जो बोले सो निहाल

वर्ष 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपने लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़- जब पटना की सड़कों पर वेगवती वन्या उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था....। अक्षय करुणा और अतल-स्पर्शी संवेदना के धनी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु प्राकृतिकप्रकोप की इन दो महती विभीषिकाओं के प्रत्यक्षदर्शी तो रहे ही, बाढ़ के दौरान कई दिनों तक एक मकान के दुतल्ले पर घिरे रह जाने के कारण भुक्तभोगी भी। अपने सामने और अपने चारों ओर मानवीय विवशता और यातना का वह त्रासमय हाहाकार देखकर उनका पीड़ा-मथित हो उठना स्वाभाविक था। विशेषतः तब, जबकि उनके लिए हमेशा ‘लोग’ और ‘लोगों का जीवन’ ही सत्य रहे। आगे चलकर मानव-यातना के उन्हीं चरम साक्षात्कार-क्षणों को शाब्दिक अक्षरता प्रदान करने के क्रम में उन्होंने संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखे।

फणीश्वरनाथ रेणु के बाढ़ के अनेक रिपोर्ताज में से एक -



रेगिस्तान जहां जल को तरसती मरूक्षेत्र की जमीन पर पानी अमृत तुल्य माना जाता है, आम गृहिणी-सी लगने वाली विमला कौशिक ने पानी की बूंद-बूंद बचाकर जन-जन में जल के संरक्षण की अलख जगाने का असाधारण एवं अनुकरणीय काम किया है। बीकानेर जिले के पचास से अधिक तालाबों की पुनः खुदाई कराकर उन्हें संरक्षित करने पर जहां ग्रामीण क्षेत्रों में आम जन को पीने के लिए पानी मुहैया हुआ, वही पशु धन को भी पानी की किल्लत से मुक्ति मिली है। उनके जल संरक्षण के प्रति समर्पित भाव के चलते ग्रामीण जन उन्हें पानी वाली बहिनजी के नाम से ही जानने-पहचानने लगे हैं। मैं कभी पश्चिम की खिड़कियों से देखता हूं और कभी पूरब के बरामदे से। पूरब, एक पंचमंजिला बिल्डिंग है। उस मकान की जब नींव डाली गयी थी तो पुनपुन की बाढ़ आ गयी थी। चारों ओर इकट्ठी की गयी ईंटों और गिट्टियों की डेरी पर राह के कुत्तों ने शरण ली थी। पानी हटने के बाद जब इस मकान का काम शुरू हुआ तभी समझा था कि मकान बनानेवाले ने पहले के प्लान पर फिर से विचार कर आवश्यक सुधार किया है।

आंखे मूंदे देर तक, ‘शवासन’ की मुद्रा में लेटा रहा। किंतु, प्रशांतिकर औषधि (ट्रैक्विलाइजर) तथा ‘आसन’ का कोई सुफल नहीं हुआ। इसके विपरीत, आंतरिक यंत्रणा धीरे-धीरे और भी तीव्र, और गंभीर होकर प्राण के निकटतम हो गयी। दीर्घ निःश्वास का कम बढ़ता गया। एक बार लगा कि अब सचमुच दम घुट जायेगा। छटपटा उठा। और, आंखे खुलते ही मोहच्छादित! …यह क्या? कमरे की सभी दीवारों पर, फर्श पर, सामानों पर – नीचे-ऊपर सभी ओर एक रहस्यपूर्ण अलौकिक आलोक-जाल! एक सचल रश्मि-धारा!! ...मेरे सारे शरीर पर बेल-बूटेदार सफेद झीनी चदरी-सी यह क्या है जो सजीव है? रोमांचित हुआ। फिर तुरंत ही सब कुछ समझ गया...यह तो विश्व-प्रकृति की लीला हो रही है न? मेरे ब्लॉक के चारों ओर फैली हुई, वेगवती जलधारा पर सूर्य कि प्रखर किरणें पड़ती हैं और प्रतिच्छटा प्रेक्षित होकर हमारे कमरे में इंदरजाल फैला रही हैं? …’बहुरूपी’ – (बंगला नाटक मंडली) के आलोक-संपात करने वाले उस प्रसिद्ध कलाकर का नाम अभी याद नहीं आ रहा ...फिल्मवाले ‘आउटडोर’ में बड़े-बड़े आईने ले जाते हैं। उनको ‘रिफ्लैक्टर’ कहते हैं ...अपने कमरे के बड़े आईने में अपने को देखकर मुस्करा पड़ा।

मुंह-आंख-कान-हाथ-पैर पर वही आभा दौड़ रही थी। लग रहा था, मेरी देह कमरे के शून्य में तैर रही है। इस सम्मोहन से मुक्त होने का मन नहीं करता...

