जलवायु परिवर्तन : कारण एवं प्रभाव

21 Apr 2014
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Climate change
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मानव सभ्यता के 10 हजार सालों में इतनी तपन कभी नहीं बढ़ी जो 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक और 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में महसूस की गई। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। तबाही स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। वैज्ञानिक इस ओर लगातार ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं, जिसे अनदेखा करते हुए वोट की राजनीति के चलते तात्कालिक विकास की दृष्टि से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निरंतर जारी है।

तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ‘हवा-पानी’ रहित खतरनाक भविष्य का शंखनाद कर दिया है। समय रहते समाधान नहीं किया गया तो आने वाला कल अकल्पनीय होगा। यह समस्या अंतरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी है। विकसित या विकासशील देश ही नहीं, अपितु विश्व का पूरा देश इसकी चपेट में है। इसलिए विश्व के तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र संघ इस समस्या से निजात पाने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे हैं।

डब्ल्यू-डब्ल्य.एफ. की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 50 साल में दुनिया उजड़ जाएगी। यह महज किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी नहीं हैं, बल्कि पर्यावरण से जुड़े ख्याति के वैज्ञानिकों की है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जिस रफ्तार से दुनिया के संसाधनों की लूट हो रही है, उसके हिसाब से पचास साल के अंदर दुनिया की आबादी की जरूरतों को मुहैया कराने के लिए पृथ्वी जैसे कम-से-कम दो और ग्रहों पर कब्जा करने की आवश्यकता पड़ जाएगी। पर्यावरण से जुड़ी दुनिया की सबसे मशहूर संस्था वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ) की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इसके लिए सबसे अधिक दोषी अमेरिका को बताया गया है वैज्ञानिकों की इस चेतावनी को पर्यावरणविदों की एक और चेतावनी कहकर टालने का जोखिम भी नहीं उठाया जा सकता है, क्योंकि दुनिया के संसाधनों के सन् 2050 तक लुट जाने की बात पूरी तरह पुष्ट वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर कही गई है। इंग्लैंड के अखबार आब्जर्वर की वेबसाइट के अनुसार वैज्ञानिकों ने कहा है कि संसाधनों के दोहन की रफ्तार अगर रही तो समुद्रों से मछलियां गायब हो जाएंगी और कार्बन डाइऑक्साइड सोखने वाले सारे जंगल उजड़ जाएंगे। इसके बाद शुद्ध पानी का भयानक संकट छा जाएगा।

डब्ल्यू-डब्ल्यू.एफ की इस रिपोर्ट में वैज्ञानिक साफ चेतावनी देते हैं कि या तो हमें अपनी अय्याशी की लाइफ स्टाइल को बदल देना चाहिए या फिर पृथ्वी के जैसे ही दो और ग्रहों की तलाश कर उन पर कब्जे की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, क्योंकि सन् 2050 तक तो यह पृथ्वी हमारे लिए बेकार हो जाएगी। वैज्ञानिक उत्तरी अटलांटिक सागर का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सन् 1970 में यहां काड मछली का करीब 2 लाख 64 हजार टन भंडार था, जो कि सन् 1995 में घटकर 60 हजार टन ही रह गया है। सन् 1970 से 2002 के बीच पृथ्वी पर से जंगल का प्रतिशत 12 फीसदी कम हो गया है। ताजा पानी का भंडार 55 फीसदी घट चुका है और समुद्री जीवन भी घटकर एक-तिहाई ही रह गया है। ये सभी तथ्य एक खतरनाक भविष्य की ओर इशारा करते हैं, जिससे अभी तक तो यह दुनिया अनजान ही नजर आती है, डब्ल्यू, डब्ल्यू.एफ के अनुसार खतरा मनुष्यों के लिए ही नहीं, बल्कि 350 तरह के स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों आदि के लिए भी हैं। इनमें से कई प्रजातियों की संख्या पिछले 30 साल में ही आधी से अधिक घट गई हैं। इस रिपोर्ट में अमेरिका को सबसे अधिक लताड़ा गया है और कहा गया है कि अमेरिका का एक औसत नागरिक ब्रिटेन के नागरिक की तुलना में संसाधनों का दो गुना और कई एशियाई और अफ्रीकी नागरिकों की तुलना में 24 गुना अधिक खर्च करता है। इस रिपोर्ट में अनाज, मछली, लकड़ी और ताजा पानी के खर्च तथा उद्योगों और वाहनों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के आधार पर हर देश के लिए एक आंकड़ा (फुटप्रिंट) तैयार किया गया है, जो यह बताता है कि देश-विदेश का एक व्यक्ति रहने के लिए औसतन कितनी जमीन का इस्तेमाल करता है। अमेरिका के लिए यह आंकड़ा 12.2 हेक्टेयर है तो ब्रिटेन के लिए 6.29 हेक्टेयर। दूसरी ओर गरीब अफ्रीकी देश इथियोपिया के लिए यह आंकड़ा 2 हेक्टेयर है, जबकि बुरुंडी जैसे देश के लिए सिर्फ आधा हेक्टेयर।

