जलवायु परिवर्तन का खाद्यान्न सुरक्षा पर प्रभाव

Wheat
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भारत को खाद्यान्न सुरक्षा एवं आर्थिक विकास के पथ पर बढ़ते हुए जलवायु परिवर्तन पर सचेत रहने की आवश्यकता है। हमें कृषि, वानिकी व उद्यानिकी के क्षेत्रों में व्यापक सुधार के साथ-साथ जीवन के हर स्तर पर न्यूनतम आवश्यक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना होगा। आर्थिक विकास की रणनीति इस प्रकार बने कि भारत विकास के मार्ग पर आगे भी बढ़ता जाये और कार्बन उत्सर्जन भी काबू में रहे। प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर आर्थिक विकास कदापि न हो। अतः जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु व्यापक-स्तर पर तैयारी अभी से शुरू करने की नितांत आवश्यकता है।

जलवायु परिवर्तन का खाद्यान्न सुरक्षा पर प्रभावकृषि का प्रकृति से सीधा सम्बन्ध है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा ही कारक है जिससे प्रभावित होकर कृषि अपना स्वरूप बदल सकती है तथा इस पर निर्भर लोगों की खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। विश्व में आज खाद्यान्न संकट, ऊर्जा की कमी, आर्थिक मंदी आदि समस्याएँ हमारे सामने आ खड़ी हैं। गाँवों में जल के पारम्परिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं। गाँव के तालाब और पोखर, कुँओं का जलस्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। किसान अपने खेतों में अधिक वर्षाजल का संचय करता था ताकि जमीन की नमी व उसका उपजाऊपन बना रहे। परंतु अब बिजली से ट्यूबवेल चलाकर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसान खेतों में जल-संरक्षण के प्रति लापरवाह हो गए हैं।

इन सबका सम्बन्ध कमोबेश जलवायु परिवर्तन से भी है। कुल मिलाकर प्रकृति के निर्मम संहार के चलते उत्पन्न जलवायु परिवर्तन की विकट समस्या आज विश्व के समक्ष मुँह बाए खड़ी है। भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों पर वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) के दूरगामी प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। हिमालय के हिमखंडों के पिघलने और उपलब्ध जल के बढ़ते वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्तर भारत में पानी की भारी कमी हो सकती है। दक्षिणी प्रांतों के अधिकतर क्षेत्रों में तो पहले से ही सिंचाई जल की उपलब्धता कम है और वैश्विक तपन के कारण इसके और क्षीण होने की सम्भावना है। इस प्रकार भारत की कृषि उत्पादकता में कमी आने से हमारी खाद्य सुरक्षा खतरे में आ सकती है।

धान-गेहूँ फसलचक्र की उत्पादकता पर प्रभाव


गेहूँ और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्यान्न फसलें हैं। इनके उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दिखाई देने लगा है। तापमान में वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी। अनुमान है कि 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा। देश के पूर्वी हिस्से का धान उत्पादन अधिक प्रभावित होगा जिससे अनाज की उपलब्धता में कमी आ जाएगी। इससे प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता तो कम होगी ही साथ ही खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण की समस्या भी बढ़ेगी। तापमान बढ़ने और ठंड के महीनों में कमी होने से गेहूँ जैसी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फसल की उत्पादकता में भारी गिरावट होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी ओर, अचानक बाढ़, सूखा व सिंचाई जल की कमी से धान के उत्पादन पर भी दुष्प्रभाव पड़ सकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार तापमान में मात्र एक डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि से भारत में 40 से 50 लाख टन गेहूँ की उपज कम होने की सम्भावना है। धान वर्षा आधारित फसल होने के कारण जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ और सूखे की स्थितियाँ बढ़ने पर इस फसल की उत्पादकता गेहूँ की अपेक्षा विशेष प्रभावित होगी। हमारे देश में कुल कृषिगत क्षेत्र में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान का है।