बाहर, कोलाहल ही नहीं-किलोल, तमाशबीनों की भीड़ उमड़ आयी है। घुटने और कमर-भर पानी में लड़के नहा रहे हैं। तैर रहे हैं। जल-किलोल...पुनपुन की बाढ़ के समय भी ऐसा ही मेला लगा था।

...लो, वही जीपवाला फंसा। ‘टॉप-गियर’ पर गुर्राती हुई आवाज अचानक बंद हो गयी। इसके बाद ‘सेल्फ’ को चालू करने की चेष्टा में कुछ देर ‘खचचचच...खचचच...’ फिर निस्तब्ध। निश्चय ही ‘गियर बॉक्स’ में पानी भर गया होगा। जीप के फंस जाने पर, आसपास जल-विहार करनेवालों और जल-उत्सव देखने-वालों को बड़ी खुशी हुई। जीप के बेबस होते ही एक सम्मिलित हंसी की लहर चारों ओर फैल गयी...पुनपुन की बाढ़ में हमें फंसा देखकर देखनेवालों का पहला जत्था हंसते-हंसते लोटपोट हो गया था। ऊपर की ओर अर्थात् हमारी ओर देखकर ताने देता हुआ एक छोकरा जोर-जोर से बोला था – “अच्छा ! हा-हा-हा-हा ...घर में गैस का सलींडर, पांच मिनट में ही खाना बनानेवाला कूकर, दिन-रात चालू रेडियोग्राम, पलंग के पास टेलीफोन और ठंडा पानी का फ्रीज। अब बोलो –बच्चू ! कहां सटक गयी सारी नवाबी? एं? ही ही ही ही! ...बैरा! बैरा! साहब लोगों को टेबुल पर ‘छोटी हाजिरी’ दो और मेमसाहब के वास्ते बाथरुम के टब में साबुन का झाग... हाहाहाहा...ठीक हुआ है।”

जीप से उतरकर कई लोग पीछे से गाड़ी को धकेलने लगे तो नहानेवाले लड़कों की टोली मदद करने आ गयी – “अरे साहब, आगे धकेलकर कहां ले जाइगा? पीछे की ओर ठेलकर वापस कीजिए।” कुछ लड़के सामने से धकेलने लगे – ‘मार जवानों –हइयो!’ कुछ पीछे से ठेलते रहे – “मार जवानो-हइयो !” गाड़ी एक गड्ढ़े से निकलकर दूसरे में फंस गयी । लड़के खुश होकर नहाने लगे...

रिक्शावां का साहस और उत्साह दुगुना हो गया है। तेज धारा के बावजूद, कमर-भर पानी में नीचे उतरकर रिक्शा को खींच रहे हैं। ‘जलकेलि करने-वाले लड़के हर रिक्शेवाले को बिना मांगे मदद दे रहे हैं। रिक्शा को पीछे से ठेलकर पार करवा रहे हैं – “हैइ-यो-यो है-है-है।” भीच-भीच में ट्रैक्टर और ट्रक अपनी सारी ताकत लगाकर पानी को चीरते हुए निकल जाते हैं। पानी में हिलकोरे और गोलंबर के आकाश में गूंजती, मंडराती प्रतिध्वनियां।’

मैं कभी पश्चिम की खिड़कियों से देखता हूं और कभी पूरब के बरामदे से। पूरब, एक पंचमंजिला बिल्डिंग है। उस मकान की जब नींव डाली गयी थी तो पुनपुन की बाढ़ आ गयी थी। चारों ओर इकट्ठी की गयी ईंटों और गिट्टियों की डेरी पर राह के कुत्तों ने शरण ली थी। पानी हटने के बाद जब इस मकान का काम शुरू हुआ तभी समझा था कि मकान बनानेवाले ने पहले के प्लान पर फिर से विचार कर आवश्यक सुधार किया है। फलतः इस बार जबकि आसपास के मकानों के ‘ग्राउंड फ्लोर’ घुटने से लेकर छाती-भर पानी में हैं, इस बिल्डिंग के अहाते में चार-पांच इंच-भर पानी है। मकान की पहली सीढ़ी भी पानी से बाहर है ...और संयोग की बात : एक सप्ताह पहले इसके सामनेवाले मैदान में नये मकान की नींव डाली गयी और सोन का पानी आ गया! हमारे ब्लॉक के बायें बाजू में – पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के कई नये ब्लॉक बनकर अभी-अभी तैयार हुए हैं – कटिस्नान कर रहे हैं।

