जंगल खतरे में

कच्चे माल के ऐसे संकट की हालत में सभी कंपनियां, चाहे निजी हों या सरकारी, बचे हुए घने जंगल के – बस्तर, उत्तर पूर्वी क्षेत्र और अंडमान जैसे-भंडारों में घुसने की होड़ लगा रही हैं। उन्हीं भंडारों के बल पर सरकार भी अपेक्षा रखती है कि नागालैंड के तुली तथा असम के (नवगांव) और कछार में स्थित हिंदुस्तान पेपर कार्पोरेशन की सरकारी मिलें कागज और गत्ते का उत्पादन बढ़ाकर 2,33,000 टन कर देंगी। ये मिलें कच्चे माल के लिए बांस ही काम में लेंगी। उत्तर-पूर्वी ‘हरी-खानों’ का दोहन करने में यातायात के साधनों की कमी ही एक अड़चन है, लेकिन एक बार उस क्षेत्र में अच्छी सड़कें बन जाएं तो फिर सारा इलाका फौरन उजड़ जाएगा। इस बीच आंध्र प्रदेश विकास निगम काकीनाड़ा में सरकारी पेपर मिल लगा रहा है। उसमें कच्चे माल के रूप में अछूते अंडमान द्वीपों से लकड़ी की छिलपट का उपयोग होगा।

राज्य सरकारों ने उद्योगों को आकर्षित करने और राजनैतिक लोगों ने सेंतमेंत में खूब पैसा कमा लेने के लालच में बांस के जंगलों को मामूली से दामों पर उजाड़ दिया है। अमलाई स्थित ओरियंट पेपर मिल्स को शुरू-शुरू में मध्य प्रदेश सरकार ने बहुत ही सस्ती दर पर 37 पैसा प्रति टन बांस दिया था। तमिलनाडु में शेषशायी पेपरमिल्स 1970 तक 6.89 रुपये प्रति टन, 1970 से 7 तक 11 रुपये और और 1975 के बाद 22 रुपये और प्रशासन खर्च के लिए अतिरिक्त 5 रुपये टन दाम चुका रही था। कर्नाटक में पेपर मिल केवल 15 रुपये टन चुकाती थी जबकि बसोड़ो को खुले बाजार में 1,200 रुपये टन के हिसाब से बांस खरीदना पड़ता था।

हाल के वर्षों में कुछ राज्य सरकारों नें रायल्टी की दर तेजी से बढ़ाना शुरू किया है। तब कागज उद्योग कच्चे माल को सस्ती दर पर हासिल करने के लिए आड़े-तिरछे रास्ते अपनाते हैं। 1981 में ओरियंट पेपर मिल्स ने उत्कल का ब्रजराजनगर स्थित अपना कारखाना बंद किया। कारण यही बताया कि कर्मचारियों ने ज्यादा बोनस के लिए हड़ताल की थी। मालिक चाहते थे कि उत्कल से उन्हें बांस सस्ता मिले और मध्य प्रदेश सरकार पर भी दबाव डाला जाए, क्योंकि उसने बांस का दाम बढ़ाकर 102 रुपये टन कर दिया था। पश्चिम बंगाल पेपर मिल का भी ऐसा ही किस्सा है। राज्य का भंडार लूट लेने के बाद उसने अपने कच्चे माल के लिए बिहार सरकार से कुछ जंगल मांगा लेकिन बिहार सरकार ने यह कहकर इनकार कर दिया कि बिहार में ही जब मिल नहीं लगेगी तब तक वह जंगल नहीं देगी। तब कंपनी ने अपने ट्रकों को बंगाल-बिहार सीमा पर तैनात कर दिया। हजारों मजदूर सिर पर बोझा लाकर रोज मिल को कच्चा माल पहुंचाने लगे।

