जवाबदेह नागरिक भूमिका की माँग करता जनादेश- 2015

18 Feb 2015
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Arun Tiwari
Arun Tiwari
भारत में एक सक्षम जन निगरानी तन्त्र की माँग कर रहा है। इस माँग की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अपने गाँव-कस्बे, निगम क्षेत्र, विधानसभा, लोकसभा, नदी, जंगल अथवा किसी परियोजना विशेष को इकाई मानकर हम जन निगरानी तन्त्र का विकास कर सकते हैं। जन निगरानी तन्त्र की भूमिका पंच परमेश्वर सरीखी होती है। योजना को ठीक से जानना-पहचाना। उसके हर पहलू पर नजर रखना। लाभार्थियों को पहले से अवगत कराना। योजना में कमी है तो टोकना। उन्हें दूर करने के लिए मजबूर करना। योजना ठीक से लागू हो; इसमें अपनी भूमिका की तलाश कर उसका निर्वाह करना। दिल्ली जनादेश- 2015 को किसी पार्टी के पक्ष अथवा विपक्ष में देखे जाने से ज्यादा जरूरत, जनप्रतिनिधि संस्कारों में बदलाव, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति और आत्म सम्मान की जनाकांक्षा के व्यापक उभार के संकेत के रूप में देखे जाने की है। यह संकेत ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए हैं, चूँकि दिल्ली की आबादी अपने आप में भिन्न विचार, वर्ग और प्रान्त प्रवासियों का आईना है।

जनादेश गवाह है कि दिल्ली जैसे बड़े महानगर की जनता भी अभी महँगी गाड़ियों, झक सफेद चमचमाती पोशाकों और गुमान से भरी आवाजों में अपना प्रतिनिधित्व नहीं देखती। इससे यह भी अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों की जनांकाक्षा जोर मारेगी, उस दिन जनप्रतिनिधित्व के कैसे-कैसे अक्स उभरकर सामने आएँगे।

यह चेतावनी है कि जन प्रतिनिधि सावधान हो जाएँ। जनता चाहती है कि वे स्वयं को जनता का शासक मानने की बजाय, जनता का प्रतिनिधि ही मानें। वे जनता की तरह दिखें भी और उनका विचार-व्यवहार भी जनता की तरह हो। यदि वे नहीं बदले, तो जनता उनकी जगह किसी अपने से दिखने वाले को चुन लेगी; फिर भविष्य, चाहे जो हो।

बुनियादी जरूरतों की पूर्ति बने प्राथमिकता


इस बार के चुनाव नतीजों ने यह भी रेखांकित किया है कि ‘वर्ल्ड क्लास’ सपने दिखाने से पहले, जनप्रतिनिधि समझे कि हमारा भारत अभी भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम जनता का देश है। छोटी-छोटी जनाकांक्षाओं की पूर्ति देश की प्राथमिकता बननी चाहिए। देश में अभी भी कई करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें दुकान के शो-केस में रखी मिठाई आज भी ललचाती है। चमचमाता माॅल हो या डीएम का बंगला.. दोनों के भीतर घुसने की उनकी हिम्मत आज भी नहीं होती। खेती के लिए भूमि का एक अदद् टुकड़ा,प्यारी सी पत्नी के लिए एक अदद् मंगलसूत्र और बेटी के लिए मनमाफिक दूल्हा.. आज भी किसी एक भारतीय गरीब के बड़े सपनों में शामिल हो, तो कोई ताज्जुब नहीं।

हकीक़त यह है कि हममें से ज्यादातर सरकारी स्कूल को सुधार कर, पब्लिक स्कूलों से बेहतर बना देने जैसा आदर्श सपना नहीं लेते; खुद अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ते देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमें सरकारी बीज, खाद, राशन और मिट्टी के तेल से लेकर सरकारी छूट वाली कोई भी चीज ब्लैक में न खरीदनी पड़े। हमारी गलियाँ साफ व पक्की हों। पानी की गुणवत्ता-पीने योग्य, आपूर्ति-नियमित तथा बिल-कम हो। बिजली पूरी मिले। पुलिस वाला मुझे अनाथ समझने की जुर्रत न करे। मेरा मुकदमा जल्दी निबट जाए। सरकारी बाबू मुझसे विनम्रता से पेश आए। सरकारी डाॅक्टर और नर्स, हम मरीजों को भेड़-बकरी न समझें। अस्पतालों में लम्बी-लम्बी लाइनें छोटी हो जाएँ। आजकल ज्यादातर डाॅक्टर व नर्सिंग होम, जाँच के नाम पर मरीजों को कंगाल करने के मर्ज से पीड़ित हैं। ऐसे डाॅक्टरों और निजी-सरकारी अस्पतालों का इलाज हो। ये एक आम आदमी की खास जनाकांक्षाएँ हैं। वह पहले इनकी पूर्ति चाहता है।

महज् एक वोट से नहीं सम्भव अपेक्षित बदलाव


कहना न होगा कि दिल्ली जनादेश-2015 के संकेत और लक्ष्य.. दोनों ही बेहद बुनियादी और लोकतन्त्र की परिभाषा के अनुरूप हैं। किन्तु क्या महज् एक वोट के जरिए इन्हें हासिल करना सम्भव है? नहीं! इसके लिए जनता को खुद को बदलना होगा।

वस्तुस्थिति यह है कि आज हम इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि अपनी सुविधा के लिए आज हम खुद शॅार्टकट रास्ते तलाशते हैं। ‘आउट आॅफ वे’ हासिल करना हम रुतबे की बात मानते हैं। जब तक यह चित्र नहीं बदलेगा, बदलाव का सपना अधूरा ही रहेगा।