“ए कि? जल चले गेछे? कले जल नेई? बड्डो मुश्किल।” – निष्प्राण ‘हैंडपंप’ के हैंडिल को चलाती हुई लतिकाजी बोलीं।

“किंतु, पुनपुन की बाढ़ के समय तो कभी पानी बंद नहीं हुआ?” मैंने गंभीरतापूर्वक कहा।

“अरे दुर तोमार...पुनपुन की बाढ़ की बात। मैं पूछ रही हूं कि अब क्या होगा? ...देखूं, टोमैटो की मां के कल में है या वहां भी...” बड़बड़ाती हुई, हाथ में छोटी बाल्टी लेकर छत के रास्ते वह चली गयीं।

महा-मुश्किल मैंने पंप के हैंडिल को चलाकर देखा-एकदम बेजान नहीं। भरोसा है थोड़ा ...राजेंद्रनगर के इलाके में ऊपर के तल्लों में पानी की किल्लत हमेशा रहती है। प्रेशर कम रहता है। बहुत दिनों तक कष्ट झेलने के बाद, तीन साल पहले हमने सड़क के किनारे ‘अंडर ग्राउंड मेन लाइन’ में डेढ़ सौ फीट ‘पाइप’ जुड़वाकर हैंडपंप लगवाया। गांव के ट्यूबवेल का पानी जब सूख जाता है – हम ऊपर से पानी डालकर उसको पुनर्जीवित करते हैं। यहां भी वही करना होगा। घड़े से एक ‘मग’ पानी लिया, पंप की थुथनी (नोजल) को ऊपर की ओर करके पानी डाल दिया, फिर हैंडिल चलाने लगा। तब तक लतिकाजी छोटी बाल्टी में पानी लेकर पहुंची और मुझ पर बरस पड़ी, “एक मग पानी बर्बाद कर दिया न! मुन्नी की मां के फ्लैट से पानी ला रही हूं।”

वह घड़े में पानी डालकर फिर बाहर गयीं तो मैंने हैंडपंप को फिर एक ‘मग’ पानी पिलाया और हैंडिल चलाने लगा। वह उल्टे पांव दौड़ी आयीं, “तुम समझते क्यों नहीं ? फिर एक मग पानी बर्बाद किया न ? जरा बुद्धि से भी तो काम लिया करो। जब ‘मेन पाइप’ में ही पानी नहीं तो ...मिछे मिछे ...बेकार पानी डालकर...”

तब तक पंप में जान आ गयी थी। पंप की उलटी हुई थुथनी से पानी का फव्वारा निकला और मैं भीग गया। पुर्षार्थ-भरे स्वर में कहा, “बुद्धि से ही काम लेकर तो अब तक जी रहा हूं, श्रीमतीजी। लीजिए, घर में जितने भी बर्तन हैं – पात्र-अपात्र-कुपात्र-सबमें पानी स्टोर कर लीजिए। श्रीकृष्णपुरी की ओर न पानी है, न बिजली। इधर भी, जब तक है – है...”

“सुना है, स्टेशन भी डूब गया है। गाड़ी बंद...”मैं कहता हूं, “अरे, स्टेशन क्या डूबा होगा-रेलवे लाइन पर पानी आ गया होगा। लेकिन यह खबर कौन ले लाया?” “टोमैटो, गांधी और बालाजी वगैरह घर में बंद रहनेवाले लड़के थोड़े हैं! सब निकलकर गया था। सुनछि, एयरोड्रमओ डूबे गेछे।” और स्टीमर सर्विस तो दो दिन पहले से हीं बंद है ...जल-थल-नभ सभी मार्ग बंद !

