जलवायु परिवर्तन से निबटने को हम हैं तैयार

10 Nov 2014
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Agriculture
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जलवायु परिवर्तन का असर भारत ही नहीं पूरे विश्व में पड़ रहा है। स्वाभाविक है कि जब जलवायु परिवर्तन होगा तो किसी-न-किसी रूप में उसका असर हमारी कृषि पर पड़ेगा और कृषि के प्रभावित होने का मतलब है कि हमारी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। इसीलिए सरकार की कोशिश है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने के लिए समय रहते विकल्प ढूंढ़ लिया जाए। भारतीय वैज्ञानिक भी इस क्षेत्र में दो कदम आगे निकल गए हैं। उन्होंने किसानों को कई ऐसे नायाब तोहफे देने की तैयारी कर ली है जिसकी वजह से जलवायु परिवर्तन के बाद भी किसान अधिक उपज पैदा कर सकेंगे और देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान कायम रख सकेंगे। जलवायु परिवर्तन को लेकर पूरे विश्व में हाहाकार मचा हुआ है। ऐसे में भारतीय वैज्ञानिकों ने नायाब तरीका ढूंढ निकाला है। वे जलवायु परिवर्तन से खेती को बेअसर कराने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। भारतीय वैज्ञानिक न सिर्फ मानसून सहित विभिन्न अध्ययनों के लिए उपग्रह विकसित कर रहे हैं बल्कि बाढ़ और सूखे के मद्देनजर नई किस्म की फसलें विकसित कर रहे हैं। यह फसलें बिना पानी के भी तैयार होंगी और बाढ़ में डूबने के बाद भी सड़ेंगी नहीं।

जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव कृषि पर पड़ता है। भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा पैदा कर रहा है।

वैज्ञानिकों की ओर से पेश की गई रिपोर्ट में इस बात के पुख्ता संकेत मिले हैं कि जलवायु परिवर्तन से खेती के अलावा खेती से जुड़े अन्य आर्थिक साधन भी प्रभावित होंगे। मसलन पशुपालन, मछली पालन आदि। क्योंकि ये भी किसी-न-किसी रूप में पौधों पर निर्भर हैं।

वर्ष 2005 में आई एक अध्ययन रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 1960 के बाद औसत तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इसकी वजह से मानसून में उथल-पुथल होगी और कहीं सूखे तो कहीं बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होगी, जिसकी वजह से उत्पादन घट सकता है। इतना ही नहीं समुद्र के जलस्तर में एक मीटर बढ़ोतरी की उम्मीद जताई गई।

समुद्र के स्तर में वृद्धि होना भी कृषि के लिए हानिकारक है क्योंकि जलस्तर बढ़ने से दक्षिण-पूर्व एशिया में कटाव, डूब आदि का खतरा बढ़ेगा। फिर बाढ़ से कृषि क्षेत्र प्रभावित होंगे। आंकड़े बताते हैं कि बांग्लादेश, भारत और वियतनाम में बाढ़ के कारण भारी संख्या में धान का उत्पादन प्रभावित हुआ है। अकेले भारत में नदियों का जलस्तर तेजी से गिरा है।

बारह माह बहने वाली नदियां ठहर-सी गई हैं। जिन नदियों में पानी बचा है, वह काफी गंदा हो चुका है। अकेले गंगा नदी पीने के अलावा खेती के लिए भी लगभग 500 मिलियन लोगों को पानी उपलब्ध कराती है। ऐसे में स्वाभाविक है जब जलस्तर कम होगा तो ये लोग प्रभावित होंगे।

वास्तव में जलवायु परिवर्तन का असर खासतौर से 1950 के बाद औद्योगिक क्रान्ति के दौरान देखने को मिला। जिस तरह से औद्योगिक क्रांति को बढ़ावा मिला और हमने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू किया। नदियों का पानी कंपनियों में पहुंचा। साथ ही कंपनियों से निकलने वाला धुआं और अन्य अवशिष्ट पदार्थ नदियों में मिलता गया। इस तरह जल प्रदूषण धुंआधार बढ़ा। शेष कार्य भूमि के उपयोग में परिवर्तन के कारण से होता है विशेषकर वनों की कटाई से ऐसा होता है। पेड़-पौधों की कटाई कर बस्तियां बसा दी गई तो कहीं फैक्ट्रियां लगा दी गई।

औद्योगिक क्रान्ति के बाद से गतिविधि में वृद्धि हुई, जिसके कारण ग्रीन-हाउस गैसों की मात्रा में बहुत ज्यादा वृद्धि हुई। फिर मीथेन, ओजोन, सीएफसी सहित अन्य समस्याएं सामने आई। ऐसा नहीं है कि यह हाल सिर्फ भारत में हुआ बल्कि यह हालात पूरे विश्व में दिखे।

यही वजह है कि प्रमुख औद्योगिक देशों में जलवायु परिवर्तन की मार ज्यादा पड़ रही है। स्पष्ट है कि मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण की ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि हुई।

वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसें


ग्रीनहाउस प्रभाव की खोज 1824 में जोसेफ फोरियर द्वारा की गई थी। 1896 में पहली बार स्वेन्टी आरहेनेस द्वारा इसकी मात्रात्मक जांच की गई थी। इसके बाद हम अवशोषण और उत्सर्जन के साथ ही विकिरण द्वारा वातावरण में गर्म गैसों के प्रभाव से भी वाकिफ होने लगे।

यह भविष्यवाणी भी



ग्लोबल वार्मिंगग्लोबल वार्मिंगएक अध्ययन के तहत भविष्यवाणी की गई है कि वर्ष 2050 तक 18 से 35 फीसदी पशु और पौधों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। यह बात 1103 पशु और पौधों के एक नमूने पर आधारित है लेकिन कुछ ही यंत्रवत अध्ययनों ने जलवायु परिवर्तन के कारण जीवों के विलुप्त होने का अनुमान लगाया है। इतना ही नहीं उष्णकटिबंधीय बीमारियों के फैलने की भी आशंका जाहिर की गई है।

जलवायु परिवर्तन का असर


चेरापूंजी में गिरा बारिश का ग्राफ
पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय स्थित चेरापूंजी अपनी भारी बारिश की वजह से ही गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज था, लेकिन अब यह इलाका जलवायु परिवर्तन की चपेट में है। बारिश और गरजते बादल ही सदियों से चेरापूंजी की सबसे बड़ी धरोहर रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से यह धरोहर अब धीरे-धीरे उसके हाथों से निकलती जा रही है। दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश का रिकॉर्ड बनाने वाला चेरापूंजी अब खुद अपनी प्यास बुझाने में भी नाकाम है। यहां बारिश साल-दर-साल कम होती जा रही है।

पांच-छह साल पहले तक यहां सालाना लगभग 1100 मिमी. बारिश होती थी। अब यह आंकड़ा मुश्किल से छह सौ तक पहुंचता है यानी बारिश पहले के मुकाबले लगभग आधी हो गई है। इलाके में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के आरोप लगते रहे हैं। मौसम विभाग के एक अधिकारी डी.के. संगमा की मानें तो लगातार भारी बारिश की वजह से इलाके में लाइम स्टोन यानी चूना पत्थर की चट्टानें नंगी हो गई हैं। उन पर कोई पौधा तो उग नहीं सकता।

नतीजतन इलाके से हरियाली तेजी से खत्म हो रही है। बांग्लादेश की सीमा से लगे चेरापूंजी से अब हर साल जाड़े और गर्मियों में पानी की भारी किल्लत हो जाती है। यह विडंबना ही है कि स्थानीय लोगों को अब पीने का पानी खरीदना पड़ता है।

एक बाल्टी पानी के लिए छह से सात रुपए देने पड़ते हैं। लंबे अरसे तक यह गांव चेरापूंजी के नाम से जाना जाता रहा, लेकिन बीते साल इसका नाम बदलकर सोहरा कर दिया गया है।

पहले इसका नाम ही साहरा था। नाम इस उम्मीद में बदला कि शायद इससे किस्मत भी बदल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। चेरापूंजी में बादल और बरसात ही पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। इसका प्राकृतिक सौंन्दर्य पर्यटकों को घंटों बांधे रखने में सक्षम है, लेकिन अब बादल घटते जा रहे हैं और शायद पर्यटक भी। वैसे संगमा का दावा है कि पर्यटक अब भी चेरापूंजी आते हैं। वे कहते हैं कि शिलांग आने वाले पर्यटक चेरापूंजी जरूर आते हैं।