लुगदी का इस्तेमाल करने वाला दूसरा प्रमुख उद्योग रेयान का है। 1980 में कर्नाटक सरकार की लोक-लेखा समिति ने ग्वालियर रेयान सिल्क मिल्स को बेचे गए सफेदे के पेड़ों का अध्ययन किया। उसे केवल 24 रुपये प्रति टन की दर से सफेदा बेचा गया जबकि उत्पादन लागत ही 44 रुपये टन बैठती है। उसने कहा कि यह दर बहुत कम है। तब फरवरी 81 में उसका दाम 81 रुपये टन तय किया गया। पांच ही दिन बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गुंडूराव ने मौखिक सूचना दे दी कि वन विभाग वन उत्पादनों को पुराने ही दाम पर उद्योगों को बेचें, पर पुराने और नए दामों के फर्क की रकम के लिए बैंकों से गारंटी ले लें। अप्रैल 81 से सूचना दी गई कि बैंकों से केवल पांच लाख रुपयों की गारंटी लेकर उद्योगों को पुराने दाम पर ही माल देना जारी रखें। समिति ने नई दर को लागू करने के मामले में मुख्यमंत्री को दोषी ठहराते हुए इसे गैर-कानूनी बताया और हिसाब लगाया कि उसके कारण सरकार को 22 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। समिति ने इस बात पर भी घोर आपत्ति की कि वह फाइल ही गायब हो गई थी। जिसमें नई दरें लागू न करके पुरानी दर ही जारी रखने से संबंधित श्री गुंडूराव के मौखिक आदेश का उल्लेख था।

लेकिन कई राज्य सरकारों ने कम रायल्टी वसूल करने की गलती से कोई सबक नहीं लिया है। सालाना 80,000 टन वार्षिक उत्पादन क्षमता वाला सार्वजनिक क्षेत्र का नया कारखाना- हिंदुस्तान पेपर कार्पोरेशन – केरल सरकार को सफेदे के हरे पेड़ के लिए प्रति टन केवल 11 रुपये देगा। यह दाम उत्पादन लागत से बहुत कम है। केरल सरकार उस मिल की आवश्यकता भर सफेदे और सरकंडे की पूर्ति स्थायी रूप से करेगी। लेकिन प्रबंधक इस आशंका से इनकार नहीं करते कि जब तक बड़े पैमाने पर नए पेड़ लगाने का कार्यक्रम भी जारी नहीं रखेंगे, तब कच्चे माल की कमी का भय बना ही रहेगा। कारखाने की जरूरत पूरी करने के लिए बाहर से लुगदी मंगाना शुरु हो गया है।

परस्पर विरोधी तस्वीरें


भावी वन-प्रबंध के बारे में आज दो तरह के विचार सामने आ रहे हैं। अधिकांश पर्यावरण वाले मानते हैं कि भविष्य में उद्योगों के कच्चे माल के लिए बचे हुए जंगलों में से कुछ भी काम में नहीं लेना चाहिए। ‘राष्ट्रीय वन नीति में परिवर्तन के लिए पर्यावरण विभाग से सुझाव’ नामक एक दस्तावेज में साफ कहा गया है-“वन आधारित उद्योगों के विस्तार के लिए या नए उद्योग शुरू करने के लिए अब बचे हुए जंगलों का दोहन ज्यादा समय तक चल नहीं सकता। कोई भी उद्योग जब तक सबसे पहले पर्यावरण पर होने वाले परिणामों के बारे में केंद्रीय एजेंसी से, कड़े परीक्षण द्वारा इजाजत नहीं ले लेगा, तब तक वह छोटा हो या बड़ा, उसे स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। उन्हीं परियोजनाओं को इजाजत दी जा सकती है जो पूरी तरह बंजर और कमजोर जमीन पर लगे नए वनों के पेड़ों पर ही आधारित हों, कुछ विशेष मामलों में, वन आधारित उद्योगों के कच्चे माल को, खासकर कागज और प्लाइवुड के लिए विदेशों से आयातित करने की इजाजत दी जा सकती है ताकि हमारे अपने संसाधनों पर दबाव कम किया जा सके।”

