जंगलों के अभाव में कैसे जिएँगे हम

उपेक्षित होते जंगल
उपेक्षित होते जंगल


आज समूची दुनिया में जंगल जिस तेजी से खत्म हो रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि वह दिन अब दूर नहीं जब जंगलों के न रहने की स्थिति में धरती पर पाई जाने वाली वह बहुमूल्य जैव सम्पदा बहुत बड़ी तादाद में नष्ट हो जाएगी जिसकी भरपाई फिर कभी नहीं हो पाएगी।

करंट बायोलॉजी नामक एक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक ताजे अध्ययन से यह खुलासा हुआ है कि दुनिया में यदि जंगलों के खात्मे की यही गति जारी रही तो 2100 तक समूची दुनिया से जंगलों का पूरी तरह सफाया हो जाएगा। आज भले हम यह दावा करें कि अभी भी दुनिया में कुल मिलाकर 301 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल बचा है जो पूरी दुनिया की धरती का 23 फीसदी हिस्सा है।

मौजूदा दौर में जंगलों के सफाए की बेलगाम तेजी से बढ़ती रफ्तार को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब जंगलों का नाम केवल किताबों में ही देखने-पढ़ने को मिले। यह भी कि उस हालत में न तो कभी अफ्रीका के जंगलों का रोमांच शेष रहेगा, न दक्षिण अमरीका स्थित अमेजन के जंगलों का रहस्य बच पाएगा और न ही हिन्दुस्तान के भाल हिमालय के जंगलों की स्मृद्धि ही शेष रह पाएगी। यदि ऐसा हुआ तो दुनिया के इतिहास में इसे एक त्रासदी पूर्ण दुखद अध्याय के रूप में जाना जाएगा।

दुनिया के वैज्ञानिकों की जंगलों की तेजी से बेतहाशा खत्म होती रफ्तार को देखते हुए सर्वसम्मत राय है कि अब वह समय आ चुका है जब यह धरती अपने जीवन में छठवीं बार बहुत बड़े पैमाने पर जैव सम्पदा के पूरी तरह खात्मे के कगार पर पहुँच चुकी है। उनके अनुसार इस बार केवल अन्तर यह है कि इससे पहले जब-जब युग परिवर्तन हुआ, उस समय हमेशा ही इसके कारण प्राकृतिक ही रहे थे, लेकिन इस बार स्थिति पूरी तरह भिन्न है क्योंकि बदले हालात में वर्तमान में इसका जो सबसे बड़ा और अहम कारण है, वह मानव निर्मित है।

गौरतलब है कि पहले जब-जब ऐसा हुआ तब-तब प्रकृति की कुछ ही जैव सम्पदा का विनाश हुआ लेकिन अब ऐसा नहीं है। पहले नष्ट हुई जैव सम्पदा के स्थान पर बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार वह नए रूप में विकसित हो जाती थी जबकि अब विकास के नए माहौल में इनके विकसित हो पाने की सम्भावना न के बराबर ही दिखाई देती है।

इससे इस बात की आशंका बलवती होती है कि जंगलों के खात्मे का सीधा सा अर्थ है धरती की बहुत बड़ी तादाद में जैव सम्पदा पूरी तरह खत्म हो जाएगी जिसकी आने वाले दिनों में भरपाई की उम्मीद करना बेमानी होगी। दुनिया में जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मँडरा रहा है, उसे मद्देनजर रखते हुए जिन जंगलों से हमें कुछ आशा की किरण दिखाई भी देती है, उनका तो पूरी तरह अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा, इसमें कोई सन्देह ही नहीं है।

इसमें दो राय नहीं कि सभ्यता के विस्तार के प्रारम्भिक काल में मानव ने ही जंगलों को काटा, अपने आवास की खातिर बस्तियों का निर्माण किया और खेती करना शुरू किया। यह क्रम अब भी थमा नहीं है। लेकिन जंगलों के लगातार काटे जाने का सिलसिला जारी रहने और उसमें विकास की खातिर हो रही बेतहाशा बढ़ोत्तरी के चलते अब यह लगने लगा है कि यदि यह इसी भाँति जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी सभ्यता ही न खतरे में पड़ जाये।

वैज्ञानिक इसकी चेतावनी काफी पहले ही दे चुके हैं। उनके अनुसार समूची दुनिया के जंगल बड़ी तेजी से खत्म हो रहे हैं। दुनिया के जंगलों का दसवाँ हिस्सा तो पिछले बीस सालों में ही खत्म हो चुका है जो तकरीब 9.6 फीसदी के आस-पास है। असलियत यह है कि जंगलों के खात्मे का सिलसिला विकास के रथ पर सवार सरकारों की नीतियों के क्रियान्वयन की खातिर नित नई-नई बस्तियों के निर्माण, औद्यौगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना, जलविद्युत परियोजनाओं, रेल की पटरियों व हाईवे निर्माण और खनन के नाम पर बेरोकटोक जारी है।

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वे वन्यजीव जिनके जंगल ही आश्रयस्थल थे, अब वे मानव आबादी यानी शहरों की ओर रुख करने लगे हैं। दिनोंदिन बढ़ते मानव और वन्यजीव संघर्ष इसके सबूत हैं। विकास के नशे में मदहोश सरकारों की विनाशकारी नीतियों के चलते जंगल तो खत्म हो ही रहे हैं, खेती योग्य जमीन भी बड़े पैमाने पर अधिग्रहीत की जा रही है। नतीजन खेती की जमीन कम होती जा रही है और वहाँ गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और औद्योगिक प्रतिष्ठानों का धुआँ छोड़ती चिमनियाँ नजर आती हैं। आज समूची दुनिया में ऐसे इलाके मिलना मुश्किल है जो मानवीय दखलंदाजी से पूरी तरह मुक्त हों।

