जंगल-जमीन आंदोलन

25 Jul 2015
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किसी को आशा नहीं थी कि 19 अगस्त को गठित संगठन के आह्वान पर 2000 लोग अपने खर्चे से उदयपुर पहुँच जायेंगे। प्रदर्शन से पूर्व एकत्र लोग एक दूसरे से भले ही अपरिचित हों लेकिन दुख सबका एक था, प्रदर्शन में नारे क्या लगे, रैली के बाद सभा में भाषण कौन दे, यह सब भी लोगों ने वही टाउन हॉल में बैठकर निर्धारित किया और शहर के मध्य से लोगों का जुलूस गुजरा तो लोगों ने स्वयं एहसास किया कि वे अकेले नहीं हैं, वे इस क्षेत्र की एक बड़ी शक्ति हैं तथा उन्हें आज तक छला गया है। इस जुलूस रैली का सभी वर्गों में मिश्रित असर हुआ मगर इस रैली में शरीक लोगों पर इसका व्यापक असर पड़ा। रैली के बाद संभागीय आयुक्त को ज्ञापन दिया गया, उसमें यह माँग की गई कि जंगल-जमीन पर सन 1980 से पूर्व काबिज लोगों की पहचान का कार्य सरकार अपने घोषित आदेशानुसार शीघ्र करवाये और यदि यह कार्य शीघ्र नहीं हुआ तो लोग बड़ा धरना देने को मजबूर होंगे।अपने बारे में खुद निर्णय लेने, अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को सुरक्षित एवं विकसित करने तथा जीवन व संपत्ति को शाँतिपूर्ण तरीके से रख सकने के अधिकार, दुनिया भर में स्वीकृत अधिकार हैं तथा इनको सभी मान्यता देते हैं। किताबों में ये अधिकार हमारे देश में भी लिखे हुए हैं। लेकिन धरातल पर सच्चाई इसके विपरीत है। दक्षिणी राजस्थान की जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा इन अधिकारों से न केवल वंचित है वरन उसकी कल्पना करवाना भी उसके लिये दूर की बात है।

भारतीय उप महाद्वीप के आदिवासी समुदायों ने अपने अस्तित्व में आने के बाद अपनी जमीन, संसाधनों व संस्कृति पर पहली बार अंग्रेजों के जमाने में योजनाबद्ध प्रहार झेले। जिसे वे अपनी जमीन मानते थे, उनसे छीनी गई। उनके अधिकारों को रियायतों में बदल दिया गया। उनसे कहा गया कि उसकी न भाषा है, न संस्कृति है और न इतिहास। वे असभ्य जंगली हैं। उन्हें सभ्य बनाकर, कपड़े पहनाकर शिक्षित करके तबाही से बचाया जायेगा। आदिवासियों के बारे में यही नीति आजादी के बाद भी कायम रही तथा लगातार एक व्यवस्थित मुहिम चलाकर उन्हें उखाड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं।

इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिये भूमि ऐसी पवित्र चीज रही है, जिसे खरीदा, बेचा या नष्ट नहीं किया जा सकता। जमीन के बारे में इस धारणा का तात्पर्य है कि लोग न केवल अपने लिये बल्कि भावी पीढ़ियों के लिये भी जमीन व संसाधनों की देखभाल करना अपना दायित्व मानते हैं। भूमि की यह अवधारणा राज्य की चालू नीति में प्रतिकूल है, क्योंकि वर्तमान नीति के अनुसार जमीन मात्र मुनाफे का स्रोत है। जमीन व प्रकृति के बारे में लोगों की समझ तथा इनका सम्मान लोगों की साधारण जीवन शैली की आशा जगाती है और दिशा देती है कि वैकल्पिक मानव समाज कैसा होना चाहिये और कैसा हो सकता है। इसके विपरीत हमारी सरकार ने धरातल से अलग हटकर पश्चिमी चकाचौंध में खेती को स्थाई खेती की वस्तु मान लिया तथा जो भूमि खेती की नहीं मानी उसे राज्य की संपत्ति बना दिया। भूमि के सर्वेक्षण में 9 डिग्री ढलान से नीचे वाली जमीन तो पहले से ही प्रभावशाली लोगों के आधिपत्य में थी। इसके ऊपर की जमीन पर समाज के बहुसंख्यक लोग काबिज थे, वे अतिक्रमणी हो गये। इन जमीनों का लोग पीढ़ियों से बिना नुकसान पहुँचाये उपयोग करते आ रहे थे जिससे उन्हें वंचित कर दिया गया।

हमारे क्षेत्र में भूमि आधारित संसाधनों जैसे- गाँव में जंगल, चरागाह तथा पानी के स्रोत, जिन पर परम्परागत सामूहिक अधिकार थे, उन्हें छीन लिया गया। तमाम वादों एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों के बावजूद हमारे क्षेत्र के बहुसंख्यक लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं।

राष्ट्र के विकास के लिये प्रत्येक पंच-वर्षीय योजनाओं में अधिकारों का उल्लेख किया गया लेकिन सरकारी लोगों का ही मानना है कि ये प्रयास अपर्याप्त थे। विकास के पहले चरण में देश के अन्य भागों की तरह हमारे क्षेत्र में चलाये गये सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का लाभ केवल उन्हीं लोगों तक पहुँचा, जिनके प्रशासन से सम्बन्ध थे। दूसरे चरण में विकास खंड बनाये गये, जिनके माध्यम से नौकरशाहों को दानदाताओं की तरह उभारने का प्रयास किया गया। अगले चरण में पाँचवी पंच-वर्षीय योजना के दौरान जिला व प्रखंड स्तर पर आदिवासी सघनता का क्षेत्र, सीमांकित एकीकृत क्षेत्र, विकास कार्यक्रम चलाया गया तथा इस कार्यक्रम में होने वाले खर्चे का बजट अलग दिखाया गया। आदिवासी उपयोजना पहुँच की सफलता का सूचक सरकारी क्षेत्रों में आदिवासी विकास पर होने वाला व्यय माना गया। कई अविभाज्य मदों में होने वाला खर्चा आदिवासी विकास पर दिखाया गया। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ बी.के. राय बर्मन का मानना है कि ‘हकीकत में ऐसे प्रमाण हैं कि आदिवासी उपयोजना पहुँच के तहत हुए व्यय का, आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक जीवन पर उल्टा असर हुआ है।’ यह कथन हमारे यहाँ की हकीकत से मेल खाता है। आदिवासी उपयोजना का पैसा बड़े बाँधों को बनाने में खर्च हुआ, जिसका लाभ आदिवासियों को मिलने की बजाय उन्हें विस्थापित होना पड़ा। हमारे क्षेत्र में सैकड़ों ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहाँ विकास के नाम पर उन्हें विस्थापित तो कर दिया गया, मगर मुआवजा कुछ भी नहीं दिया गया। जहाँ कहीं थोड़ा-बहुत मुआवजा दिया गया तो व्यक्तिगत खेती का दिया गया, लेकिन सामूहिक साधनों में लोगों की हिस्सेदारी को मुआवजों के आँकलन से बाहर रखा गया।

भारत के संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की विशिष्ट हालत को स्वीकार किया तथा संविधान में इसका प्रावधान भी रखा, लेकिन व्यवहार में कुछ भी नहीं किया गया। भारत सरकार की आदिवासी समुदाय के लिए क्या नीति होगी, इसके लिये भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किये, वे इस प्रकार हैं-

1. लोगों को स्वयं ही विकसित होने दिया जाना चाहिये। हमें उन पर कुछ थोपने से बचना चाहिये। और हमें उनकी परम्परागत संस्कृति व कलाओं को हर तरह से प्रोत्साहित करना चाहिये।
2. जमीन व जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिये।
3. हमें उनके अपने लोगों में से नेतृत्व तैयार कर प्रशिक्षित करना चाहिये जिससे वे प्रशासन व विकास का कार्य सम्भाल सके।
4. हमें इनके इलाकों पर ज्यादा प्रशासन नहीं लादना चाहिये और न ही उन पर भारी-भरकम योजनाएँ लादनी चाहिये। हमें तो बस सीधे काम करना चाहिये और वह भी उनके अपने सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा न करते हुए।
5. हमें इसके आँकड़े देखकर या कितना पैसा खर्च हुआ है जाँच करके ही परिणाम नहीं आँकने चाहिये बल्कि आँकलन यह देखकर करना चाहिये कि मानव चरित्र की गुणवत्ता कितनी बनी है।

जब आई आजादी


यदि ऊपर वर्णित सिद्धांतों का पालन होता तो यह क्षेत्र जिस विनाश के कगार पर पहुँच गया है, वहाँ नही पहुँचता तथा लोगों की हालत बद से बदतर नहीं होती। हम हकीकत में विगत चार दशकों का इतिहास देखते हैं तो पाते हैं कि-

1. दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, डूगरपुर, बांसवाड़ा तथा चितौड़ जिले आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं तथा यहाँ के निवासियों का जंगल से गहरा तथा आपसी सहयोग का सम्बन्ध रहा है तथा इस समय भी यदि राजस्थान में कहीं जंगल है तो वह इसी क्षेत्र में स्थित है।

2. राजस्थान वन अधिनियम, 1953 से पूर्व यहाँ के स्थानीय शासकों ने जंगलों की अंधाधुंध कटाई की तथा वन अधिनियम बनने के बाद व्यवस्थित रूप से वन विभाग ने जंगलों का सर्वनाश किया।

3. वन विभाग ने ठेकेदारों की मार्फत घने जंगलों को शहरी एवं गैर आदिवासी लोगों की ज़रूरतों की पूर्ति के लिये बर्बाद करवा दिया तथा चतुराई से जंगलों की बर्बादी का आरोप भी आदिवासियों के माथे मढ़ दिया।

4. राजस्थान में जागीरदारी उन्मूलन कानून बनाया गया। उस कानून द्वारा गैर आदिवासी क्षेत्र के किसानों को उनकी जोतों पर मालिकाना हक दे दिया गया, मगर उसी के साथ बनाये गये राजस्थान वन अधिनियम द्वारा आदिवासी के हकों को छिन लिया गया। इस प्रकार राज्य की सरकार ने दोगली नीति बनाकर आजादी के तुरन्त बाद ही जहाँ एक क्षेत्र में लोगों को भूस्वामी बना दिया, वहीं गरीब आदिवासी लोगों को अतिक्रमणी बना दिया।

5. दक्षिणी राजस्थान का इतिहास गवाह है कि इन क्षेत्र के आदिवासी जंगलों के मालिक थे, जब वे जंगलों के मालिक थे, उस समय इस क्षेत्र में सघन वन थे। आजादी से पूर्व की पीढ़ी के लोगों की जेहन में अभी भी सघन वनों की तस्वीर विद्यमान है। जैसे ही वन आदिवासियों के अधिकार से निकल कर वन विभाग के हाथ में आये हैं और इस क्षेत्र के वनों की जो दुर्गति हुई है, उसके लिये इतिहास तथा भावी पीढ़ियाँ कभी भी जिम्मेदार लोगों को माफ नहीं करेगी।

6. आदिवासी समाज की सहजता तथा भोलेपन का परिणाम यह हुआ कि इस क्षेत्र की सारी उपजाऊ एवं काश्त काबिल जमीन आजादी से पहले ही गैर आदिवासी लोगों के स्वामित्व में चली गई तथा आदिवासियों को पहाड़ियों की तरफ खदेड़ दिया गया।

7. राजस्थान वन अधिनियम ने जंगल पर लोगों के हक को अस्वीकार कर रियायतों में बदल दिया तथा यहाँ के लिये निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने की भी आवश्यकता वन विभाग ने महसूस नहीं की, नतीजतन हजारों की तादाद में आदिवासी जंगलों में रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं लेकिन उन्हें किसी तरह के अधिकार प्राप्त नहीं हैं। हर साल लोगों को भारी रकम नये जागीरदारों (वन विभाग के लोगों) को चौथ के रूप में देनी पड़ रही है तथा वह उनकी मर्जी पर होता है कि वे इस प्राप्त की गई रकम की रसीद कितने रुपये की देते हैं या देते भी हैं या नहीं। बहरहाल, लोग अपनी जमीन व घरों पर स्वतंत्रता से नहीं रह सकते हैं तथा हमेशा वन विभाग द्वारा खड़ी फसलों को नष्ट कर देने तथा घरों में आग लगा देने के खतरों में जीवन-यापन करना पड़ रहा है। हमारे क्षेत्र में ऐसे हजारों उदाहरण हैं, जब वन विभाग ने लोगों के घरों व फसलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया है।

8. 1980 तक वन राज्य सूची में थे, लेकिन भारतीय वन संरक्षण अधिनियम के बाद वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग पर पाबंदी लगा दी गई है। मगर सवाल यह है कि हमारे क्षेत्र में सर्वप्रथम तो यह कि वन भूमि घोषित ही कैसे हुई, क्या वन भूमि घोषित करने से पूर्व लोगों के हक-हकूकों का ध्यान रखा गया? क्या वन भूमि घोषित किये जाने की प्रक्रिया का पालन किया गया? जवाब है कि न तो लोगों को वन भूमि घोषित कैसे हुई, इसकी जानकारी है, न लोगों के हक-हकूकों का ध्यान वन भूमि घोषित करने से पूर्व रखा गया और न ही विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का कहीं पालन किया गया।

9. भारतीय वन संरक्षण अधिनियम, 1980 लागू हो जाने के पहले के वन भूमि पर कब्जों को नियमन करने की बाबत केन्द्र सरकार का निर्देश है तथा राज्य सरकार ने भी इसकी घोषणा की है। दूसरी राज्य सरकारों द्वारा 1980 के कब्जों के नियमन की प्रक्रिया बहुत पहले शुरू करने का आदेश 1991 में निकाला गया। इस क्षेत्र के लोगों के साथ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि अगस्त 1995 तक वन विभाग ने मात्र 11 कब्जों की पहचान की है। 1980 से पूर्व के कब्जे हैं या नहीं इसकी पहचान करना एक बहुत ही अहम बात आदिवासी लोगों के लिये है। इससे यहाँ के हजारों लोगों की रोजी-रोटि का सवाल जुड़ा हुआ है, क्योंकि इस समय लोगों के कब्जों व हकों की पहचान नहीं हुई तो वे स्थायी अतिक्रमणी हो जायेंगे तथा अपने घरों से बेघर हो जायेंगे। वर्तमान में लड़ाई केवल राजस्थान स्तर पर है, बाद में यह लड़ाई केन्द्र स्तर पर हो जायेगी। यह सब जानते हुए भी वन विभाग जिस गति व मंशा से काम कर रहा है उससे लोग अपने भविष्य के प्रति काफी आतंकित हैं तथा लोगों को आशंका ही नहीं, वरन पूरा अंदेशा और भय है कि इस बारे में जैसे 1953 में हुआ, उनके साथ भी वैसा ही सौतेला व्यवहार ही होगा।

कानून से जुड़ी समस्या


1. फॉरेस्ट ऐक्ट, 1927
2. राजस्थान फॉरेस्ट ऐक्ट, 1953
3. वन संरक्षण अधिनियम, 1980

समस्याग्रस्त लोग वनों में रहने वाले आदिवासी हैं जिनकी आबादी का 95 प्रतिशत भाग वनों एवं पहाड़ी क्षेत्रों में रहता है तथा जो देश की कुल आबादी का 8 प्रतिशत है। 90 प्रतिशत से ज्यादा की आबादी गरीबी की रेखा के नीचे का जीवन जी रही है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भूमिहीन तथा मुख्यधारा से कटा हुआ यह तबका केवल वनों पर आश्रित है तथा छोटी जोतों और वन उपज के सहारे अपना जीवन-यापन कर रहा है।कानूनों से जुड़ी समस्याओं को अगर हम देखें तो पता चलेगा कि कानूनों का उपयोग ब्रिटिश काल से ही आदिवासियों के खिलाफ रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद एक बड़े विश्व बाजार की जरूरतें पूरी करने के लिये वनों के दोहन की जरूरत महसूस हुई। इसी के चलते विभिन्न तरह कानून बनाये गये तथा प्राचीन ग्राम्य व्यवस्था की सामुदायिकता को तोड़ा गया। यह प्रत्यक्ष रूप से वनों के नियंत्रण को सरकार द्वारा अपने अधिकार में लेने की प्रक्रिया था। कानूनों में वनाश्रित समाज एवं ग्रामीणों के वनों के प्रति रिश्तों को लेकर कोई प्रावधान नहीं रखा गया है बल्कि इन सब के विकास के नाम पर होने वाली परियोजनाओं के समक्ष रखने से ही इनकार कर दिया गया।

