जरूरी है भूकम्प से बचने के प्रयासों पर अमल


बीते रविवार को अफगानिस्तान में हिन्दूकुश की पहाड़ियों में 6.8 की तीव्रता वाले भूकम्प से खैबर पख्तूनख्वा और पंजाब प्रान्त के अलावा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर, गिलगित-बालिस्तान, जम्मू कश्मीर, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा और देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचा उत्तर भारत दहल गया। वह तो गनीमत रही कि यह भूकम्प हिन्दूकुश की पहाड़ियों में 190 किलोमीटर नीचे से आया जिसके कारण केवल चार लोगों की मौत और 27 के घायल होने के अलावा जानमाल का अधिक नुकसान नहीं हुआ है।

अगर इस भूकम्प की गहराई कम होती, उस दशा में सतह पर उसकी तीव्रता उतनी ही ज्यादा होती। ऐसी स्थिति में विनाशलीला कितनी भयावह होती, उसकी कल्पना से ही दिल दहलने लगता है। इस बारे में यदि अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग की मानें तो हिन्दूकुश का इलाका भूकम्प के लिहाज से सबसे खतरनाक जगहों में से एक है।

इस इलाके में पिछले छह महीने में तकरीब 100 से अधिक बार भूकम्प के झटके महसूस किये गए हैं। यह भी सच है कि इनमें से कुछ ने तो धरती को हिलाकर रख दिया और अधिकतर का पता ही नहीं चल सका।

भूकम्प के बारे में बहुतेरी किंवदन्तिया प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं पर नजर डालें तो पृथ्वी को विष्णु के परमभक्त शेषनाग ने अपने शीश पर धारण किया हुआ है। वह जब करवट बदलते हैं तब भूकम्प आता है। एक दूसरी कथा के अनुसार एक राक्षस ने पृथ्वी को अपहृत करके समुद्र में बन्दी बना लिया था। वाराह भगवान ने उस राक्षस का संहार किया और पृथ्वी को मुक्त कर अपने विशालकाय दातों पर सम्भाला। तभी से वह जब-जब हिलते-डुलते हैं, तभी भूकम्प आता है। एक जापानी कथा में वर्णन है कि एक भीमकाय मकड़ा पृथ्वी का वाहन है। उसके हिलने-डुलने से भूकम्प आता है।

महान यूनानी दार्शनिक और प्रख्यात गणितज्ञ पाइथागोरस की मान्यता है कि मरे हुए लोगों की आपसी लड़ाई के कारण भूकम्प आते हैं। वैज्ञानिक पाइथागोरस की धारणा को तर्कसंगत नहीं मानते। वे इससे कतई सहमत नहीं हैं। कुछ लोग इसे ईश्वरीय प्रकोप की संज्ञा देते हैं। एक यूनानी दार्शनिक का मानना है कि पृथ्वी के अन्दर से निकलने वाली गैस या भाप के कारण भूकम्प आते हैं। उनके विचार आधुनिक विचारों से मेल खाते हैं। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। बहरहाल आजकल प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त ही सबसे ज्यादा तर्कसंगत माना गया है। वर्तमान में इसे ही सबसे अधिक मान्यता प्राप्त है।

भूकम्प के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि भूकम्प तो आते ही रहते हैं। इनके बारे में फिलहाल भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती है। वैसे इस बारे में पिछले सौ सालों में अमरीका, रूस, चीन और जापान में अनुसन्धान किये जाने हेतु लाखों-करोड़ों डॉलर की राशि अब तक खर्च की जा चुकी है। अमरीका में इस सम्बन्ध में कैलीफोर्निया और मिशीगन यूनीवर्सिटी के अलावा यूएसजीएस और यूएससीजीएस द्वारा अनुसन्धान जारी है। रूसी वैज्ञानिक तो 1938 से ही इसी प्रयास में लगे हैं। उन्हें इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूत्र तो प्राप्त हुए हैं। लेकिन इससे अधिक कुछ कर पाने में अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है।