जैव विविधता पर प्रभाव : समुद्र के तटीय क्षेत्रों की वनस्पतियों व वृक्षों पर कुप्रभाव पड़ेगा। तटीय वनस्पतियों व वृक्षों का विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन का खतरा बढ़ाएगा। पेड़ों के विनाश से तट की स्थिरता प्रभावित होगी। उष्ण-कटिबंधीय वनों पर प्रभाव से वनों में आग की घटनाओं में वृद्धि होगी एवं वनों के विनाश से जैव-विविधता में कमी आएगी।

जलवायु परिवर्तन का मृदा स्वास्थ्य पर प्रभाव : भूमिगत जलस्तर गिरने से मृदा उर्वरता भी प्रभावित होगी। बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण भूक्षरण अधिक होगा वहीं सूखे के कारण बंजरता आएगी। पेड़-पौधों के कम होते जाने तथा जैव विविधता के अभाव के कारण मिट्टी का उपजाऊपन घटता जाएगा। वैश्विक तपन के कारण जीवांश पदार्थों का विघटन तेजी से होगा जिससे पोषक चक्र में वृद्धि होगी और मृदा की उपजाऊ शक्ति अव्यवस्थित हो जाएगी। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के कारण पौधों में कार्बन-स्थिरीकरण बढ़ेगा। परिणामस्वरूप मृदा से पोषक तत्वों का अवशोषण कई गुना बढ़ जाएगा। जिसका मिट्टी की उर्वराशक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

फसल स्वास्थ्य पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की समस्या बढ़ेगी। तापमान, नमी तथा वातावरण की गैसों से पौधों, फफूँद तथा अन्य रोगाणुओं के प्रजनन में वृद्धि तथा कीटों और उनके प्राकृतिक शत्रुओं के अंतर्सम्बन्धों में बदलाव आदि दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे। बदलती जलवायु से कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता में वृद्धि होगी। रोगाणुओं में वृद्धि के साथ ही नई प्रजाति के रोगाणु पैदा होंगे जिनक फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। साथ ही खरपतवारों का प्रकोप भी बढ़ेगा।

उत्पाद की गुणवत्ता पर दुष्प्रभाव : जलवायु परिवर्तन से केवल फसलों की उत्पादकता ही प्रभावित नहीं होगी वरन उनकी गुणवत्ता पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटीन की कमी पाई जाएगी जिस कारण आदमी का स्वास्थ्य प्रभावित होगा जिसकी भरपाई कृत्रिम विकल्पों से करनी पड़ेगी। गंगा के मैदानी क्षेत्रों में तापमान वृद्धि के कारण अधिकांश फसलों की उत्पादकता में गिरावट की सम्भावना है।

मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव : उष्णता के कारण श्वास तथा हृदय सम्बन्धी बीमारियों में वृद्धि की सम्भावना बढ़ेगी। दस्त, हैजा, पेचिश, क्षयरोग, पीत-ज्वर, मियादी बुखार जैसी बीमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी। मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे मलेरिया, डेंगू, पीला बुखार, जापानी बुखार (मेनिंजाइटिस) के प्रकोप में बढ़ोत्तरी होगी; फाइलेरिया (फील पाँव) तथा चिकनगुनिया के प्रकोप में भी वृद्धि होगी।

पशु स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव : नाशिजीवों एवं रोगाणुओं की संख्या वृद्धि का पशुओं के स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम करने के महत्त्वपूर्ण उपाय


फसल उत्पादन हेतु नई तकनीकों का विकास : फसलों से वांछित उत्पादन लेने हेतु ऐसी किस्मों की खेती को बढ़ावा देना होगा जो नई बदलते मौसम के अनुकूल हों। इसके लिये ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखा और जलभराव होने पर भी सफलतापूर्वक उत्पादन दे सकें। आने वाले समय में ऐसी किस्मों की जरूरत होगी जो उर्वरक और सूर्य विकिरण उपयोग के मामले में अधिक सक्षम हों। लवणीयता और क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों का विकास करना होगा। ऐसी अनेक पारम्परिक व प्राचीन प्रजातियाँ हैं जिनका संरक्षण करना होगा। कम मिथेन उत्सर्जन करने वाली प्रजातियों के विकास की भी आवश्यकता है।