परियोजनाओं का लाभ हमेशा से पूँजीपति, शहरी परजीवी वर्ग को मिलता रहा है।

सर्वप्रथम 1872 में अंग्रेजों ने जो वन अधिनियम बनाया उसमें आरक्षित एवं संरक्षित वन घोषित कर इस विशाल प्राकृतिक संसाधन पर अपना कब्जा जमा लिया। इस कानून के तहत वन खंडों की बाबत जो अधिसूचनायें जारी की गई उन क्षेत्रों में अनेक ग्राम बसे हुए थे। आदिवासी कृषि करते थे, लेकिन सभी को वन भूमि के रूप में अधिसूचित कर दिया गया। हमारे क्षेत्र में 1980 में घोषित कुंभलगढ़ बर्ड सैंक्चुअरी तथा फुलवारी की नाल आजाद भारत के उदाहरण हैं।

अंग्रेजों ने वनों का प्रबंधन जब अपने हाथों में ले लिया तो वनों के दोहन के लिये वनों की सुरक्षा एवं शिकार आदि करने के साथ उन्हें बेगार करने के लिये आदमियों की आवश्यकता पड़ी। इसी बात को ध्यान में रखकर मजदूर बस्तियाँ भी बसाई गई। इन बस्तियों को एवं घोषित किये गये वन खंडों में पहले से बसी बस्तियों को वन ग्रामों का नाम देकर कृषि की जा रही भूमि के पट्टे अनेक शर्तों के साथ दिये जाने की नीतियाँ अपनाई गईं।

फॉरेस्ट ऐक्ट 1927


1927 में बनाये गये भारतीय वन अधिनियम में भी धारा 20 एवं 21 में वनों को आरक्षित एवं संरक्षित घोषित किये जाने के लिये शामिल किये गये प्रावधानों के तहत अधिसूचनायें जारी कर उन समस्त भूमियों को भी अधिसूचनाओं में शामिल कर लिया गया जिनपर पहले से आदिवासी रह रहे थे व कृषि कार्य कर रहे थे।

वन ग्रामों में बसे वनवासियों को अंग्रेजों ने मात्र मजदूर मानते हुए उन्हें सीमित अधिकार (मात्र जीने के लिये अधिकार) दिये जाने की जो नीति बनाई उसमें ही पहली और गम्भीर चूक की गई। जिस भूमि पर कृषि की जा रही थी उसे वन विभाग के आधिपत्य की कृषि भूमि माने जाने की बजाय वन भूमि मान ली गयी, जबकि इसी भारतीय वन अधिनियम में यह भी प्रावधान किये गये थे कि अगर किसी वन भूमि को अन्य कार्यों के लिये उपयोग में लाया जायेगा तो उसे आरक्षित व संरक्षित वन से डीनोटिफाइड किया जाकर गैर वन भूमि घोषित किया जायेगा।

भारत की आजादी के बाद भी कृषि के उपयोग में लाई जा रही वन भूमि को डीनोटिपाइड कर कृषि भूमि घोषित किये जाने की बजाय इसे वन भूमि ही माना गया। इस पर काबिज वन ग्रामवासियों को कृषि हेतु एक वर्षीय, तीन वर्षीय एवं 15 वर्षीय पट्टे देने जाने की प्रक्रियाओं का ही संचालन किया जाता रहा।

अधिकतर आदिवासी वनों में निवास करते हैं, इसे ध्यान में रखकर भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयुक्त द्वारा 1978 में सभी सम्बन्धित राज्यों को सलाह दी गई कि वन ग्रामों को राजस्व ग्राम घोषित कर काबिजों को मालिकाना हक सौंप दिया जाये। इसी के तहत 1978 में राज्य सरकार की और से 1971 तक के सभी वन भूमि के कब्जे नियमित कर दिये जायेंगे यह आदेश 1978 में निकला गया जिसका पालन नहीं किया गया।

भारत सरकार ने वन संरक्षण कानून, 1980 को लेकर अध्यादेश जारी कर दिया जो बाद में संसद से कानून के रूप में पारित हो गया। इसके बाद राज्य सरकार द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को रोक दिया गया था। भारत सरकार ने वन ग्रामों की कृषि के उपयोग में आ रही भूमि को डीनोटिपाइड किये जाने पर रोक लगा दी। कब्जे वाली वन भूमि लोगों को दे दी जाये परन्तु उस पर राजस्व विभाग के अधिवक्ता की जगह वन विभाग ही मालिक बना रहे, यह प्रावधान आज भी रखा हुआ है।

वन संरक्षण कानून लागू किये जाने के बाद वन ग्रामों में मार्ग बनाना, बिजली, पीने के पानी हेतु कुआँ, हैण्डपम्प खुदवाना, स्कूल भवन, स्वास्थ्य केन्द्र आदि बुनियादी सुविधाओं के कार्यों पर तब तक के लिये रोक लगा दी गई जब तक भारत सरकार से पूर्वानुमति नहीं ले ली जाती।

वन संरक्षण कानून के कारण वन प्रबंधन एवं वन्य जीव संरक्षण हेतु आवश्यक कार्यों पर लगी रोक एवं उससे उत्पन्न कठिनाइयों को ध्यान में रखकर 1988 में बनाई गई वन नीति के तहत सुझाये गये उपायों को ध्यान में रखते हुए वही कार्य करवाये जाने की अनुमति प्रदान की गई, जोकि वन प्रबंधन एवं वन्य जीवन संरक्षण हेतु आवश्यक माने गये। इसमें आदिवासियों को मौलिक सुविधायें उपलब्ध करवाये जाने की बाबत भारत सरकार ने जिक्र तक नहीं किया न ही किसी तरह की छूट प्रदान की गई।

राजस्थान फॉरेस्ट ऐक्ट 1953


1953 में राजस्थान वन अधिनियम पारित किया गया। इस वन अधिनियम के प्रावधान वर्ष 1952 में पारित भूमि सुधार एवं जमींदारी उन्मुलन अधिनियम के विपरीत थे। इस अधिनियम ने आदिवासियों के अधिकार समाप्त करने के अधिकारों को रियायतों में बदल दिया, इस अधिनियम के पारित होने के बाद दक्षिणी राजस्थान में रहने वाले हजारों भूमिहीन आदिवासी काश्तकारों के सामने समस्या का पिटारा खोल दिया, क्योंकि इस अधिनियम में विद्यमान प्रक्रिया का पालन भी वन विभाग द्वारा विधि के अनुरूप नहीं किया गया। नतीजा यह हुआ कि हजारों की तादाद में किसान जिस भूमि पर खेती कर रहे थे और जमीन को अपनी समझते रहे थे वह भूमि अभिलेखों में वन विभाग के नाम दर्ज हो गई जिसमें वन विभाग एवं आदिवासियों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई।

कालांतर में वन अधिनियम में कई तरह के संशोधन, कई तरह के बाहरी एवं आंतरिक दबाव चलते रहे, मगर यह भी ध्यान रखने की कोशिश की गई कि वन अधिनियम में किये जा रहे सुधारों का खमियाजा आदिवासी परिवारों को न भुगतना पड़े, इसलिये समय-समय पर राज्यादेश आदिवासियों के हक में जारी किये गये। दुर्भाग्य से इन राज्यादेशों की पालना या तो की ही नहीं गई और थोड़ी-बहुत जहाँ इसकी पालना हुई तो उसका लाभ भी समाज के सबसे निम्न तबके को न मिलकर उच्च तबके के लोगों को ही प्राप्त हुआ।

इसके तहत राज्य सरकार द्वारा 1978 में निकाले गये राज्यादेश का ही उदाहरण लें जिसमें प्रावधान था कि 1971 तक के कब्जे नियमित किये जायेंगे। इस आदेश के तहत मात्र 1,506 लोगों के कब्जों के नियमन का आदेश निकला। यह नियमन भी किस प्रकार हुआ इसमें उदाहरण देखें तो :

खेड़वाड़ा तहसील के उमरा वन क्षेत्र में 50 लोगों के कब्जों के नियमन की सिफारिश 1978 में राज्यादेश की पालना में वर्ष 1980 में की गई। इन काश्तकारों के पास जिला कलेक्टर उदयपुर का आदेश भी है जिसमें इनके कब्जों के नियमन का आदेश दिया गया है। मगर इन काश्तकारों के कब्जों का आज तक भी राजस्व रिकार्ड में अमलदरामद नहीं किया गया है, लेकिन भूमि पर काबिज है। राजस्थान सरकार द्वारा नियुक्त समिति ने कब्जों के नियमन की सिफारिश करने पर कलेक्टर द्वारा नियमन का आदेश भी जारी कर दिया गया है, मगर रिकार्ड में आज दिन तक भी इन काश्तकारों का नाम दर्ज नहीं है और इनको बेदखल करने की धमकी वन विभाग देता रहता है।

वन संरक्षण अधिनियम 1980


मात्र 5 धाराओं वाले इस कानून में भारतीय वन अधिनियम, 1972 के तहत घोषित वनों को शामिल किया गया था, बाद में इस परिभाषा का विस्तार भी हुआ। इस कानून में उन्हीं गलतियों को दोहराया गया जो भारतीय वन अधिनियम, 1927 में की गई थी। यह कानून 1927 के कानून के पक्ष को ही मजबूत करता है।

इस कानून के तहत 1981 में बने नियमों के अंतर्गत क्षतिपूर्ति वनरोपण को लेकर :
धारा 3-2 (5) क्षतिपूरक वनरोपण के लिये गैर वन भूमि की अनुपलब्धता को केन्द्र शासन द्वारा केवल तभी विस्तार किया जायेगा जब उस राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा इस आशय का प्रमाण पत्र दिया जायेगा।
धारा 3-2 (1) गैर वन भूमि के बराबर क्षेत्र पर क्षतिपूरक वनरोपण किया जायेगा।
धारा 3-2 (6) ऊपर धारा 3-2 (1) के अपवाद स्वरूप निम्नलिखित किस्म के प्रस्तावों के सम्बन्ध में उपयोग में लाये जा रहे, अनारक्षित किये जा रहे वन क्षेत्र के दुगने अवक्रमित वन में क्षतिपूरक वनरोपण किया जायेगा।

इस प्रावधान से विकास के नाम पर वन भूमियों के उपयोग में ज्यादा आसानी हो गई। विकास परियोजनाओं में वन भूमियों के उपयोग को लेकर दोगुनी राशि का भुगतान किया तब जाकर वन भूमियों का उपयोग होने लगा।

कानून में 1988 में संशोधन किया गया एवं धारा 2 के प्रयोग के लिये वनेत्तर प्रयोजन धारा (ख) पुनर्वनरोपन से मात्र प्रयोजन के लिये, किसी वन भूमि या उसके प्रभाग को तोड़ना या काट कर साफ करना अभिप्रेत है, किन्तु इसके अंतर्गत वनों और वन प्राणियों के संरक्षण, विकास और प्रबंध से सम्बन्धित या उसका आनुषंगिक कोई कार्य अर्थात चौकियों, बिजली लाइनों, संचार स्थापना, बाढ़ और पुल, बाँधों, जल, खाई, पाइप लाइनों का निर्माण या अन्य वैसे ही प्रयोजन नहीं हैं।

कानून की धारा 2 में किये गये प्रावधानों के कारण वन क्षेत्रों में बसे वनवासियों को मौलिक सुविधायें मिलनी भी बंद हो गईं। किसी गाँव में बिजली पहुँचाना, रास्ता बनवाना है, उसके लिये भी भारत सरकार से अनुमति लेना आवश्यक है।

वन ग्रामों में स्कूल बनवाना, चिकित्सा भवन बनवाना, पेयजल के लिये कुआँ निर्माण करना भी कानून की परिधि में माना गया और भारत सरकार से अनुमति लेना आवश्यक कर दिया गया।

भारत सरकार ने 1988 जो संशोधन किये इसमें भी वन प्रबंधन एंव वन्यजीव संरक्षण को ध्यान में रखकर कुछ कार्य करने की अनुमति तो प्रदान की गई, लेकिन सदर वन क्षेत्रों में बसे आदिवासियों के विकास और उन्हें मौलिक सुविधाओं को उपलब्ध करवाये जाने की दिशा में कोई कार्यवाही नहीं की गई।

भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 20 धारा 20 अ, धारा 29 के तहत घोषित वन भूमियों पर शासन के द्वारा इस कानून के बनने से पहले अनेक कारणों से, खासकर वन प्रबंधन में मदद करने के उद्देश्य से आदिवासियों को बसाकर उन्हें कृषि करने की अनुमति भी प्रदान की थी, लेकिन काबिजों को लेकर भी कानून ने मौन साध लिया बल्कि इस कृषि के उपयोग में लाई जा रही भूमि को मालिकाना हक पर आवंटित करने के पूर्व भारत सरकार से इसी कानून के तहत अनुमति लिये जाने के प्रावधान लागू कर समतुल्य भूमि या क्षतिपूरक वनरोपन हेतु दुगनी राशि की माँग की जाती रही है।

कानून के लागू होने के बाद से ही केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें वन भूमियों के गैर वानिकी प्रयोजन को लेकर दोहरा मापदंड अपनाती आई हैं। विकास के नाम पर वन भूमियों का गैर वानिकी उपयोग बिना अनुमति के होता आया। यह बात माननीय उच्चतम न्यायालय में दायर सिविल याचिका 202/95 के संदर्भ में सामने आई। कानून का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध दंड की व्यवस्था तो वन संरक्षण कानून में कर दी गई, लेकिन उन प्रक्रियाओं का निर्धारण 1998 में तब किया गया जब मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में कोमला परियोजनाओं को लेकर विवाद सड़कों पर उतर आया।

भारतीय वन अधिनियम की धारा 20अ के तहत औरेंज एरिया मान ली गई लाखों हेक्टेयर भूमि पर 1980 के बाद से विकास परियोजनाओं के नाम पर बिना भारत सरकार की अनुमति प्राप्त किये कब्जे किये, खुद जिला स्तरीय अधिकारियों ने उक्त भूमि आवंटित की, लेकिन जब इस तरह की भूमियों पर काबिजों के व्यवस्थापन की बात आई तो इसी कानून की आड़ लेकर इनकार किया गया।

वन संरक्षण कानून, विकास के नाम पर वन भूमियों के उपयोग एवं वनाश्रित समाज को एक बात सामने रखकर अगर विचार-विमर्श किया जाये तो यह बात बहुत ही स्पष्ट तरीके से उभरकर सामने आती है कि इस कानून की कम से कम वनाश्रित समाज के संदर्भ में व्यापक एवं गहरी समीक्षा होनी चाहिये।

माही व कड़ाना बाँध इसके उदाहरण हैं जहाँ आदिवासियों की भूमि तो परियोजना विकास के नाम पर ले ली गई परन्तु उनके व्यवस्थापन की व्यवस्था नहीं की, इसके परिणामस्वरूप सीतामाता के जंगलों में जाकर लोग बस गये। अब उन्हें वहाँ से भी बेदखल करने की तैयारी चल रही है।

जिन पर गुजरी


समस्याग्रस्त लोग वनों में रहने वाले आदिवासी हैं जिनकी आबादी का 95 प्रतिशत भाग वनों एवं पहाड़ी क्षेत्रों में रहता है तथा जो देश की कुल आबादी का 8 प्रतिशत है। 90 प्रतिशत से ज्यादा की आबादी गरीबी की रेखा के नीचे का जीवन जी रही है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भूमिहीन तथा मुख्यधारा से कटा हुआ यह तबका केवल वनों पर आश्रित है तथा छोटी जोतों और वन उपज के सहारे अपना जीवन-यापन कर रहा है।