छत पर गया। ब्लॉक के सभी –बत्तीसों फ्लैट के लोग छत पर जमा थे। गंगा नहीं, सोन का पानी है। “गंगा अचानक डेढ़ हाथ नीचे चली गयी.. गंगा मैया की कृपा...नहीं तो, अब तक पटना का नाम-निशान तक नहीं रहता। पुनपुन का क्या हाल है भाई? ...पानी कहां-कहां है और कहां-कहां नहीं है?...पश्चिमी पटना तो समझिए कि एकदम ‘डुबिये’ गया है, इधर स्टेशन, गांधी मैदान, कमदकुआँ, पीरमुहानी, नाला रोड, लोहानीपुर, मंदीरी-सब जगह कमर से लेकर छाती – भर पानी है। मंदीरी की हालत सबसे बदतर है। अथाह पानी है वहां। नहीं, अशोक राजपथ पर एक बूंद भी पानी नहीं है ... धूप इतनी तेज है तो पानी जरूर घटेगा... आपके कल में पानी आ रहा है न? देखिए, पानी-बिजली कब तक चालू रहे...अब तक कोई नाव नहीं आयी। नाव नहीं स्टीमर आयेगा आपके लिए...पानी स्टोर कर रहे हैं न ? ...खाना क्या है, बस खिचड़ी पका लो और आलू का भुर्ता। बस वह देखिए –पीपे की नाव बनाकर आ रहे हैं, कुछ लोग।” सभी नीचे की ओर देखते हैं। नीचे मेला और रेला बढ़ता ही जा रहा है। पता नहीं, इन लड़कों को मोटर का ट्यूब कहां से इतना मिल गया है? ...मिलेगा कहां से? सड़क पर जितनी फंसी गाड़ियां लावारिस पड़ी हुई हैं, सभी के टायर-ट्यूब निकालकर ला रहे हैं।

तैरना, पानी उलीचना और बीच-बीच में ब्लॉक के किसी फ्लैट की खिड़की की ओर देखकर फिकरे कसना – सब कुछ पूर्ववत् चल रहा है ...ऊपर, एक हवाई जहाज मंडरा गया...अरे, ऊपर से क्या देख रहे हो, जरा नीचे उतर आओ भाई ...शायद , हवाई फोटो ले रहा है ...अरे भाई, फोटो लेकर क्या करेगा? सभी अखबारों के मशीनघर में पानी घरघरा रहा है...पता नहीं, क्या हो..पानी बढ़ सकता है...पानी बढ़ा है...हां, देखिए-पानी फिर बढ़ रहा है? एँ? पानी फिर बढ़ने लगा। अब खैर नहीं...

फ्लैट में आकर रेडियों ट्यून किया। सुबह से ही फतुहा-ट्रांसमिसन सेंटर में प्रोग्राम प्रसारित किया जा रहा है...आवाज किसी पेशेवर ‘अनाउंसर’ की नहीं। शायद, वहां के दरबान या इंजीनिरिंग-सेक्शन के किसी कर्मचारी की आवाज ...सीधे और सपाट ढंग से वह बीच-बीच में सूचना देता है कि छज्जू बाग के मुख्य स्टूडियो में पानी आ जाने के कारण फतुहा से प्रोग्राम हो रहा है ...अब आप एक कव्वाली का रिकार्ड सुनिए। सितार बजने लगता है तो रिकार्ड रोककर कहता है-सुनिए कव्वाली नहीं, यह सितार का रिकार्ड है...अब आप हमारा दिल्ली का समाचार सुनिए...

प्रारंभ की दो पंक्तियां डूब गयीं… “अब आप पूरे समाचार सुनिए। पटना की बाढ़ की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। पिछले अठारह घंटे से पटना का संपर्क देश के शेष भागों से कटा हुआ है। दूरसंचार के सभी साधन भंग हो गये हैं, गाड़ियों का आना-जाना बंद है क्योंकि पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन की रेल की पटरियां पानी में डूब गयी हैं। आज एयर इंडिया का विमान पटना हवाई अड्डे पर नहीं उतर सका...”

“अब आप फिल्मी गीत सुनिए...हम तुम कमरे में बंद हों और चाभी खो जाये...”...अनाउंसर पेसेवर नहीं हो। लेकिन, रिकार्ड उसने चुनकर लगाया है।

रेडियों से-पटना का देश के शेष भागों से संपर्क कट जाने की बात सुनने के बाद मेरे अंदर का ‘मैं’ कातर हो उठा। ऐसा लगा कि एक द्वीप पर अकेला बैठा हुआ हूं। चारों ओर समुद्र लहरा रहा है। कहीं किसी जहाज का मस्तूल या किसी नाव का पाल नहीं दिखलायी पड़ रहा...