हमारी सरकारें सरकारी योजनाओं के घोषित लाभार्थियों को लाभ देने की प्रक्रिया में समानता और संवेदना की गारण्टी देने में असफल साबित हो रही हैं। निस्संदेह, इसका एक बड़ा कारण, सत्ताशीनों की प्राथमिकता पर लोकनीति की बजाय, राजनीति और राजनीतिक विभेद का होना है। जन-जन को समझना होगा कि योजनाओं के प्रति जनप्रतिनिधियों का गैरजवाबदेह और समाज का उदासीन रवैया, योजनाओं की नाकामयाब इससे भी बड़ा कारण है। समाज की उदासीनता तोड़े बगैर सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता। बेलगाम भ्रष्टाचार इसी का परिणाम है। अतः बदलना तो जनता को भी होगा। आइये, बदलें।

जवाबदेह भूमिका में आए जनता


यदि हम चाहते हैं कि हमारे द्वारा चुना उम्मीदवार, जनाकांक्षा के अनुरूप दायित्व-निर्वाह हेतु विवश हो, तो उसे पांच साल अकेला न छोड़ दें। उसके साथ सतत्-सक्रिय संवाद तथा सहयोग बनाएँ।

जनप्रतिनिधियों के बजट से क्रियान्वित होने वाले कार्यों पर तो न सिर्फ निगाह रखें, बल्कि बजट से क्या काम होना है? यह तय करने का काम मोहल्ला समितियाँ/ग्रामसभाओं को सौंपने के लिए जनप्रतिनिधियों को विवश करें। हमारे लिए बनी योजनाओं की हम खुद जानकारी रखें। उसमें सभी सम्बन्धित पक्षों की भूमिका को जानें। उनका सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए जनप्रतिनिधि व प्रशासन का सहयोग करें। उसके उपयोग-दुरुपयोग व प्रभावों की निगरानी रखें।

जननिगरानी तन्त्र का विकास जरूरी


वर्तमान कालखण्ड, भारत में एक सक्षम जन निगरानी तन्त्र की माँग कर रहा है। इस माँग की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अपने गाँव-कस्बे, निगम क्षेत्र, विधानसभा, लोकसभा, नदी, जंगल अथवा किसी परियोजना विशेष को इकाई मानकर हम जन निगरानी तन्त्र का विकास कर सकते हैं। जन निगरानी तन्त्र की भूमिका पंच परमेश्वर सरीखी होती है। योजना को ठीक से जानना-पहचाना। उसके हर पहलू पर नजर रखना। लाभार्थियों को पहले से अवगत कराना। योजना में कमी है तो टोकना। उन्हें दूर करने के लिए मजबूर करना। योजना ठीक से लागू हो; इसमें अपनी भूमिका की तलाश कर उसका निर्वाह करना।

योजना के दुश्मनों को दूर करना और कर्मनिष्ठ सहायकों को मदद देना; सम्मानित करना। समय-समय पर योजना की हकीकत को उजागर करना। योजना बजट की पाई-पाई का हिसाब लेना। ये जननिगरानी तन्त्र के काम हो सकते हैं। ये काम अत्यन्त जिम्मेदारी, सावधानी, कौशल व सातत्य की माँग करते हैं। कायदे से तो सरकारों को ही चाहिए कि वे जननिगरानी तन्त्र के गठन, प्रशिक्षण, कौशल विकास, संवैधानिक मान्यता व हकदारी की पक्की व्यवस्था करें। दिल्ली में बैठी लोकसभा और विधानसभा चाहें तो शासकीय जन निगरानी तन्त्र गठित करने की पहल कर सकती है।

जन निगरानी तन्त्र की आवाज सरकार में सुनी जाए; यह भरोसा सरकार, स्वयंसेवी जगत, मीडिया, अदालत.. सभी को मिलकर दिलाना चाहिए। जन निगरानी एक ऐसा औजार है, जो जहाँ एक ओर जनता में हकदारी का भाव जगाएगा, वहीं दूसरी ओर उसे जिम्मेदार भूमिका में भी लाएगा। इसी से जनता में योजनाओं व योजनाकारों कें प्रति विश्वास का भाव जागृत होगा। इसी से क्रियान्वयन ढाँचा जवाबदेह बनाया जा सकेगा। प्राकृतिक और सामुदायिक संसाधनों पर जनाधिकार की गुत्थी भी इसी रास्ते से सुलझेगी।

खुद पहल करें हम


ऐसे बदलावों के लिए जनता को स्वयं पहल करनी होगी। जनाकांक्षाओं की पूर्ति और आत्म सम्मान हासिल करने के इस महायज्ञ में जनता को घृत, समिधा, अग्नि और पुरोहित.. सब कुछ खुद ही बनना पड़ेगा। सच मानिए, यदि जनता ऐसी जवाबदारी निभा सकी, तो हकदारी स्वतः आ जाएगी। जनता, जैसे-जैसे जवाबदेह होती जाएगी; लोकतन्त्र,वैसे-वैसे अधिक विकसित और लोकहितैषी होता जाएगा। अभी तन्त्र आगे है, लोक पीछे; तब लोक आगे होगा; तन्त्र सहायक की भूमिका में।

शासन-प्रशासन जनता की सुनने को मजबूर होंगे। भ्रष्टाचार पर स्वतः लगाम लग जाएगी। जन सहभागिता सुनिश्चित होने का मार्ग स्वतः खुल जाएगा। यह आदर्श स्थिति होगी। ‘आप’ जैसी नई उम्र की पार्टी को मिले पल्ला झाड़ जनसमर्थन की भाँति,यह स्थिति अभी भले ही अकल्पनीय हो, किन्तु हम बीज तो बो ही सकते हैं। आइए, बोएँ।

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