राजस्थान में विशेषकर दक्षिणी राजस्थान के जनजाति उपयोजना क्षेत्र में आने वाले जिलों उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा के अलावा राजसमंद की कुंभलगढ़, चितौड़ की प्रतापगढ़, पाली जिले की देसुरी व बाली तथा सिरोही जिले की आबूरोड तहसीलों में आदिवासी इन क्षेत्र के वनों में बहुतायत में पीढ़ियों से रहते आये हैं। इतिहास में जाकर देखें तो पता चलेगा की मेवाड़ के महाराणा प्रताप के साथ उन्होंने हल्दीघाटी का युद्ध किया था, जो उदयपुर के एक पहाड़ी वन क्षेत्र का ही भाग है।

तत्कालीन मेवाड़ सरकार ने भी गोगुंदा क्षेत्र के सायरा इलाके के आदिवासियों हेतु वन क्षेत्र से आबादी तथा कृषि भूमि का प्रबंधन 1942 में किया था, यह हमें अभिलेखों से पता चलता है।

अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि इसी तरह वनों में निवास करने वाले आदिवासियों के हक-हकूक सूरक्षित रखे गये थे परन्तु आजादी के बाद वन अधिनियमों में इन हक-हकूक को नजरअंदाज कर आदिवासियों को वंचित रखा गया व जानकारियाँ दबाकर रखी गईं।

इस क्षेत्र के भील, मीणा, गरासिया समुदाय के आदिवासी आज भी वन क़ानूनों तथा सरकार की नीतियों व वन विभाग के रवैये से समस्याग्रस्त हैं।

सामाजिक व आर्थिक तौर पर अति पिछड़े इस तबके को शासन द्वारा हमेशा से नजरअंदाज किया जाता रहा है।

वन कानूनों के चलते बुनियादी सुविधाओं के अभाव ने इनके जीवन को और अधिक कष्टमय व नारकीय बना दिया है। कोटड़ा जैसे पहाड़ी क्षेत्र में आमतौर पर देखा जा सकता है कि सुदूर पहाड़ी क्षेत्र के गाँवों से रास्ते के अभाव में बीमार व्यक्ति को लोग चारपाई पर डालकर अस्पताल लेकर आते हैं। कई बार लोग बीमारी से अपने घरों या रास्तों में दम तोड़ देते हैं।

90 प्रतिशत से ज्यादा अनपढ़ सहज रूप से भोले आदिवासी कानूनों की घुमावदार कठिन भाषा से बेखबर हैं जिसका वे खमियाजा बेदखली के रूप में उठाते रहते हैं।

अल्प आवश्यकताओं में जीवन-यापन करने वाले आदिवासियों को आज प्राथमिक सुविधायें भी नहीं मिल रही हैं जिसके कारण उनका पिछड़ापन और अधिक गहराता जा रहा है।

रोजगार की अनुपलब्धता, लगातार अकाल, वन भूमि से बेदखली, चौथ वसूली, रिश्वत, झूठे मुकदमे आदि संकटों ने इनको समाज के हासिये पर खड़ा कर दिया है। उन्हें फटेहाल, बदतर हालत में कर दिया है। उन्हें सभ्य समाज के लिये कौतूहल का विषय, सस्ते बेगारी मजदूरी के रूप में बदल दिया है। राजनैतिक पार्टियाँ इनके कँधों पर चढ़कर सत्ता में जाती हैं और लोकतंत्र का परचम लहराती हैं। आदिवासी इस लोकतंत्र को कायम रखने का सबसे सस्ता जरिया बन गया है।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन की शुरूआत


उदयपुर संभाग में जमीन के मसले को ईमानदारी के साथ हल नहीं किया, इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों पर हमेशा बेदखली की तलवार लटकी रही, क्षेत्र में काम करने वाली संस्थायें, जन संगठनों एवं व्यक्तियों, जिन्होंने भी ईमानदारी के साथ लोगों के साथ जुड़कर काम करने की कोशिश की उन्हें इस समस्या से सम्मुख होना पड़ा। तथा छिटपुट स्तर पर संस्थाओं और व्यक्तियों ने अपने प्रयास भी किये। कुछ संस्थाओं ने जंगल-जमीन का सर्वेक्षण किया मगर समस्या सर्वव्यापी होने के कारण पूरे संभाग स्तर पर इस जमीन की लड़ाई का निर्णय लिया गया क्योंकि स्थिति दिन प्रतिदिन नाजुक होती जा रही थी। एक तरफ अंघाधुंध तरीके से जंगलों की बर्बादी हो रही थी और उसका दोष आदिवासियों पर मढ़ा जा रहा था, दूसरी ओर लोगों की बेदखली के नाम पर खुली लुट की जा रही थी तथा जहाँ-जहाँ लोगों ने इस लूट का विरोध किया उन पर बर्बरता पूर्वक दमन किया जा रहा था। कई जगह लोगों को बेदखल करने की कार्रवाई पर लोगों ने विरोध शुरू किया। गिर्वा तहसील के पातलिया गाँव में विभाग द्वारा 34 परिवारों को बेदखल करने के लिये महिलाओं की पिटाई व उनके खिलाफ पुलिस कार्रवाई तक की। इस तरह की घटनाओं ने लोगों को जमीन की लड़ाई सामूहिक रूप से लड़ने को प्रेरित किया। नतीजतन, इस समस्या से जूझ रहे लोगों की एक बैठक दिनांक 19 अगस्त 1995 को उदयपुर में आहूत की गई।

इस बैठक में उदयपुर जिले की सभी आदिवासी बाहुल्य तहसीलों के लोग सम्मिलित हुए तथा जंगल-जमीन पर काबिज लोगों की स्थिति एवं उसके समाधान पर गहन चर्चा हुई और उस चर्चा में यह तथ्य सुस्थापित हुआ कि सरकार आदिवासी एवं गरीब किसानों के लिये केवल घड़ियाली आँसू बहाती है। हकीकत में सरकार या उनके नुमाइंदे लोगों को देना भी कुछ भी नहीं चाहते हैं तथा समस्या आजादी के बाद से जस के तस बनी हुई है। जमीन के मसले पर जो लड़ाइयाँ लड़ी गई हैं वे भी संकीर्ण दायरों में लड़ी गई हैं। यह सोचा गया कि यदि इस समय सही एवं ठोस प्रयास नहीं किया गया तो बहुत देर हो चुकी होगी तथा लोग घर से बेघर हो जायेंगे तथा उनका अस्तित्व एवं पहचान एक दिहाड़ी मजदूर से अधिक नहीं रह जायेगी।

समस्या की विकटता एवं समय की परिस्थिति को देखते हुए यह निर्णय हुआ कि लोग अपना स्वयं का संगठन बनायें जो दलगत एवं जातिगत राजनीति से ऊपर हो तथा यह संगठन सही मायनों में लोगों का अपना संगठन हो और लोग ही संघर्ष का नियंत्रण करें तथा जमीन की लड़ाई जब तक स्थायी रूप से समस्या का समाधान नहीं हो उस दिन तक अनवरत रूप से जारी रखें, फलस्वरूप यह निर्णय लिया गया कि जंगल-जमीन के नाम पर संगठन का गठन किया जाये और जंगल-जमीन जनआन्दोलन का गठन किया। आंदोलन के गठन के बाद प्रथम निर्णय यह लिया गया कि लोग अपनी सामूहिक शक्ति का परिचय एक शान्तिपूर्ण प्रदर्शन के रूप में दें और 6 अक्टूबर 1995 की तारीख प्रदर्शन के लिये निर्धारित की गई।

6 अक्टूबर, 1995 का प्रदर्शन


जंगल-जमीन जनआन्दोलन के गठन की खबर पहुँचाने में ज्यादा समय नहीं लगा तथा उदयपुर संभाग में इस संगठन के गठन की खबर दावानल की तरह फैल गई तथा लोग धीरे-धीरे इस संगठन से जुड़ना शुरू हो गये तहसीलों एवं गाँवों में सभायें हुईं और 6 अक्टूबर को लोग अपने खर्चे से पहली बार उदयपुर पहुँचे तथा पहली बार नेतृत्व भी लोगों का स्वयं था। किसी को आशा नहीं थी कि 19 अगस्त को गठित संगठन के आह्वान पर 2000 लोग अपने खर्चे से उदयपुर पहुँच जायेंगे। प्रदर्शन से पूर्व एकत्र लोग एक दूसरे से भले ही अपरिचित हों लेकिन दुख सबका एक था, प्रदर्शन में नारे क्या लगे, रैली के बाद सभा में भाषण कौन दे, यह सब भी लोगों ने वही टाउन हॉल में बैठकर निर्धारित किया और शहर के मध्य से लोगों का जुलूस गुजरा तो लोगों ने स्वयं एहसास किया कि वे अकेले नहीं हैं, वे इस क्षेत्र की एक बड़ी शक्ति हैं तथा उन्हें आज तक छला गया है। इस जुलूस रैली का सभी वर्गों में मिश्रित असर हुआ मगर इस रैली में शरीक लोगों पर इसका व्यापक असर पड़ा। रैली के बाद संभागीय आयुक्त को ज्ञापन दिया गया, उसमें यह माँग की गई कि जंगल-जमीन पर सन 1980 से पूर्व काबिज लोगों की पहचान का कार्य सरकार अपने घोषित आदेशानुसार शीघ्र करवाये और यदि यह कार्य शीघ्र नहीं हुआ तो लोग बड़ा धरना देने को मजबूर होंगे।

दो हजार लोगों ने 6 अक्टूबर को एक बड़ा। धरना देने की चेतावनी प्रशासन को दी थी। यह धरना हो इससे पूर्व चुनिंदा लोगों की उदयपुर में बैठक हुई और यह तय किया गया कि राज्य सरकार से हर स्तर पर सम्पर्क किया जाय तथा मुख्यमन्त्री, अधिकारियों एवं मन्त्रियों को समस्या की गम्भीरता से परिचित कराया जाए, साथ ही बैठक में यह निर्णय लिया गया कि तहसील एवं ग्राम स्तर पर सभायें की जायें। आन्दोलन के इस निर्णय की अनुपालना में मुख्यमन्त्री से सम्पर्क किया गया, जिन्होंने समस्या को सुना एवं निराकरण का आश्वासन दिया। इसी तरह का आश्वासन वन मन्त्री, मुख्य सचिव एवं वन सचिव द्वारा दिया गया। इसी दौरान जब यह मालूम किया गया कि 1991 में जारी किये गये आदेश की क्रियान्विति का समय समाप्त हो चुका है।

मुख्य सचिव को ज्ञापन


वन विभाग के कर्मचारी स्टाम्प पर आदिवासियों का अंगूठा लगवाकर खुद लिख रहे हैं कि मैं आज से कब्जा छोड़ रहा हूँ। इस तरह की धोखाधड़ी कोटड़ा तहसील में सामने आने की जानकारी रमेश नंदवाना ने दी। बैठक में अफसोस जाहिर किया कि लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यमन्त्री ने 90 दिन के पट्टे देने तथा अन्य दलों ने 1980 के पहले काश्त कर रहे लोगों के पट्टे देने का आश्वासन दिया था, लेकिन उसका क्रियान्वयन आज तक नहीं हुआ।धरने के कुछ ही दिनों बाद 15 दिसम्बर, 1995 को राजस्थान के मुख्य सचिव मीठालाल मेहता का उदयपुर दौरा हुआ। जंगल-जमीन जन आन्दोलन की ओर से आदिवासी क्षेत्रों में 1980 से वन भूमि पर काश्त कर रहे किसानों को मालिकाना हक देने की माँग का एक ज्ञापन उन्हें दिया गया। ज्ञापन में मुख्य सचिव से बताया गया कि उदयपुर जिले की कोटड़ा, झाड़ोल, गिर्वा, गोगुंदा, तहसीलों में दस हजार से भी अधिक आदिवासी से तीस वर्षों से वन भूमि पर खेती कर रहे हैं फिर भी उन्हें वन विभाग से बेदखल करने की कार्रवाई की जा रही है। ज्ञापन में बताया गया कि राज्य सरकार को 1977 एवं 1991 में इस बाबत आदेश जारी हो चुके हैं। इस बारे में किसानों की जमीन का मौका-सत्यापन के लिये जन प्रतिनिधियों, राजस्व विभाग एवं वन विभाग के अधिकारियों की कमेटी भी गठित की गई थी, लेकिन अभी तक कमेटी ने जिले के केवल दस परिवारों में, इस मामले को सरकार ने भिजवाये हैं। आन्दोलन के प्रतिनिधिमंडल को मुख्य सचिव ने आश्वस्त किया कि इस बार ठोस कार्रवाई होगी। मुख्य सचिव से मिलने के बाद इतनी उपलब्धि अवश्य हुई कि 1991 के आदेश के क्रियान्विति की तिथि आगे बढ़ा दी गई।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने यह भी निर्णय लिया कि संभाग के चुनिंदा जन प्रतिनिधियों से भी सम्पर्क किया जाए। इस क्रम में सभी सांसदों, विधायकों से पत्र-व्यवहार किया गया तथा व्यक्तिगत रूप से भी सम्पर्क करने का भरसक प्रयास किया गया। चुनिंदा नुमाइंदों ने भी समस्या की गम्भीरता को स्वीकारा और इनमें से काफी लोगों ने अपने-अपने तरीके से राज्य सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया। उदयपुर संभाग से बाहर भरसक प्रयास करने के बाद जंगल-जमीन जन आन्दोलन के लोगों की एक बैठक पुन: उदयपुर में हुई। इस बैठक में समस्या के समाधान में अब तक हुई प्रगति की समीक्षा की गई तथा यह महसूस किया गया कि अब तक आश्वासनों के अलावा कुछ भी ठोस नतीजा नहीं निकल सका है तथा सरकार आश्वासनों से अधिक कुछ भी करने को तैयार नहीं है। आधा दिन और एक रात के गहन मंथन के बाद यह तय हुआ कि 6 फरवरी, 1996 को जनजाति आयुक्त के कार्यालय के समक्ष अनिश्चितकालीन धरना दिया जाए। यह भी तय किया गया कि धरना किस अवस्था में और किस आश्वासन के बाद खत्म किया जायेगा। इस प्रकार आन्दोलन कब शुरू करना है एवं कब खत्म करना है इस पर एक सामूहिक निर्णय हुआ तथा इस निर्णय के बाद यह तय हुआ कि लोग 6 फरवरी को अपना आटा, सामान, लकड़ी सहित उदयपुर पहुँचेंगे।