चीन में राष्ट्रीय पूर्वानुमान कार्यक्रम की घोषणा की गई। जापान में पूर्वानुमान सम्बन्धित अनुसन्धान कार्यक्रम के तहत 1976 तक 70 भूकम्पलेखी, 20 भूपर्पटी विरूपण वेधशालाएँ यानी टिल्टमापी और विकृतमापी चुम्बकत्वीयमापी स्टेशनों की स्थापना और अत्यन्त सतर्क तलमापन सर्वेक्षण किये गए जिनमें तकरीब 3.6 करोड़ यू एस डॉलर खर्च किये गए। लेकिन वहाँ अब तक किये गए सर्वेक्षणों से मात्र भूमि के व्यापक क्षेत्र का प्रादेशिक स्तर पर उतार-चढ़ाव का ही पता चल सका है।

अभी तो भूकम्प की भविष्यवाणी के मामले में दुनिया के वैज्ञानिक कोसों दूर हैं लेकिन इस दिशा में किये जाने वाले अनुसन्धान एक दिन जरूर सफल होंगे। इससे ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब भूकम्प की भविष्यवाणी की जा सकेगी और लोग उससे पूर्व बचाव के प्रयास करने में समर्थ होंगे।

बहरहाल इतना तय है कि भूकम्प एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही दिल दहल जाता है और मौत सिर पर मँडराने लगती है। दुनिया में भूकम्पों से होने वाली विनाशलीला ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। वैसे यह जान लेना जरूरी है कि समूची दुनिया में एक साल में तकरीब 10000 भूकम्प के झटके महसूस किये जाते हैं।

भूकम्प पूर्व झटकों को स्वयं भूकम्प से अलग पहचानना काफी मुश्किल होता है। वैसे एक आकलन के अनुसार भूकम्प से जान जाने की सम्भावना रोज काम पर जाने के दौरान जान जाने की तुलना में आँकड़ों में काफी कम होती है। 26 मार्च 1969 के वाशिंगटन पोस्ट में रिक्टर का एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने कहा था कि केवल भूकम्प से बहुत कम लोग जख्मी होते हैं या मरते हैं। बहुत पुराने घरों के गिरने से ही अधिकतर जानें जाती हैं या जख्मी होते हैं। इन घरों को मजबूत बनाना चाहिए या फिर उन्हें बदल देना चाहिए। अन्य जैसे यातायात में हुई दुर्घटनाओं की तुलना में भूकम्प एक मामूली खतरा है। वैसे कहा कुछ भी जाये पूरा हिमालयी क्षेत्र भूकम्प की जद में है।

इस सच्चाई को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि भारत में भी भूकम्प के खतरे कम नहीं हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार चूँकि दिल्ली सेस्मिक जोन चार में आती है इसलिये यहाँ 7.9 तीव्रता वाला भूकम्प कभी भी आ सकता है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि यदि कुछ सावधानियाँ बरती जाएँ तो भूकम्प के प्रभाव को काफी कम किया जा सकता है।

भूकम्प के खतरे से निपटने की तैयारी में हम बहुत पीछे हैं। विडम्बना यह कि आपदा प्रबन्धन कानून बनने के दस साल बाद दावे कुछ भी किये जाएँ, देश की बात तो दीगर है, देश की राजधानी दिल्ली में किसी आपदा से निपटने की कोई ठोस योजना तक नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है। असलियत है कि इस आपदा का कभी भी सामना करना पड़ सकता है और सरकार उसका पूरी तरह मुकाबला करने में आज भी अक्षम है।

