जंगल में आग - वनों को मानव-शून्य बनाने का परिणाम

17 May 2016
0 mins read

मनुष्य का जन्म प्रकृति में हुआ और उसका विकास भी प्रकृति के सानिध्य में हुआ। इसीलिये प्रकृति और मनुष्य के बीच हजारों साल से सह-अस्तित्व की भूमिका बनी चली आई। गोया, मनुष्य ने सभ्यता के विकासक्रम में मनुष्येतर प्राणियों और पेड़-पौधों के महत्त्व को समझा तो कई जीवों और पेड़ों को देव-तुल्य मानकर उनके संरक्षण के व्यापक उपाय किये। किन्तु जब हमने जीवन में पाश्चात्य शैली और विकास के लिये पूँजी व बाजारवादी अवधारणा का अनुसरण किया तो यूरोप की तर्ज पर अपने जंगलों में बिल्डरनेस की आवधारणा थोप दी।

बिल्डरनेस के मायने हैं, मानवविहीन सन्नाटा, निर्वात अथवा शून्यता! जंगल के आदिवासियों को विस्थापित करके जिस तरह वनों को मानवविहीन किया गया है, उसी का परिणाम उत्तराखण्ड, हिमाचल-प्रदेश और जम्मू-कश्मीर क्षेत्र के जंगलों में की आग थी। यदि वनों में मानव आबादियाँ रह रही होती तो इस भीषण दावानल का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि जंगलों के साथ जो लोग सह-अस्तित्व का जीवन जी रहे थे, वे आग लगने पर आग बुझाना भी जानते थे।

दुर्भाग्य से हमने आज हालात ऐसे बना दिये हैं कि सरकार और स्थानीय लोगों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला आग को बुझाने की बजाय, भड़काने का काम कर रहा है। गोया, सह-अस्तित्व की प्राचीन परम्पराओं से खिलवाड़ का यही परिणाम निकलना था?

यूँ तो जंगल में आग लगना एक सामान्य घटना है। मामूली आगे वन प्रान्तों में लगती ही रहती हैं। लेकिन इस बार करीब एक माह पहले सुलगी आग ने उत्तराखण्ड के समूचे जंगलों को तो अपने दायरे में लिया ही, इसकी विकराल लपटों के घेरे में हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर का भी कुछ इलाका आ गया। साफ है, मामूली चिंगारी से दावानल में तब्दील हुई इस आग को बुझाने में ऐसा पहली बार हुआ है, जब स्थानीय थल व वायु सेना के साथ राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन बल भी लगा है।

इस आग ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। इसके पहले उत्तराखण्ड के ही जंगलों में 2009 में भीषण आग लगी थी। इसकी चपेट में पशु-पक्षी तो आये ही थे, कई मनुष्यों की भी मौतें हुई थी। इस बार भी यही आलम देखने में आया है। एक सिपाही समेत 9 लोगों की मौत हो चुकी है। दुर्लभ वन्यप्राणी और पशु-पक्षी किस तादाद में मरे हैं, इसका आकलन ही असम्भव है। इसके साथ ही ऐसी बहुमूल्य वन सम्पदा भी नष्ट हुई है, जो जैव विविधता की पर्याय थी। इसके पहले 1993, 1997, 2005, व 2012 में भी बड़े अग्निकाण्ड हुए थे।

सरकारी आँकड़ों की ही बात मानें तो 3100 हेक्टेयर वन-खण्ड बारुद के ढेर की तरह सुलग गए। 2000 से भी ज्यादा स्थानों पर आग ने तबाही की इबारत लिख दी थी। 500 से भी ज्यादा गाँव इसकी चपेट में थे। उत्तराखण्ड का एक भी ऐसा जिला शेष नहीं है, जहाँ आग ने अपनी क्रूरता के निशान न छोड़े हों। देश का पहला बाघ आरक्षित जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान यहीं है।