6 एवं 7 फरवरी, 1996 का धरना


जमीन की लड़ाई की खबर तुरन्त लोगों तक पहुँच गई तथा लोग अपने-अपने क्षेत्रों में 6 फरवरी का दिन आने का इंतजार करने लगे। 6 फरवरी को फिर लोग टाउन हॉल के सामने इकट्ठा होना शुरू हुए और देखते ही देखते तीन हजार लोग इकट्ठे हो गये। ये लोग उदयपुर जिले की सभी तहसीलों के साथ बांसवाड़ा, डूंगरपुर और चितौड़गढ़ से आये थे। लोगों ने माथे पर हरी पट्टियाँ, जिन पर जंगल-जमीन जन आन्दोलन लिखा था। बाँधकर शहर में जुलूस निकाला और यह जुलूस जनजाति आयुक्त कार्यालय के समक्ष जाकर अनिश्चितकालीन धरने में परिवर्तित हो गया। तीन हजार लोगों का अनिश्चितकालीन धरना उदयपुर के लिये नई बात थी तथा प्रशासन एवं लोगों ने सोचा कि ये अनिश्चितकालीन की बात दिखावटी है और लोग रात होते-होते वापस चले जायेंगे। मगर प्रशासन के दिमाग में यह बात नहीं आई कि धरना लोगों का अपना एवं अपनी ज्वलंत समस्या के लिये दिया जा रहा है। धरने पर दिन भर के भाषणों एवं नारों की गूँज के बाद जब शाम होने लगी और लोगों ने अपने साथ लाये आटे सामान से रोटियाँ बनाना शुरु किया तो प्रशासन हरकत में आया, धरने में जितने लोग शुरू में थे उतने ही लोग कड़ाके की ठंडी रात में भी नजर आये तो जिला प्रशासन ने धरनार्थियों को अन्यत्र छत के नीचे चले जाने का अनुरोध किया। मगर सभी धरनार्थियों का दो टूक जवाब था कि धरनास्थल नहीं छोड़ेंगे और सभी ने वह रात खुले आकाश के नीचे आग जलाकर घूम-फिरकर नारे लगाकर, गा-बजाकर गुजारी। लोगों की इस दृढ़ता का असर हुआ और प्रशासन संभागीय आयुक्त कार्यालय में 10 बजते-बजते एकत्र हो गया। आन्दोलन से धरना हटाने का अनुरोध किया एवं निर्णयानुसार यह अनुरोध ठुकरा दिया। प्रशासन से यह कहा गया कि जब तक राज्य सरकार लिखित आश्वासन नहीं देगी धरना अनवरत जारी रहेगा। लोगों की दृढ़ता एवं शक्ति के सामने सरकार को झुकना पड़ा तथा मुख्य सचिव राजस्व सरकार की ओर से संभागीय आयुक्त एस अहमद ने लिखित आश्वासन दिया। सरकार के इस लिखित आश्वासन को लोगों को पढ़कर सुनाया गया तो लोग इस आश्वासन की विषय-वस्तु को तो सही मान रहे थे मगर पिछले 50 वर्षों के सरकार के तिरस्कारपूर्ण रवैये के कारण इस पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे। काफी विचार-विमर्श के बाद इस लिखित आश्वासन पर धरना समाप्त हुआ और सरकार के लिखित आश्वासन की सैकड़ों प्रतियाँ करवाकर लोग अपने घर पहुँचे।

दूसरा दौड़


एक, दो, तीन, चार और आखिर छह माह से ज्यादा दिन बीत गये। संभागीय आयुक्त के लिखित आश्वासन पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। आश्वासन दिया गया था कि 1980 से वन भूमि पर आदिवासियों के कब्जों का नियमन करने के लिये सर्वे करवाया जायेगा।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने तय किया कि राज्य सरकार को अपना वादा याद दिलाने के लिये धरना दिया जाये। धरने की तारीख 18 अगस्त, 1996 तय की गई। धरने में शामिल होने के लिये कोटड़ा, झाड़ोल, गोगुंदा, सलूम्बर, सराड़ा, कुंभलगढ़, गिरवा व खैरवाड़ा तहसीलों से लगभग एक हजार लोग आये। धरने से पहले लोगों ने शहर में जुलूस निकालकर अपनी व्यथा की ओर आम नागरिकों का ध्यान भी आकृष्ट किया।

धरने के दौरान सभी लोगों ने गहन विचार-विमर्श किया और धरनास्थल पर ही लोगों ने संकल्प लिया कि अब वे ही गाँव के स्तर पर स्वयं जंगल-जमीन का सर्वे गाँव के पाँच लोगों का पंचनामा बनाकर करेंगे। सर्वे पूरा कर अगली बार 10 हजार लोग अपने-अपने सर्वे प्रपत्र पंचनामे के साथ आयेंगे। लोगों ने कुंभलगढ़ तहसील की परड़दा पंचायत के 500 लोगों की खातेदारी भूमि पर वन विभाग द्वारा जबरन कब्जा कर बेदखली की निंदा की गई, साथ ही राज्य सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में जगह-जगह शाराब की दुकानें खोलने का विरोध किया गया तथा दुकानें नहीं खुलने देने का निर्णय लिया गया। धरने के पश्चात्यजनजाति आयुक्त को उक्त आशय का ज्ञापन दिया गया।

इस बीच छोटे-छोटे गाँवों, कस्बों और उदयपुर में आन्दोलन की बैठकें लगातार होती रहीं। लोगों ने अपने मौलिक अधिकार के प्रति जागरूकता और चेतना का काम इन औपचारिक-अनौपचारिक बैठकों ने बखूबी किया। सरकार के लिखित आश्वासन और फिर आश्वासन से मुकर जाने से दो बातें स्पष्ट हुईं। पहली यह कि लोगों को विश्वास हुआ कि हमारी माँग नाजायज नहीं है और हमारे साथ अन्याय-अत्याचार हुआ है, दूसरी कि यह लड़ाई लम्बी है, इसके लिये कड़ा संघर्ष करना होगा।

1997 के प्रारम्भ में ही आन्दोलन को लगने लगा कि फिर से धरना प्रदर्शन जुलूस जैसी कार्रवाई की सरकार की नींद उरानी होगी। इसके लिये 31 दिसंबर, 1996 को संभाग स्तरीय बैठक की गई जिसमें कोटड़ा, झाड़ोल, खैरबाड़ा, गिर्वा, सलम्बर, सराड़ा, कुंभलगढ़ और बांसवाड़ा के तहसील स्तरीय प्रतिनिधियों ने भाग लिया। बैठक में प्रतिनिधियों ने बताया कि पिछले छह महीनों में नौ हजार लोगों की सर्वे सूची बन चुकी है तथा आने वाले एक महीने में चार हजार काश्तकारों की सूची और सर्वे तैयार किया जायेगा। बैठक में तय हुआ कि 6 फरवरी, 1994 को फिर से अनिश्चितकालीन धरना दिया जाये ताकि सरकार को कार्रवाई करनी पड़े।

2 फरवरी, 1997 को पत्रकारों के लिये एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया गया जिसमें आन्दोलन की प्रगति व भावी संघर्ष के बारे में जानकारी दी गई। सम्मेलन में बताया कि गत वर्ष 6 फरवरी को आयोजित धरने के दौरान मुख्य सचिव के निर्देश पर जनजाति आयुक्त ने लिखित आश्वासन दिया था, लेकिन एक वर्ष बीत जाने पर भी इसका पालन नहीं हुआ, न ही सर्वे के लिये कोई कार्रवाई की गई तो अगस्त में आन्दोलन ने अपने स्तर पर यह सर्वे करवाने का निश्चय किया और सितम्बर से अब तक करीब नौ हजार कब्जों का सर्वे करके सूचियाँ तैयार की गई हैं जो 6 फरवरी को संभागीय आयुक्त को सौंपी जायेंगी और इनके सत्यापन के लिये दो माह का समय दिया जायेगा।

बताया गया कि आन्दोलन ने 1980 से पूर्व के कब्जों का जो सर्वे करवाया है, उसके लिये ग्राम स्तर पर समितियाँ बनाई गईं और मौके पर जमीन की वस्तु-स्थिति व नाप की तस्दीक पाँच मोतबर लोगों से कराई गई है। सर्वे के दौरान वन विभाग के अधिकारियों द्वारा कब्जा नियमन के नाम पर आदिवासियों से पेनल्टी की रसीदें तक ले ली गईं ताकि साक्ष्य नहीं बचे। सर्वे में यह बात स्पष्ट हुई कि लोगों के कब्जे 5 से 10 बीघा के बीच है और आजीविका का साधन जमीन ही है। यह विसंगति भी देखी गई कि सरकार एक तरफ खदान मालिकों के वन भूमि पर अवैध कब्जों की तरफदारी कर रही है वहीं आदिवासियों के वर्षों पुराने कब्जों के मामलों में आँखे मूँदे बैठी है।

फिर 6 फरवरी: फिर धरना


आदिवासी समुदाय गाँवों में अतिक्रमी और शहरों में दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गया है। ऐसे में, आदिवासी व ग्रामीण समाज को अपने भविष्य का फैसला स्वयं करना होगा और संसाधनों पर अपना हक कायम करना होगा।जंगल-जमीन जन आन्दोलन, उदयपुर संभाग की ओर से 7 फरवरी, 1997 को एक दिवसीय धरने का आयोजन किया गया। इस धरने में कोटड़ा, झाड़ोल, खेरवाड़ा, गिर्वा, सराड़ा, सलूम्बर, धरियाबद, गोगुंदा, बल्लभनगर तहसीलों एल डूंगरपुर व बांसवाड़ा जिले के हजारों आदिवासियों ने भाग लिया।

प्रारम्भ में टाउन हॉल से कमिश्नर कार्यालय तक रैली निकाली गई। कमिश्नर कार्यालय पर पहुँचने के बाद रैली धरने व सभा में परिवर्तित हो गई। सभा में गुलाब तावड, बगडूंदा, थावर चंद्र, खेरबाड़ा, कालूराम, गोगुंदा, मांगीलाल गरासिया, चिटावास (गोगुंदा), भूरालाल-ढिकोड़ा, नारायण सरू, कमरचंद, झाडोल, केसरीबाई, कोटड़ा, हरिराम, बांसवाड़ा, लिमड़ीबाई, झाली का गुड़ा, खेमराज, पई, भीमाराम, पिपाणा, भगवतीलाल, बेकरिया, बसंत कुमार खेरवाड़ा, भीमादास जामुन, मंगजीराम खेरवाड़ा, केसुराम व किशनलाल डूंगरपुर आदि ने विचार रखे।

धरनार्थियों को रमेश नंदवाना, किशोर संत, भंवरसिंह चदाणा, निखिल डे, गणेश पुरोहित, वेलाराम गोगरा ने भी सम्बोधित किया। वक्ताओं ने राज्य सरकार द्वारा पूर्व में आश्वासन देने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं करने पर भारी रोष जताया। वक्ताओं ने कहा कि वन विभाग की स्थापना के बाद जंगल तबाह हो गये हैं तथा वन अधिकारियों के घरों में भारी दौलत इकट्ठी हो गई है। सभी में घोषणा की गई कि जंगल-जमीन जन आन्दोलन द्वारा तैयार की सूचियों के सत्यापन का कार्य समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर नहीं किया गया, तो भविष्य में अनिश्चितकालीन धरना रखा जायेगा।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन का प्रतिनिधि मंडल शाम को जनजाति आयुक्त के एम मणि से मिला। विज्ञप्ति के अनुसार जनजाति आयुक्त ने यह आश्वासन दिया कि वे जनजाति लोगों के हितों की तरफदारी करेंगे तथा जंगल-जमीन जन आन्दोलन द्वारा पेश की गई सूचियों के सत्यापन का कार्य अभियान चलाकर पूरा करवायेंगे।

इस अवसर पर उपस्थित वन संरक्षक ने घोषणा की कि सत्यापन का कार्य 1 अप्रैल, 1997 से अभियान चलाकर किया जायेगा। अभियान किस तरह से चलाया जायेगा, इस बाबत कार्य योजना बनाने में जंगल-जमीन जन आन्दोलन के प्रतिनिधियों को शरीक रखा जायेगा।

प्रतिनिधि मंडल ने बातचीत का विवरण धरनार्थियों को बताया, इसके बाद धरना समाप्त करने की घोषणा की गई।

तो उदयपुर की जनता के साथ सरकार और फिर मीडिया ने भी स्वीकार किया कि आन्दोलन की माँगे नाजायज नहीं है।

दो दिवसीय सम्मेलन


पहला दिन - जंगल-जमीन जन आन्दोलन का दो दिवसीय सम्मेलन 9 सितम्बर, 1997 को यहाँ भंडारी दर्शक मंडप में बड़ी संख्या में आये आदिवासियों की मौजूदगी में शुरू हुआ, जिसमें वन भूमि पर 1980 से पूर्व काबिज आदिवासियों के कब्जों के नियमन के मामले में सरकार पर वादा खिलाफी का आरोप लगाया और आदिवासियों का आह्वान किया गया कि वे अपने हकों के लिये संघर्ष करें।

इस सम्मेलन के लिये उदयपुर के साथ ही राजसमंद, डूंगरपुर, पाली, सिरोही जिलों से बड़ी संख्या में आये आदिवासी महिला पुरुष टाउन हॉल पर एकत्र हुए और दोपहर एक बजे रैली के रूप में बापूबाजार, देहलीगेट, चेतक सर्कल होकर भंडारी दर्शक मंडप पहुँचे। रैली में सबसे आगे महिलायें चल रही थीं। आदिवासी अपनी माँगों को लेकर नारे लगा रहे थे।

सम्मेलन में जंगल-जमीन जन आन्दोलन के कार्यकर्ता रमेश नंदवाना ने कहा था कि देश आज अपनी आजादी की 50 वीं वर्षगाँठ मना रहा है। लेकिन आजादी अंग्रेजों के हाथ से निकलकर ठेकेदारों, खान मालिकों, सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों, मुनाफाखोरों व सूदखोरों के पास अटक कर रह गई है।

आदिवासी समुदाय गाँवों में अतिक्रमी और शहरों में दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गया है। ऐसे में, आदिवासी व ग्रामीण समाज को अपने भविष्य का फैसला स्वयं करना होगा और संसाधनों पर अपना हक कायम करना होगा।

महाराष्ट्र के कष्टकरी संगठन के प्रदीप प्रभु ने मानपुर में, अंग्रेजों की गोलियों से शहीद हुए लोगों को एक मिनट मौन रखकर श्रद्धांजलि दी और कहा कि आदिवासियों ने देश की आजादी के लिए कई कुर्बानियाँ दी है। कलकत्ता में 10 हजार संथाल अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते मारे गये। इसी तरह के 70 संघर्ष आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ किये, लेकिन आजादी के इतिहास में आदिवासियों का उल्लेख बहुत कम मिलता है। प्रभु ने कहा कि आदिवासियों के संघर्ष को दबाने के लिये मेवाड़ भील कोर की स्थापना की गई।

उन्होंने कहा कि आदिवासियों को अपने हकों के लिये संघर्ष करना होगा। गत पचास वर्ष में दूसरे लोगों को शासन चलाने का मौका दिया, लेकिन उन्होंने न्याय नहीं किया। आदिवासी व अन्य ग्रामीण हजारों वर्षों से जमीन पर काबिज हैं, लेकिन सरकार इस जमीन पर अपना अधिकार जता रही है। उन्होंने कहा कि शहर भले ही सरकार ले, लेकिन गाँव लोगों को देने होंगे। प्रभु ने- कहा कि आजादी के बाद आदिवासी हाथ फैलाने पर मजबूर हैं। आदिवासियों को भूमि के पट्टे नहीं बल्कि पूरे जंगल की माँग करनी होगी, क्योंकि जंगल पर आदिवासियों का कब्जा नहीं होगा तब तक उनका भला नहीं हो सकता।

सम्मेलन में डॉ. देवीलाल पालीवाल ने कहा कि मेवाड़ राज में आदिवासी कर लेते थे तथा सरकार को कोई शुल्क नहीं देते थे। अंग्रेजों के आने के बाद आदिवासियों का दमन शुरु हुआ। उन्होंने मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में हुए आदिवासी संघर्ष की जानकारी दी और कहा कि एक और आजादी की लड़ाई आदिवासियों को स्वयं लड़नी है। उन्होंने भ्रष्ट नेताओं व नौकरशाहों के खिलाफ एकजुट संघर्ष का आह्वान किया।

प्रारम्भ में जंगल- जमीन जन आन्दोलन के दो वर्ष की गतिविधियों की जानकारी देते हुए गोगुंदा के लाभ तातड़, सरू के नारायणलाल, डूंगरपुर के नारायणलाल, कोटड़ा की हरमी बाई व भंवरसिंह चदाणा ने कहा कि सरकार के लिखित आशवासन के बाद भी वन भूमि पर कब्जों के नियमन की दिशा में ठोस कदम नहीं उठ पाये हैं।

