जंगल बचे तो ही नदी बहे

22 Feb 2018
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वन भूमि पर मौजूद जल संसाधन, सामान्यतः अक्षत संसाधन होते हैं। उन्हें यथासम्भव अक्षत रखा जाये। उनके उपयोग पर केवल कुदरती प्रवाह तथा वनस्पतियों का ही हस्तक्षेप होता है। वन भूमि पर प्रवाह बढ़ाने वाली प्रस्तावित वाटरशेड अवधारणा को प्राथमिकता मिलने से नदीतंत्र में प्रवाह बढ़ेगा। इसके लिये आवश्यक है कि प्राकृतिक वन क्षेत्रों की स्थानीय तथा प्राकृतिक प्रजातियों के पुनरोत्पादन को बढ़ावा दिया जाये। वृक्षारोपण एक सर्जरी है परन्तु जो है उसे स्वस्थ एवं जागृत करने के लिये प्राथमिक उपचार से टिकाऊ बनाया जा सकता है। वन भूमि तथा नदी तंत्रों के कैचमेंट में स्थित जंगलों की अस्मिता को बहाल कर पर्यावरण सहित अधिकांश नदी-परिवारों को सदानीर बनाया जा सकता है - यह निष्कर्ष था वरिष्ठ जनों की उस गोष्ठी का जो 17 फरवरी 2018 को सप्रे संग्रहालय भोपाल में आहूत की गई थी। वरिष्ठ जनों का अभिमत था कि बेहतर वन प्रबन्ध तथा संरक्षण द्वारा वनों की हरितिमा लौटाई जा सकती है। जंगलों की सेहत सुधारने से समूची नदी घाटी में जल स्वावलम्बन हासिल किया जा सकता है। जैवविविधता लौटाई जा सकती है।

पेयजल और खेती का संकट खत्म किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकता है। आवश्यकता है राजनैतिक इच्छाशक्ति, योजनाकारों और प्रोग्राम मैनेजरों द्वारा मौजूदा हालातों पर आत्मचिन्तन, सकारात्मक नीतिगत बदलाव, परिष्कृत रणनीति और समाज की सहभागिता से परिणामों को टिकाऊ बनाने के लिये समूची घाटी के प्राकृतिक संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग की अवधारणा को जमीन पर उतारने की। बैठक में उभरे कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव इस प्रकार हैं -

जलवायु बदलाव की सम्भावना के परिप्रेक्ष्य में वन विभाग की कार्ययोजना में वानिकी हस्तक्षेपों के साथ-साथ नमी बढ़ाने और छोटी-छोटी नदियों के प्रवाह की बहाली को प्राथमिकता दी जाये।

नदियों के प्रवाह की बहाली के लिये मैन्युअल विकसित किया जाये। मैन्युअल में सुझाए रोडमैप पर सभी सम्बन्धित विभाग काम करें। मौजूदा व्यवस्था तथा तकनीकी आधार को और बेहतर बनाया जाये। जन भागीदारी सुनिश्चित की जाये।

वाटरशेड योजनाओं का मुख्य लक्ष्य पानी और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के आधार को समृद्ध कर, कृषि उत्पादन में वृद्धि करना होता है। नदी के प्रवाह के लिये पानी की व्यवस्था नहीं होती। वाटरशेड योजनाओं के लक्ष्य में जलस्रोतों यथा नदी एवं नालों के प्रवाह बहाली को जोड़ा जाना चाहिए। उसे प्राथमिकता दी जाये। इस हेतु सीमित सोच से बाहर आने की आवश्यकता है।

वन भूमि पर मौजूद जल संसाधन, सामान्यतः अक्षत (Pristine) संसाधन होते हैं। उन्हें यथासम्भव अक्षत रखा जाये। उनके उपयोग पर केवल कुदरती प्रवाह तथा वनस्पतियों का ही हस्तक्षेप होता है। वन भूमि पर प्रवाह बढ़ाने वाली प्रस्तावित वाटरशेड अवधारणा को प्राथमिकता मिलने से नदीतंत्र में प्रवाह बढ़ेगा। इसके लिये आवश्यक है कि प्राकृतिक वन क्षेत्रों की स्थानीय तथा प्राकृतिक प्रजातियों के पुनरोत्पादन को बढ़ावा दिया जाये।

वृक्षारोपण एक सर्जरी है परन्तु ‘जो है’ उसे स्वस्थ एवं जागृत करने के लिये ‘प्राथमिक उपचार’ (First-aid) से टिकाऊ बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिये नर्मदा के उद्गम से लगभग सौ किलोमीटर तक साल के बहु-तल्ले (Multi-layer) वनस्पति जिनकी संख्या एक लाख प्रति हेक्टेयर हो सकती है, को अक्षुण बनाए रखना है। साल की सहयोगी प्रजातियों को बचाने और पुनरोत्पादन बढ़ाने से नदी की गतिशीलता बढ़ सकती है।

वृहद वृक्षारोपण योजनाओं को जब भी जल्दबाजी में बनाया जाता है तो उससे यथोचित लाभ नहीं मिल पाते। ऐसी प्रजातियाँ जो नदी के दोनों तरफ प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं, को ही लगाना चाहिए। वृक्षारोपण से अधिक उपयोगी कैचमेंट जैवविविधता बढ़ाना तथा उसके पुनरोत्पादन (Natural regeneration) को बढ़ाने वाले कार्य अधिक लाभदायी होते हैं। इन कामों से अन्ततः जल स्वावलम्बन सुनिश्चित होगा जो अन्ततः जलवायु बदलाव से निपटने, वनों की हरितिमा को बढ़ाने के साथ-साथ समूची घाटी में उत्पादन वृद्धि के अलावा जल संकट को दूर करेगा।