हाल ही में अमेरिका में सहस्त्राब्दी परितंत्र मूल्यांकन (मिलेनियम इकोसिस्टम इवैल्यूएशन) के निदेशक मंडल की ओर से वक्त्व्य जी किया गया है कि इस पृथ्वी के क्रियाकलापों में मानव की बढ़ती दखलंदाजी से अब यह दावा नहीं किया जा सकता है कि भावी पीढ़ी के लिए भी पृथ्वी की यही क्षमता कायम रह सकेगी। निदेशक मंडल का यह निष्कर्ष 1300 वैज्ञानिकों के चार साल के गहन विश्लेषण पर आधारित है। इन वैज्ञानिकों ने पाया है कि हमारी अर्थव्यवस्था को प्राकृतिक प्रणालियों से उपजी चौबीस प्रकार की सेवाएं चल रही हैं, जैसे पीने का पानी, जलवायु का नियमन, प्राणवायु का निर्माण, ऊर्जा, का प्रवाह, खाद्य-श्रृंखला आदि। इन सेवाओं में से पंद्रह को हम इनके स्थायीपन की सीमा से पीछे धकेल चुके हैं। धरती पर तापमान बढ़ रहा है, वन तेजी से सिकुड़ रहे हैं, जनसंख्या और वाहन बढ़त बनाए हुए हैं। जैव विविधता को सहेजने वाली मूंगा चट्टानों (कोरल रीफ्स) का चालीस प्रतिशत पतन हो चुका है। नदियों और झीलों से पानी का दोहन सन् 1960 के मुकाबले दो गुना बढ़ चुका है। जीवों की प्रजातियां प्राकृतिक दर से एक हजार गुना ज्यादा तेजी से विलुप्त हो रही है। 13 करोड़ टन प्रतिवर्ष की दर से मछलियां पकड़ी जा रही हैं। ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन का उपयोग बढ़ा है, यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन तेजी से हो रहा है। कार्बन डाइऑक्साइड जैसे घातक गैस को शोषित करने वाले प्राकृतिक इकोसिस्टम का कार्य शिथिल होता दिख रहा है।

मानव सभ्यता के 10 हजार सालों में इतनी तपन कभी नहीं बढ़ी जो 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक और 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में महसूस की गई। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। तबाही स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। वैज्ञानिक इस ओर लगातार ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं, जिसे अनदेखा करते हुए वोट की राजनीति के चलते तात्कालिक विकास की दृष्टि से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निरंतर जारी है। विश्व के समस्त देश को चाहिए कि वे अपने राष्ट्रीय एजेंडे में वोट की मानसिकता से हटकर देश, विश्व, मानव तथा जीव-जंतु की सुरक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण निवारण योजनाओं को प्राथमिकता दें, ताकि जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाई जा सके, तभी हम आने वाली पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित रखने के साथ ही देवतुल्य प्रकृति पर बढ़ते दबाव को संतुलित कर सकेंगे, इसी में जीवन रक्षा निहित है।

पृथ्वी का औसत तापमान 18वीं शताब्दी के बाद से अब तक 0.6 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ गया है, जो सन् 2100 तक 9.58 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाने की संभावना है। पिछले 20 वर्षों में तापमान केवल मानव गतिविधियों के कारण ही बढ़ा है। अतः सहज ही समझा जा सकता है कि पृथ्वी पर सन्निकट पर्यावरणीय संकट एवं जलवायु परिवर्तन के लिए अगर कोई दोषी है तो वह केवल मान ही है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट महासचिव बान की मून ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन से दुनिया को युद्ध जितना ही खतरा है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपने पहले भाषण में बान की मून ने कहा कि पर्यावरण में बदलाव भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बड़ी वजहें बन सकते हैं। महासचिव ने विश्व में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस छोड़ने वाले अमेरिका से अपील की कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करे। उन्होंने कहा मानव युद्ध से अधिक खतरा ग्लोबल वार्मिंग से है, इसलिए पर्यावरण रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्त राष्ट्रों के बीच बेहतर समन्वय की जरूरत है।