न जाने कब नींद आ गयी। जगा तो दिन के चार बज रहे थे। हर दस मिनट पर पश्चिम की खिड़कियों पर जा खड़ा होना, फिर पूरब के बरामदे पर कर बाहर देखना-नियम-सा बन गया है, हर बार बिजली के खंभे पर, सामने की नंगी दीवार की इंटों पर और ताड़ के तने पर निगाह डालकर देखना कि पानी घटा है या बढ़ रहा है। सो, जागते ही खिड़कियों के सामने जाकर खड़ा हो गया। भीड़ में अपने किसी भी परिचित का चेहरा ढूंढ़ रहा हूं। नहीं, इस भीड़ में कहीं भी कोई अपना परिचित नहीं...भीड़-प्रिय आदमी कभी किसी का अपना नहीं होता ... वह व्यक्ति अपने परिवार के कनिष्ठतम प्राणी के साथ बाढ़ का मेला देखने आया है।

परिवार के सभी सदस्य रंग-बिरंगी पोशाक पहने हुए हैं। औरतें और लड़कियां सजी-धजी हुई हैं। बंगला में इसी को ‘हुजुग’ कहते हैं। इस हुजुग को, मेला देखनेवाली भीड़ को, देखकर बाढ़ के पानी में डूब मरने को जी करता है...

छत पर आने का मन नहीं करता। यहां ऐसी-ऐसी बातें सुनने को मिलता हैं कि दिल डूबने लगता है और कभी खून गर्म हो जाता है...और कम उम्र की अल्हड़-सी लड़कियों की तरह अधेड़ औरतें बचकानी बातें करने लगती हैं तब। असल में, मैं ही सठिया गया हूं।

...अच्छा, बतलाइए तो, सोन बढ़ रहा है या बढ़ रही शुद्ध है?... मुस्काराहट...नदी तो स्त्रीलिंग है, इसलिए सोन बढ़ रही है...खिलखिलाहट ...आप भी कैसे ‘कवी’ हैं जी? जानते नहीं, सोन तो मर्द है। नदी नहीं, नद है। समझे? तभी तो राजधानी में घुस आया है...ही ही ही ही! आपने दाढ़ी रख ली, इसीलिए बाढ़ आ गयी। कटा लीजिए, पानी घट जायेगा!... हा हा हा !...

एक भाई साहब हैं जो कभी भी किसी मौके पर कोई ऐसी बात नहीं करते जिसे सुनकर मन में कोई उत्साह या आनंद अथवा राहत मिले। आज दिन-भर अपने प्लैट में पता नहीं हथौड़े से क्या ठक-ठककर ठोंकते रहे और अभी छत पर एकत्र प्राणियों (जिनमें ‘फेमनिन’ की संख्या ही गरिष्ठ है) के भीच आकर ‘ठकाठक’ कई कठोर खबरें ठोंक गये – “पुनपुन के तटबंध में भी ‘ब्रीच’ हो गया है...इधर गंगा का पानी फिर बढ़ने लगा है...और, और सचिवालय के पास स्टीमर आ गया है और सारे कागजात को सुरक्षित ... ” खिलखिलाकर हंसनेवालियों के चेहरे एक ही साथ बुझ गये-मानो बिजली गुल हो गयी-हाय राम! तब तो समझिए कि प्रलय ...

बाहर बिजली चमकी। पूरब और दक्षिण की ओर आकाश में काले मेघ उमड़ आये हैं। उमस से देह चिपचिपा रही है। बाहर ‘आवाजाही’ अब तक बंद नहीं हुई है। भीड़ नहीं है। किंतु, लोग आज भी साढ़े ग्यारह बजे तक चल रहे हैं। हर आदमी के हाथ में एक लाठी-दूसरे में झोली, बोतल या डालडा का डिब्बा अथवा गठरी...सचमुच, मौत से ही जूझ रहे हैं। भाई साहब कल से ही जिस बात को हजार बार कह चुके हैं उसी को फिर, अपनी खल्वाट खोपड़ी पर हाथ फेरते हुए, कहते हैं – “भगवान बुद्धा ने कहा था कि इस शहर को तीन बातों से हमेशा खतरा रहेगा...”