हरितिमा की भूमिका वन क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। लाभों को सुनिश्चित करने तथा उन्हें स्थायी बनाने के लिये उसका विस्तार समूची नदी घाटी में होना अनिवार्य है। कैचमेंट की भूमि उपयोग को पर्यावरण हितैषी और विकास को प्रकृति सम्मत बनाने की आवश्यकता है। इसके लिये धरती की नमी सहेजने, परम्परागत जलस्रोतों के पुनरोद्धार तथा संरक्षण, पानी के अविवेकी उपयोग पर रोक, उद्योगों द्वारा पानी की रीसाईकिलिंग, गहरे नलकूपों पर रोक, खेती में पानी बचाने वाली तकनीकों के अधिकतम उपयोग को जमीन पर उतारने की आवश्यकता है। पानी की सर्वाधिक खपत उन्नत खेती के कारण है। उसे कम करने के लिये आर्गेनिक खेती या प्राकृतिक खेती की ओर लौटने की आवश्यकता है।

कैचमेंट ट्रीटमेंट के लिये अनेक योजनाओं को स्वीकृति मिली है। उन योजनाओं के बावजूद लगभग सभी जलाशयों में अनुमान से अधिक गाद जमा हो रही है। यह स्थिति जलाशयों के साथ-साथ वनों की सेहत और जल संवर्धन के लिये उचित नहीं है। यह स्थिति संरचनाओं के तकनीकी पक्ष में अपेक्षित सुधार की आवश्यकता प्रतिपादित करती है।

उल्लेखनीय है कि सन 1947 से लेकर आज तक लगभग 3.5 लाख करोड़ की विशाल धनराशि जल संसाधनों पर खर्च की गई है। मनरेगा के अन्तर्गत 123 लाख जल संरचनाओं का निर्माण हुआ है। अकेले बुन्देलखण्ड में पिछले दस सालों में लगभग 1500 करोड़ खर्च हुए हैं। इस सबके उपरान्त भी वृक्षों तथा खेती को जीवन देने वाले पानी की सर्वकालिक तथा सर्वभौमिक उपलब्धता अनिश्चित है। जलस्रोतों में सिल्ट और प्रदूषण की समस्या गम्भीर है। उनके सूखने की समस्या है। पानी की गुणवत्ता की समस्या है। आवश्यकता है कि कामों के तकनीकी पक्ष और अवधारणा पर पुनःविचार हो। कामों को निर्दोष बनाकर उनमें सुशासन लाया जाये ताकि लाभ स्थायी बनें।

भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने सन 2013 में पूरे देश में भूजल रीचार्ज के लिये मैन्युअल जारी किया है। उस मैन्युअल पर अविलम्ब काम प्रारम्भ होना चाहिए। उस मैन्युअल में बरसात के बाद के भूजल स्तर की तीन मीटर की गहराई तक वापसी की व्यवस्था प्रस्तावित है। गैर-मानसूनी प्रवाह की कमी को देखते हुए और आगे जाने, भूजल रीचार्ज की तकनीकों, संरचनाओं तथा मात्रा पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता है।

प्रयासों और परिणामों की मानीटरिंग के लिये पृथक से स्वतंत्र व्यवस्था हो। उस व्यवस्था में समाज की भागीदारी सुनिश्चित हो। हितग्राही समाज को संसाधन प्रबन्ध में जोड़ा जाये। प्राकृतिक संसाधनों के पक्ष में उचित माहौल बनाया जाये। वरिष्ठ जन जो अपने ज्ञान, अनुभव और नवाचारों का उपयोग जनहित में करने के लिये स्वेच्छा से सहमत हैं उनके सुदीर्घ अनुभव का लाभ लिया जाये।

सुझाव था कि निश्चित अन्तराल पर एक न्यूज-लेटर निकाला जाये। उसमें समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करने वाले मुद्दों को सम्मिलित किया जाये। समाज का ध्यान केन्द्रित किया जाये। समाधान को मुख्यधारा में लाया जाये। निदान के लिये सरकार सहित सभी सम्बन्धितों को उसकी प्रति भेजी जाये।

सप्रे संग्रहालय के संस्थापक श्री विजयदत्त श्रीधर ने अवगत कराया कि उनका संस्थान पिछले दस से भी अधिक सालों से प्रकृति एजेंडा पर काम कर रहा है। उन्होंने आंचलिक पत्रकार में न्यूज-लेटर की सामग्री को प्रकाशित करने के लिये सहमति प्रदान की।

चिन्तन बैठक में लेखक के अतिरिक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा के जे. पी. व्यास और श्री त्रिवेदी, भारतीय पुलिस सेवा के सुभाष अत्रे, कृषि विभाग के पूर्व संचालक जी. एस. कौशल, गन्ना आयुक्त साधुराम शर्मा, प्रोफेसर आर, पी. शर्मा, जल संसाधन और पी. एच. ई. के पूर्व इंजीनियर-इन-चीफ वी. टी. लोंधे तथा एस. एस धोड़पकर, पूर्व मुख्य अभियन्ता आर. एस. शर्मा तथा एच. डी. गोलाइट, भोपाल के पूर्व महापौर मधु गार्गव, समाजसेवी किशन पंत, इतिहासविद सुरेश मिश्र, पुरातत्ववेत्ता नारायण व्यास, मीडिया के नायडू, राकेश दुबे, राकेश दीवान, भूजलविद के. जी. व्यास, आर्कीटेक्ट रमेश जैन, सप्रे संग्रहालय के संस्थापक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर सहित अन्य अनेक लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे।

लेखक, प्रमुख मुख्य वन संरक्षक, म.प्र. से सेवा निवृत्त हैं।

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