जंगलों में खत्म हो गया पानी

13 Jun 2015
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प्रकृति की अनमोल देन पानी को मनुष्य ने मनमाने तरीके से दोहन किया। आज चारों तरफ से जल संकट का हाहाकार सुनाई देने लगा है। इससे हम तो जूझ ही रहे हैं, इसका खामियाजा अब जंगलों में रहने वाले बेजुबानों को भी भुगतना पड़ रहा है। भले ही इनमें इनकी कोई गलती न हो। हालात इतने बुरे हैं कि वन्यप्राणियों को अब अपने पीने के पानी की तलाश में लम्बी–लम्बी दूरियाँ तय करना पड़ रही है। इतना ही नहीं कई बार ये पानी की तलाश में जंगलों से सटी बस्तियों की तरफ निकल आते हैं। ऐसे में या तो जानवर गाँव वालों या उनके बच्चों पर हमला कर देते हैं या लोग इनसे डरकर इन पर हमला भी कर देते हैं। मध्यप्रदेश में बीते दिनों ऐसी कई घटनाएँ सामने आई हैं।

इसी साल करीब दर्जन भर इस तरह की घटनाएँ सामने आ चुकी है। इनमें एक तेंदुए की तो घायल हो जाने से मौत भी हो चुकी है। वहीं कई अन्य प्रजाति के जानवरों की जिन्दगी भी खतरे में है। झाबुआ, आलीराजपुर, देवास, खंडवा, इंदौर, होशंगाबाद और खरगोन सहित कुछ अन्य जिलों में भी तेंदुए जैसे हिंसक वन्यप्राणी के बस्तियों में घुसने की खबरों ने यहाँ के ग्रामीणों में खौफ पैदा कर दिया है। वहीं झाबुआ जिले के कट्ठीवाड़ा इलाके के रठोड़ी गाँव में डेढ़ साल के बच्चे तथा देवास जिले के सोनकच्छ इलाके में घटिया के पास दो साल के बच्चे गब्बर की तेंदुए के हमले में मौत हो गई। इसी तरह अलीराजपुर जिले में गुजरात की सीमा से सटे एक गाँव झोलिया में रात के समय तेंदुआ डेढ़ साल की एक बच्ची रवीना को लेकर भागने लगता है इसी बीच ग्रामीणों की नींद खुल जाने पर उसे पत्थर मारे तो वह बच्ची को घायल छोड़कर भाग गया। बाद में बच्ची का इंदौर में इलाज चला।

देवास जिले में हाटपीपल्या के पास लिम्बोदी गाँव में पानी की तलाश में आई मादा तेंदुए की चोंट लग जाने से इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। चोंट लगने से असहाय मादा तेंदुआ दर्द से तड़पती हुई गुर्राती रही। उसे इस तरह देखने के लिए ग्रामीणों का हुजूम उमड़ पड़ा था। बाद में वनकर्मियों की रेस्क्यू टीम ने उसे इंदौर प्राणी संग्रहालय अस्पताल भेजा लेकिन उसे बचाया नहीं जा सका। यहीं नेमावर के एक 40 फुट गहरे कुँए में गिर जाने वाले हिरण को ग्रामीणों की मदद से बमुश्किल बचाया जा सका। इंदौर के पास एक चौकीदार और तेंदुए के बीच हुए संघर्ष का विडियो तो मीडिया चैनलों ने भी खूब दिखाया। इस इलाके में ऐसे कई उदाहरण हैं।

इतनी बड़ी तादाद में घटनाओं के बावजूद वन विभाग ने अतिरिक्त रूप से फिलहाल कोई व्यवस्थाएँ नहीं की है। वन अधिकारी दावे तो करते हैं लेकिन हकीकत इससे अलग है। जिम्मेदार अधिकारी यह भी जोड़ते हैं कि इसके लिए उन्हें सरकार से कोई अतिरिक्त बजट नहीं दिया जाता है। पानी के नए स्रोत बनाने का काम बहुत खर्चीला है पर प्राकृतिक स्रोतों की सफाई और हौदियाँ तो बनवाई ही जा सकती है। वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होने से वन्यप्राणी परेशान होकर बस्ती–बस्ती भटकने को मजबूर हैं। इधर आने पर कई बार वे शिकारियों की नजर में भी आ जाते हैं तो कई बार मुसीबत में भी फँस जाते हैं।

मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से पर सघन वन क्षेत्र है और इनमें तेंदुआ, भालू, लकड़बग्घा, सूअर, हिरण, चीतल, सांभर, खरगोश, नीलगाय, बन्दर, अजगर जैसे जानवरों सहित बड़ी संख्या में मोर, तीतर, बटेर, तोते, हरियल, चिड़ियाएँ, नीलकंठ, कठफोड़वा, अबाबील आदि पक्षी भी पाए जाते हैं।

वन्यप्राणी विशेषज्ञ बताते हैं कि जंगलों में पानी के प्राकृतिक स्रोत और संसाधन तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। थोड़े बचे हैं वे हर साल सर्दियाँ खत्म होते ही सूखने लगते हैं। जंगलों के बीच से गुजरने वाली नदियाँ और नाले गर्मियों का मौसम आते ही जवाब देने लगते हैं। जंगली जानवर हमेशा से ही अपने पीने के पानी के लिए आस-पास के नदी–नालों या पोखर–तालाबों पर निर्भर रहा करते थे। लेकिन अब गर्मियों के दिनों में वन्यजीवों के लिए खासी मुश्किलें आती हैं। जंगलों का दायरा भी अब लगातार कम होने लगा है। दरअसल विकास की अंधी दौड़ में हमने अपने फायदों के लिए प्रकृति का ताना-बाना भी बिगाड़ दिया है। एक तरफ जैव विविधता के नाम पर विभिन्न प्रजातियों और ख़ास तौर पर दुर्लभ प्रजातियों को सहेजने के लिए सरकारें करोड़ों रूपये खर्च कर रही है तो दूसरी तरफ ये बेजुबान सिर्फ पानी के लिए यहाँ–वहाँ भटकने को मजबूर है। ऐसा ही रहा तो हजारों वर्गमील में फैले ये जंगल इनसे रीत सकते हैं। पानी के लगातार दोहन और बारिश के पानी को नहीं रोक पाने की वजह से अब जंगलों में भी हालात साल दर साल बदतर होते जा रहे हैं।
 

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