सस्य विधियों में परिवर्तन : बदलते मौसम के अनुसार हमें बुवाई के समय में भी बदलाव लाने होंगे ताकि बढ़ते तापमान का प्रभाव कम हो। फसलों के कैलेंडर में कुछ बदलाव लाकर गर्म मौसम के प्रकोप से बचना व नम मौसम का अधिक उपयोग करना होगा। गेहूँ की समय पर बुवाई, अधिक तापमान सहन करने वाली प्रजातियाँ, कतार से कतार की दूरी और पौध सघनता बढ़ाकर खरपतवारों की समस्या कम की जा सकती है। मिश्रित खेती व सहफसली खेती करके जलावयु परिवर्तन के दुष्परिणाम से निपटा जा सकता है। अंतर्वर्ती फसलों से खरपतवारों की वृद्धि रुकेगी। उदाहरण के लिये, मक्के के साथ लोबिया, ज्वार के साथ अरहर-उकठा उगाने से खरपतवार में कमी आएगी।

फसल चक्र : मृदा उर्वरता संवर्द्धन के लिये दलहनी फसलों का विस्तार करना होगा। फसल चक्रों में परिवर्तन से बीमारी, कीड़े, खरपतवार की समस्या कम होगी। दलहनी फसलों (अरहर) के साथ, कपास जैसी गहरी जड़ वाली फसल युक्त, फसल चक्र विशेष लाभदाई होंगे। इससे जैविक कार्बन की मात्रा में वृद्धि भी होगी। दलहनी फसलों की खेती बढ़ाने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग स्वतः कम हो जाएगा जिससे नाइट्रस ऑक्साइड का दुष्प्रभाव कम हो जाएगा।

जल निकास : उचित जल निकास प्रबंधन की व्यवस्था करके मृदा से मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

खेतों में जल संरक्षण : तापमान वृद्धि के साथ-साथ धरती पर मौजूद नमी का ह्रास होगा। ऐसी परिस्थिति में खेतों में नमी का संरक्षण करना और वर्षाजल को एकत्र कर सिंचाई हेतु उपयोग में लाना आवश्यक होगा। जीरो टिलेज या शून्य जुताई जैसी तकनीकों का इस्तेमाल कर पानी के अभाव से निपटा जा सकता है। शून्य जुताई के कारण धान और गेहूँ की खेती में पानी की माँग में कमी हो जाती है जबकि उपज में बढ़ोत्तरी होती है इससे मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा भी बढ़ जाती है।

ऐरोबिक धान की खेती से मिथेन की समस्या का सुधार : ऐरोबिक धान की खेती और खरपतवार नियंत्रण के लिये एकीकृत खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता है।

उचित पोषक तत्व प्रबंधन : फसलों को पोषक तत्वों की सही खुराक देनी होगी जिससे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि पौधों को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध हो सकें और उर्वरक नाइट्रोजन का नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में उत्सर्जन कम-से-कम हो सके। संतुलित एवं सक्षम उर्वरक प्रयोग से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम होगा।

अध्ययनों में पाया गया है कि यदि तापमान 2 सेंटीग्रेड के करीब बढ़ता है तो अधिकांश स्थानों पर गेहूँ की उत्पादकता में कमी आएगी। जहाँ उत्पादकता ज्यादा हैं जैसे उत्तरी भारत में, वहाँ कम प्रभाव दिखेगा; जहाँ कम उत्पादकता है, वहाँ ज्यादा प्रभाव दिखेगा। प्रत्येक 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ का उत्पादन 40-50 लाख टन कम होता जाएगा। अगर किसान गेहूँ की बुवाई का समय सही कर लें तो उत्पादन की 1-2 टन प्रति हेक्टेयर की गिरावट कम हो सकती है।