दूसरा दिन-जंगल-जमीन जब आन्दोलन के विधान एवं नियम प्रस्तुत किये गये थे जिन्हें सम्मेलन में उपस्थित सदस्यों ने स्वीकृत किया। आन्दोलन के विधान के अनुसार चार स्तरीय समितियाँ बनाई जायेंगी जिसमें प्रारम्भिक समिति ग्राम स्तर पर होगी, इसके बाद पंचायत स्तर पर, तहसील स्तर तक, तहसील में केन्द्रीय स्तर तक होगी। इस सत्र में आन्दोलन के उद्देश्य भी निर्धारित किये गये जिसमें यह तय किया गया कि आन्दोलन की लड़ाई केवल जंगल-जमीन तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि अब इस लड़ाई के दायरे में पूरे जंगल-जीवन को सम्मिलित किया जायेगा। संघर्ष में बिलानाम जमीन का मसला भी शामिल किया जायेगा। इसके अलावा जंगल-जमीन-पानी और खनन के मुद्दों पर भी संघर्ष करेगा। उद्देश्यों में जातिगत सांप्रदायिक तत्वों तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने का भी निर्णय लिया गया तथा सूचना के अधिकार एवं अवैध वन कटाई को रोकना भी आन्दोलन का उद्देश्य बनाया गया। आन्दोलन के घोषित उद्देश्यों पर सम्मेलन में काफी गम्भीर चर्चा हुई। इसके बाद विभिन्न तहसीलों से आये सदस्यों ने अपनी-अपनी तहसील की अलग-अलग बैठक कर तहसील समितियों का चयन किया तथा प्रत्येक तहसील से 5 सदस्यों का चयन केन्द्रीय समिति के लिये किया गया। केन्द्रीय समिति में आठ सदस्यों का चयन किया गया तथा केन्द्रीय समिति का गठन होने के बाद केन्द्रीय समिति की अलग बैठक हुई जिसमें आन्दोलन के 11 सदस्यीय आन्दोलन समिति का गठन किया गया।

तीसरे सत्र में आन्दोलन के साल भर के संघर्ष के कार्यक्रम बनाये गये तथा यह तय किया गया कि यदि आन्दोलन द्वारा प्रस्तुत की गई सूची के अनुसार वन भूमि पर काबिल लोगों को 31 जनवरी तक पट्टे नहीं दिये गये तो आन्दोलन किया जायेगा तथा 6 फरवरी, 1998 से अनिश्चितकालीन धरना दिया जायेगा। यह भी तय किया गया कि इसी अवधि में सरकार में यदि बिलानाम भूमि के कब्जों का नियमन नहीं किया तो बिलानाम पर काबिज लोग भी धरने में शरीक होंगे। सर्वसम्मति से लिया गया कि आन्दोलन के सदस्य एवं उनके रिश्तेदार वन विभाग के कर्मचारियों को अपने घर में नहीं आने देंगे तथा उनसे किसी तरह का न तो कोई सम्बन्ध रखेंगे और न ही विभाग के कार्यों में मजदूरी करने आयेंगे। वनों की अवैध कटाई को रोकने के लिये यह निर्णय लिया गया कि जहाँ-जहाँ आन्दोलन की कमेटियाँ हैं उन क्षेत्रों में वन विभाग के कर्मचारियों सहित किसी को भी जंगल नहीं काटने दिया जायेगा और जो भी वनों की अवैध कटाई करता हुआ पाया जायेगा तो उसके खिलाफ आन्दोलन और कठोर कार्रवाई की जायेगी। तहसील स्तर की कमेटियों के लिये एक निर्णय लिया गया कि इनकी मासिक बैठकें होंगी तथा सभी तहसील कमेटियों ने अपने स्तर पर जुलूस व धरने के कार्यक्रम बनाये तथा जहाँ कहीं भी आन्दोलन के सदस्यों के साथ वन विभाग द्वारा ज्यादती किया जाना पाया जायेगा वहाँ सभी स्तर के कार्यकर्ता व सदस्य मौके पर जायेंगे। सम्मेलन में यह भी तय किया गया कि आन्दोलन के उद्देश्य का प्रचार व प्रसार पदयात्रायें करके किया जायेगा।

दिन के एक बजे सम्मेलन में शरीक सभी लोग जुलूस के रूप में जनजातीय आयुक्त कार्यालय पर पहुँचे जहाँ जनजातीय आयुक्त को ज्ञापन दिया तथा आन्दोलन के प्रतिनिधि मंडल ने जनजातीय आयुक्त को सम्मेलन में लिये निर्णयों से अवगत कराया तथा वन विभाग द्वारा शिविरों के आयोजन में की गई कोताही की शिकायत की। जनजातीय आयुक्त के एस मणि ने प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया कि वन विभाग द्वारा लगाये गये शिविरों की समीक्षा के लिये उच्च स्तरीय बैठक बुलायेंगे तथा वन विभाग द्वारा की गई कोताही की जाँच वे अपने स्तर पर करवायेंगे।

तीसरा दौर


इस बीच आन्दोलन की गतिविधियाँ लगातार जारी रहीं। कब्जों के भौतिक सत्यापन के लिये जिन शिविरों की घोषणा हुई थी, वे प्रत्येक रेंज, वन नाकों पर आयोजित हुए। लोग भारी तादाद में पहुँचे, लेकिन किसी कोरम के अभाव में ये शिविर सफल नहीं हो पाये और केवल खानापूर्ति बनकर रह गये।

इस बीच संभाग कमेटी की बैठक 7 मई, 1998 को हुई। बैठक में समस्त राजनैतिक पार्टियों के चुनाव के दौरान दिये गये आश्वासनों पर अमल नहीं करने तथा व्यावहारिक रूप से 1980 के पूर्व के लोगों के कब्जों के नियमन का आयोजन नहीं होने पर रोष व्यक्त किया गया।

गत लोकसभा के दौरान आंदोलन के द्वारा समस्त राजनैतिक पार्टियों के सामने रखे गये प्रश्नों एवं उसके जवाब में पार्टी उम्मीदवारों व पदाधिकारियों द्वारा लोगों को लिखित आश्वासन भी दिये गये कि वे 1980 के पूर्व के कब्जों के नियमन करवाने की कार्रवाई करेंगे। इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं होने के कारण आदिवासी क्षेत्रों में किसी के भी कब्जों का नियमन नहीं हुआ जबकि 6 फरवरी, 1996 के आन्दोलन को लिखित में सरकार के निर्देश पर जनजाति आयुक्त ने लिखित में आदेश दिया था।

बैठक के बाद संभाग स्तरीय बैठक का एक प्रतिनिधि मंडल संभगीय आयुक्त सी एस मीणा से मिला और अब तक की कार्रवाई की समीक्षा करने और पिछले साल भर से नियमन के लिये भेजे गये लोगों की सूची उपलब्ध करवाने एवं शेष रहे कब्जों की पहचान के लिये व्यवस्थित रूप से पंचायत स्तर पर फिर से शिविरों के आयोजन की माँग की गई।

जनजाति आयुक्त ने प्रतिनिधि मंडल को आश्वस्त किया कि वर्तमान में शुरू हो रहे राजस्व शिविरों में ही जंगल-जमीन के मुद्दे पर कमेटी मौके पर पहचान की कार्यवाही पूरी करेगा तथा शेष रहने वाले लोगों के लिये अलग से शिविर लगाने का निर्णय उसी शिविर में कर लिया जायेगा ताकि लोगों को सुविधा हो सके। इस बाबत जनजाति आयुक्त ने जिला कलेक्टर से राय कर प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन दिया। प्रतिनिधि मंडल में हरिशंकर करमचंद, नरेन्द्र गुर्जर, नारायणलाल, भेराजी, रामचंद्र, अश्वनी पालीवाल, मांगीलाल गुर्जर, राधिका और नानालाल उपस्थित थे।वहीं दूसरी तरफ झाड़ोंल में जून के पहले सप्ताह में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया।

संभाग कमेटी की एक और बैठक 7 अगस्त, 1998 को हुई।

बैठक में सरकार की ओर से 1980 से पूर्व वनभूमि पर आदिवासियों के कब्जों के नियमन के लिखित आश्वासन एवं 1991 के आदेश के बावजूद पिछले 7 वर्षों में एक भी कब्जे का नियमन नहीं करने एवं गरीब आदिवासी लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ व अन्याय के विरुद्ध आन्दोलन तेज करने का निर्णय लिया गया। आन्दोलन के भंवरसिंह चदाणा ने बैठक में वन विभाग के अधिकारियों की कई आदिवासी किसानों को जबरन बेदखल कर उनके खेतों में गड्ढे खुदवाकर जमीन बर्बाद करने की कार्रवाई की निंदा की।

लोगों से जमीन खाते करने के नाम पर वन विभाग के कर्मचारी स्टाम्प पर आदिवासियों का अंगूठा लगवाकर खुद लिख रहे हैं कि मैं आज से कब्जा छोड़ रहा हूँ। इस तरह की धोखाधड़ी कोटड़ा तहसील में सामने आने की जानकारी रमेश नंदवाना ने दी। बैठक में अफसोस जाहिर किया कि लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यमन्त्री ने 90 दिन के पट्टे देने तथा अन्य दलों ने 1980 के पहले काश्त कर रहे लोगों के पट्टे देने का आश्वासन दिया था, लेकिन उसका क्रियान्वयन आज तक नहीं हुआ। किशोर संत ने बताया कि बैठक में 7 सितम्बर से उदयपुर में हजारों आदिवासियों के प्रस्तावित अनिश्चितकालीन धरने की तैयारियों पर भी चर्चा की गई। यह भी निर्णय लिया गया कि आमरण अनशन पर भी बैठना पड़ा तो भी इस बार सरकार से 1980 से पूर्व के कब्जों का निर्णायक फैसला करवाकर ही आन्दोलन पूरा किया जायेगा।

गणेश पुरोहित ने बताया कि जंगल-जमीन, बिलानाम भूमि व आदिवासी क्षेत्रों के लिये स्वशासी कानून लागू करने की माँगे धरने में प्रमुख होंगी। बैठक में गोगुंदा, झाड़ोल, कोटड़ा, सराड़ा, धरियावद, सलूम्बर, गिरवा, खेरवाड़ा, वल्लभनगर, डूंगरपुर, राजसमंद, सिरोही, देसूरी आदि क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

एक बार फिर धरना


संभाग के वनों में बरसों से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल करने की राज्य सरकार की कार्रवाई के विरोध में 26 अगस्त, 2003 को हजारों आदिवासियों ने जिला कलेक्टेरियट पर प्रदर्शन कर अपने-अपने कब्जों की दावे पेश किये। नारों और ढोल-नगाड़ों से आसमान गुँजाता और हाथों में नारे लिखी तख्तियाँ लिये आदिवासियों की रैली शहर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ जिला कलेक्टेरियट पर दोपहर ढाई बजे पहुँची थी और जिले के साढे सात हजार आदिवासियों के कब्जे के दावे पेश किये।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के बैनर तले 7 सितम्बर, 1998 से यहाँ संभागीय आयुक्त कार्यालय पर सैकड़ों आदिवासियों ने वन भूमि से बेदखली के खिलाफ धरना शुरू किया और एलान किया गया कि धरना तभी समाप्त होगा जब आदिवासियों की वन भूमि से बेदखली रोकने के बारे में ठोस फैसला हो।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, पाली, उदयपुर, सिरोही जिले की आदिवासी तहसीलों से बड़ी संख्या में आदिवासी स्त्री व पुरुष टाउन हॉल पर एकत्र हुए और रैली के रूप में बापूबाजार, देहलीगेट, अस्पताल रोड, चेतक सर्कल होकर संभागीय आयुक्त कार्यालय पहुँचे। जुलूस में शामिल आदिवासी हाथों में अपनी माँगे लिखी तख्तियाँ लिये हुए थे और नारे लगा रहे थे। जुलूस संभागीय आयुक्त कार्यालय पहुँचकर सभा में बदल गया। इसी दौरान आन्दोलन के कर्ता-धर्ता-किशोर संत, भंवरसिंह चदाणा, गणेश पुरोहित, रमेश नंदवाना व विभिन्न तहसीलों से आये 15 व्यक्तियों के प्रतिनिधि मंडल ने संभागीय आयुक्त सीएस मीणा से उनके कक्ष में बातचीत की। बातचीत में अतिरिक्त आयुक्त एन के जैन अतिरिक्त जिला कलेक्टर (नग) बीआर भाटी, अपर पुलिस अधीक्षक, भारत सिंह सिसोदिया व वन विभाग के अधिकारी भी मौजूद थे। बातचीत के दौरान आन्दोलनकारी लोगों ने कहा कि जिन 12 हजार आदिवासियों की सूची उन्होंने पूर्व में प्रस्तुत की है, उन सभी मामलों में आदिवासियों की बेदखली रोकी जाये और सूची पर इसका लिखित आश्वासन दिया जाये। इसके अलावा स्वशासन कानून लागू करने की प्रकिया शुरू की जाये। आन्दोलन के कर्ता-धर्ताओं ने कहा कि वन विभाग सात साल की अवधि में भी कब्जों के नियमन की कार्रवाई पूरी नहीं कर पाया है और अब यह धरना तभी खत्म होगा जब बेदखली रोकने की घोषणा हो।

संभागीय आयुक्त ने इस पर राज्य सरकार व वन सचिव से वार्ता करने की बात कही।

धरनास्थल पर सभी वक्ताओं ने आरोप लगाया कि राज्य की भाजपा सरकार पूँजीपतियों की संरक्षक बनी हुई है जबकि गरीब आदिवासियों की माँग को लेकर उसने आँखें मूँद रखी है।

वक्ताओं ने कहा कि वर्ष 1980 से पूर्व के कब्जों के नियमन के लिये आदेश 1991 में जारी हुए, लेकिन सात साल में यह तय नहीं किया जा सका कि किसका कब्जा कहाँ है और नियमन के दायरे में आता है या नहीं। इस काम के लिये लगाये गये शिविर मखौल बनकर रह गये।

शिविरों में अधिकारी व अन्य लोग पहुँचे नहीं। जंगल-जमीन जन आन्दोलन ने अपने स्तर पर यह कार्य करके 12 हजार लोगों की सूची एक साल पहले दे दी लेकिन उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। वक्ताओं ने राज्य सरकार पर भेदभाव-पूर्ण नीति अपनाने का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने महाजन, व्यापारी वर्ग के दवाब में आकर चुँगी समाप्त कर दी। उच्चतम न्यायालय ने वन क्षेत्र में खनन पर पाबंदी लगाई तो 6 माह में प्रस्ताव बनाकर केन्द्र को भेज दिये गये और अनुमति मिल गई लेकिन गरीब आदिवासी के कब्जों का सात साल में भी नियमन नहीं हो पाया। सरकार अपनी ही घोषणा पर अमल नहीं कर पा रही है।

दूसरे दिन यह तय हुआ कि 26 सितम्बर तक तहसीलवार धरने दिये जायेंगे। जंगल-जमीन जन आन्दोलन की ओर से यहाँ संभागीय आयुक्त कार्यालय पर आयोजित इस धरने पर मंगलवार को कोटड़ा, कुंभलगढ़, गोगुंदा, खेड़वाड़ा, सराड़ा, सलूम्बर, वल्लभनगर, गिर्वा आदि तहसीलों एवं पाली जिले की देसूरी व बाली तहसील तथा सिरोही व डूंगरपुर जिले के आदिवासी बैठे। धरना स्थाल पर सभी को जंगल-जमीन जन आन्दोलन के रमेश नंदवाना, किशोर संत, मजदूरी किसान शक्ति संगठन, भीम के शंकर सिंह आदि ने सम्बोधित किया। साथ ही नारायण लाल संत, डूंगरपुर, जागरण जन विकास समिति की राधिका, पेमा, जयसमंद, गिर्वा प्रधान धर्मा मीणा, दुर्गावती वैष्णव, महिला विकास मंच, जवान राम मीणा, गलाब तावड़, बगडून्दा, डी एस पालीवाल, आदिवासी विकास मंच, काटड़ा की न्याय संगत माँग को शीघ्र पूरा करे। वक्ताओं ने रोष व्यक्त किया कि सात वर्ष की अवधि में भी वन विभाग ने कब्जों की पहचान की कार्यवाही नहीं की इस बीच दोपहर 12 बजे जनजाति आयुक्त ने आन्दोलन के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिये आमंत्रित किया।