हजार बार सुनकर भी हर प्राणी की उत्सुकता नहीं मिटती – “कौन-कौन-सी तीन चीज..?”

मैं पूछना चाहता था कि सचिवालय के पास स्टीमर आ जाने की खबर भाई साहब को कहां से मिली। वे मौर्य-युग में पहुंचे हुए थे, अतः चुपचाप नीचे अपने कमरे में चला आया।

अब सूरज की लाली बाढ़ के गंदले जल में घुल रही है। ऐसा दृश्य-अर्थात् बाढ़ के जल पर डूबते हुए सूरज की किरणों को रंगीन लकीरें खींचते बहुत बार देखा है, मैं उस अंधियारी की प्रतीक्षा में हूं –जो आज रात इस नगर में छाने-वाली है...पानी घटा नहीं है। भीड़ बढ़ गयी है। कोलाहल में कोई कमी नहीं।

...आज साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाले प्रादेशिक समाचार नहीं प्रसारित हुआ। कव्वाली, फिल्मी गीत, तबला, वायलिन और सितार के घिसे-कटे रिकार्ड बजते रहे...प्रादेशिक समाचार नहीं प्रसारित हुआ तो क्या बिगड़ गया? प्रसारित ही होता तो क्या बन जाता? बाढ़ का पानी घट जाता ? कोई राहत मिल जाती ? ...मैंने एक बार लगातार तीन महीने तक अपने गांव में बिना अखबार पढ़कर और बिना रेडियो सुनकर अनुभव किया है। कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि एक पुराना रोग (कब्जियत) दूर हो गया था...

पानी की धारा पर बहुत देर तक निगाहें गड़ाकर देखते रहने से एक आनंद-दायक भ्रम होने लगता है। सारा मकान स्टीमर की तरह तैरता हुआ-सा लगता है...उधर पूरब की ओर कुछ हुआ, शायद, लड़के उधर दौड़ क्यों रहे हैं, एक साथ? नाव आ रही है। हां, नाव ही है। नाव पर सात-आठ सरदारजी और कई गैर-सरदार बैठे हैं। किसी भी सिख को देखते ही मेरे मन के अंदर यह अभिवादन ‘भक्तिभाव’ से गूंजने लगता है – ‘जो बोले सो निहाल-सत सिरी अकाल !’

सरदारजी लोगों का दल जलविहार करने नहीं, रिलीफ बांटने आया है। सामनेवाले पंचमंजिला इमारत के मुंडेर पर पनाह लेनेवालों को वे बुला रहे हैं- “नीचे आओ।”

हमारे ब्लॉक के बायें जो मकान बनकर तैयार हुए हैं, उसमें अब तक चालीस-पचास बाढ़ पीड़ित परिवार आकर डेरा डाल चुके थे-रिक्शावाले, खोंमचावाले रद्दी कागज-शीशी-बोतल खरीदने वाले। सभी रोटियां लेने उतरे। सरदार स्वयं-सेवकों ने चिल्लाकर कहा “पानी में मत उतरो। हम वहीं आ रहे हैं।”

नाव हमारे फ्लैट के नीचे से गुजरी । नीचेवाले फ्लैट से किसी ने पूछा, “क्या दे रहे हैं?”

“रोटी, सब्जी और घुघनी। और पीने का पानी भी। रोटी बहुत अच्छी है, गर्म है...बढ़िया आटे की है। क्यों, चाहिए क्या? ” स्वयंसेवक सरदारजी ने एक रोटी निकालकर दिखलाते हुए कहा। फिर पूछा – “आप लोगों की छत पर पनाहगुर्जी कोई नहीं...”

इसके बाद नाव को घेरकर भूखे-प्यासे लोग अपने बाल-बच्चों के साथ रोटियां लेते रहे और शोर मचाते रहे...रिलीफ देनेवालों की यह पहली टोली थी...दिनभर के भूखे-प्यासे प्राणियों को तृत्पिपूर्वक भोजन करते हुए, घूंट-घूंटकर पानी पीते हुए देखकर रोम-रोम पुलकित हो उठा। जोर से पुकार उठा, “जो बोले सो निहाल-सत सिरी अकाल!” और – नाव पर बैठे स्वयंसेवकों ने मेरे इस हार्दिक अभिनंदन को स्वीकार करते हुए एक साथ ‘सत सिरी अकाल’ कहा। फिर पूछा, “कुछ चाहिए? रोटी-पाणी?”

मैंने कहा, “उधर, कम्यूनिटी हॉल...दिनकर अतिथिशाला में, और उसके पच्छिम की ओर जाइए, वहां बहुत लोग हैं....”

“हां-जी, उधर हमारी एक नाव गयी हुई है।”

...बिजली आ गयी है। जल-थल आलोकित हो गया है। पुनपुन की बाढ़ के समय, पानी की धारा पर बिजली के लट्टुओं और मर्करी-ट्यूब का जैसा आलोक-नृत्य देखा था-वैसा ही दृश्य...किंतु, सारा पश्चिमी पटना घोर अंधकार में डूबा होगा।

...दिल्ली से रेडियो पर कहा जा रहा है-पटना के लोग मौत से जूझ रहे हैं।

कमरे के कोने से ठाकुर रामकृष्ण देव बोलो- “की रे? सारा दिने...दिनभर में तीन बार ठूंसकर खाया है? दिन-भर सिगरेट फूंकता रहा, चाय पीता रहा। यही है तुम्हारा मौत से जूझना?...घर से बाहर निकलता क्यों नहीं? आश्रम के स्वयंसेवकों के साथ दुखियों की सेवा करने क्यों नहीं आता? उस बार तो खूब उत्साह के साथ गया था। क्या हुआ इस बार?”

“ठाकुर ! तुम तो जानते हो। मैंने कमस खायी है, बाढ़-पीड़ितों की सेवा करने के लिए अब नहीं जाऊंगा।”

“एई तोमार तीसरी कमस?”

लतिकाजी भींगी साड़ी में लथपथ लिपटी हुई आयीं और बाथरुम की ओर जाती बुई बोली, “ओदेर...उन्हें खिला आयी।”

मैंने कुछ भी नहीं समझा। वह स्नान करके, कपड़े बदलकर आयीं। पूछा, “ओदेर माने?”

ओई बेचारा कुकुरदेर...बेचारे कुत्ते। एक ने चायवाले की झोंपड़ी को ‘आस्ताना’ (बसेरा) किया है। दूसरा – वहां ईंटों की ढेरी पर है और तीसरी तीन नंबर ब्लॉक की एक खाली दुकान के रैक पर बैठा है। रोटी दे आयी हूं और, उस चायवाले को देखों। मुझे रोटी खिलाते देखकर दौड़ा आया और लाठी से बेचारे को कोंचने लगा। कहने लगा, मेरा छप्पर नोंचकर बर्बाद कर देगा।

“भगा दिया ?”

“नहीं। अपने ब्लॉक के लड़के सब नीचे थे। उन्होंने कहा, कुत्ते को अगर भगाया तो तुम्हारी झोंपड़ी कल बह जायेगी।”

बाहर बिजली चमकी। पूरब और दक्षिण की ओर आकाश में काले मेघ उमड़ आये हैं। उमस से देह चिपचिपा रही है। बाहर ‘आवाजाही’ अब तक बंद नहीं हुई है। भीड़ नहीं है। किंतु, लोग आज भी साढ़े ग्यारह बजे तक चल रहे हैं। हर आदमी के हाथ में एक लाठी-दूसरे में झोली, बोतल या डालडा का डिब्बा अथवा गठरी...सचमुच, मौत से ही जूझ रहे हैं। पानी में भंसता हुआ डेढ़ बित्ते का कोई कीड़ा डंक मार दे और एक घंटा में ही सब समाप्त ...दीवार गिर पड़े और खेल खत्म...फिर कहीं कोई तटबंध टूट जाये अथवा गंगाजी का कोप बढ़ जाये और चारों ओर पानी की एक उठती हुई ऊंची दीवार के साथ पटाक्षेप।

अब बिजली की प्रत्येक कौंध के तुरंत बाद ही मेघ गरज उठता है। इसका मतलब है कि बादल अब पटना के आकाश पर छा गया। बाहर निकलकर देखा और मुंह से सहसा निकल पड़ा – “तुम्ही क्यों बाकी रहोंगे आस्मां...जरा बाहर आकर देखो इन बादलों को ...की भीषण...”

