलते करीब 40 लाख लोग भारत की ओर पलायन कर सकते हैं, जिससे भारत की विस्थापन की समस्या का सामना करना पड़ सकता है। समुद्री जल-स्तर बढ़ने से विनाशकारी तूफान और कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ आने जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बढ़ जाएगी। जलवायु परिवर्तन से पैदा हुई संक्रामक बीमारियां व स्वास्थ्य अन्य परेशानियों के चलते लाखों जाने जा सकती हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण रोजगार के लाखों अवसर खत्म हो सकते हैं, इसका सबसे ज्यादा असर मत्स्य उद्योग व पर्यटन उद्योग पर पड़ेगा। मत्स्य उद्योग से विश्व के करीब 40 करोड़ लोगों की आजीविका चलती है तथा दुनिया में उपलब्ध 75 प्रतिशत मत्स्य सामग्री का दोहन किया जा रहा है, वातावरण की गर्माहट जहां एक जलस्तर में वृद्धि की समस्या खड़ी कर रही है, वहीं दूसरी ओर बड़ी मात्रा में जल संकट की स्थिति भी निर्मित हो रही है। पेयजल की समस्या से दुनिया के करोड़ों लोग जूझ रहे हैं। कहीं-कहीं क्लोराइड की अधिकता के कारण घेंघा रोग भी फैल रहा है।

वातावरण की गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग) को कम करने के लिए हमें विभिन्न माध्यमों से उत्पन्न कूड़े-कचरे की मात्रा को कम करना होगा।

बिजली के उपयोग को सीमित करना होगा ताकि इसके उत्पादन के लिए बनने वाली होने वाले परमाणु भट्टी की गर्मी को सीमित किया जा सके एवं कोयले की राख को कम किया जा सके।

CH4 (मीथेन), CFC (क्लोरो-फलोरो कार्बन), NO2 (सोडियम डाइऑक्साइड), O3 (ट्रायऑक्साइड), CO (कार्बन मोनोऑक्साइड) आदि गैसों की मात्रा को नियंत्रित करना होगा। नियंत्रण या इसके मित्र पदार्थों के उपयोग को बढ़कर ही किया जाना संभव होगा।

वनों का संरक्षण करना होगा, क्योंकि वनों के माध्यम से ही जलवायु को नियंत्रित किया जा सकेगा, वर्षा के जल की आकर्षित किया जा सकेगा, प्रकृति में फैल रही विभिन्न हानिकारक गैसों की मात्रा को नियंत्रित किया जा सकेगा। ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाया जा सकेगा। उक्त लाभों को प्राप्त करने के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाया जाना सर्वाधिक हितकारी होगा।

जलवायु परिवर्तन का जो क्रम प्रारंभ हो चुका है, उसे पूर्णतया रोक पाना तो संभव नहीं है, किंतु सावधानी रखकर उसे और परिवर्तित होने से रोका जा सकता है।

जैव विविधता का महत्व एवं संरक्षण


किसी प्राकृतिक प्रदेश में पाई जाने वाली जंगली तथा पालतू जीव-जंतुओं एवं पादपों की प्रजातियों को बहुलता को जैव विविधता कहते हैं।

प्राकृति संपदा के रूप में मानव का अस्तित्व निर्भर है। मानव प्राचीनकाल में जिन जीवों से भयग्रस्त रहता था, आज उन पर उसने विजय प्राप्त कर ली है, लेकिन यह विजय मानव एवं वन्य जीवों के मध्य एक छंद का रूप ले चुकी है, जब मानव ने तीव्रता से इनके प्राकृतिक आवासों को नष्ट कर दिया तथा इनकी संख्या में तीव्रता से कमी कर दी है। अनेक वन्य जीव विलुप्त हो रहे हैं, जिसके कारण जैव-विविधता के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की गई है।

प्रकृति में पाए जाने वाले जीव एवं वनस्पति हमारे लिए अनेक रूपों में लाभदायक हैं। मानव-जाति प्रागैतिहासिककाल से जैव विविधता का शोषण करती आई है, अनेक प्रजातियां तो मानव की पहचान के पूर्व ही विलुप्त हो चुकी थी। वर्तमान में दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली अनेक वस्तुएं जीव-जगत पर निर्भर करती हैं। जैव विविधता हमारे लिए खाद्य पदार्थ, दवाइयों, सौंदर्यात्मक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ पारिस्थितिकीय दृष्टि से भी लाभदायक है। अतः स्थिति में जैव विविधता का संरक्षण आवश्यक है। इसके लिए कृत्रिम संरक्षण, आवासस्थल में सुधार, प्रतिबंधित आखेट एवं वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम, राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य अभ्यारण्यों की स्थापना, लाभदायक सिद्ध होगा।