वार्ता में आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने आयुक्त को बताया कि जब तक जंगल-जमीन जन आन्दोलन द्वारा दी गई 12 हजार लोगों की सूची के आधार पर कब्जे नहीं हटाने का लिखित में आश्वासन नहीं दिया जाता आन्दोलन जारी रहेगा। वन विभाग के अधिकारियों ने कहा कि वे मौखिक रूप से कब्जे नहीं हटाने की बात पर सहमत हैं मगर लिखित आश्वासन नहीं दे सकते हैं। आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने बताया कि कब्जे नहीं हटाने के लिखित आश्वासन की माँग काफी लम्बा समय गुजर जाने के बाद की गई है। प्रारम्भ में आन्दोलन की माँग कब्जों के पहचान करवाने की रही मगर वन विभाग द्वारा बार-बार दिये गये आश्वासनों के बाद भी कब्जों की पहचान नहीं हुई, जिस पर आन्दोलन को अपने स्तर पर कब्जों की पहचान का कार्य करवाना पड़ा। वार्ता में कब्जों की पहचान के लिये समयबद्ध कार्यक्रम चलाने एवं जिला व संभाग स्तर पर मूल्यांकन के लिये बैठकें आयोजित किये जाने का आन्दोलन के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया। प्रशासन द्वारा लिखित आश्वासन नहीं दिये जाने पर वार्ता बीच में ही समाप्त हो गई।

उधर जिलाधीश ने उच्च स्तर पर बातचीत कर स्थिति से आन्दोलन को अवगत कराने का आश्वासन दिया। जनजाति आयुक्त के साथ हुई वार्ता से धरनार्थियों को अवगत कराया और सभी की एकमत से राय थी कि जब तक पट्टे या बेदखली नहीं करने का लिखित आश्वासन नहीं मिले तब तक धरना जारी रहेगा। धरनास्थल पर हुई सभा में उदयपुर में उच्च न्यायालय की खंडपीठ की स्थापना के चल रहे आन्दोलन को पूरा समर्थन देने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया तथा प्रस्ताव में कहा गया कि आन्दोलन में जिस तरह का सहयोग जंगल-जमीन जन आदोलन से अपेक्षित होगा, सहयोग प्रदान किया जायेगा। इस प्रस्ताव में माँग की गई कि सरकार उदयपुर में खंडपीठ की स्थापना तुरंत करें अन्यथा इस आन्दोलन के साथ जंगल-जमीन जन आन्दोलन सक्रिय भागीदारी निभायेगा। इस बीच उदयपुर में धरने का कार्यक्रम तहसील अनुसार इस प्रकार तय किया गया। 9 व 10 सितम्बर गिर्वा, सरू एवं पई क्षेत्र, 11 व 12 वली व अन्य गिर्वा क्षेत्र, 13 व 14 कोटड़ा व आबूरोड, 15 व 16 गोगुंदा व बाली, 17 व 18 झाड़ोल, 19 व 20 कुंभलगढ़, घाणेराव, 21 व 22 खेरवाड़ा, 23 व 24 वल्लभनगर, 25 व 26 सलूम्बर, धरियावद, 27 व 28 सराड़ा, 29 व 30 डूंगरपुर। यह तय किया गया कि 26 सितम्बर को सभी जिलों व तहसीलों के लोग उदयपुर आयेंगे तथा केन्द्रीय समिति आदोलन का स्वरूप तय करेगी।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के तत्वावधान में दक्षिण राजस्थान में वन भूमि पर 1980 से पूर्व में काबिज आदिवासियों को पट्टे देने की माँग को लेकर बुधवार को तीसरे दिन भी धरना जारी रहा। तेज बारिश के बावजूद कल रात एवं आज दिनभर आदिवासी संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष धरने पर डटे रहे। रातें भजन गाकर तथा दिन नारे लगाकर गुजार रहे हैं। बुधवार को कोटड़ा, कुंभलगढ़, गोगुंदा, खैरवाड़ा, सराड़ा, सलूम्बर, वल्लभनगर, गिर्वा आदि तहसीलों के लोगों ने धरने में भाग लिया। धरनास्थल पर लोगों ने अपने क्षेत्रों की दुखद स्थिति के बारे में जानकारी दी। बारिश के कारण आन्दोलनकारियों का तम्बू अस्त-व्यस्त हो गया। बारिश में तम्बू में पानी टपक रहा था तथा लोगों के कपड़े भीग गये थे।

अधिकतर लोगों के पास एक ही जोड़ा कपड़े होने के कारण वे उन्हीं कपड़ो में धरनास्थल पर ठिठुरते रहे। बारिश के कारण राशन, बैनर व अन्य सामग्री भी भीग गईं। बारिश थमने के बाद उन्होंने तम्बू ठीक किया तथा वापस नये जोश से नारे लगाते हुए प्रशासन के समक्ष यह जाहिर करते रहे कि वे हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए अपने हक को हासिल करने तक वहीं जमे रहेंगे। राजस्थान जनजातीय चहुंमुखी विकास संस्थान के अध्यक्ष अमृत मीणा ने जंगल-जमीन आन्दोलनकारियों की माँगों का समर्थन किया है तथा माँगे नहीं माने जाने के लिये सरकार की निंदा की।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के तत्वावधान में 1980 से पूर्व वन भूमि पर काबिज आदिवासियों को पट्टे देने एवं राज्य में स्वशासन कानून लागू करने की माँग को लेकर चौथे दिन भी धरना जारी रहा।

गिर्वा के सरू एवं पई क्षेत्रों के लोग गुरुवार को हरिशंकर व खेमराज मीणा के नेतृत्व में धरने पर बैठे। इस अवसर पर आयोजित सभा में सरू के उप सरपंच नारायणलाल ने बताया कि सरू गाँव में करीब भी लोगों को 1977 में राजस्व विभाग ने पट्टे जारी किये थे, लेकिन 1980 के बाद वन विभाग ने इस भूमि को अपना बताकर लोगों को परेशान करना शुरु कर दिया। वन विभाग के लोग आये दिन उनकी फसलें उखाड़ देते हैं तथा चारदीवारी तुड़वा देते हैं। गाँव वालों को हमेशा चौकस रखना पड़ा है। गोगुंदा तहसील के सिवडिया गाँव में धरने पर आ गज्जा ने भी बताया था कि उसके 35 वर्ष पुराने कब्जे को हटाने वन विभाग वाले आतंकित करते रहते हैं।

सरू गाँव के फूला, मनु, कुबेरा, लक्ष्मण का कहना था चार पीढ़ी से वन भूमि पर कब्जा है, लेकिन वन विभाग वालों ने दो साल पहले खेतों में गड्ढे खोद डाले। खरेड़ी फलां के गल्ला, पिता चौखा थावरा, पिता, होमा, रामजी, किशोर, पिता, भगवाना, वजा, पिता, भौमा को 1972 में जमीन आवंटित हुई, लेकिन अमलदरामद नहीं हुई और अब बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है।

मोखी गाँव के टीलाराम ने बताया कि उसका वन भूमि पर 1978 के पहले का कब्जा है। वन विभाग वालों ने उसके यहाँ यह कहकर पौधरोपण कराया कि पौधे उसके रहेंगे, मगर बाद में आकर कब्जा हटाने की धमकी दे रहे हैं। बायड़ी (खैरवाड़ा) के कल्ला ने बताया कि उसका एवं 20 अन्य लोगों का 40 वर्ष पुराना कब्जा है, मगर उन्हें भी आकर परेशान किया जाता है। जूनी पादर (कोटड़ा) से आई देऊ बाई ने बताया कि उसके परिवार ने कुआँ भी अपने कब्जे में कर लिया, उसी कुएँ का उपयोग कर वन विभाग ने देऊ बाई की जमीन पर नर्सरी बना ही है। जंगल-जमीन जन आन्दोलन के माध्यम से चलाये जा रहे धरने को आज विभिन्न जन संगठनों ने अपना समर्थन दिया। चंदेश्वर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष देवकिशन ने धरना स्थल पर आकर बताया कि समिति झाड़ोल में जंगल-जमीन जन आन्दोलन के समर्थन में 26 सितम्बर को प्रदर्शन करेगी। एकलिंगनाथ संघर्ष समिति के सचिव सीताराम व्यास ने धरनास्थल पर आकर समर्थन किया। समता पार्टी ने भी आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की थी।

वे आये दिन फसल उजाड़ देते हैं, मजदूर लाकर चहारदीवारी बनवाना शुरू कर देते हैं, हल-बैल उठाकर ले जाते हैं। हमेशा यही डर सताता है कि न जाने कब वन विभाग वाले आ जाये और वर्षों की मेहनत से तैयार की गई जमीन से बेदखल कर दें, रोजी-रोटी का जरिया छीन ले।

यही व्यथा है, संभाग के उन आदिवासियों की जो दशकों से आरक्षित वन क्षेत्रों में या इनके इर्द-गिर्द रहकर जीवन बसर करते आ रहे थे और वन विभाग द्वारा बिना किसी सत्यापन-पहचान के बेदखली की कार्रवाई के शिकार हो रहे हैं। ये आदिवासी अपनी इस व्यवस्था को लेकर यहाँ जनजाति आयुक्त कार्यालय के समक्ष पिछली 7 सितम्बर से इस आस में धरना दिये बैठे हैं कि शायद उनकी वेदना को कोई समझेगा। राज्य सरकार ने वर्ष 1980 से पूर्व के कब्जों के नियमन की घोषणा करीब 7 साल पूर्व की थी, लेकिन यह मामला आज तक सुलझ नहीं पाया है।

धरनास्थल पर बैठे सरू के उप सरपंच नारायणलाल व हरिशंकर का दर्द है कि वे और गाँव के करीब एक सौ जनों का 1977 में जनता पार्टी के शासन में राजस्व विभाग ने पट्टे जारी किये थे तब कुल 571 लोग वन भूमि पर काबिज थे। जिन लोगों को पट्टे दिये गये उनका रिकार्ड में इंद्राज होना था, लेकिन नहीं हुआ और 1980 के बाद वन विभाग ने इस जमीन को अपनी बताकर लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया। आये दिन आदिवासियों की फसल उखाड़ देते हैं तो कभी बाहर से मजदूर लाकर बाउंड्री बनाने का कार्य शुरू कर देते हैं।

देसूरी की नाल में गरासिया कॉलोनी के 60 परिवार 300 बीघा जमीन पर आजादी से पहले से काबिज हैं। लेकिन एक भी परिवार को आज तक पट्टा नहीं दिया। उलटे उन्हें बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है। यंपाराम व भूरी बाई के मुताबिक वे बरसों से जमीन पर खेती करते हैं। लघुवन उपज लेते हैं।

इन दोनों ने बताया कि उनकी तीन सौ बीघा जमीन से 60 बीघा जमीन तो राजस्व विभाग में आ गई और आवंटन हो गया, जबकि उनकी 300 बीघा जमीन को वन में शामिल किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि वर्षों की मेहनत से जमीन को खेती लायक बनाया। सिंचाई विभाग ने ठंडी बेरी में एक एनिकट बनाया जिससे 7 किलोमीटर लम्बी नहर बनाकर खेतों तक पानी पहुँचाया गया, लेकिन अब एनिकट व नहर से पानी लाने पर रोक लग गई है। जिले के कोटड़ा तहसील के जूनी पादर गाँव की देऊ बाई का कहना था कि उसने जंगल-जमीन पर कुँआ खोदा, मकान बनाया लेकिन वन विभाग ने उसे बेदखल कर दिया।

उसकी जमीन पर नर्सरी लगा दी और कुएँ का पानी नर्सरी के काम आ रहा है। उसके पशु जंगल में जाते है तो पेनाल्टी वसूली जाती है। गोगुंदा तहसील के मौरबी क्षेत्र के टीलाराम की व्यथा यह थी कि वन भूमि पर वह 1978 से काबिज है। वन विभाग वालों ने उसे यह सलाह दी कि जमीन पर पेड़-पौधे लगाओ, ये पेड़-पौधे तुम्हारे रहेंगे। लेकिन अब उस जमीन से बेदखल कर दिया।

सरू गाँव के फूला, मनु, कुबेरा, लक्ष्मण का कहना था चार पीढ़ी से वन भूमि पर कब्जा है, लेकिन वन विभाग वालों ने दो साल पहले खेतों में गड्ढे खोद डाले। खरेड़ी फलां के गल्ला, पिता चौखा थावरा, पिता, होमा, रामजी, किशोर, पिता, भगवाना, वजा, पिता, भौमा को 1972 में जमीन आवंटित हुई, लेकिन अमलदरामद नहीं हुई और अब बेदखल करने की कार्यवाही हो रही है।

छठे दिन धरनास्थल पर बैठे हायला गाँव के नगाराम ने बताया कि 350 बीघा जमीन पर 56 परिवारों का 1971 से पूर्व का कब्जा है, इस पर वन विभाग वालों ने खड़ी फसल उजाड़ दी। इसके बावजूद इनमें से आठ लोगों पर वन क्षेत्र में मवेशियों द्वारा नुकसान करने का थाना सायरा में वन विभाग द्वारा एक झूठा मुकदमा दर्ज करवाया गया। भलावतों का गुड़ा गाँव से राजूगोपा ने बताया कि 1976 से पहले से 40 बीघा जमीन पर उनके सहित 5 परिवारों का कब्जा है। इस पर 10 सितम्बर को वन विभाग ने मवेशी अंदर डालकर 4 बीघा जमीन पर खड़ी मक्का की फसल को बर्बाद कर दिया। राजू ने आरोप लगाया था कि समय-समय पर वन विभाग वाले आकर जुर्माने के नाम पर रिश्वत लेते हैं और डराते-धमकाते रहते हैं।

इसी प्रकार वल्लभनगर तहसील के गोला गाँव में चेनराम ने बताया कि 29 अगस्त को उसके सहित छह परिवारों के खेतों की बाड़ को वन विभाग के लोगों ने जलाकर मक्का व तिल की खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। धरनास्थल पर उदावड़ गाँव के रूपा ने बताया था कि वह उसकी कब्जेशुदा जमीन पर बचपन में माता-पिता की मृत्यु के बाद 15 वर्षों से खेती नहीं कर पाया। उस पर वन विभाग वालों ने कब्जा कर लिया जबकी इस जमीन पर आम, महुआ, जामुन आदि फलदार वृक्षों के अलावा मकान भी बना हुआ है। जब तब हम लोगों ने घरों में काम करके अपना पेट पाला है।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन कमेटी ने बताया था कि एक तरफ गुजरात सरकार वनवासियों की सहकारी समिति के माध्यम से वन विकास कर रही है वहीं राजस्थान सरकार आदिवासियों से जंगलों के विकास के लिये सहयोग लेने की बजाय उनको वहाँ से खदेड़ रही है।

धरनास्थल पर आज बडंगा गाँव के लोगों ने गवरी का प्रदर्शन किया व भजन-कीर्तन किया। ग्राम पंचायत कठार के मोतीलाल सुधार ने धरनास्थल पर आकर अपना समर्थन व्यक्त किया। धरने पर बैठे लगभग तीन सौ लोगों ने देर शाम को रैली के रूप में जाकर वन संरक्षक और जिला कलेक्टर के समक्ष प्रदर्शन किया।

सातवें दिन आबू व कोटड़ा क्षेत्र के आदिवासियों ने जनजाति विकास व संभागीय आयुक्त कार्यालय के सामने धरना दिया। इसका नेतृत्व आबू क्षेत्र के हिमाराम व सबलाराम और कोटड़ा क्षेत्र के लाडूराम परिहार, केसरी बाई व हरमी बाई ने किया। शाम को आदिवासियों ने वन संरक्षक और कलेक्टर के सामने प्रदर्शन किया।

धरनास्थल पर मौजूद महेश यादव ने बताया था कि आबू में कुल 25 गाँव आते हैं। इसे भाखर पट्टे के नाम से जाना जाता है। इसमें आधे से अधिक परिवार अपना जीवन यापन जंगल-जमीन से करते आ रहे हैं। इसमें जंगल-जमीन जन आन्दोलन आबूरोड कमेटी ने दो गाँवों का सर्वे किया। इसमें 300 परिवार 1980 से पूर्व के कब्जे वाले हैं।