इस संकट का सबसे बड़ा कारण सभ्यता, विकास और औद्योगिकरण के लिए कोयले और पेट्रोलियम पदार्थों जैसे फासिल फ्यूएल्स का अंधाधुंध उपयोग, जनसंख्या वृद्धि, जल को बेहिसाब उपयोग, वनों की अंधाधुंध कटाई, वायुमंडल का सुरक्षा कवच ओजोन परत, जो सूर्य के खतरनाक रेडिएशन को रोकता है, उसका खतरे में पड़ना, जीव-जंतु का लगातार कम होना, ये सब ऐसे कारण हैं, जिससे विश्व का मानव समुदाय भयाक्रांत है। इस समस्या के समाधान के लिए पूर्व में बर्सिलोना तथा क्योटो शहर में तमाम देशों की बैठकें हो चुकी हैं। हाल ही में कोपेनहेगेन (दिसंबर 7 से 18, डेनमार्क) में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैठक हुई है। भारत ने भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में स्वेच्छा से कटौती का फैसला ले लिया है।

पर्वतों पर आच्छादित बर्फ सूर्य की किरोणों को वापस अंतरिक्ष में भेजकर पृथ्वी को ठंडा रखती है। ऐसे हिम चादर के पिघलने से समुद्र तटीय दुनिया के आधी आबादी के शरण स्थल में बाढ़ से तबाही का खतरा मंडरा रहा है। पृथ्वी का तापमान 1520 सेंटीग्रेड से 1532 डिग्री सेंटीग्रेड हो चुका है। 40 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 27 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। सन् 2003 में 45 हजार लोगों की मृत्यु यूरोप में दो हफ्ते के भीतर हुई थी।

समुद्र तटों तथा बड़ी नदी के मुहानों पर बसे मुंबई, चेन्नई, देश की राजधानी दिल्ली जैसे दुनिया के बड़े शहरों के सिर पर बाढ़ का खतरनाक साया मंडराने लगा है। समुद्री जल के स्तर में बढ़ोत्तरी से तटीय क्षेत्र के मीठे पानी के स्रोतों में खारा पानी मिल जाने से समूचे इकोस्सिटम असंतुलित हो जाएगा। सूखा, गर्म हवाएं (लू) चक्रवात, तूफान और झंझावात जैसी आपदाएं जल्दी-जल्दी आने लगेंगी। कृषि उपज में प्रतिकूल परिवर्तन, गर्मियों में जलधारा में कमी, प्रजातियों का लोप और रोगवाही जीवाणुओं के प्रकार व मात्रा में वृद्धि हो जाएगी। मच्छरों का प्रकोप बढ़ेगा। वनों, खेतों और शहरों में नए-नए कीड़े-मकोड़े का आतंक बढ़ सकता है, जिससे मच्छर-जनित रोग बढ़ेगे।

ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के सबसे बड़े स्रोत कोयले से ऊर्जा (60 प्रतिशत), वनों का ह्रास (18 प्रतिशत), खेती (14 प्रतिशत), औद्योगिक प्रक्रियाएं (4 प्रतिशत) और अपशिष्ट (4 प्रतिशत) है। विकासशील देशों ने जहां विश्व की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी निवास करती है। 1751 से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जित भंडार में सिर्फ 20 प्रतिशत का योगदान किया है। बड़े विकासशील देशों जैसे कि भारत, चीन, ब्राजील व दक्षिण कोरिया अभी भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में विकसित देशों से कई गुना पीछे हैं। विश्व बैंकों के अनुसार जहां विकसित देशों में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 13 टन है, विकासशील देशों में यह 3 टन से भी कम है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत की तुलना में 20 गुना अधिक है। विश्व में सिर्फ 15 प्रतिशत जनसंख्या के साथ अमीर देश कार्बन डाइऑक्साइड के 47 प्रतिशत से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।

भारतवर्ष ओजोन परत को सुरक्षित रखते हुए मानवता के रक्षा के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है। भारत मांट्रियल संघ (1987) में इंग्लैंड संशोधन के साथ सन् 1992 में शामिल हुआ और हमारे यहां ओजोन प्रकोष्ठ एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में उसी समय से काम कर रहा है। ओजोन प्रकोष्ठ की स्थापना ही ओजोन परत को नष्ट होने से बचाने के लिए की गई है। इसके अतिरिक्त हमारा देश पर्यावरण परिवर्तन के विषय में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का भी सदस्य है। इस संबंध में ग्रीनिंग इंडिया के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं में अनुदान देकर सहायता भी की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम में भारतवर्ष में भू-क्षरण पर राष्ट्रीय स्वक्षमता आवश्यकता आंकलन का कार्य भी शुरू किया है। इन सबके अलावा भारत सरकार का विशेष प्रयास पर्यावरण शिक्षा और प्रशिक्षण के विषय मे जन-जागरुकता का प्रचार-प्रसार भी करना है।

