कागजों पर नदी-नालों और जंगल में बना दिए खेत

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60 साल के सिद्धूजी इस बात से बेहद खुश थे कि अब वे भी अपनी जमीन के खुद मालिक बनेंगे। दूसरों के खेत में मजदूरी करते हुए उनकी कई पीढियाँ गुजर चुकी है। लेकिन अब उनके भाग जगे हैं, देर से ही सही। उन्हें सरकार ने बकायदा पट्टा लिखकर अपने ही गाँव की 5 बीघा जमीन का मालिक भी करार दे दिया। ख़ुशी के मारे वे रात भर खुली आँखों से सपने देखता रहे। पर दूसरे ही दिन उनके सारे सपने छार–छार हो गए। उन्हें सरकार ने जो जमीन दी थी, दरअसल वहाँ तो नदी बह रही थी। उन्हें समझ नहीं आया कि वह बहती हुई नदी में खेती कैसे करें। इस बात को 13 साल बीत गए, उन्होंने गाँव से जिले तक सब तरफ कोशिश की पर आज तक कोई हल नहीं निकला।

यह एक अकेले सिद्धूजी की कहानी नहीं है, मध्यप्रदेश के 30 से ज्यादा जिलों के करीब सवा दो लाख से ज्यादा दलित और आदिवासी परिवारों की कमोबेश यही कहानियाँ है। दरअसल 1999 से 2002 के बीच म.प्र सरकार ने निर्धन भूमिहीन दलित–आदिवासी परिवारों के लिए उनके ही गाँव की सरकारी चरनोई जमीन में से खेती के लिए जमीन के पट्टे बाँटे थे। प्रदेश के 344329 अजा अजजा परिवारों को 698576 एकड़ जमीन आवंटित की गई थी। लेकिन 13 साल बीत जाने के बाद भी अब तक इनमें से 70 प्रतिशत लोग अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं। खुद सरकार ने विधानसभा में यह माना भी है। फरवरी 2013 में तत्कालीन राजस्व मन्त्री करण सिंह वर्मा ने कांग्रेस विधायक के.पी सिंह के प्रश्न के जवाब में बताया कि प्रदेश के कई जिलों में पट्टेधारकों को उनकी जमीन पर काबिज नहीं कराया जा सका है। हालाँकि उन्होंने 60 प्रतिशत का ही आँकड़ा विधानसभा में बताया था लेकिन प्रदेशभर में सर्वे करने वाली संस्था भू-अधिकार अभियान का दावा है कि 70 प्रतिशत परिवार पट्टा–पावती हाथ में लिए इन्तजार कर रहे हैं न जाने कब इनके भाग जागेंगे।

संस्था से जुड़े गजराज सिंह बताते हैं कि कुछ लोगों को तो यह तक पता नहीं है कि सरकार ने उनके नाम कोई जमीन की है। आरटीआई के बाद उन्हें अब इस बात का पता चल पा रहा है। कई लोगों को पट्टे तो मिल गए पर उन्हें आज तक कब्जा नहीं मिला। उनकी जमीनों पर आज भी दबंग या प्रभावी लोग ही खेती कर रहे हैं। कुछ को जमीन तो मिल गई पर उनकी जमीन तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं दिया गया है। ऐसे में वे खेती नहीं कर पा रहे। कई जगह जंगल की जमीन आवंटित कर दी है, वहाँ वन विभाग पेड़ नहीं काटने दे रहा। किसी को नदी नालों पर ही पट्टे दे दिए। किसी को आधी तो किसी को चौथाई हिस्सा जमीन ही मिल पाई है। सरकारी अमले की निष्क्रियता से पूरी योजना ही मटियामेट हो चुकी है।

सरकार ने जमीन दिए जाने वाले भोपाल घोषणापत्र में स्पष्ट उल्लेख किया था कि इन्हें अपनी जमीन पर काबिज करने का पूरा जिम्मा प्रशासन का होगा और जिला कलेक्टर इसकी मोनिटरिंग करेंगे। बावजूद इसके प्रदेश में कहीं कोई कार्यवाही नहीं हो पा रही। सबसे ज्यादा बुरी स्थिति छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह, उज्जैन, देवास, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, विदिशा, सागर और इंदौर जिलों की है।

देवास जिले में सोनकच्छ के धन्धेड़ा में तो बड़ी ही शर्मनाक और अजीबोगरीब दलील दी जा रही है कि यहाँ राजस्वकर्मियों के पास गाँव का सरकारी नक्शा ही नहीं है, इस वजह से अब तक यहाँ पट्टों की जमीन बताई ही नहीं जा सकी है। इसी जिले के बागली में बदिया मांडू के 70 साल के दोलुजी के साथ गाँव के ही दबंग लोगों ने पट्टे की जमीन पर काबिज नहीं होने देने की बात पर दो बार खून खराबा तक भी किया। देवास जिले के ही निपनिया हुरहुर, इस्माइलखेडी, राजोदा और सामगी गाँव में भी यही हालात हैं। शाजापुर जिले के नलखेडा तहसील के चांपाखेड़ा के कंवरलाल भी अब तक काबिज नहीं हो सके हैं। सीहोर जिले के इछावर तहसील के 14 लोगों और आष्टा तहसील के 111 लोगों को अब तक कब्जे नहीं मिले।

अधिकाँश प्रभावित अपनी जमीन की लड़ाई लम्बे समय से लड़ रहे हैं और अब उनका धीरज भी जवाब देने लगा है। कुछ बुजुर्ग तो जमीन मिलने से पहले ही जिन्दगी की लड़ाई हार चुके हैं तो कुछ इस दौड़ में जिले और तहसील के चक्कर लगाते–लगाते अब वे थक चुके हैं। कई परिवारों की पहले से बिगड़ी माली हालत अब और बदतर हो चुकी। कुछ परिवारों के तो इसमें बर्तन तक बिक चुके हैं। फिर भी वे नाउम्मीद नहीं है।

भू-अधिकार अभियान नाम की संस्था बीते 8 सालों से प्रदेश के करीब 16 जिलों में जमीन की लड़ाई में इन परिवारों का हौसला बढ़ा रही है। संस्था के कार्यकर्ता पीड़ित परिवारों को कानूनी सलाह और परामर्श तो देते हैं ही, प्रशासन और पीड़ितों के बीच कड़ी का काम भी करते हैं। कई बार प्रभावितों के साथ इन्होंने जिले के स्तर पर आन्दोलन भी किये हैं।

नदी की जमीन का पट्टा मुझे दे दिया। अब मैं यहाँ कैसे खेती करूँ। अफसरों को भी बताया पर कोई नहीं सुनता।

सिद्धूजी, मोखा पिपलिया, बागली जिला देवास प्रदेशभर में मप्र भू-अधिकार अभियान ने जमीनी सर्वे किया है। 11 जिलों की करीब 45 तहसीलों में बहुत बदतर स्थितियाँ हैं। हम हर प्रभावित तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाने की हमारी मुहिम है।

गजराज सिंह सोलंकी, संयोजक, म.प्र भू-अधिकार अभियान

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