गौरतलब है रुड़की में नवम्बर 1984 में “क्रिएशन ऑफ अवेयरनेस अबाउट अर्थक्वेक हैजर्ड्स एंड मिटिगेशन ऑफ सिस्मिक रिस्क्स” विषय पर एक अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी। गोष्ठी में प्रस्तावित मार्गदर्शक निर्देशों में जो सुझाव दिये गए थे, भूकम्प के पूर्व, भूकम्प के समय और बाद में यदि उनको अमल में लाया जाये तो भूकम्प के खतरे से काफी हद तक बचा जा सकता है। जैसे भूकम्प आने से एकदम पहले घर के बाहर निकल जाएँ। शान्त रहें। भगदड़ से बचें, क्योंकि उससे गहरी चोट लगने का अन्देशा है। फर्नीचर, अलमारी, फ्रिज आदि भारी चीजों को दीवार से लगाकर रखें। खाने की सामग्री, पानी, कपड़े, टार्च या मोमबत्ती, आपातकालीन दवाएँ, रेडियो, हेलमेट, प्राथमिक उपचार किट, कम्बल आदि तैयार रखें। पानी या अन्य पेय पदार्थ प्लास्टिक की बोतलों में रखें। ज्वलनशील और विस्फोटक वस्तुओं को सुरक्षित दूरी पर रखें। गैस, बिजली के स्टोव या नलों को बन्द कर दें। पुराने जर्जर मकानों को खाली कर दें क्योंकि इनके गिरने की ज्यादा सम्भावना रहती है।

भूकम्प आने के समय आप यदि इमारत के बाहर हैं तो बाहर ही रहें। यदि वाहन में यात्रा कर रहे हैं तो निकटतम सुरक्षित जगहों पर इमारत और पेड़ों से दूर जाएँ। यदि इमारत के अन्दर हैं तो मजबूत दरवाजे के बीच में खड़े हों या फिर मेज या दीवान के नीचे चले जाएँ। मुख्य द्वार या बाहरी दीवारें असुरक्षित जगहें होती हैं, इनके पास न जाएँ। गिरती हुई वस्तुओं पर अपना ध्यान रखें। हड़बड़ाहट में बाहर न भागें। गिरते हुए पलस्तर, ईंटें, छत में लगी चीजों से सावधान रहें। मोमबत्ती स्टोव या माचिस न जलाएँ जब तक कि यह सुनिश्चित न कर लें कि आसपास ज्वलनशील पदार्थ गैस आदि तो नहीं है। एस्कलेटर्स या सीढ़ियों के इस्तेमाल से बचें क्योंकि बाहर से भागने वालों की भीड़ सीढ़ियों या एस्कलेटर्स पर हो सकती है, इसलिये अपनी बारी का इन्तजार करें।

भूकम्प के बाद सहायताकर्मियों का धीरज से इन्तजार करें। उपलब्ध धातु या किसी भारी चीज से दीवार पर ठकठक करें ताकि सहायताकर्मियों का ध्यान आकर्षित हो सके। अपने व पड़ोसियों का पता लगाएँ। चिकित्सा सहायता आने तक आपसे जो बन पड़े वह करें। बिजली, पानी और गैस आदि के कनेक्शनों की जाँच करें और यदि ठीक नहीं हैं तो उन्हें दुरुस्त कराएँ। हो सकता है कुछ दिन इन सुविधाओं के बिताने पड़ें। आग बुझाने वाले उपकरणों को तैयार रखें। जब तक कि आप आश्वस्त न हो जाएँ कि झट से जलने वाली गैस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल आदि का खतरा नहीं है, माचिस न जलाएँ। रेडियो, टीवी द्वारा प्रसारित और राहत कार्य में लगे कर्मियों के निर्देशों का पालन करें। भूकम्प से गिरे मकानों या उनके झुके हुए हिस्सों से दूर रहें क्योंकि भूकम्प के बाद आने वाले झटकों से वह गिर सकते हैं। निष्कर्ष यह कि भूकम्प को हम रोक नहीं सकते लेकिन उससे बचने के प्रयास तो कर ही सकते हैं। इसलिये हमें खुद कुछ करना होगा। तभी भूकम्प के साये से कुछ हद तक खुद को बचा सकेंगे।

 

 

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