फसल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों का जैविक नियंत्रण : हरितक्रांति के पश्चात लगभग पूरे विश्व में कृषि का रासायनीकरण हो गया है, जिससे आज मृदा उत्पादकता में कमी व स्थिरता के साथ-साथ जैवनाशी प्रतिरोधी कीटों, रोककारकों व खरपतवारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इनका मुख्य कारण मृदा उत्पादकता व फसल शत्रुओं को नियंत्रित करने वाली पारिस्थितिकीय व्यवस्था का नष्ट होना है। अतः आज विश्व-स्तर पर कृषि में रसायनों के न्यायोचित उपयोग के लिये व्यापक जन-जागरूकता लाने की नितांत आवश्यकता है। उचित बीजशोधन को अपनाकर हम कई फसल व्याधियों व कीड़ों का नियंत्रण कम रसायनों के उपयोग से ही कर सकते हैं वातावरण और फसलोत्पादन को होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं। हमें फसल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों के प्राकृतिक शत्रुओं के नियंत्रण के बेहतर तरीकों को भी अपनाना होगा ताकि रसायनों का प्रयोग कम-से-कम करना पड़े और कृषि जैव विविधता भी उचित-स्तर तक बनी रहे।

मृदा सौर्यीकरण : उचित नमीयुक्त खेत तैयार करके पारदर्शी पॉलीथीन शीट से ढककर चारों तरफ से सील कर देना चाहिए, ताकि सौर ऊर्जा मिट्टी के अन्दर प्रवेश कर जाए और मिट्टी का तापक्रम बढ़ने से खरपतवार, कीड़े आदि मर जाएँ। गर्मी की जुताई भी लाभकर साबित होगी।

मृदा बिछावन (मल्चिंग) : (क) मृदा बिछावन से कार्बन की मात्रा का संरक्षण होगा जिससे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को बढ़ने से रोका जा सकता है। (ख) कतार से बोई गई फसलों में मल्चिंग से खरपतवार में कमी हो जाने से खरपतवारनाशी का प्रयोग कम करना पड़ेगा। जैविक खरपतवार नियंत्रण भी कारगर होगा।

संरक्षण कृषि (कंजर्वेशन एग्रीकल्चर) : पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम करने हेतु आज इसकी अधिकाधिक मात्रा को मृदा कार्बन के रूप में संचित करना आवश्यक है। मृदा कार्बन का फसलोत्पादन में तो महत्त्व है ही, साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से भी इसका अत्यधिक महत्त्व होता है। परम्परागत तरीकों से होने वाले भू-परिष्करण में नियमित रूप से मशीनों और ऊर्जा का अधिकाधिक उपयोग होता है और यह माना जाता है कि मृदा की तैयारी जितनी ज्यादा होगी, उत्पादन उतना ही अधिक होगा। परन्तु अधिक कर्षण क्रियाओं के प्रयोग से मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के रूप में मुक्त होकर वातावरण में इसकी मात्रा बढ़ा देती है। इसके अलावा अत्यधिक भू-परिष्करण मृदा कटाव को भी बढ़ावा देता है, जिसके प्रबंधन हेतु अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है।

संरक्षण कृषि के अंतर्गत हम कृषि में उपयोग किये जाने वाले संसाधनों (फसल उत्पादन व सुरक्षा हेतु) के न्यूनतम उपयोग के द्वारा ही अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करते हैं। इस प्रकार कृषि क्रियाओं पर कम संसाधन खर्च व ऊर्जा प्रयोग होने से पर्यावरण को होने वाले नुकसान में कमी आती है। न्यूनतम भू-परिष्करण और शून्य-कर्षण के द्वारा हम फसलोत्पादन पर होने वाले खर्च को कम कर सकते हैं। साथ ही साथ कम पेट्रोलियम जलने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम होता है। शून्य-कर्षण के उपरान्त बोई गई फसलों में मृदा नमी का संरक्षण अधिक होता है। सिंचाई के लिये पानी की मात्रा अपेक्षाकृत कम लगती है और मृदाक्षरण भी कम होता है। इसके अलावा कई तरह के खरपतवारों, जैसे गेहूँ में फेलेरिस माइनर के प्रकोप में कमी आती है। अधिक कर्षण क्रियाओं के कारण मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मुक्त होकर वातावरण में पहुँच जाती है। अत्यधिक भू-परिष्करण मृदा-कटाव को भी बढ़ावा देता है। शून्य-कर्षण अपनाने में मृदा-कार्बन की मात्रा में भी वृद्धि होती है।