250 वर्ष के विश्व इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि अत्यधिक भोग ने भूमि का दोहन अंतिम सीमा तक कर लिया है। जिस मशीनी युग का विकास व्यक्ति के सुख के लिए किया गया है, वहीं उसके दुःख का कारण बन गया है। प्रतिवर्ष 63000 वर्ग मील जंगल नष्ट हो रहे हैं। सन् 2030 तक ऊर्जा की मांग 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती है, जिसमें भारत और चीन की जरूरत सबसे ज्यादा होगी। विश्व का 40 प्रतिशत मीठा पानी वर्तमान में पीने योग्य नहीं रह गया है। विश्व के दो लाख लोग प्रतिदिन गांवों या छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर जा रहे हैं। इससे भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है।

विश्व पर्यावरण दिवस को हम भले ही सन् 1972 से मनाते आए हैं। पर, ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने पर्यावरण दिवस मनाने का इंतजार नहीं किया और अपने ही स्तर पर वे पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ते रहे।

बिरसा मुंडा – छोटा नागपुर क्षेत्र में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को उनके जंगल के अधिकारों के संबंध में जागृत किया और उनके अधिकारों के लिए खुद भी लड़ाई लड़ी। सन् 1900 में अंग्रेजों की कैद में उनकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गई।

चिको मेंडास – ब्राजील के चीको को मजदूरों का नेता कहा जाता था। वे रबर उत्पादक कंपनियों से मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे। इसी दौरान उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि अगर लागातर पेड़ कटते रहे तो ब्राजील के रेन-फॉरेस्ट का नामोनिशान मिट जाएगा। उन्होंने इन कंपनियों का बड़े पैमाने पर विरोध करना आरंभ कर दिया। लगातार कई वर्षों तक विरोध करने के बाद सन् 1988 में उनकी हत्या हो गई।

केनसारो वीवा- नाइजीरिया की सरकार व वहां मौजूद तेल कंपनियों ने ओगोनो क्षेत्र में पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया था। केनसारो वीवा ने इसका काफी विरोध किया था तथा अहिंसक आंदोलन भी चलाया। सन् 1995 में उन्हें फांसी दे गई।

रेशल कारसन- रेशल की सन् 1962 में लिखी किताब साइलेंट स्प्रिंग ने पेस्टिसाइड्स तथा इंडस्ट्रियल केमिकल्स के प्रति लोगों का नजरिया बदल दिया। इस किताब के बाद पेस्टिसाइड्स बनाने वाली कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा।

लुईस गिव्स- घरेलू महिला लुईस को सन् 1978 में इस बात का एहसास हुआ कि वे जिस क्षेत्र में रह रही हैं, वह जहरीले कचरे को फेंकने का स्थल था। यह अमेरिका में नियाग्रा फॉल्स के पास स्थित लव केनाल क्षेत्र था। लुईस ने इस संबंध में पहल की और काफी बड़ा आंदोलन किया जो सफल रहा।

मसानोबू फुकोओका- जापान के माइक्रोबॉयलाजिस्ट की किताब ‘द वन स्ट्रा रिवोल्युशन 1978’ ने छोटे किसानों की आवाज उठाई। उनकी इस किताब के बाद ही कई किसान आर्गेनिक खेती करने के लिए प्रेरित हुए।

जलवायु परिवर्तन ठीक करना वैश्विक जिम्मेदारी है। हम इसे नहीं निभा रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण में बढ़ोतरी के लिए धनी और औद्योगिक देश जिम्मेदार हैं तो अन्य देश भी आंशिक रूप से इसमें शामिल हैं, वहीं संपूर्ण मानव समाज भी इसके लिए दोषी है। आज पर्यावरण जितना बिगड़ चुका है, उसका पैसे से हिसाब लगाया जाए तो उस पैसे से पूरी धरती यानी दुनिया भर के वंचित समाजों की गरीबी दूर की जा सकती है। ऐसा हो जाए, तब वास्तव में धरती को बेचने की कोशिशें ईमानदारी से फलीभूत हो सकती हैं।

प्रदेश संयोजक, चेतना साहित्य एवं कला परिषद प्रदेश महासचिव, विकास संस्कृति साहित्य परिषद् छत्तीसगढ़ सदन, कैलाशपुरी, रायपुर (छ.ग.)
 

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