पिछले वर्ष पूरे आबू क्षेत्र के आदिवासियों की जंगल-जमीन पर 80 से पहले बसे होने की पहचान के शिविर लगाने की तारीखें घोषित की गईं परन्तु मात्र डैरना गाँव में ही शिविर लगा और इसने भी एक ही व्यक्ति की पहचान हो पाई, जिसे पट्टा दिया गया। यादव ने बताया कि आबू क्षेत्र के 16 गाँवों के प्रतिनिधि रविवार को इस धरने पर आये हैं।

धरनास्थल पर आबू क्षेत्र के नीचली बोर गाँव से आए वेलाराम ने बताया कि इसके सहित दो परिवारों की सात बीघा जमीन पर वन विभाग ने इसी वर्ष फरवरी में बाड़ बना दी। उस समय उन्हें यह बताया गया कि हम बाड़ बना रहे हैं परन्तु जमीन तुम्हारी रहेगी और बाद में उस जमीन पर नर्सरी लगा दी। इस जमीन पर वेलाराम का परिवार पिछले 40 वर्षों से काबिज़ है।

फतापुरा के सबलाराम ने बताया कि 1967 में गिरवर बाँध से विस्थापित होकर उसके सहित 17 परिवार इस गाँव की 50 बीघा जमीन पर आकर बसे। 1987 में वन विभाग ने इस परिवारों के 17 लोगों पर हरे पेड़ काटने का झूठा मुकदमा चलाया।

इस अवसर पर धरनार्थियों को हीराराम ने बताया था कि वेरा गाँव के 60 परिवारों का वहाँ 30 वर्ष से पुराना कब्जा है। वन विभाग ने इनकी जमीनों की नापजोख कर ली है, जिसमें आधे से ज्यादा करीब 160 बीघा जमीन पर नर्सरी लगाने की तैयारी है। इसी प्रकार गाँव डेरी के चंपाराम ने बताया कि 60 घरों की बस्ती, जिसकी लगभग 250 बीघा जमीन है। उसे पिछले वर्ष वन विभाग ने मक्का की खड़ी फसल में चहारदीवारी चुन दिया। इस आन्दोलन को खमनोर प्रधान कल्याण सिंह चौहान ने समर्थन दिया है।

इधर आन्दोलनकर्ताओं ने सार्वजनिक निर्माण विभाग राज्यमन्त्री महावीर भगोरा से मिलकर उन्हें एक ज्ञापन दिया। ज्ञापन में बताया गया कि 1980 से पूर्व वनभूमि पर बैठे लोगों को पट्टे देने का सरकार द्वारा जारी आदेश की पालना सात वर्ष की लम्बी अवधि बीत जाने पर भी नहीं हो पाई। यदि सरकार वन विभाग द्वारा लोगों का बेदखल नहीं करने का लिखित आश्वासन नहीं देती है तो आदिवासी समुदाय व्यापक स्तर पर आन्दोलित होने पर मज़बूर होगा। रविवार शाम को आदिवासियों ने नारे व गीत गाते हुए जुलूस निकाला और वन संरक्षक व जिलाधीश कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया। जंगल-जमीन जन आन्दोलन कमेटी ने बताया कि सोमवार को मशाल जुलूस निकाला जायेगा।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के नेताओं व संभागीय आयुक्त और जिला कलेक्टरों के साथ हुए लिखित समझौते के बाद आन्दोलन वापस ले लिया है। लिखित समझौते में सरकार 1980 से पहले काबिज लोगों को बेदखल नहीं करेगी।

संभागीय आयुक्त चंद्रमोहन मीणा, जिला कलेक्टर राजसमंद, बांसवाड़ा व उदयपुर, वरिष्ठ वन अधिकारी वन संरक्षक पश्चिम, अरावली वृक्षरोपण परियोजना वन्य जीव के वन संरक्षक एवं अन्य वन्य अधिकारियों के साथ जंगल-जमीन जन आन्दोलन के प्रतिनिधि धर्मी बाई, वजाराम, लालूपरिहार, केशोराम गोड, भंवरसिंह चदाणा, तेली बाई, गणेश पुरोहित, रमेश नंदवाना, किशोर संत, महेश यादव व पूर्व विधायक मेघराज तावड़ सहित कई कार्यकर्ताओं के साथ 14 सितम्बर, 1998 को अपराह्न तीन बजे एक बैठक हुई। इसमें प्रशासन ने लिखित समझौता किया कि सरकार वर्ष 1980 से पहले काबिज लोगों को बेदखल नहीं करेगी और इसके लिये विशेष शिविर लगाकर आदिवासियों की पहचान की जायेगी। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि काबिज लोगों को यदि कोई हटायेगा तो यह बात वरिष्ठ अधिकारी के ध्यान में लाई जायेगी।

सौहार्दपूर्ण समझौते के बाद जंगल-जमीन जन आन्दोलन समिति के प्रतिनिधियों ने धरना वापस लेने की घोषणा की।

समझौता वार्ता में यह भी तय किया गया कि जनजाति आयुक्त के नेतृत्व में वन अधिकारियों, जिला कलेक्टरों व जंगल-जमीन आन्दोलन के प्रतिनिधियों की एक समिति गठित की गई जो प्रति दो माह में इस तरह के मसलों पर समीक्षा करेगी।

संभागीय आयुक्त ने धरनार्थियों को यह भी आश्वासन दिया कि ग्राम शासन की माँग पर शीघ्र ही सरकार से कहकर एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई जायेगी ताकि यह भी अतिशीघ्र लागू किया जाये।

आमने-सामने


जंगल-जमीन जन आन्दोलन की संभाग कमेटी ने आज जंगल-जमीन से जुड़े विभिन्न मसलों पर राजनीतिक पार्टियों के नेताओं का रुख जानने के लिये आमने-सामने कार्यक्रम का आयोजन किया। लेकिन इस कार्यक्रम में आमंत्रित प्रमुख पार्टियों के कई प्रमुख नेता आये ही नहीं।

तीन चरणों में सम्पन्न इस कार्यक्रम में प्रथम चरण में महंत मुरली मनोहर शरण शास्त्री की अध्यक्षता में भाजपा प्रदेश कमेटी के सदस्य मांगीलाल जोशी ने जंगल-जमीन, खान मजदूर, उद्योगों द्वारा प्रदूषण, वन्य अभ्यारण्य तथा आदिवासी स्वशासन के मुद्दों पर अपनी व पार्टी का समर्थन व्यक्त किया। जोशी ने कहा कि इस कार्यक्रम में आने के पाश्चात्य जंगल-जमीन की समस्या तथा आदिवासी स्वशासन के मुद्दों की सही जानकारी हुई है। उन्होंने बताया कि जंगल- जमीन के पट्टों का मसला प्रशासन के स्तर पर लंबित हो रहा है।

अध्यक्षीय भाषण में महंत मुरली मनोहर शरण शास्त्री ने कहा कि नेता लोग मौका देखकर बातें करते हैं, इनकी वादों की आदत है पर अब वादों से यह देश नहीं चलेगा।

कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता मधुसूदन शर्मा ने वयोवृद्ध गाँधीवादी दयालचंद सोनी की अध्यक्षता वाले दूसरे चरण में बताया कि कांग्रेस के लिये आदिवासियों का स्वास्थ्य, पानी व जमीन का मुद्दा प्राथमिकता पर है। उन्होंने कहा कि सता में आने पर कांग्रेस आदिवासी स्वशासन को अध्यादेश द्वारा लागू करेगी और उद्योगों के लिये आम लोगों की जमीन अधिग्रहित करने की नीति में बदलाव किया जायेगा।

दयालचंद सोनी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि आज कांग्रेस शिक्षा, पंचायती राज और संस्कारों में गाँधी के सिद्धांतों को भूल गई है।

संयुक्त मोर्चा पार्टियों के विभिन्न वक्ताओं के सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध इतिहासकार डा. देवीलाल पालीवाल ने की।

कार्यक्रम में जनता दल के परसराम द्विवेदी व सी पी शर्मा ने आदिवासियों को उनके मुद्दे पर समर्थन जताते हुए कहा कि देश की आर्तिक नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करने पर ही इन समस्याओं का समाधान हो सकता है।

सी पी एम के बंशीलाल सिंघवी ने कहा कि मजदूरों को एकत्र होकर अपनी ताकत इस सरकार को बताना पड़ेगा।

कार्यक्रम में भाकपा नेता मेघराज ताबड़ तथा एडवोकेट सलीम खान व राजेश सिंघवी ने भी अपने विचार रखे। आखिरी सत्र रात्रि 8 बजे आयोजित किया गया, जिसमें संभाग की बड़ी पार्टियों के बड़े नेताओं के कार्यक्रम में नहीं आने की भर्त्सना की गई।

आमने-सामने कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन भंवरसिंह चदाणा, द्वितीय सत्र का संचालन रमेश नंदवाना और तृतीय सत्र का संचालन गणेश पुरोहित ने किया।

चौथा दौर


धोखा हुआ। इतनी लम्बी लड़ाई के बावजूद वन विभाग ने नियमन के लिये जो सूची केंद्र सरकार को भेजी उसमें 500 कब्जे ही माने गये, जबकि आन्दोलन की सूची में 15000 से ज्यादा लोग हैं और लगभग 12000 लोगों की सर्व सूची जनजाति आयुक्त की मार्फत सरकार को पहले ही भिजवाई जा चुकी है। अब निर्णय यही रहा कि 26 दिसंबर, 2000 से उदयपुर संभाग की सभी तहसीलों पर क्रमवार धरना शुरू किया जायेगा जो 9 जनवरी तक जारी रहेगा और 10 जनवरी को पूरे संभाग का बड़ा धरना होगा।

संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष गिरवा तहसील के लोगों द्वारा शुरू किया गया बेमियादी धरना मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत के आश्वासन के पश्चात शाम को स्थगित कर दिया क्या था। गिर्वा तासील के करीब साढे तीन सौ लोगों ने संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष सुबह 10 बजे से धरना शुरु किया।

दोपहर तक सभा के पश्चात सभी लोग मुख्यमन्त्री को ज्ञापन देने के लिये जुलूस के रूप में धरनास्थल से रवाना हुए, लेकिन उन्हें सर्किट हाउस के नीचे फतहसागर मार्ग पर ही रोक लिया। धरनार्थियों ने फतहसागर मार्ग पर ही डेरा डालकर अपनी माँगो के नारे लगाये तथा गीत गये। रात को जंगल-जमीन जन आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदवाना, किशोर संत, भंवरसिंह चदाणा, गणेश पुरोहित, नारायणलाल रोत, देवीबाई, धूलीबाई व मांगीलाल गुर्जर आदि के प्रतिनिधि मंडल से मुख्यमन्त्री ने वार्ता की।

प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमन्त्री को बताया कि 1980 से पूर्व के काबिज केवल छह हजार लोगों के नाम राज्य सरकार द्वारा भेजे गये थे, जबकि 60 हजार लोगों के कब्जे हैं। मुख्यमन्त्री ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया था कि वे इस मुद्दे को गम्भीरता से लेंगे तथा लोगों के साथ अन्याय नहीं होने दें।

उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि छह हजार लोगों की भेजी गई सूची के अलावा और किसी का वर्ष 1980 से पूर्व का कब्जा नहीं होने का प्रमाण-पत्र भी नहीं भेजा जायेगा। मुख्यमन्त्री ने किसी को भी बेदखल नहीं करने का भी आश्वासन दिया। यह आश्वासन मुख्यमन्त्री ने जंगल-जमीन जन आन्दोलन से जुड़े प्रतिनिधि मंडल यहाँ सर्किट हाउस में बातचीत में दिया। इस आश्वासन के बाद संगठन ने मंगलवार से यहाँ संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष शुरु किया गया अनिश्चितकालीन धरना स्थगित कर दिया गया। प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमन्त्री को बताया कि केवल 60,000 लोगों के कब्जे 1980 के पूर्व के हैं जिसको उदयपुर की सांसद डाॉ गिरिजा व्यास तथा सलूम्बर के सांसद भेरूलाल मीणा ने भी स्वीकार किया है। मुख्यमन्त्री को बताया कि गुजरात सरकार ने 60000 से अधिक तथा मध्यप्रदेश सरकार ने भी करीब डेढ लाख लोगों के कब्जों के नियमन की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजी है।

मुख्यमन्त्री से वार्ता के पश्चात धरनार्थियों की बैठक हुई, जिसमें मुख्यमन्त्री के आश्वासनों पर विश्वास रखते हुए धरना स्थगित करने तथा माँगों पर अमल नहीं होने पर धरना फिर से शुरू करने का निर्णय लिया गया।

पाँचवा दौर


मुख्यमन्त्री ने आश्वासन दिया था, कार्रवाई होगी लेकिन उदासीनता बरकरार रही।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के आह्वान पर 6 सितम्बर 2001 को वन भूमि पर कब्जों के नियमन की माँग को लेकर संभाग भर से आये सैकड़ों आदिवासी ग्रामीणों ने शहर के मुख्य मार्गों से रैली निकाली और संभागीय आयुक्त कार्यालय के बाहर धरना दिया व प्रदर्शन किया। इसमें पूर्व ग्रामीणों ने वन विभाग कार्यालय पर करीब एक घंटे तक नारेबाजी की। प्रदर्शन संभागीय आयुक्त को ज्ञापन देने के साथ ही शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हुआ।

जंगल-जमीन जन आदोलन के आह्वान पर उदयपुर जिले की समस्त तहसीलों तथा डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चितौड़गढ़, सिरोही एवं पाली जिलों के आदिवासी ग्रामीण गुरुवार को टाउन हॉल मैदान में एकत्रित हुए, जहाँ से वे प्रदर्शन एवं धरने के लिये दोपहर में रैली के रूप में रवाना हुए।

रैली शहर के मुख्य मार्ग बापूबाजार, देहलीगेट, कोर्ट चौराहा, चेटक सर्कल होते हुए दोपहर करीब दो बजे संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष पहुँची तथा सभा में परिवर्तित हो गई। रैली में ग्रामीण स्त्री-पुरुष हाथों में तख्तियाँ उठाये चल रहे थे तथा जंगल की जमीन भूमिहीन किसानों को आवंटित करने की माँग करते हुए नारे लगा रहे थे।

सभा को सम्बोधित करते हुए चंद्रशेखर किसान संघर्ष समिति के गणेश पुरोहित ने कहा था कि मानसी-वाकल बाँध से पेयजल समस्या का समाधान नहीं होगा, बल्कि डूब में आने वाले सैकड़ों परिवार तबाह और बर्बाद हो जायेंगे। भंवरसिंह चदाणा ने कहा कि जंगल-जमीन जन आन्दोलन तो केवल वन भूमि पर काबिज लोगों की लड़ाई लड़ता आ रहा था परन्तु सरकार बिलानाम जमीन भी आवंटित नहीं करती है। आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदवाना ने कहा कि एक तरफ गुजरात में 30 हजार लोगों को सरकार द्वारा पट्टे दे दिये गये, मध्यप्रदेश में भी पट्टे देने की तैयारी चल रही है। छत्तीसगढ़ में अब तक काबिज लोगों को नहीं हटाये जाने की घोषणा की गई है।

सभा को सम्बोधित करते हुए आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदबाना ने कहा कि वन विभाग भौतिक सत्यापन किये बगैर ऑफिस में बैठकर आदिवासियों को बेदखली के नोटिस जारी कर रहा था। मुख्यमन्त्री के आदेश को भी वन विभाग के अधिकारी हवा में उछाल रहे थे। मजदूर-किसान शक्ति संगठन के निखिल डे ने कहा कि एक तरफ तो अयोध्या के मंदिर को दसवी शताब्दी से जोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर अनादिकाल से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है।

