जंगल बचा लें

10 Jun 2017
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उच्चाधिकारियों के अनुसार जंगलों की सुरक्षा ग्राम वन प्रबंधन समितियाँ कर रही हैं। वनरक्षी की कोई खास भूमिका नहीं। उनकी सोच बिल्कुल वास्तविकता से परे हैं। वे जंगल भ्रमण करते, तो वास्तविक स्थिति को जान पाते। अब जंगल को वन माफिया की दृष्टि से बिना वनरक्षी एवं ग्रामीणों के सहयोग से बचाना असम्भव है। ऐसा नहीं कि सरकार के पास पैसे का अभाव है। अगर कमी है तो विभाग में सही नीति, दूरदृष्टि एवं दृढ़ इच्छाशक्ति की। राजधानी रांची खासकर चुटूपालू, ओरमांझी क्षेत्र आज पर्यावरणीय तबाही के कगार पर है। एक दिन की भी अब देरी, बड़ी भूल और महँगी साबित होगी। इसके लिये आने वाला वक्त हमें कभी माफ नहीं करेगा। कहते हैं, ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई है।’ हमारे पूर्वजों या हममें से जिसने साल वनों से आच्छादित ओरमांझी की लहराती पहाड़ियों, खिलखिलाते सिकदरी हुंडरू फॉल की मौज, कांके सुतीआंबे गढ़ की शानो-शौकत एवं टैगोर हिल जैसे अनेक अविस्मरणीय प्राकृतिक नजारों का अवलोकन किया है, का मानना है कि हमारी रांची शिमला, ऊटी, मसूरी या किसी भी हिल स्टेशन से कम नहीं थी। यहाँ का शान्त वातावरण, खपरैल मकान, सखुआ का जंगल, उसके ऊपर मंडराते घने बादल और उसके बीच पंख फैलाकर नाचते मोर।

आदिवासी समाज का प्रकृति एवं जंगल से प्रेम अद्वितीय था। कहते हैं, आदिवासी समाज और जंगल के बीच माँ-बेटे का रिश्ता है। वे कभी माँ का सौदा नहीं करते। जरूरत के मुताबिक जितने पेड़ काटते हैं, उसका दस गुना लगा देते हैं। उनके सारे पर्व-त्यौहार सरहुल, करमा आदि जंगलों पर ही आधारित है। वर्षों से ग्राम वन समिति बनाकर जंगल बचाते आ रहे हैं। दुर्भाग्यवश महज दो दशक पूर्व वर्ष 1990 के आस-पास कुछ गलत नीतियों के कारण इस जंगल को वन माफिया की नजर लग गई। भोले-भाले आदिवासी समाज को बहला-फुसलाकर, झूठे प्रलोभन देकर उनके सारे कटहल, महुआ आदि वृक्षों को औने-पौने दाम में खरीदकर दक्षिण भारत में बेच दिया गया। यह उनके जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा साधन था। उसके बाद आरम्भ हो गया जंगल काटने का तांडव और अवैध खनन का महाप्रलय।

झारखंड बनने के बाद मेट्रो पैटर्न पर शहरी विनाश की आड़ में ऊँची-ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें, रिंग रोड, राष्ट्रीय मार्ग का चौड़ीकरण, रेलवे निर्माण, मनरेगा अन्तर्गत ग्रेड-1 सड़कों के निर्माण के नाम पर ओरमांझी, चुटुपालू आदि जंगलों को तो नेस्तनाबूद ही कर दिया गया। विकास के नाम पर सखुआ से भरे इन जंगलों को बेतरतीब तरीके से सिर्फ उजाड़ा ही नहीं गया, बल्कि उन्हें नंगा कर सैकड़ों क्रशर मशीनों से पाताल तक खोदकर बर्बाद किया जा रहा है।

देखकर तेरी दुर्दशा अब रहा जाता नहीं, जंगलों की यह व्यथा, अब सही जाती नहीं।

हम यह नहीं कहते कि विकास न हो, पर यह प्राकृतिक संसाधनों के विनाश पर नहीं। दोनों के बीच एक सामंजस्य हो-कहाँ खनन करना है, कहाँ नहीं। कहाँ कितने पेड़ काटने हैं और कितने लगाने हैं। पर्वतीय स्थलों का विकास बिना वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ किया जाए। आज की रांची खूंटी मोड़ से धुर्वा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि चुटूपालू से तुपुदाना तक फैल चुकी है, जिसका सीधा असर वनों पर पड़ा है। जंगल कटाई, भूमि अतिक्रमण, अवैध खनन चरम पर है।

नियमानुसार वन सीमा से 400 मीटर के अन्दर खनन या क्रशर नहीं होना चाहिए। लेकिन, चुटुपालू, पिस्का, चपराकोचा, चेतनबाड़ी, झीरी, घपडीहा, सिकदरी में सैकड़ों क्रशर रात-दिन बेखौफ बदस्तूर चल रहे हैं। इन्हें देखकर फूट-फूटकर रोने को मन करता है-

हममें जज्बा है, जुनून है, कुछ कर गुजरने का, पर क्या करें हालात साथ नहीं देते।
विवश मन देख रहा जंगल का चीरहरण, पर क्या करें हालात साथ नहीं देते।
जिसे सजाया-संवारा सदियों तक, वनों से श्रृंगार किया वादियों तक
आज उसे ही नंगा बेआबरू कर रहे, उसी के बेटे सभ्यता के नाम पर
जी करता है- पर क्या करें हालात साथ नहीं देते, अरे हम तो बदल कर रख देते, हालात को भी
पर क्या करें, बेवफा हालात साथ नहीं देते।


आखिर किसके संरक्षण में दिन-दहाड़े इन प्राकृतिक संसाधनों की दुर्गति हुई है? क्यों नहीं खनन, वन विभाग, जिला प्रशासन इसे खनन प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर उनका माइनिंग लीज समाप्त करता? हम इतने असंवेदनशील क्यों हो गए हैं? क्या हमारी नींद जंगल से आच्छादित इन खूबसूरत पहाड़ियों के नेस्तनाबूद होने के बाद ही टूटेगी? अब तो ग्राम वन प्रबंधन समितियों ने भी वनों की सुरक्षा करना लगभग छोड़ दिया है। उनका कहना है कि जिस जंगल को हमने वर्षों से रात-दिन जागकर बचाया, बढ़ाया, उसे सरकार की स्पष्ट नीति के अभाव में वन माफिया विकास के नाम पर यूँ ही बर्बाद कर रहे हैं, उन्हें तो कुछ नहीं मिला। वे (गाँव वाले) ठगा सा महसूस कर रहे हैं। दूसरी ओरमांझी की इस वन सम्पदा के सुरक्षार्थ पहले 14 वन रक्षी, एक वनपाल होते थे। रांची में आवागमन हेतु एकमात्र राष्ट्रीय मार्ग पर एक चेकनामा होता था, वहाँ आज मात्र एक वन रक्षी है, जो सेवानिवृत्ति के कगार पर है। सड़कों की संख्या अनेक हो गईं।

वन अपराधियों क्रशर, खनन आदि समस्याएँ काफी अधिक बढ़ गई हैं। विभाग में उच्चाधिकारियों की संख्या तो शत-प्रतिशत दुरुस्त है, लेकिन वनों की सुरक्षा हेतु मुख्य रूप से जरूरी वनरक्षी के लगभग 3883 पदों के स्थान पर मात्र 1009 कार्यरत हैं, जिनमें से अधिकतर सेवानिवृत्ति के कगार पर हैं, क्योंकि 1978 के बाद इस पद पर कोई बहाली नहीं हुई। वर्ष 2014 तक विभाग लगभग खाली हो जाएगा। उच्चाधिकारियों के अनुसार जंगलों की सुरक्षा ग्राम वन प्रबंधन समितियाँ कर रही हैं। वनरक्षी की कोई खास भूमिका नहीं। उनकी सोच बिल्कुल वास्तविकता से परे हैं। वे जंगल भ्रमण करते, तो वास्तविक स्थिति को जान पाते। अब जंगल को वन माफिया की दृष्टि से बिना वनरक्षी एवं ग्रामीणों के सहयोग से बचाना असम्भव है। ऐसा नहीं कि सरकार के पास पैसे का अभाव है। अगर कमी है तो विभाग में सही नीति, दूरदृष्टि एवं दृढ़ इच्छाशक्ति की। वन व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण से वनों की सुरक्षा की जगह सुख-सुविधा का सुदृढ़ीकरण हो रहा है। आलीशान कार्यालय, आवास, गाड़ियाँ। जंगल गश्ती के नाम पर कुछ नहीं।

वनरक्षी की बहाली होने तक शिक्षा मित्रों की तर्ज पर चार हजार मासिक मानदेय पर तत्काल योजनामद से कम-से-कम पाँच हजार वन मित्रों को अस्थाई तौर पर बहाल कर जंगल की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। इस पर मुश्किल से 20 करोड़ रुपये वार्षिक खर्च ही आएँगे और जो अरबों खरबों की वन सम्पदा के सुरक्षार्थ कम राशि है। रोजगार का सृजन अलग से। पर यह निःस्वार्थ काम क्यों करें भला? एक क्षतिपूरक वन रोपण (कैम्पा) योजना है-इसके तहत अरबों रुपये केंद्र सरकार की ओर से राज्य में आते हैं। लेकिन उनका उपयोग कहाँ होता है? एक तरफ स्थापित एवं वर्षों से ग्रामीणों द्वारा जी-जान से बचाए गए सखुआ जंगल बर्बाद हो रहे हैं, तो दूसरी ओर निजी स्वार्थ में पौधरोपण के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की ज रही है, जो परस्पर विरोधाभास है।

विभाग को चाहिए अगले पाँच वर्षों तक कोई वनरोपण कार्य (पथतट एवं शहरी छोड़कर) नहीं कर सिर्फ जंगलों की सुरक्षा भूस्तान्तरण एवं सिल्वीकल्चर कार्य कर जंगल को पुनर्जीवित कर हरा-भरा करे। हाँ, इसके बदले ग्रामीणों की रैयती जमीन पर फलदार टिम्बर, आम, कटहल, आँवला, सागवान, गम्हार, शीशम आदि पौधों का रोपण कर उन्हें स्वावलम्बी बनाएँ। जैसे घाटशिला में एक किसान ने अपने 20 एकड़ जमीन में मात्र तीन लाख की लागत से सागवान लगाकर मात्र 15 वर्षों में आठ करोड़ की सम्पत्ति खड़ी कर ली, जो किसी उद्योग से कम नहीं। इसी प्रकार आम, कटहल, आँवला बागान भी रैयती जमीन पर लगाकर इसे एक आर्थिक आन्दोलन का रूप दिया जा सकता है। मैं इस लेख के माध्यम से सभी सम्बन्धियों एवं पर्यावरणविदों से प्रार्थना करता हूँ कि समय रहते वन सम्पदा को बचा लिया जाए अन्यथा आने वाला वक्त हमें माफ नहीं करेगा। प्राथमिकता के तौर पर अविलम्ब ओरमांझी क्षेत्र में चल रहे तमाम खनन कार्य बन्द किए जाएँ। वनरक्षी बहाली पर वन मित्रों की प्रतिनियुक्ति इसी वित्तीय वर्ष में की जाए। जंगल की सुरक्षा हेतु निचले तंत्र को चुस्त-दुरुस्त किया जाए। गश्ती दल, गश्ती वाहन मुहैया कराएँ जाएँ।

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