इस प्रकार संरक्षण क्रियाएँ सही मायने में ग्रीनहाउस प्रभाव कम करने में उपयोगी सिद्ध होगी। आज गेहूँ व धान के अलावा चना, मटर, मसूर, सरसों व अलसी जैसी फसलों का उचित उत्पादन हम शून्य-कर्षण के माध्यम से सफलतापूर्वक ले सकते हैं। शाकनाशी रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण की उन्नत तकनीकों ने खेती की न्यूनतम जुताई के प्रयोग को और आसान बना दिया है। धान वे गेहूँ की कटाई के उपरान्त खेत में पड़ी जैव-सामग्री पर भी आज उन्नत तरीके वाली नगण्य जुताई कर बुवाई करने वाली मशीनें अच्छी तरह चल सकती हैं और बुवाई का कार्य बिना किसी बाधा के सम्पन्न कर सकती हैं। इस प्रकार हम इन जैव-सामग्री को जलाए बिना ही अगली फसल ले सकते हैं और मृदा-कार्बन की मात्रा में वृद्धि करके वातावरण में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को कम कर सकते हैं। एक नियमित अंतराल पर न्यूनतम जुताई विधि एवं परम्परागत जुताई विधि अपनाकर हम कुल खर्च होने वाली ऊर्जा में बचत करके वातावरण को होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं।

सन 2025 में हमारी खाद्यान्न की आवश्यकता साढ़े बाईस करोड़ टन के करीब आँकी गई है। इसे पूरा करने का मतलब है हर साल कृषि उत्पादन में 6 से 7 प्रतिशत की वृद्धि दर बनाए रखना, जो इतना आसान नहीं है क्योंकि धरती माँ के साथ अच्छा बर्ताव हो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस चुनौती के लिये हमें सजग और प्रयत्नशील रहने की आवश्यकता है।

भूसा पुआल प्रबंधन द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी : धान तथा गेहूँ के खेतों से विशाल मात्रा में पुआल तथा भूसा पैदा होता है। इनका उचित तरीके से प्रबंधन न करने पर पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। आजकल कम्बाइन द्वारा कटाई के पश्चात खेत में बची जैव-सामग्री को जलाने की परम्परा बढ़ती जा रही है जिसके परिणामस्वरूप भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। एक अध्ययन के अनुसार पंजाब में भारी मात्रा में जैव सामग्री (भूसा या पुआल) जलाने से उत्तर भारत के विशाल वातावरणीय भाग पर धुंध-सी बन जाती है जो वातावरण में गर्मी में वृद्धि करती है। जैव-सामग्री को जलाने से भारी मात्रा में निकला हुआ धुआँ मानव एवं पशु स्वास्थ्य के लिये भी घातक होता है। इसके अलावा भारी मात्रा में पोषक तत्वों (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि) का नुकसान भी होता है। यह प्रचलन पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही घातक है और इस पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ व्यापक जन-जागरूकता लाने की आवश्यकता है।

कृषि वानिकी व उद्यानिकी को बढ़ावा : कृषि वानिकी व उद्यानिकी को बढ़ावा देकर हम वांछित फसलोत्पादन के अतिरिक्त वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड की भारी मात्रा को वन व फल-वृक्षों के माध्यम से संचित कर सकते हैं। फल-वृक्षों के अधिकाधिक रोपण से हमें खाद्य फलों के अलावा ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा मौसम को ठंडा रखने, मृदाक्षरण रोकने व प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी। क्षारीय एवं लवणीय भूमि पर क्षार एवं लवण सहनशील वन-वृक्षों एवं फलदार पेड़ों के रोपण द्वारा इन समस्याग्रस्त क्षेत्रों की कृषि उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।

जैव ईंधन वाली फसलों की खेती को बढ़ावा : हरितगृह प्रभाव को रोकने के लिये जैव-ईंधन (बायो फ्यूल) वाली फसलें जैसे जटरोफा, मीठी ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी संभावनाएँ हैं। ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को संचित करके जैव-ईंधन बनाने में उपयोग की जाएँगी, तत्पश्चात इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिलाकर जलाया जाएगा और विभिन्न ऊर्जा कार्यों के लिये उपयोग किया जाएगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा।

समन्वित खेती का महत्त्व : समन्वित खेती का अर्थ है घर-पशुशाला-खेत के बीच उचित सामंजस्य व इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता। जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से खेतों में विविधता तथा फसलों के साथ वृक्षों व जानवरों का संयोजन बहुत मायने रखता है। आज खेती की सबसे बड़ी माँग यही है। अब तक के अनुभवों तथा अध्ययनों में यह पाया गया है कि जहाँ समग्रता रही है वहाँ नुकसान का प्रतिशत भी कम रहा जबकि जहाँ एकल फसलें अथवा केवल पशुओं पर निर्भरता थी, वहाँ नुकसान अधिक हुआ। खेती में समग्रता किसान को आत्मनिर्भर बनाती है, बाजार पर उसकी निर्भरता कम होती है तथा कठिन समय में भी उसकी खाद्य सुरक्षा बनी रहती है क्योंकि एक अथवा दो गतिविधियों के नुकसान से पूरी प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। आज जलवायु परिवर्तन से होने वाले कृषि के नुकसान को कम करने के साथ ही कृषि द्वारा उत्पन्न गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने में भी समग्र खेती सहायक सिद्ध हो रही है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिये जानवरों की देशी नस्लों को बढ़ावा देना होगा। देशी दुधारू गायों से मिथेन का उत्सर्जन कम होता है। जानवरों के भोजन व उसके प्रकार में जो अंतर होता है, वह मिथेन के उत्सर्जन हेतु उत्तरदायी है।

सारांश


ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से बचने का मुख्य उपाय हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में कमी, प्राकृतिक संसाधनों का संयमित उपयोग व पर्यावरण के प्रति मित्रवत विकास में निहित है। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने हेतु कृषि, वानिकी एवं उद्यानिकी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता इसलिये भी है क्योंकि अभी तक सिर्फ यही क्षेत्र ऐसे हैं जिनके द्वारा वातावरण में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड की बड़ी मात्रा सीधे-सीधे अवशोषित हो जाती थी। फलस्वरूप हम वातावरण में इसकी सांद्रता काफी हद तक कम कर सकते हैं और कुल हरितगृह गैसों के उत्सर्जन में भी कमी कर सकते हैं। हमें जैविक खादों एवं मृदा उत्पादकता को बढ़ाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक स्तर पर उपयोग करना होगा। फसलों की कीट व रोगरोधी किस्मों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके अलावा फसल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों से बचाव के लिये जैविक नियंत्रण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में आजकल नैनोहर्बीसाइड्स (अतिसूक्ष्म-शाकनाशी) के विकास पर परियोजना चल रही हैं। आशा है कि भविष्य में नैनो उर्वरक एवं नैनोहर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में फसलों की खुराक तथा खरपतवारों के सटीक नियंत्रण हेतु प्रयोग में आने लगेंगे।

(लेखक क्रमशः प्लांट न्यूट्रीशन इंस्टीट्यूट, इंडिया प्रोग्राम में पूर्व निदेशक (इंटरनेशन) तथा विषयवस्तु विशेषज्ञ (मृदा विज्ञान), सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र (मेरठ) से सम्बद्ध हैं।)ई-मेल : kashinathtiwari730@gmail.com

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