पर्यटक आते जरूर हैं, लेकिन उनको निराशा ही हाथ लगती है। कोपेनहेगेन सम्मेलन से इस सूखते कस्बे की प्यास बुझाने की क्या कोई राह निकलेगी। इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा, लेकिन तब तक शायद यह कस्बा पानी की एक-एक बूंद का मोहताज हो जाएगा।

खतरे में बंदर प्रजाति


ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बंदरों की कुछ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। दुनिया भर में बंदरों की विभिन्न प्रजातियों के व्यवहार, आहार और आकार का विश्लेषण वहां की जलवायु के साथ करने के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक सबसे ज्यादा खतरा तो गुरिल्ला प्रजाति को है। इस समय केवल 50 गुरिल्ला जंगलों में हैं। तापमान में महज दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से कोलोबाइन्स सरीखी पत्ते खाने वाली अफ्रीकी बंदरों की प्रजाति विलुप्त हो जाएगी।

वह पहले ही एक छोटे से क्षेत्र में सिमटकर रह गए हैं। चार डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से दक्षिण अमेरिका के बंदर मुश्किल में पड़ जाएंगे। हालांकि अफ्रीका की बबून प्रजाति की तरह फलों पर जिंदा बंदर अधिक तापमान सह सकते हैं।

टूटेगा गर्मी का रिकॉर्ड


वर्ष 2010 दुनिया का ऑन रिकॉर्ड सबसे गर्म साल हो सकता है। ब्रिटिश मौसम विभाग ने यह भविष्यवाणी की है। मौसम विज्ञानियों के पास 160 साल के मौसम का रिकॉर्ड है। इसमें 1998 को सबसे गर्म साल माना जाता है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों का कहना है कि 2010 के सबसे गर्म साल बनने के पीछे इंसानों की कारगुजारियों से मौसम में आया बदलाव भी एक वजह हो सकती है। एक विदेशी अंग्रेजी खबर के मुताबिक, इस बार अल नीनो इफेक्ट 1998 के मुकाबले ज्यादा कमजोर है। लेकिन ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन से पैदा होने वाला वॉर्मिंग इफेक्ट ज्यादा रहने की संभावना है। इसी वजह से 2010 सबसे गर्म साल बन सकता है।


ग्लोबल वार्मिंगग्लोबल वार्मिंगमौसम विज्ञानियों ने भविष्यवाणी की है कि अगले साल दुनिया का औसत तापमान 1961 से 1990 के औसत तापमान के मुकाबले करीब 0.6 डि.से. ज्यादा रहेगा। वर्ष 2010 में सालाना औसत तापमान 14.58 सेल्सियस रहने की संभावना है।

मौसम विभाग का यह भी कहना है कि 2010 से 2019 के बीच आधे से ज्यादा वर्ष तापमान 1998 के मुकाबले ज्यादा गर्म रहने की आशंका है। यह चिंता की बात है। हालांकि उनका यह भी कहना है कि ऐसा नहीं है कि 2010 में तापमान का रिकॉर्ड टूटना निश्चित है। अगर अल नीनो का मौजूदा इफेक्ट सामान्य से कम हो गया या कहीं भयानक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ तो ऐसा नहीं भी हो सकता है। वैसे, 2010 के सबसे गर्म साल होने की भविष्यवाणी पर सभी एक्सपर्ट एकमत नहीं हैं।

ग्रीनपीस के बेन स्टीवर्ट कहते हैं कि अगर 2010 ऑन रिकॉर्ड सबसे गर्म साल रहा तो मिथक सच साबित होता जाएगा कि हम ग्लोबल कूलिंग की तरफ बढ़ रहे हैं। असलियत में दुनिया लगातार गर्म होती जा रही है और इसके लिए इंसान ही जिम्मेदार हैं।

जलवायु परिवर्तन के बाद भी खेती बचाने की कोशिश


जलवायु परिवर्तन का असर कृषि पर न पड़े, इसके लिए पूरी दुनिया के वैज्ञानिक लगातार प्रयोग में जुटे हैं। भारत के वैज्ञानिकों ने भी इसे चुनौती स्वरूप लिया है और इस चुनौती से जूझने को वे तैयार हैं।

जलवायु परिवर्तन के बाद भी कृषि पर कोई खास असर न पड़े और किसानों को परेशानी का सामना न करना पड़े, इसके लिए वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित तरकीब निकाली है। इस तरकीब के जरिए वह किसानों को राहत देने में जुटे हुए हैं।

क्लाइमेट चेंज पर सेटेलाइट


जलवायु परिवर्तन को देखते हुए वैज्ञानिकों को हर पल पर नजर रखने का निर्णय लिया गया है। सरकार की ओर से भी इस संबंध में भरपूर सहयोग देने का भरोसा दिया गया है। कुछ दिन पहले वैज्ञानिकों के एक सेमिनार को संबोधित करते हुए पर्यावरण मंत्री ने भरोसा जताया था कि वैज्ञानिक अपनी जरूरतें बताए, वह उसे उपलब्ध कराने में पीछे नहीं हटेंगे। जलवायु परिवर्तन से कृषि को बचाना हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है।

इस चुनौती का सामना करने के लिए सरकार तैयार है, बस वैज्ञानिक स्थितियों से वाकिफ कराते रहे और अपनी जरूरतें बताते रहे। अब जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन के लिए भारत एक सेटेलाइट लांच करने की तैयारी में है। समुद्री विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि पिछले चार साल में नौ मिलीमीटर की बढ़ोतरी हो चुकी है।

सरल अल्तिका सेटेलाइट नासा फ्रांस की अंतरिक्ष एजेंसी के उपग्रह जैसन-2 के काम में मदद करेगा। भू-विज्ञान मामलों के मंत्रालय में सचिव शैलेश नायक का कहना है कि सरल अल्तिका आंकड़े जुटाने में समुद्री विशेषज्ञों की मदद करेगा।

सरल अल्तिका में के.ए. बैंड एल्टीमीटर हैं, जिसके चलते यह मौजूदा उपग्रहों की तुलना में ज्यादा सटीकता से समुद्र स्तर में वृद्धि को नापेगा। इस तरह हम स्थिति से निबटने के लिए पूर्व में ही तैयार हो जाएंगे।

मानसून की तह खंगालेगा ‘मेघा ट्रापिक्स’ उपग्रह


हमारे देश में एक बड़ी समस्या है बाढ़ और सूखा। आए दिन कहीं बाढ़ के कारण हजारों एकड़ फसलें तबाह हो जाती है तो कहीं सूखे के कारण।

इस वर्ष जहां दक्षिणी भारत के विभिन्न प्रदेशों में बाढ़ ने तबाही मचाई वहीं उत्तर भारत का 40 फीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में रहा। इसका असर सीधे तौर पर हमारे अनाज उत्पादन पर किसी न किसी रूप में पड़ा। जाहिर-सी बात है कि बाढ़ और सूखे से प्रभावित इलाके के किसान तबाह हो गए। उनके सारे सपने मिट्टी में मिल गए।

जलवायु परिवर्तन की वजह से न सिर्फ कृषि बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी असर पड़ने की संभावना है। चूंकि कृषि भारत में मूल आधार है। जब तक कृषि का विकास नहीं होगा तब तक देश व समाज का विकास नहीं हो सकता है। इसी अवधारणा को मानते हुए केन्द्र सरकार की ओर से हर विभाग को अपने स्तर से पहल करने को कहा गया है। अब ऊर्जा मंत्रालय ने भी अपने स्तर से पहल शुरू कर दी है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नई इमारतों को अब ग्रीन रेटिंग मानकों का अनिवार्य रूप से पूरी तरह पालन करने के निर्देश दिए हैं। किसानों की तबाही का किसी-न-किसी रूप में असर हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ना निश्चित है। ऐसी नौबत दोबारा न आए, इसके लिए इसरो के वैज्ञानिकों ने विशेष उपग्रह तैयार किया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की ओर से तैयार यह उपग्रह मानसून चक्र, बाढ़, सूखा, चक्रवात आदि के बारे में जानकारी देगा।

अत्याधुनिक उपग्रह ‘मेघा ट्रापिक्स’ का 2010 के दूसरे उतरार्द्ध में प्रक्षेपण होगा। इस उपग्रह के माध्यम से दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में शोध किए जाएंगे, जिसमें सागरीय वायुमण्डल और ऊर्जा विशेषतौर पर बादल से जुड़े विषय शामिल हैं। उपग्रह में माइक्रोवेव इमेजर लगा होगा, जिसके माध्यम से वर्षा और वायुमण्डलीय तत्वों की संरचना के अलावा सागरीय सतहों एवं वायु की गति का अध्ययन किया जाएगा।

अधिकारी ने कहा कि उपग्रह के प्रक्षेपण के बाद सेंसर से जुड़े महत्वपूर्ण कार्य पूरे कर लिए जाने के बाद इससे प्राप्त आंकड़े वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के लिए उपलब्ध होंगे, जिसमें आठ से नौ महीने का समय लग सकता है।

केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने एक समारोह को संबोधित करते हुए कहा था कि कृषि, परिवहन, ऊर्जा जैसे जीवन संबंधी सभी महत्वपूर्ण क्षेत्र मौसम और जलवायु से जुड़े हुए हैं। ऐसे समय में मौसम का सटीक आकलन महत्वपूर्ण हो जाता है। इस उद्देश्य के लिए जल्द ही हम ‘मेघा ट्रापिक्स’ उपग्रह प्रक्षेपित करेंगे। यह भारत-फ्रांस के बीच संयुक्त उद्यम मिशन होगा।

आपदा झेल सकने वाली फसलें विकसित कर रहे हैं वैज्ञानिक


जलवायु परिवर्तन को देखते हुए हमारे वैज्ञानिक भी सतर्क हो गए हैं। भारत में खेती बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है और इसके कमजोर होने से खेती भी चौपट हो जाती है। लेकिन आने वाले सालों में सूखे की आपदा के दौरान भी फसलें खेतों में लहलहाती दिखेंगी। भारतीय वैज्ञानिक ऐसी फसलें तैयार करने में जुटे हुए हैं। उनकी कोशिश है कि ऐसी फसलें विकसित की जाएं, जिन पर पानी का विशेष असर नहीं हो। अगर धान की खेती पूरी तरह से बाढ़ में डूब जाए, तो भी बची रहे। इसी तरह कुछ ऐसी भी फसलें विकसित की जा रही हैं जो बिना पानी के भी उपज दे सकें। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक डॉ. स्वप्न दत्ता ने कुछ दिन पहले जारी एक बयान में कहा था कि परिषद किसानों की समस्या से वाकिफ है।

परिषद किसानों की समस्याओं के निस्तारण के लिए हर संभव कोशिश में जुटी है। उन्होंने कहा कि नई किस्मों का फिलहाल परीक्षण किया जा रहा है। खाद्य सुरक्षा और सतत कृषि विकास पर वर्कशाप में भाग लेने के बाद उन्होंने यह भी कहा कि बाढ़ में भी उपज देने वाली धान की किस्म अगले दो से तीन साल में बाजार में आ जाएगी। इससे हमारी समस्या काफी हद तक दूर हो जाएगी। बाढ़ में उपज देने वाली धान की किस्म के बारे में दत्ता ने कहा था कि ये किस्में पानी के भीतर दो हफ्ते तक बची रह सकती हैं।

यदि दो हफ्ते में पानी कम हो जाता है तो उनकी उपज पर विशेष असर नहीं पड़ेगा। बाढ़ के दौरान पौधों में उपापचय और फोटोसिंथेसिस; प्रकाश संश्लेषण की क्रियाएं काफी धीमी हो जाती हैं। लेकिन धान की नई किस्म बाढ़ के दौरान दो सप्ताह तक आसानी से खड़ी रह सकेगी। पानी में डूबे रहने के दौरान यह पौधे एथनॉल बनाएंगे, जो उन्हें जीने के लिए ऊर्जा देगा।

पानी घटने के बाद यह पौधे फिर सामान्य तरह से क्रिया करने लगेंगे। आमतौर पर भारत में एक बड़ा हिस्सा बाढ़ की चपेट में आ जाता है। इससे हजारों एकड़ धान की फसल बर्बाद हो जाती है।

सूखे में तैयार होगी सब्जी



वैज्ञानिकों की ओर से यह भी कोशिश की जा रही है कि सब्जियों की कुछ ऐसी प्रजाति विकसित की जाए, जो बिना पानी के तैयार हो सकें। इसके लिए वे रिसर्च कर रहे हैं। टमाटर, बैंगन, बंदगोभी के साथ ही मक्का की भी नई किस्में विकसित की जा रही हैं। इन फसलों की किस्मों को इस रूप में तैयार किया गया है जिससे ये सूखे की स्थिति में भी उपज दे सकें।

देश में जीएम बैंगन को लेकर भले अभी उहापोह की स्थिति है, लेकिन सूखे में खेती के मामले को लेकर वैज्ञानिक खासा उत्साहित हैं।

बैंगन बनेगा पहली जेनेटिक सब्जी


अगर जीएम बैंगन को पूरी तरह से मंजूरी मिली तो बैंगन देश की पहली जेनेटिक सब्जी बन जाएगा। हालांकि जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने तो इसे अपनी तरफ से मंजूरी दे दी है। जीईएससी की बैठक में कृषि मंत्रालय, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), स्वास्थ्य मंत्रालय और खाद्य मंत्रालय समेत कई गैर-सरकारी सदस्य शामिल थे। अब यह प्रस्ताव पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के पास मंजूरी के लिए भेजा गया है।

पर्यावरण मंत्रालय से मंजूरी के बाद इसे बाजार में उतारा जाएगा। आईसीएआर के उपमहानिदेशक व कमेटी के सदस्य डॉ. स्वप्न दासगुप्ता की मानें तो बीटी बैंगन विभिन्न जाचं व परीक्षणों में खरा पाया गया है। बीटी बैंगन की खेती में जहां लागत कम आएगी, वहीं पैदावार अधिक होगी। साथ ही इसकी खेती पर्यावरण के अनुकूल है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बीटी बैंगन सुरक्षित है। डॉ. दासगुप्ता के मुताबिक बीटी बैंगन समेत पूरे माहौल में कीटनाशकों की कमी होती है जबकि सामान्य बैंगन की फसल पर कीटनाशकों का भारी छिड़काव करना पड़ता है। इतना ही नहीं इसमें पानी की भी कम जरूरत पड़ती है। यानी विपरीत परिस्थितियों में भी इसकी खेती कर किसान लाभ कमा सकते हैं।

इमारतों को ग्रीन रेटिंग


जलवायु परिवर्तन की वजह से न सिर्फ कृषि बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी असर पड़ने की संभावना है। चूंकि कृषि भारत में मूल आधार है। जब तक कृषि का विकास नहीं होगा तब तक देश व समाज का विकास नहीं हो सकता है। इसी अवधारणा को मानते हुए केन्द्र सरकार की ओर से हर विभाग को अपने स्तर से पहल करने को कहा गया है। अब ऊर्जा मंत्रालय ने भी अपने स्तर से पहल शुरू कर दी है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नई इमारतों को अब ग्रीन रेटिंग मानकों का अनिवार्य रूप से पूरी तरह पालन करने के निर्देश दिए हैं।

केन्द्रीय अक्षय ऊर्जा मंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय गृह ग्रीन रेटिंग समन्वित आवास आकलन सम्मेलन में कहा कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नई इमारतों को अब ग्रीन रेटिंग मानकों का अनिवार्य रूप से पूरी तरह पालन करने संबंधी फैसला सरकार ने लिया है। इसका उद्देश्य इमारतों को पर्यावरण हितैषी बनाना और ऊर्जा के उच्च लक्ष्यों को हासिल करना है। उन्होंने कहा कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नई इमारतों को अब ग्रीन रेटिंग समन्वित आवास आकलन के लिए ग्रीन रेटिंग के तहत कम से कम तीन स्टार रेटिंग प्राप्त करना जरूरी है।

डॉ. फारूक ने कहा कि पश्चिमी रेटिंग प्रणाली भारतीय जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ग्रीन रेटिंग समन्वित आवास आकलन (गृह) ने भारतीय इमारतों के लिए विशेष रूप से डिजाइन तैयार किए हैं। ऊर्जा संसाधन संस्थान के प्रमुख आर. के. पचौरी ने कहा कि एक भारतीय रेटिंग प्रणाली है जो टेरी के तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई है। ग्रीन इमारतों का मुख्य उद्देश्य कम-से-कम गैर-अक्षय स्रोतों की मांग और उनका कम इस्तेमाल करना है।

किसानों का देशी फंडा


इन दिनों जलवायु परिवर्तन के साथ ही खेत की उत्पादन क्षमता को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। खेत की उर्वरता प्रभावित हो रही है। ऐसे में अधिक-से-अधिक जैविक खाद का प्रयोग करने पर बल दिया जा रहा है। ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने एक नायाब तरीका खोजा है। वे देशी फंडे के जरिए फसल की उत्पादकता बढ़ाने में जुट गए हैं। हर खेत-चौराहे पर मिलने वाला बरगद ही उनका प्रमुख अस्त्र बन गया है। यही बरगद किसानों को बंपर पैदावार दिलाएगा।


ग्लोबल वार्मिंगग्लोबल वार्मिंगकिसान बरगद के पेड़ के नीचे की एक किलो मिट्टी को रेत में मिलाकर खेत में डालते हैं और उनका दावा है कि इससे उर्वराशक्ति में जबर्दस्त इजाफा होगा। किसानों द्वारा ईजाद किए गए इस देसी फार्मूले पर कृषि विभाग ने मुहर लगा दी है।

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि बरगद के नीचे वाली मिट्टी में अरबों की संख्या में सूक्ष्मजीवी होते हैं जो पैदावार बढ़ाने का काम करेंगे। हम उपज से परेशान किसानों ने यह प्रयोग किया और उनके खेत का उत्पादन बढ़ने लगा है। दरअसल ज्यादातर किसान खाद, पानी और बीज के महंगे होने से परेशान हैं। ऐसे में वह बिना पैसे के तैयार खाद को हाथों हाथ ले रहे हैं।

बरगद के पेड़ के पास की मिट्टी के खेत में इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। इससे पैदावार में गजब का इजाफा देखने को मिला। खुद कृषि वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग की सच्चाई को स्वीकार किया है।

कृषि वैज्ञानिक डॉ. शिवसिंह का कहना है कि यह फंडा कुछ किसानों द्वारा तैयार किया गया था। अच्छे नतीजे सामने आने के बाद अब कृषि विभाग भी किसानों को यह फंडा अपनाने की सलाह दे रहे हैं। सर्वप्रथम मिट्टी और रेत का मिश्रण जुताई से पहले खेत में डाला जाएगा। हफ्ते भर बाद खेत की जुताई की जाए। उसके बाद सिंचाई करके फसल की बुआई कर दें।

कृषि वैज्ञानिक डॉ. वरुणदेव सिंह का तर्क है कि बरगद के पेड़ के नीचे की मिट्टी में नमी अधिक होने के कारण जीवाश्म अधिक होते हैं। केंचुए की संख्या भी ज्यादा होती है। जब यह मिट्टी खेत में पहुंचती है तो यही जीवाश्म और केंचुए मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने का काम करते हैं।

कैसे करें मिट्टी का उपयोग


इस नुस्खे को आजमा चुके किसानों का कहना है कि वे बरगद के पेड़ की जड़ के बगल से एक किलो मिट्टी निकालकर उसे रेत में मिक्स करके खेत में डाल देते हैं। पेड़ के पास से जो मिट्टी उठाई जाती है उसमें अरबों की संख्या में इतने सूक्ष्मजीवी होंगे जो खेत में पहुंचते ही जमीन की उर्वराशक्ति को बढ़ाने का काम शुरू कर देंगे।

खेत के एक हिस्से में पहुंचने वाले यह जीवाणु कुछ ही दिनों में पूरे खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना देंगे।

(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

ई-मेल : shambhunath@gmail.com

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