एक कुत्ते ने रोना शुरू किया। किंतु, कल के रुदन से आज का रोना भिन्न है। कल वे आशंका और आतंक को सूंघ रहे थे और आज मौत को बहुत करीब से देखकर रो रहे हैं...मुझे फिर टेप-रिकार्डर की जरूरत ...असल में इस रुदन को जिसनें सुना है, वही समझ सकते हैं- “ओं-य-य-हूँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ-हाँ-हाँ-हाँ-य-ह...हूँ-ओं-आ-आ...”

आज उन्हें डाँटकर कोई चुप नहीं कर रहा। इसलिए वे सम्मिलित सुर में रह-रहकर रो रहे हैं! उनकी करुण पुकार में कोई बाधा नहीं पड़ती।

....कुत्तों को चुप किया, तेज हवा के पहले झोंके ने। हवा तेज हो गयी। बिजली जल्दी-जल्दी कौंधने लगीं-कड़ककर टूटने लगी। एक बार तो लगा, आसमान चरचराकर फट ही गया। हवा नहीं, यह तूफान है। आँधी आ गयी? सभी फ्लैंटों की खुली हुई खिड़कियों और दरवाजे के पल्ले काठ के पंख की तरह फड़फड़ाने-धड़धड़ाने लगे। धड़ाधड़ खिड़कियाँ बंद होने लगीं। अब, हवा के साथ मूसलाधार वृष्टि! घनघोर वर्षा...पास ही किसी मकान में कोई भयातुर आत्मा ‘अजान’ देने लगी – “अल्ला-हो अ-क-ब-र...”

पुनपुन की बाढ़ को न्योतकर ले आनेवाली, अट्ठारह-बीस घंटे तक अविराम होनेवाली वर्षा की याद आयी...उस बार मुंगेर के किसी इलाके में बादल टूट कर (बर्स्ट) गिरा था और पांच मिनट में ही कई गांव पानी के अतल तल में समा गये थे...सब कुछ संभव है।

...उन लोगों पर अभी क्या बीत रही होगी जो छतों पर, खुले आसमान के नीचे हैं?

...अब जो दृश्य उपस्थित हो रहा है, होता जा रहा है, उसे देखने का साहस नहीं बटोर पा रहा हूं। विश्व-प्रकृति का यह उन्मत्त नृत्य, अब इस शहर को डुबाकर ही बंद होगा...ऊँ नमस्ते सते सर्वलोकाश्रयाय..त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरण्यं...भयानां भयं भीषणं भीषणानां...परेषां परंरक्षणं-रक्षणानां...तदेकैस्मरा-मस्तेदेकंजपा...भवांभो धिपोतं शरण्यं ब्रजाम...!!!

संसार-सागर से उबारने वाले एकमात्र ‘पोत’ को सुमिरता हुआ, रक्षकों के भी रक्षक की शरण गहता बाहर की ओर देख रहा हूं। पानी बढ़ता जा रहा है। लेकिन, अब डर नहीं लग रहा। अब काहे का डर?...दिन में सूअर के बच्चे जिस तरह डूबते-बहते हुए मर रहे थे, उसी तरह मरने को तैयार हूं। किंतु, चिचियाऊँगा नहीं उनकी तरह। मृत्यु की वंदना गाता हुआ मरूँगा...तैंतीस-छत्तीस साल पहले का एक गीत (रवि ठाकुर के प्रसिद्ध गीत का हिंदी-अनुवाद और सुंदर अनुवाद!) – ‘कंगन’ फिल्म का पुराना गीत गुनगुनाने लगता हूं। फिर, बाहर की घनघोर वर्षा के ताल पर, जोर से – गला खोलकर गाना शुरू कर देता हूं- “मरण रे-ए-ए-ए तुँहु मम श्याम समा-आ-आ-न...घोर घटा का मोर-मुकुट धर धर बिजली की मुरली अधर पर ...गा दे अमृत...गा-आ-आ-आ-आ-न...मरण रे-ए-ए-ए-...”

दस मिनट बरसकर बादल छंट गये। हर फ्लैट की खिड़कियां फिर खुल गयीं। आसमान साफ हो गया...पटना एक बार फिर बच गया। बाहर झाँककर देखा – कई लोग जाल फेंककर मछलियाँ पकड़ रहे हैं।

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