झीलों में मछलीपालन

देश में झील, तालाब और कृत्रिम जलाशय काफी संख्या में हैं। झील लगभग 2 लाख हेक्टेयर में फैले हुए हैं। बांधों के जलाशय 50-60 साल से ज्यादा पुराने नहीं हैं। ऐसे जलाशयों के लाभ गिनाते समय मत्स्य पालन को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। पर इनमें मछली पालने का रिवाज अभी हाल में शुरू हुआ है और उसका ज्ञान भी बहुत सीमित है।

कुछ ही जलाशयों में व्यापारिक मछली पालन को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और वहां भी आमतौर पर विदेशी नस्ल की मछलियां ही पाली जाती हैं। मछली उत्पादन के लिए प्रसिद्ध जलाशयों में उड़ीसा का हीराकुंड, पश्चिम बंगाल के माइथन और मयूराक्षी, आंध्र प्रदेश का नागार्जुन सागर और चंद जलाशय प्रसिद्ध हैं। लेकिन वहां मछलियों के रहन-सहन का, गरमी के मौसम के अंत में तथा बरसात के दिनों में उन पर होने वाले मौसमी प्रभाव, जलाशयों में गाद भरने का और नदी के ऊपरी हिस्से में हो रही गतिविधियों के कारण वन विनाश और प्रदूषण का कोई व्यवस्थित अध्ययन नहीं किया गया है। तो भी इतना कहा जा सकता ही है कि जलाशयों में देसी नस्ल की मछलियों का उत्पादन काफी कम है। जलाशयों में होने वाला अधिकतम उत्पादन 190 किग्रा प्रति हेक्टेयर अमरावती सरोवर में दर्ज किया गया और वह भी विदेशी नस्लें ‘तिलपिया मोसांबिका’ का। यह तय कर पाना मुश्किल है कि इस कम उत्पादन के लिए पानी की गहराई, पानी का असामान्य बहाव, सरोवरों के चारों ओर वनस्पतियों का अभाव, गाद की भराई आदि कहां तक जिम्मेदार है। दक्षिण और मध्य भारत के 10 लाख हेक्टेयर गहरे जलाशयों में मछली उत्पादन की दर प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम से 40 किलोग्राम तक है, जबकि कलकत्ते के साधारण तालाबों में यह दर 8,000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ओर दक्षिण भारत के किलों के भीतर की खाइयों में 5,600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

सामाजिक परिणाम

मछलियों को बचाने की चिंता केवल मछलियों के लिए भी जरूरी है और उससे जुड़े परंपरागत मछुआरे के लिए भी। पर एक तो प्रदूषण और साथ ही धंधे में बढ़ चली व्यावसायीकरण इन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। ट्रॉलर और बारीक जाल जैसी नई चीजों ने अपने प्रारंभिक दौर में ही मछलियों और उन पर आधारित जीवन को रौंद डाला है।

भागलपुर जिले में नदी के मछुआरे के बीच काम करने वाले संगठन ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ के अनिल प्रकाश का कहना है कि ये मछुआरे आज दुर्लभ मछलियों की खोज में बंजारे जैसे बन गए हैं। वह इसका दोष नदी के प्रवाह की कमी को, बढ़ते प्रदूषण को और फरक्का बांध को देते हैं। आज वे लोग अपना पेट पालने के लिए उत्तर में सुदूर हिमालय तक और पश्चिम में गुजरात तक घुमते हैं और साल भर में मुश्किल से तीन माह घर में बिता पाते हैं।

बांधों के जलाशयों से मछुआरों को रोजगार देने की बात कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि अभी वह विद्या ठीक से हाथ आई नहीं है। तिस पर जलाशयों में मछली पालन का सारा नियंत्रण सरकार के हाथ में है। उसमें गरीब मछुआरों को उतरने का मौका नहीं है। ये जलाशय प्रायः ऐसे स्थान और ऐसी ऊंचाइयों पर बने है. जहां परम्परागत मछुआरे न के बराबर हैं। ज्यादातर बांधों में मछली पकड़ने का काम सरकार व्यापारी ठेकेदारों को नीलामी पर दे रही है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मछली और मछुआरे का जीवन सचमुच पानी के बुलबुले जैसा बनता जा रहा है।

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