भारत की गिनती विश्व-फलक पर जैव-विविधता की दृष्टि से सबसे समृद्ध देशों में होती है। इनमें भी हिमालयी क्षेत्र होने के कारण उत्तराखण्ड में अहम वनस्पितियों व जड़ी-बूटियों के भण्डार हैं। यही जैव विविधता आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण का स्रोत है। उत्तराखण्ड की ही नहीं कई आयुर्वेद दवा कारोबारियों की अर्थव्यवस्था और लोगों का रोजगार भी इसी वनोपज से चलते हैं।

उत्तराखण्ड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 प्रतिशत, यानी 34,651.014 वर्ग किमी वन क्षेत्र हैं। इनमें से 24414408 वर्ग किमी क्षेत्र वन विभाग के अधीन हैं। इसमें से करीब 24260.783 वर्ग किमी क्षेत्र आरक्षित वनों की श्रेणी में हैं। शेष 39.653 वर्ग किमी जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। आरक्षित वनों में से 394383.84 हेक्टेयर भूमि में चीड़ के जंगल हैं और 383088.12 हेक्टेयर बाँस एवं शाल के वन हैं। वहीं 614361 हेक्टेयर में मिश्रित वन हैं। लगभग 22.17 फीसदी वन क्षेत्र खाली पड़ा है। चीड़ के जंगल और लैंटाना की झाड़ियाँ इस आग को फैलाने में सबसे ज्यादा जिम्मेवार हैं।

दरअसल चीड़ के पत्तों में एक विशेष किस्म का ज्वनलशील पदार्थ होता है। इसकी पत्तियाँ पतझड़ के मौसम में आग में घी का काम करती हैं। गर्मियों में पत्तियाँ जब सूख जाती हैं तो इनकी ज्वलनशीलता और बढ़ जाती है। इसी तरह लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियाँ आग को भड़काने का काम करती हैं। करीब 40 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में ये झाड़ियाँ फैली हुई हैं। इस बार इन पत्तियों का भयावह दावाग्नि में बदलने के कारणों में वर्षा की कमी, जाड़ों का कम पड़ना, गर्मियों का जल्दी आना और तिस पर भी शुरुआत में ही तापमान का बढ़ जाना। इन वजहों से यहाँ पतझड़ की मात्रा बढ़ी, उसी अनुपात में मिट्टी की नमी घटती चली गई। ये ऐसे प्रकृतिक संकेत थे, जिन्हें वनाधिकारियों को समझने की जरूरत थी।

बावजूद विडम्बना यह रही कि जब वनखण्डों में आग लगने की शुरुआत हुई तो नीचे के वन अमले से लेकर आला अधिकारियों तक ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। भला हो, उस सोशल मीडिया का जिसने विकराल आग से लेकर, आग की चपेट में आकर प्राण गँवाने वाले मनुष्यों और पशु-पक्षियों के चलचित्र सोशल साइटों पर डालना शुरू कर दिये।

चीड़ के पत्तों में एक विशेष किस्म का ज्वनलशील पदार्थ होता है। इसकी पत्तियाँ पतझड़ के मौसम में आग में घी का काम करती हैं। गर्मियों में पत्तियाँ जब सूख जाती हैं तो इनकी ज्वलनशीलता और बढ़ जाती है। इसी तरह लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियाँ आग को भड़काने का काम करती हैं। करीब 40 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में ये झाड़ियाँ फैली हुई हैं। इस बार इन पत्तियों का भयावह दावाग्नि में बदलने के कारणों में वर्षा की कमी, जाड़ों का कम पड़ना, गर्मियों का जल्दी आना और तिस पर भी शुरुआत में ही तापमान का बढ़ जाना।

इन तस्वीरों को देखकर वन-अमला जब जागा, तब तक जंगल सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में धधक उठे थे। यहाँ गौरतलब यह भी है कि बाघ जैसे प्राणी पर निगरानी के लिये जगह-जगह जो सीसीटीवी कैमरों का जंजाल बिछाया गया था, उनसे यह जानकारी क्यों नहीं मिली? जबकि उत्तराखण्ड में प्रमुख और मुख्य वन सरंक्षक स्तर के करीब ढाई दर्जन आधिकारी हैं, जो मोबाइल एप के जरिए कैमरों की सूचनाओं पर निगरानी रखते हैं।