पारिस्थितिकी-कृषि


भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। पर्यावरण संरक्षण के लिए कृषि पारिस्थितिकी प्रदेश एक अनुकूल विकल्प है। इसमें पर्यावरण संतुलन एवं पारिस्थितिकी तंत्र को ध्यान में रखकर कृषि की जाती है। पारिस्थितिकी-कृषि मानव जीवनदायिनी कृषि भी कहलाती है, जो प्राचीनतम कृषि-प्रणाली द्वारा की जाती है, जिसमें पशु, पेड़-पौधे और जैव विविधता आदि के दीर्घकालीन संरक्षण पर बल दिया है। कृषि पारिस्थितिकी का उद्देश्य है रासायनिक उर्वरक तथा अधिक रसायनों के प्रयोग को रोकना। कृषि हेतु लकड़ी, लोहे, के हल, कल्टीवेटर, थ्रेसिंग मशीन, स्पेयर एवं उन्नतशील बुआई एवं सिंचाई हेतु नलकूपों एवं पंपों की सहायता ली जाती है, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बना रहे, इसे बनाए रखने के लिए पर्यावरण शुद्धता एवं मानव जीवन को स्वास्थ्य के ध्यान में रखते हुए पारिस्थितिकी-कृषि पर ध्यान देना होगा।

वायुमंडल पर्यावरण संरक्षण, मानव जीवन एवं जीव-जगत् और पेड़-पौधों के लिए पारिस्थितिकी-कृषि जीवनदायिनी के रूप में सदा विद्यमान रहे। भारत के संदर्भ में यह पारिस्थितिकीय दृष्टि से अनुकूल, आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ और सामाजिक दृष्टि से न्यायपूर्ण एवं कल्याणकारी है।

अंतरराष्ट्रीय प्रयास


ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर कटौती के मामले में विश्वव्यापी सहमति कायम करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में वैश्विक सम्मेलन इंडोनेशिया की घाटी द्वीप नूसा दुआ में 3-14 दिसंबर, 2007 को संपन्न हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1997 में बनी क्योटो संधि से आगे की रणनीति के लिए इस सम्मेलन का आयोजन किया गया। विश्व के 36 औद्योगिक देशों पर लागू क्योटो संधि की अवधि 2012 में समाप्त हो रही है। इस संधि के तहत इन 36 औद्योगिक देशों को 2008 तक ग्रीन हाउस गैसों में उत्सर्जन का स्तर क्रमशः घटाते हुए 1990 के स्तर तक लाने की जिम्मेदारी थी।

पृथ्वी को बचाने के लिए आगे आने के आह्वान के साथ जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अब तक सबसे बड़ा सम्मेलन 7 दिसंबर, 2009 को डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में आरंभ हुआ। क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत निर्धारत उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों के नवीनीकरण और वर्ष 2012 के बाद वार्ता की रूप-रेखा तय करने के लिए सम्मेलन में 192 देशों के 15 हजार से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर विश्वभर के देशों के बीच की वार्ता कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए महत्वाकांक्षी एवं कानूनी रूप में बाध्यकारी कार्य योजना तैयार नहीं कर पाई। किंतु इससे कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धि अवश्य प्राप्त हुई। इस वार्ता के माध्यम से चीन, भारत, ब्राजील एवं दक्षिणी अफ्रीका में जलवायु संकट का समाधान निकालने के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में राजनीतिक वचनबद्धता की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। भविष्य में अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं अब इन राजनीतिक वचनबद्धताओं के आधार पर होंगी।

उपसंहार


पर्यावरण हमारे सामने एक ज्वलंत समस्या बन गई है। यह संपूर्ण विश्व के लिए समान रूप से खतरनाक होती जा रही है। पर्यावरण के नष्ट होने से करीब 800 करोड़ से ऊपर प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो करीब 11,000 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम मानवों के विकास की कीमत बेजुबान प्राणी तथा हरी-भरी वनस्पतियां अपनी जान देकर क्यों दें? क्या यह सही होगा? नहीं बिल्कुल नहीं। कुछ सार्थक व सकारात्मक करें, जो पर्यावरण के संरक्षण, पोषण व संवर्धन में सहायक हो। पर्यावरण ऐसी समस्या है, जो सब पर प्रभाव डालेगी। कोई भी देश या व्यक्ति इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी समस्या है, जो देश की सीमाओं को नहीं मानती। अतः इस खतरे से निपटने के लिए साझे प्रयासों की जरूरत होगी, ताकि हम अपने पीढ़ियों को विरासत में एक साफ, स्वच्छ पर्यावरण दे सकें।

संदर्भ


1. रिसर्च लिंक, अजय कुमार शर्मा/ प्रतिभा सावरिया, वर्ष-VII (3), मई, 2008, पृ.78-80
2. रिसर्च लिंक, के.के. साधन, वर्ष - VIII (3), मई, 2008, पृ. 17-18
3. शोध प्रकल्प, ननीत द्विवेदी, अंक - 47 , संख्या अप्रैल-जून 2009 पृ.63
4. अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, अजय, खान, सरिया व निषाद, 7 अक्टूबर, 2009, पृ. 129-130

सहायक प्राध्यापक (अर्थशास्त्र), महात्मा गांधी शासकीय महाविद्यालय, खरसिया, रायगढ़ (छ.ग.)

सहायक प्राध्यापक शासकीय टी.सी.एल. महाविद्यालय जांजगीर (छ.ग)

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