वहीं राज्य सरकार कोई प्रयास करती नजर नहीं आ रही। आन्दोलन आदिवासियों को पिछले छह वर्षों में सरकार द्वारा केवल सुहाने आश्वासन दे दिये जाते रहे हैं। नंदवाना ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि दो माह की अवधि में कब्जों की पहचान के शिविर पुन : शुरु नहीं किये गये और बिलानाम भूमि के नियमन एवं आवंटन के शिविरों की घोषणा नहीं की गई तो भारी तादाद में ‘जेल भरो’ आन्दोलन किया जायेगा। सभा में गोगुंदा के जवानलाल, कोटड़ा के लाडूराम, प्रतापगढ़ के मेघराज, बांसबाड़ा के बहादुर, डूंगरपुर के नारायणलाल रोत व अर्जुन, खेरवाड़ा के अज़माल सिंह, कुंभलगढ़ के खरताराम, एस के हरिशंकर, आबूरोड के महेश यादव ने भी विचार व्यक्त किये। सभा के अंत में जनजाति आयुक्त ने बीलानाम भूमि पर कब्जों के नियमन एवं आवंटन के शिविर 2 अक्टूबर को लगाने की बात कही। आयुक्त सैनी ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन किया कि वन विभाग द्वारा काबिज लोगों की सूची जल्द ही आदेश जारी कर आन्दोलन को उपलब्ध करा दी जायेगी। अंत में तहसील स्तर पर चुनी गई कमेटी द्वारा संभागीय प्रतिनिधियों का चयन किया गया।

वन क्षेत्र में वर्षों से काबिज ग्रामीणों को जमीन का कब्जा सौंपने एवं पट्टे जारी करने की माँग को लेकर जंगल-जमीन जन आन्दोलन की ओर से 19 अक्टूबर, 2002 को शहर में रैली निकाल जिला कलेक्टर कार्यालय, वन विभाग एवं संभागीय आयुक्त कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया गया था। इसके साथ ही आयुक्त कार्यालय पर धरना दिया गया जिसने सैकड़ों ग्रामीणों ने भाग लिया था।

संभाग एवं आस-पास क्षेत्र से शुक्रवार सुबह यहाँ पहुँचे ग्रामीण टाउन हॉल में एकत्रित हुए थे, वहाँ से वे रैली के रूप में संभागीय आयुक्त कार्यालय के लिये रवाना हुए। रैली बापूबाजार, देहलीगेट होकर जिला कलेक्टर कार्यालय के समक्ष पहुँच, कुछ देर के लिये रुकी। वहाँ ग्रामीणों ने नारे लगाये। इसके बाद रैली यहाँ से रवाना होकर चेटक सर्कल स्थित वन संरक्षक कार्यालय के बाहर पहुँची। यहाँ भी ग्रामीणों ने नारे लगाकर प्रदर्शन किया। ग्रामीणों का एक प्रतिनिधि मंडल ज्ञापन लेकर वन संरक्षक कार्यालय गया, जहाँ वन संरक्षक नहीं मिलने पर ज्ञापन उनके प्रतिनिधि को सौंपा। यहाँ से रैली फिर रवाना होकर संभागीय आयुक्त कार्यालय के बाहर पहुँची और नारेबाजी कर प्रदर्शन किया। इस अवसर पर आयोजित सभा को संयोजक रमेश नंदवाना, कोटड़ा के लाडूराम परिहार, गोगुंदा के भगवती लाल, जवाललाल, पेमाराम, गिर्वा के नारायण लाल मीणा, धरियावद के कसूलाल रावत, खेरवाड़ा से हरिप्रकाश व फताराम, बांसवाड़ा से अर्जुनलाल, डूंगरपुर से पूंजाभाई, झाड़ोल से बादकी बाई, आबूरोड से नरसाराम, भंवरसिंह चदाणा, मेघराज ताबड़ ने संबोधित किया। वक्ताओं ने आरोप लगया कि वन विभाग गत बारह वर्षों से राजकीय आदेश होने के बावजूद वन भूमि पर काबिज कब्जों की पहचान नहीं कर रहा है तथा अब पर्यावरण एवं वन मंत्रालय नई दिल्ली के आदेश का हवाला देकर लोगों को बेदखल करने को आमादा है। उन्होंने कहा कि वन विभाग ने मात्र तीन माह की अल्पावधि में वन भूमि पर चल रही खानों के कब्जों की नियमन की सिफारिश केन्द्र सरकार को कर दी जबकि भोले-भाले आदिवासियों के हित में वन कानून की पालना विभाग नहीं कर रहा है।

वक्ताओं ने कहा कि जगह-जगह वन विभाग द्वारा जो नोटिस दिये जा रहे हैं, उनमें पूर्व के कब्जों का उल्लेख नहीं है। उन्होंने कहा कि जब विभाग ने कब्जों की पहचान के लिये परिपत्र जारी किया हुआ है तो उस स्थिति में लोगों को नोटिस देने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि राज्य सरकार के परिपत्र के तहत गठित कमेटी को मौके पर जाकर कब्जों का भौतिक सत्यापन करना है, उस कमेटी ने अपना काम नहीं किया तो जवाब वन विभाग एवं कमेटी को देना है। सभा में ग्रामीणों ने अपने-अपने क्षेत्र के सरपंच, प्रधान विधायक और सांसदों से अपने तीन साल के कार्यकाल में उनके लिये किये गये कार्यों के बारे में सवाल करने का प्रस्ताव पारित किया।

एक अन्य प्रस्ताव भी पारित किया, जिसमें यदि दो माह की अवधि में पहचान का कार्य पूरा नहीं किया और लोगों को जबरन बेदखल किया गया तो वन भूमि पर काबिज सभी आदिवासियों द्वारा हजारों की तादाद में उदयपुर आकर मरते दम तक अनशन करने की चेतावनी दी गई थी।

अंत में एक प्रतिनिधि मंडल ने संभागीय आयुक्त से मिलकर वन भूमि की समस्या के बारे में गत दस वर्षों की स्थिति से अवगत कराया। इस मौके पर जनजाति आयुक्त ने शीघ्र हो आदिवासी उपयोजना क्षेत्र के सभी जिला कलेक्टरों एवं वन विभाग के अधिकारियों की बैठक बुलाकर समस्या का समाधान निकालने का प्रयास कराने का आश्वासन दिया।

संभाग के वनों में बरसों से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल करने की राज्य सरकार की कार्रवाई के विरोध में 26 अगस्त, 2003 को हजारों आदिवासियों ने जिला कलेक्टेरियट पर प्रदर्शन कर अपने-अपने कब्जों की दावे पेश किये। नारों और ढोल-नगाड़ों से आसमान गुँजाता और हाथों में नारे लिखी तख्तियाँ लिये आदिवासियों की रैली शहर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ जिला कलेक्टेरियट पर दोपहर ढाई बजे पहुँची थी और जिले के साढे सात हजार आदिवासियों के कब्जे के दावे पेश किये। शाम तक वे वही जमे रहे थे। जंगल-जमीन जन आन्दोलन के बैनर तले आये वनवासी सुबह से ही टाउन हॉल परिसर में जमा होना शुरू हो गये थे। कंधे पर छतरी और हाथ में प्लास्टिक का थैला लिये ऑटो-रिक्शा और बसों से उतरता हर आदिवासी उस रोज टाउन हॉल की ओर ही मुखातिब था। दोपहर करीब एक बजे तक लगभग चार हजार की संख्या हो जाने पर आदिवासियों ने 'जंगल-जमीन हमारी है' के बैनरों-तख्तियों, नारों और ढोल-नगाड़ों के साथ अपनी रैली शुरू की। आदिवासियों का यह हुजूम बापूबाजार, देहलीगेट, अश्विनी बाजार, हाथीपोल, चेटक सर्कल, हॉस्पीटल रोड, कोर्ट चौराहा होता हुआ करीब ढ़ाई बजे जिला कलेक्टेरियट पहुँचकर सड़क पर जम गया था और सभा में तब्दील हो गया था।

इसके चलते कलेक्टेरियट के सामने से जाने वाला यातायात शास्त्री सर्कल से मोड़ना पड़ा था। सभा स्थल पर आदिवासियों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध गीत भी गाये और कठपुतली के माध्यम से सरकार के रवैये की पोल खोली। सभा को सम्बोधित करते हुए आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदबाना ने कहा कि वन विभाग भौतिक सत्यापन किये बगैर ऑफिस में बैठकर आदिवासियों को बेदखली के नोटिस जारी कर रहा था। मुख्यमन्त्री के आदेश को भी वन विभाग के अधिकारी हवा में उछाल रहे थे। मजदूर-किसान शक्ति संगठन के निखिल डे ने कहा कि एक तरफ तो अयोध्या के मंदिर को दसवी शताब्दी से जोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर अनादिकाल से रहते आ रहे आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है। राज्य के सभी जनसंगठन आदिवासियों की इस लड़ाई के साथ हैं।

सभा को आदिवासी नेताओं लाडूराम परिहार, कंसुलाल बोड, जवानलाल, नारायण लाल मीणा, होमी बाई, सीपी एम के जिला सचिव बंशीलाल सिंघवी, भंवर सिंह चदाणा आदि ने भी सम्बोधित किया और एकमत से संकल्प लिया गया था कि चाहे कुछ भी हो जाये वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेगे। आन्दोलन के संयोजक ने दावा किया आज व्यक्तिगत रूप से 7,744 आदिवासियों ने अपनी जमीन का दावा जिला प्रशासन को पेश किया। इसमें गोगुंदा के 907, झाड़ोल के 1,619 धरियावद के 210 गिर्वा के 867, कोटड़ा के 1,800, खैरवाड़ा के- 892, सलूम्बर के 1,083, सराड़ा के 125 तथा वल्लभनगर के 241 आदिवासी शामिल हैं। अभी भी बड़ी संख्या में लोग क्लेम पेश नहीं कर सके हैं जो आगामी दिनों में पेश किये जायेंगे। सभा के दौरान ही जिला कलेक्टर के निर्देश पर वन विभाग के अधिकारियों को कलेक्टेरियट में बिठाया गया, जिन्हें आदिवासी किसानों की ओर से व्यक्तिगत दावे पेश किये गये। इन दावों को निपटाने का कार्य रात आठ बजे तक जारी था। जिला कलेक्टर अभय कुमार ने आन्दोलनकारियों को आश्वासन दिया कि लोगों को बेदखल नहीं किया जायेगा और जो दावे किसानों ने पेश किये हैं उनकी विस्तृत जाँच की जायेगी।

छठा दौर


उदयपुर के ऋषभदेव में वर्तमान मुख्यमन्त्री वसुंधरा राजे ने कहा, हम जीतने के बाद आराम से नहीं बैठे हैं। दो महीने की कार्यशैली और 100 दिन की कार्ययोजना से आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं। बिजली, पानी और सड़क समस्यायें हैं। ये समस्यायें जल्द निपटें इसके लिये वे पूरी कोशिश कर रही हैं। बस, आप सरकार पर भरोसा रखें। राज्य के धार्मिक स्थलों का तीर्थ सक्रिट बने इस सुझाव पर वे जल्दी ही कार्ययोजना लेकर सामने आयेंगी। इससे पहले सार्वजनिक निर्माण मन्त्री गुलाबचंद कटारिया ने ऋषभदेव को धार्मिक नगरी के रूप में विकसित करने के लिये मुख्यमन्त्री से सहायता की माँग की। उन्होंने कहा कि कस्बे में पेयजल की समस्या से निपटने के लिये राज्यसरकार ने हाल ही में सवा दो करोड़ रुपये की योजाना स्वीकृत की है। महंत मुरली मनोहर शरण शास्त्री ने राज्य के सभी धार्मिक स्थलों, खासतौर पर उदयपुर के चारभुजा, नाथद्वारा, एकलिंगजी और ऋषभेदव के लिये तीर्थों का सर्किट बनाने की आवश्यकता जताई, निम्बार्क संप्रदाय के जगत गुरु श्रीजी ने कहा कि मेवाड़ शौर्य और भक्ति की भूमि है। सभा को क्षेत्र के विधायक नानालाल अहारी और निम्बार्क संप्रदाय के गुरु श्रीजी ने भी अपने विचार व्यक्त किये। क्षेत्र में होने वाले मार्बल खनन की स्लरी की डम्पिंग के लिये मुख्यमन्त्री ने दो भूखंडों के पट्टों की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ ग्रीन मार्बल एसोसिएशन के अध्यक्ष गणपत सिंह राठौड़ और भाजपा के उदयपुर शहर जिलाध्यक्ष ताराचंद जैन को दिये। धन्यवाद श्रीराम मंदिर नाहरगढ़ के प्रबंध न्यासी गणपत सिंह राठौड़ ने किया।

ऋषभदेव संवाददाता के अनुसार स्थानीय विधायक ने अपने भाषण में क्षेत्र की जनता की ओर से मुख्यमन्त्री का अभिनंदन करते हुए क्षेत्र के विकास के लिये ऋषभदेव को टेम्पल टाउन घोषित कराने, चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने, खनन समस्या का समाधान करने एवं खेरवाड़ा में राजकीय कॉलेज खोलने की माँग रखी। साथ ही, ऋषभदेव को पंचायत समिति बनाने का आग्रह किया। कार्यक्रम का संचालन बरदीचंद राव ने किया। महाप्रसाद की व्यवस्था श्रीमती मंदिर ट्रस्ट की ओर से की गई।

वन भूमि पर पीढ़ियों से चले आ रहे कब्जे को अवैध बताकर बेदखल करने के विरोध में हजारों आदिवासियों ने 18 फरवरी, 2005 को शहहर में जुलूस निकाला और संभागीय आयुक्त कार्यालय के बाहर प्रदर्शन कर सिर छिपाने के लिये खड़ी झोपड़ी भी ध्वस्त करने पर आक्रोश व्यक्त क्रिया। आदिवासियों ने आज के जुलूस में यह संकेत दे दिया कि उनके सब्र का बाँध अब टूटने वाला है।

जंगल-जमीन जन आन्दोलन के बैनर तले संभाग के कई हिस्सों से आये आदिवासी सोमवार को सुबह टाउन हॉल के बाहर एकत्र हुए। वहाँ से दोपहर साढ़े बारह बजे जुलूस रवाना हुआ। आन्दोलन के संयोजक रमेश नंदवाना व भंवरसिंह चदाणा के नेतृत्व में आदिवासियों ने बेदखली के खिलाफ नारे लगाकर पुलिस, प्रशासन व वन विभाग को निशाना बनाया।

जुलूस प्रमुख मार्गों से होकर जनजाति आयुक्त कार्यालय के बाहर पहुँचा। रास्ते में जिला कलक्ट्री व वन विभाग कार्यालय के बाहर रुककर प्रदर्शन किया। जनजातीय कार्यालय के बाहर सभा हुई। भीम व राजसमंद से आये सांस्कृतिक दल ने शंकर सिंह के नेतृत्व में चेतना गीत गाये। ‘इज्जत से जीने का अधिकार’ अभियान के राष्ट्रीय संयोजक प्रदीप प्रभु ने कहा कि लड़ाई केवल कब्जे वाली जमीन की नहीं है, बल्कि उस सारी जमीन की है जो आदिवासियों के क्षेत्र की है। उन्होंने कहा कि आदिवासी ही जंगल को बचा सकते हैं। गिर्वा की सरू पंचायत के कुबेरदास, पिण्डबाड़ा के जसाराम, गोगुंदा के जवानलाल, मजदूर किसान शक्ति संगठन, भील के लाल सिंह, डूंगरपुर के कांतिलाल, राजस्थान किसान संगठन के लक्ष्मीनारायण मिश्र, सराड़ा के देवीलाल, झाड़ोंल के नगाराम तथा बाली के हंसाराम ने सभा में अपनी व्यथा रखी। नगाराम ने कहा कि पत्नी की नसबंदी करवाने पर उसको पाँच बीघा जमीन पर कब्जा दिया गया। नसबंदी के दौरान पत्नी मर गई और बाद में वन विभाग ने जमीन भी वापस ले ली। सभा के बाद जनजाति आयुक्त सुदर्शन सेठी को ज्ञापन दिया गया। आयुक्त ने वन विभाग के अधिकारियों को बुलवाकर कमेटी की रिपोर्ट लिये बिना बेदखल नहीं करने के निर्देश दिये।

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