वैसे चीड़ और लैंटाना भारतीय मूल के पेड़ नहीं हैं। भारत आये अंग्रेजों ने जब पहाड़ों पर आशियाने बनाए, तब उन्हें बर्फ से आच्छादित पहाड़ियाँ अच्छी नहीं लगीं। इसलिये वे ब्रिटेन के बर्फीले क्षेत्र में उगने वाले पेड़ चीड़ की प्रजाति के पौधों को भारत ले आये और बर्फीली पहाड़ियों के बीच खाली पड़ी भूमि में रोप दिये। इन पेड़ों को जंगली जीव व मवेशी नहीं खाते हैं, इसलिये अनुकूल प्राकृतिक वातावरण पाकर ये तेजी से फलने-फूलने लगे। इसी तरह लैंटाना भारत के दलदली और बंजर भूमि में पौधारोपण के लिये लाया गया था।

यह विषैला पेड़ भारत के किसी काम तो नहीं आया, लेकिन देश की लाखों हेक्टेयर भूमि में फैलकर इसने लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि जरूर लील ली। ये दोनों प्रजातियाँ ऐसी हैं, जो अपनी छाया में किसी अन्य पेड़-पौधे को पनपने नहीं देती हैं। चीड़ की एक खासियत यह भी है कि जब इसमें आग लगती है तो इसकी पत्तियाँ ही नष्ट होती हैं। तना और डालियों को ज्यादा नुकसान नहीं होता है। पानी बरसने पर ये फिर से हरे हो जाते हैं। कमोबेश यही स्थिति लैंटाना की रहती है।

चीड़ और लैंटाना को उत्तराखण्ड से निर्मूल करने की दृष्टि से कई मर्तबा सामाजिक संगठन आन्दोलन कर चुके हैं, लेकिन सार्थक नतीजे नहीं निकले। अलबत्ता इनके पत्तोें से लगी आग से बचने के लिये चमोली जिले के उपरेवल गाँव के लोगों ने जरूर चीड़ के पेड़ की जगह हिमालयी मूल के पेड़ लगाना शुरू कर दिये। जब ये पेड़ बड़े हो गए तो इस गाँव में 20 साल से आग नहीं लगी। इसके बाद करीब एक सैकड़ा से भी अधिक ग्रामवासियों ने इसी देशज तरीके को अपना लिया।

इन पेड़ों में पीपल, देवदार, अखरोट और काफल के वृक्ष लगाए गए हैं। यदि वन-अमला ग्रामीणों के साथ मिलकर ऐसे उपाय करता तो आज उत्तराखण्ड के जंगलों की यह दुर्दशा देखने में नहीं आती।

जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। जब पहाड़ियाँ तपिश के चलते शुष्क हो जाती हैं और चट्टानें भी खिसकने लगती हैं, तो अक्सर घर्षण से आग लग जाती है। तेज हवाएँ चलने पर जब बाँस परस्पर टकराते हैं तो इस टकराव से पैदा होने वाले घर्षण से भी आग लग जाती है। बिजली गिरना भी आग लगने के कारणों में शामिल है। ये कारण प्राकृतिक हैं, इन पर विराम लगाना नामुमकिन है। किन्तु मानव-जनित जिन कारणों से आग लगती है, वे खतरनाक हैं। इसमें वन-सम्पदा के दोहन से अकूत मुनाफा कमाने की होड़ शामिल है।

भू-माफिया, लकड़ी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों के गठजोड़ की तिकड़ी इस करोबार को फलने-फूलने में सहायक बनी हुई है। राज्य सरकारों ने आजकल विकास का पैमाना भी आर्थिक उपलब्धि को माना हुआ है, इसलिये सरकारें पर्यावरणीय क्षति को नजरअन्दाज करती हैं। यही वजह है कि उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने 2013 में केदारनाथ में पल भर के लिये जो भीषण जल-प्रलय आया था, उससे कोई सबक नहीं लिया।