दरअसल जंगलों के खात्मे के पीछे सबसे बड़ा कारण मानवीय स्वार्थ के चलते की जाने वाली उनकी बेतहाशा कटाई तो है ही, लेकिन इसके पीछे एक और अहम कारण है, वह है जंगलों में लगी आग, भले इसका कारण प्राकृतिक हो या मानव निर्मित।

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि हर साल दुनिया में हजारों-लाखों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। वह चाहे यूरोप हो, उत्तरी या दक्षिणी अमरीका हो या अफ्रीका हो, एशिया हो या ऑस्ट्रेलिया जहाँ कोई साल ही ऐसा जाता हो जब वहाँ जंगलों में आग न लगती हों। यही नहीं इस आग को बुझाने में वायु सेना तक की मदद ली जाती है। नतीजन इस आग में बहुत बड़ी तादाद में बेशकीमती जैव सम्पदा नष्ट हो जाती है। यह एक कटु सच्चाई है।

हमारे यहाँ भी जंगलों में आग लगने और जैव सम्पदा के खात्मे का सिलसिला बदस्तूर जारी है। दरअसल जहाँ-जहाँ चीड़ के जंगल हैं, उनका ज्वलनशील पिरूल जंगलों की बर्बादी का एक प्रमुख कारण है। यह आग को प्रचंड रूप देने का काम करता है। जंगलों के अन्य प्रजाति के पेड़-पौधों के लिये भी यह नुकसानदायक है। यह जैवविविधता के लिये भी खतरा है।

चीड़ के एक हेक्टेयर जंगल से लगभग आठ टन पिरूल गिरता है। इसका कोई खास उपयोग भी नहीं होता और जमीन पर गिरने से इसकी परत-दर-परत बनती हैं जिससे इसके नीचे कुछ पैदा नहीं होता है। कोई साल ऐसा नहीं जाता जब देश में हजारों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट न चढ़ते हों। इस पर आज तक अंकुश लगाने में दुनिया में कोई भी सरकार कामयाब नहीं हो सकी है।

1980 में कानून बनने के बाद भी वन अधिकारियों, वन माफिया, ठेकेदारों और वन रक्षकों की मिली-भगत के चलते जंगलों के अन्धाधुन्ध अवैध कटान पर अंकुश लगाने में सरकार पूरी तरह नाकाम रही। वन क्षेत्र का दिनों-दिन घटता जाना इसका जीता-जागता सबूत है। वनों के कटान से सम्बन्धित नियम यह है कि यदि विकास कार्यों के लिये जितने पेड़ काटे जाते हैं उससे तीन गुना ज्यादा पेड़ लगाने होंगे।हमारे देश में हर साल तकरीब 28 हजार हेक्टेयर से ज्यादा वन क्षेत्र घट रहा है। 1980 में कानून बनने के बाद भी वन अधिकारियों, वन माफिया, ठेकेदारों और वन रक्षकों की मिली-भगत के चलते जंगलों के अन्धाधुन्ध अवैध कटान पर अंकुश लगाने में सरकार पूरी तरह नाकाम रही। वन क्षेत्र का दिनों-दिन घटता जाना इसका जीता-जागता सबूत है।

वनों के कटान से सम्बन्धित नियम यह है कि यदि विकास कार्यों के लिये जितने पेड़ काटे जाते हैं उससे तीन गुना ज्यादा पेड़ लगाने होंगे। यह जरूरी है लेकिन इसका पालन करने में सरकार के अधिकारी-कर्मचारी कितने चाक-चौबन्द हैं, यह वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आँकड़ों से जाहिर हो जाता है कि बीते तीस-पैंतीस बरसों में कुल कटे पेड़ों के तीन गुने तो दूर, वे अब तक उसके एक तिहाई पेड़ ही लगा पाये हैं।

कानून बनने के बाद से अब तक पूरे देश में 20871 बाँधों, सिंचाई, उद्योगों, रेल, सड़क निर्माण आदि के लिये बनी परियोजनाओं हेतु कुल मिलाकर 11.02 लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र विकास की समिधा बने जबकि इसके तीन गुणा वनीकरण के स्थान पर कुल 4.22 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही वनीकरण हुआ।

असल में देश में जंगलों के लगातार घटते चले जाने से पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र का संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसी हालत में वनों के जीवन और पर्यावरण की रक्षा की आशा कैसे की जा सकती है। यदि सरकारी आँकड़ों को मानें तो देश के कुल भूभाग के 21.02 फीसदी हिस्से पर जंगल हैं और यदि 2.82 फीसदी ट्री कवर को जोड़ दे तो यह 23.84 फीसदी होता है। आज यही हमारी वन सम्पदा है।

यह हालत स्थिति की भयावहता की ओर इशारा करती है। वैसे बीते सालों में पर्यावरण को लेकर समूची दुनिया में जागरुकता आई है और जंगलों का मानव जीवन में महत्त्व भी कुछ हद तक समझ में आया है लेकिन बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के विकल्पों का आज भी पूरी तरह अभाव है। ऐसी स्थिति में जंगल कटते ही रहेंगे। समझ नहीं आता कि लोग यह क्यों नहीं सोचते कि जब जंगल ही नहीं रहेंगे तो हम जिन्दा कैसे रहेंगे।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading