ज़मीन के लिए पीढ़ियों का संघर्ष

2 Jan 2015
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नर्मदा नदी पर बन रहे ओंकारेश्वर बाँध के कारण डूब मे आ रहे 30 गाँव में से एक गाँव केलवा बुजुर्ग भी है, गाँव का जीरोठ फलिया भी डूब प्रभावित क्षेत्र के रूप मे घोषित किया गया। दरअसल भील आदिवासियों के इस फलिया के रहवासी पिछले 40 सालों से कक्ष क्रमांक 268 मे जंगल की जमीन पर अतिक्रमण कर खेती कर रहे है ,किन्तु इन रहवासियों के पास उपरोक्त जमीन का मालिकाना हक न होने के कारण डूब प्रभावितों के तौर पर मिलने वाले वाजिब हक से वंचित होना पड़ता। जबकि फलिया के रहवासी पिछले चालीस वर्षों से जंगल की जमीन पर खेती कर अपना जीवकोपार्जन कर रहे हैं।

1 जनवरी 2008 को अस्तित्व में आए ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता कानून 2006 नियम 2008’’ को 8 वर्ष पूरे हो गए हैैं। जंगल पर आश्रित लोग जंगल के दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त हैं। उसकी रक्षा उनका धर्म है और उनके बिना जंगल की रक्षा असम्भव है। इन्हीं पहलुओं पर विचार कर सरकार ने यह नया अधिनियम बनाया है। इसके माध्यम से पहली बार आदिवासियों को उनके द्वारा वर्षों से जोती जा रही जंगल की जमीन, सामुदायिक जंगल एवं आवास और आजीविका के अधिकारों को कानूनी मान्यता मिली है।

इस कानून को अंग्रेजों के जमानेे से आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों पर चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने हेतु औजार के रूप में देखा गया। लेकिन बीते इन वर्षों में यदि इसकी समीक्षा की जाए तो कानून अब तक अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सका है। मांगल्या के पुत्र और गाँव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति 98 वर्षीय भावसिंह कहते है कि हम कई सालों से उम्मीद लगाए बैठे थे कि जिस जंगल की जमीन को हम पीढ़ियों से जोत रहे है, उस जमीन पर एक-न-एक दिन हमें सम्मान से रहने और खेती करने का अधिकार जरूर मिलेगा और वर्षों के इन्तजार और तमाम संघर्षों के बाद आए वन अधिकार कानून से उन्हें उनकी यह उम्मीद पूरी होने का भरोसा था उनका यह सपना तमाम अवरोधों के बावजूद चली लम्बी प्रक्रिया के बाद पूरा हो गया, किन्तु अन्य वन निवासियों की तरह उन्हें भी जमीन का यह हक पाने के लिए कई तरह की व्यावहारिक और कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा। साथ ही सतत् रूप से लम्बा और थका देने वाला संघर्ष भी करना पड़ा।

वास्तविक रूप से देश में करोड़ों आदिवासी एवं गैर आदिवासी परिवार सदियों से अपनी संस्कृति और जीवनशैली के साथ जंगलों में गुजर-बसर कर रहे है ,किन्तु अब तक उन्हें लगातार जंगल से बेदखली, अत्याचार और आजीविका के संकट का सामना करना पड़ा। जबकि परम्परा से ही जंगल और आदिवासियों के रिश्ते बहुत प्रगाढ़ और जीवन्तता के रहे हैं और अब वन अधिकार कानून लागू होने से उन्हेें उनका पारम्परिक अधिकार मिल गया है।

किन्तु पूरे 8 वर्ष गुजर जाने के बाद भी कानून का क्रियान्वयन आज भी एक चुनौती की तरह बना हुआ है। जिससे जंगलवासियों को अपना पारम्परिक अधिकार पाने के लिए अपने जंगलवासी होने के सबूत देने सहित तमाम तरह की अन्य बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति के लिए बनाए गए वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन आज भी कई सवाल खड़ा कर रहा है। डेढ़ सौ साल के लम्बे अन्तराल के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि आदिवासियों एवं अन्य वन निवासियों पर ऐतिहासिक अन्याय हुआ है।

वर्षों से चली आ रही इस अन्याय को खत्म करने के लिए यह कानून अस्तित्व में आया। जिसके चलते आदिवासियों एवं अन्य वन निवासियों को वन एवं वनभूमि पर अधिकार दिए जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। जिससे जंगलवासियों द्वारा किए जा रहे संघर्ष में एक नया मोड़ आया है और ऐसे ही एक संघर्ष के परिणामस्वरूप पीढ़ियों से जंगल की जमीन पर खेती कर रहे जीरोठ फलिया के 113 परिवारों ने समान रूप से दो हेक्टेयर जमीन का यह अधिकार प्राप्त किया है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन के बैनर तले एकजुट हुए ओंकारेश्वर बाँध से प्रभावित जीरोठवासियों को आन्दोलन की पहल एवं तराशी संस्था की मदद से जमीन का यह हक पाने में सफलता मिली है। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें जमीन का नगद मुआवजा दिया गया है।

मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग मे स्थित पूर्वी निमाड़ के नाम से पहचाने जाने वाले खण्डवा जिले की पहचान नर्मदा नदी के सुन्दर तट ,पुरातात्विक धरोहर के अलावा नर्मदा नदी पर बन रहे बाँधों के कारण पूरे विश्व में हो गई है, जिले की तहसील पुनासा के सक्तापुर पंचायत के निर्भर गाँव केलवा बुजुर्ग के जिरोठ फलिया के निवासियों ने अपने संघर्ष के बूते जंगल की जमीन पर यह हक पाने में सफलता हासिल की है। इसके पीछे उनका पीढ़ियों से चला आ रहा संघर्ष उन्हें सफलता अर्जित करने के लिए प्रोत्साहित करता रहा।

नर्मदा नदी पर बन रहे ओंकारेश्वर बाँध के कारण डूब मे आ रहे 30 गाँव में से एक गाँव केलवा बुजुर्ग भी है, गाँव का जीरोठ फलिया भी डूब प्रभावित क्षेत्र के रूप मे घोषित किया गया। दरअसल भील आदिवासियों के इस फलिया के रहवासी पिछले 40 सालों से कक्ष क्रमांक 268 मे जंगल की जमीन पर अतिक्रमण कर खेती कर रहे है ,किन्तु इन रहवासियों के पास उपरोक्त जमीन का मालिकाना हक न होने के कारण डूब प्रभावितों के तौर पर मिलने वाले वाजिब हक से वंचित होना पड़ता। जबकि फलिया के रहवासी पिछले चालीस वर्षों से जंगल की जमीन पर खेती कर अपना जीवकोपार्जन कर रहे हैं।

किन्तु बेदखली की प्रक्रिया शुरू होने के पूर्व 1 जनवरी 2008 में आए ‘‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2008 नामक कानून के चलते उन्हें उपरोक्त जमीन का हक मिल गया। जमीन का यह हक पाने के लिए उन्हें सबसे पहले साक्ष्य के साथ दावेदारी की प्रक्रिया शुरू करना पड़ा, सबसे पहले उन्हें कानून के बारे मे विस्तार से जानकारी दी गई तत्पश्चात् फार्म भरने के पूर्व वंशवृक्ष के माध्यम से गाँववासियों द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी जानकारी ली गई। फिर शुरू हुआ दावे फार्म भरने का सिलसिला जो कई सत्रों में पूरा हुआ।

विभिन्न चरणों में हुए काम के आधार पर लगभग 4 वर्ष के अन्तराल के बाद वह इस जमीन के हकदार हो गए। दरअसल बेदखली की प्रक्रिया के दौरान आया यह कानून उनके लिए मील का पत्थर साबित हुआ। और अप्रैल 2008 से उन्होंने दावे करने की व्यवस्थित प्रक्रिया शुरू की, यह प्रक्रिया दावा फार्म भरने से लेकर ग्राम वन अधिकार समिति को दावे जमा करने, ग्रामसभा की कार्यवाही करने एवं ब्लाक से लेकर जिला स्तर तक चली। उपरोक्त प्रक्रिया के दौरान साक्ष्य जुटाने से लेकर विभिन्न समितियों द्वारा जानकारी लेने के लिए सूचना के अधिकार कानून का सबसे ज्यादा उपयोग किया गया।

दावे के लिए दावेदारों द्वारा कानून में माँगे गए सम्पूर्ण साक्ष्य पर्याप्त होने एवं ग्रामसभा, ग्राम वन अधिकार समिति एवं ब्लाक समिति द्वारा मान्य किए जाने के बावजूद इन्हें जिला समिति द्वारा पूर्व में अमान्य कर दिया गया था, जबकि कानून होने के बावजूद दावेदारों को दावे निरस्त करने के कारणों के बारे में जानकारी नहीं दी गई और न ही कोई अपील करने का मौका दिया गया।

जिला स्तर समिति द्वारा दावे अमान्य किए जाने के बाद दावेदारों को अपना हक पाने के लिए अन्ततः हाईकोर्ट जबलपुर की शरण लेनी पड़ी। आन्दोलन की मदद से 6 दावेदारों ने मिलकर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की। जिसके निर्णय मे हाईकोर्ट ने 11 अक्टूबर 2010 को जिला समिति को ग्रामसभा एवं उपखण्ड समिति की अनुशंसा के अनुरूप पुनः विचार करने के आदेश दिए और कहा कि जब तक आदिवासियों की पुनर्व्यवस्थापन कार्यवाही पूर्ण नहीं हो जाती तब तक निष्कासन कानून के विरूद्ध है।

जिला समिति को वन अधिकार कानून के तहत् पुनः जाँच करने एवं जाँच के परिणाम आने तक न हटाए जाने की बात कही। यह प्रक्रिया चार माह के अन्दर पूरा करने की बात कही गई। इस निर्णय के आधार पर जिला समिति ने पुनः प्रक्रिया चलाकर इन दावों को मान्य कर 113 परिवारों को 5-5 एकड़ जमीन के अधिकार पत्र (पट्टे) का वितरण कर दिया। सरकार ने जीरोठ वासी 113 परिवारों मे प्रति परिवार को 11,32,450रुपए मुआवजा वितरित किया है। इस तरह तीन साल चली लम्बी प्रक्रिया के बाद कुल 12 करोड़ 79 लाख रुपए का मुआवजा प्रदान किया गया है।

कानून के मुताबिक सम्पूर्ण साक्ष्य होने एवं वाजिब हकदार होने के बावजूद भी इन दावेदारों को अपना हक पाने के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ा। जबकि सभी दावेदारों के दस्तावेज में वास्तविक हकदार होने के कई प्रमाण मिले जिनमें मतदाता परिचय पत्र ,राशन कार्ड जैसे जरूरी दस्तावेजों के अलावा वन विभाग द्वारा विभिन्न वर्षों में काटी गई जुर्माना रसीदें प्रमुख थी ,जबकि वास्तव में वह उस अवधि के पहले से ही खेती कर रहे थे। जिसके बारे में गाँव के बुजुर्ग आज भी कई कहानियाँ सुनाते हैं।

गाँव के इतिहास से रू-ब-रू कराते जीरोठ के निवासी डेवा बताते है कि उनके पिता सुरसिंह एवं गाँव के दूसरे बुजुर्ग भावसिंह ने मिलकर अजनार नदी के किनारे यह गाँव बसाया। कई सालों पूर्व खरगौन जिले से मजदूरी के सिलसिले में आए हमारे पूर्वज यहीं बस गए और यहाँ जमीन खेती करना शुरू किया। धीरे-धीरे हमारे परिवार बढ़ते गए और जमीन का रकबा भी जरूरत के हिसाब से बढ़ता गया। जब से हमने यहाँ जमीन जोतना शुरू किया उस समय से ही लगातार हमें कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा।

हमारे साथ लगातार कई तरह के अत्याचार हुए कई बार गम्भीर आरोप लगाकर हमें जेल की सजा सुनाई गई तो एक बार सजा के रूप में जिला बदर की कार्यवाही भी हुई, किन्तु लगातार संघर्ष का सामना करते हुए हम एकजुटता के साथ यहाँ डटे रहे। और आज नर्मदा बचाओ आन्दोलन के बैनर तले हुए संघर्ष के परिणामस्वरूप पूरे 113 परिवारों ने अपना हक प्राप्त किया। वर्षों के इन्तजार के बाद मिली जीत की खुशी मनाते जीरोठ वासियों को उम्मीद है कि इस अधिकार के आधार पर अब बाकी के हक भी उन्हें अवश्य ही मिल जाएँगे । जीरोठ फलिया का यह उदाहरण अनेकानेक प्रकरणों में राज्य ही नहीं बल्कि देश के स्तर पर मार्गदर्शक बनेगा और जंगलवासियों को ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए अवश्य ही सहायक और कारगर सिद्ध होगा।

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