सचमुच, पिछले कुछ वर्षों से सरकार ने लुगदी आयात नीति को उदार बनाया है और रद्दी तथा लुगदी के आयात पर कर समाप्त किया है। बचे हुए वनों की रक्षा के लिए विभाग का आग्रह है कि “जंगलों में जो पेंड़ खड़े हैं, उनमें से एक को भी नए पेड़ लगाने के लिए नहीं काटना चाहिए।”

लेकिन उधर वन विभाग के सामने एकमात्र प्रिय विकल्प यही है कि तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों को लगाने के लिए प्राकृतिक वनों में पेड़ों को साफ कर दिया जाए। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने ही यह विकल्प सुझाया था। लेकिन अनेक पर्यावरणवादियों का मत है कि यह योजना सफल नहीं हुई। केरल वन शोध संस्थान के श्री. सीटीएस नायर कहते हैं, “अपेक्षा तो यह थी कि पूरी तरह बढ़े एक सफेदे के पेड़ के प्रति हेक्टेयर, दस साल के आवर्त में, 80 से 100 टन तक लकड़ी की पैदावार होगी, लेकिन असल में 40 टन से कम ही हुई, कई जगह तो प्रति हेक्टेयर 10 टन ही हुई।”

कर्नाटक का हलियाल इलाका अच्छी बारिश वाला है। वहां छह जगहों में डॉ. गाडगिल और उनके साथियों ने छह साल तक अध्ययन करके जो तथ्य एकत्र किए हैं, उनसे पता चलता है कि अनुमानित पैदावार का दस ही प्रतिशत माल पैदा हो सका। बंगलुरू के सूखे इलाके में अनुमानित मात्रा का 20 प्रतिशत पैदा हुआ। दरअसल, गाडगिल की राय में, “सफेदे के पेड़ से इतना मिलना पर्याप्त माना जाना चाहिए।” पश्चिमी घाट के अच्छी बारिश वाले बहुत बड़े क्षेत्र को साफ करके सफेदा लगाया गया था। पर हर जगह उसे फफूंदी का रोग गया और पैदावार शून्य रही। पेड़ बचे ही नहीं। नतीजा हुआ कि उत्तम वर्षा वन का क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया। ऐसा ही केरल के पारंबीकुलम क्षेत्र में हुआ है। बस्तर के दक्षिण भाग में भी सफेदे का रोपण पूरी तरह व्यर्थ गया। करीब एक प्रतिशत पेड़ भर जिंदा रह सके।

हिमालय के क्षेत्र में अंगू देवदार, चीड़, कैल, शाहबलूत और अखरोट में से कोई एक या दो-तीन किस्में मिलाकर लगाई गईं। जिंदा रहने वाले पेड़ों का प्रतिशत बद्रीनाथ वन प्रभाग में 14.2, गढ़वाल क्षेत्र में 21.5 और केदारनाथ वन प्रभाग में 20 प्रतिशत था। उधर कर्नाटक में श्री गाडगिल के आंकड़ो से मालूम होता है कि जो पेड़ बच गए, उनकी बढ़त भी प्राकृतिक वनों की तुलना में कम ही रही।

विफलताओं के जो भी कारण रहे हों, पर इन वृक्षारोपण कार्यक्रमों का पर्यावरण पर तथा समाज पर गंभीर परिणाम हुआ है। जो भी वृक्षारोपण कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है, उससे ईंधन और चारे का संकट बढ़ जाता है। इस कारण ऐसे कार्यक्रमों के प्रति लोग भड़क उठते हैं। श्री एसएस धारेश्वर ने 1941 की घटनाओं का जिक्र किया, जब उत्तर कन्नड़ जिले में पहली बार प्राकृतिक वनों की जगह सागौन के पेड़ लगाए गए थे। लोगों ने उसका कड़ा विरोध किया था। विरोध आज भी जारी है, लेकिन आज वह सफेदे के खिलाफ है। झारखंड में गिरिजनों ने सागौन के उन सारे पौधों को फखाड़ दिया था, जो पुराने साल के पेड़ की जगह लगाए गए थे।

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