आग लगने की मानवजन्य अन्य वजहों में बीड़ी-सिगरेट भी हैं, तो कभी शरारती तत्व भी आग लगा देते हैं। कभी ग्रामीण पालतू पशुओं के चारे के लिये सूखी व कड़ी पड़ चुकी घास में आग लगाते हैं। ऐसा करने से धरती में जहाँ-जहाँ नमी होती है, वहाँ-वहाँ घास की नूतन कोंपलें फूटने लगती हैं। जो मवेशियों के लिये पौष्टिक आहार का काम करती हैं। पर्यटन वाहनों के साइलेंसरों से निकली चिंगारी भी आग की वजह बनती है।

आग लगने से जलस्रोतों पर विपरीत असर पड़ता है। आग मिट्टी की गुणवत्ता को भी नष्ट कर देती है। मिट्टी में माइक्रोफ्लोरा और माइक्रोफोनो जैसे जो उपजाऊ तत्व होते हैं, वे अग्नि से झुलसकर अपनी उर्वर क्षमता खो देते हैं। मिट्टी में नमी बनाए रखने वाले केंचुएँ भी आग से नष्ट हो जाते हैं।

आग से बचने के कारगर उपायों में पतझड़ के दिनों टूटकर गिर जाने वाले जो पत्ते और टहनियाँ आग के कारक बनते हैं, उन्हें जैविक खाद में बदलने के उपाय किये जाएँ। केन्द्रीय हिमालय में 2.1 से लेकर 3.8 टन प्रति हेक्टेयर पतझड़ होता है। इसमें 82 प्रतिशत सूखी पत्तियाँ और बाकी टहनियाँ होती हैं। जंगलों पर वन विभाग का अधिकार प्राप्त होने से पहले तक ज्ञान परम्परा के अनुसार ग्रामीण इस पतझड़ से जैविक खाद बना लिया करते थे।

उत्तराखण्ड के जंगलों में आग लगना एक विकट समस्या हैयह पतझड़ मवेशियों के बिछौने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। मवेशियों के मल-मूत्र से यह पतझड़ उत्तम किस्म की खाद में बदल जाता था। किन्तु अव्यावहारिक वन कानूनों के वजूद में आने से वनोपज पर स्थानीय लोगों का अधिकार खत्म हो गया। स्थानीय ग्रामीण और मवेशियों का जंगल में प्रवेश प्रतिबन्धित हो जाने से पतझड़ यथास्थिति में पड़ा रहकर आग का प्रमुख कारण बन रहा है।

जंगलों को मानव-शून्य बना देने के नीतीगत उपायों से ग्रामीणों और वनों के बीच दूरी तो बढ़ी ही है, वन अमले से ईर्ष्या व वैमनस्यता भी बढ़ी है। लोग जंगलों को सरकारी सम्पत्ति मानने लगे हैं। इसलिये जब जंगलों में आग लगती है तो ग्रामीण तत्काल आग बुझाने को उत्सुक नहीं होते। यदि वाकई जंगलों को बचाने के लिये स्थानीय समुदाय को भागीदार बनाना है तो विश्व-बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ से उधार लिये कृषि वानिकी के उपक्रमों से भी छुटकारा पाना होगा? वैसे भी देवभूमि के ये जंगल उपभोगवादी पर्यटन संस्कृति के लिये न होकर साधना और सह-अस्तित्व के लिये हैं।

आश्रय और रोजी-रोटी के लिये हैं। इसलिये दावाग्नि से हुई हानि केवल देश के लिये ही नहीं, बल्कि वैश्विक मानव-समुदायों के लिये भी बड़ी क्षति है, क्योंकि इस घटना ने जलवायु परिवर्तन से संघर्ष में हमारी स्थिति को कमजोर करने का काम किया है। लिहाजा आग जैसी आपदाओं से सबक लेने की जरूरत है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading