कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है


कल एक बाँध तो देखा तो कसक जाग उठी।
एक तीर्थ बनाने में कितने घर डूबे होंगे।।
कौन मरा, कौन जिया, किसकी जमीनें डूबीं, कोई बहीखाता नहीं है यहाँ।
आज कौन है, कहाँ हैं, कोई नहीं जानता।
पर कल रिक्शा चलाते मिला था, एक आदमी सतना की सड़कों पर।
कुरेदा तो बताया कि बरगी से आया हूँ।
वो तो आज भी रहते हैं अंधेरे में ही
जिनके दम पर रोशन हैं, हमारी और आपकी दुनिया।


बरगी की कहानी

दृश्य 1


साहब हम यहाँ पर रहना नहीं चाहते हैं क्योंकि हमारे यहाँ पर आने-जाने का भी साधन नहीं है। हम आजाद होकर भी कैदियों सी जिन्दगी जी रहे हैं। हमें कहीं भी जाना है तो केवल डोंगी ही सहारा है। यहाँ पर कोई काम भी नहीं है। बढ़ैयाखेड़ा, कठौतिया आदि गाँवों ने तत्कालीन कलेक्टर हरिरंजन राव को सन 2008 में पत्र लिखकर जिलाबदर करने की गुजारिश की थी।

दृश्य 2


बरगी बाँध बना तो गागंदा गाँव डूब गया और गागंदा से खुरसी आये दिलीप पटेल। मुआवजे की राशि और कुछ जमा पूँजी से खरीदी 20 एकड़ जमीन। अब लगा ही था कि जिन्दगी पटरी पर आ गई है कि नहर खुदाई का काम शुरू हो गया और इनकी साढ़े चार एकड़ जमीन नहर में चली गई। सरकार ने कहा कि मुआवजा देंगे पर अभी तक तो नहीं मिला! लगभग 10 वर्ष हो गए राह तकते-तकते। नहर बन गई तो सोचा समृद्धि आ जाएगी। पर ये क्या! नहर बनी और तकनीकी खराबी के कारण पानी का रिसाव होना शुरू हो गया। अब इनकी 8 एकड़ जमीन में नहर के सीपेज का पानी भरा है। दो साल पहले इसके लिये भी उच्च न्यायालय गए? वहाँ पर एसडीएम ने लिखित में दिया कि मुआवजा देंगे पर आज तक यह भी नहीं मिला। यह अकेली दिलीप की कहानी नहीं बल्कि प्रमोद गोस्वामी की भी 4 एकड़ में लगी मसूर की फसल पानी में हो गई। लगभग 200 हेक्टेयर की जमीन में पानी भरता है। 4 फरवरी 2011 को तो यह पूरी नहर ही फूट गई और 700-800 एकड़ के खेतों में पानी भरा है, पूरी फसल चौपट हो गई।

दृश्य 3


जबलपुर जिले के 11 गाँव आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रह हैं। खामखेड़ा गाँव में केवल इसलिये स्कूल नहीं बन पाया क्योंकि डूब के बाद वह गाँव किसी भी रिकॉर्ड में नहीं है फिर चाहे वह वन विभाग का रिकॉर्ड हो या फिर राजस्व का। और दोनों विभागों की इस लड़ाई का खामियाजा भुगत रहे हैं इस गाँव के 27 नौनिहाल। यहाँ शिक्षक की जिजीविषा ही है कि वे उनके घर में पढ़ पा रहे हैं। दो बार पैसा स्वीकृत हुआ क्रमशः डेढ़ और ढाई लाख। दोनों ही बार वापिस चला गया। क्योंकि विभाग तैयार नहीं थे यह बताने को कि यह गाँव आखिर में है तो है किस सीमा मेें! सर्वशिक्षा अभियान यहाँ मुँह चिढ़ा रहा है।

दृश्य 4


रोजगार गारंटी कानून के आने के 5 साल बाद भी जबलपुर जिले के 11 गाँवों के लोगों को आज तक एक भी दिन का काम नहीं मिला है। ऐसा नहीं कि इन्होंने काम की माँग नहीं की, बल्कि काम तो कई बार माँगा लेकिन सरकार ने काम केवल इसलिये नहीं दिया क्योंकि ये गाँव अस्तित्वविहीन हैं। इसका खामियाजा यह हुआ कि यहो के नवयुवक काम की तलाश में 1500 किलोमीटर दूर सिक्किम, मेघालय, तमिलनाडु पलायन कर जाते हैं। यहाँ काम का अधिकार मुँह चिढ़ा रहा है।

दृश्य 5


आदिवासी विकास के सम्भागीय उपायुक्त श्री एस.के.सिंह की 1998 में तैयार की गई रिपोर्ट इससे इतर बात करती है कि विस्थापन के बाद परिवारों का मुख्य व्यवसाय अब कृषि के स्थान पर अब मजदूरी रह गया हैं । कृषि, बाँस के सामान, किराना, लुहारगिरी जैसे व्यवसायों में गिरावट आई है जबकि मजूदरी, अनाज, व्यापार, मत्स्याखेट, सब्जीभाजी, पशुपालन आदि में लोग संलग्न हैं। मजदूरी जैसे व्यवसाय में डूब के पश्चात भारी मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई है।

दृश्य 6


हर साल 15 दिसम्बर को जलाशय का जलस्तर 418 मीटर करने का निर्णय हुआ ताकि खुलने वाली 6000 हेक्टेयर भूमि का 3500 खातेदार उपयोग कर सके लेकिन इस वर्ष से सरकार ने वह भी बन्द कर दिया। लोग खेती के लिये इन्तजार ही करते रह गए।

दृश्य 7


लगता है बाँध बनाने के बाद सरकार ने लोगों को मरने के लिये छोड़ दिया है। यह अनुसूचित जाति जनजाति विकास अभिकरण के तत्कालीन क्षेत्रीय अपर आयुक्त बी.के.मिंज द्वारा विस्थापन के बाद की स्थितियों पर तैयार की गई एक रिपोर्ट का अंश है।

दृश्य 8


प्रदेश के सतना रेलवे स्टेशन पर साइकिल रिक्शा चलाने वाले अधिकांश अधेड़ बरगी परियोजना के विस्थापित हैं, जो पहले किसान थे। उड़ीसा के झारसुगड़ा रेलवे स्टेशन पर उड़िया भाषा सीखकर भीख माँगने वाला मंगलम कोई और नहीं, बरगी बाँध परियोजना से विस्थापित मंगल है।

ये समस्त दृश्य मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध रानी अवंतीबाई परियोजना यानी बरगी बाँध के प्रभावित गाँवों के हैं। जिसके बाशिन्दे तब डूब के कारण जीते जी मारे गए और अब तिल-तिल कर मर रहे है। इन दृश्यों का हमसे सामना कराने वाली इस परियोजना पर भी तो नजर डालें कि आखिर इसने दिया क्या और लिया क्या? बरगी बाँध से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर के 162 गाँव प्रभावित हुए हैं, जिसमें 82 गाँव पूर्णतः डूब गए हैं। लगभग 12 हजार परिवार विस्थापित हुए हैं। जिसमें 70 प्रतिशत आदिवासी (गोंड) हैं। इस परियोजना में 14872 हेक्टेयर खाते की तथा 11925 हेक्टेयर जंगल एवं अन्य भूमि डूब में आई है। उक्त खाते की भूमि का रुपए 16.61 लाख मुआवजा भुगतान किया गया तथा पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों का व्यवस्थापन नहीं किया गया है। 1974 से परियोजना का कार्य प्रारम्भ होकर 1990 में जलाशय का गेट बन्द किया गया।

 

क्रम

शीर्ष

मूल योजना

वर्तमान स्थिति

1.

सिंचाई

बाईं तट नहर से 1.57 लाख हे.

दाईं तट नहर से 2.45 लाख हे.

30 हजार हेक्टेयर सिंचाई क्षमता निर्माणाधीन

2.

विद्युत

105 मेगावाट

90 मेगावाट मुख्य टरबाइन

10 मेगावाट बाईं नहर से

3.

मत्स्य उत्पादन

325 टन

300 टन

4.

जल आपूर्ति

127 एमडीजी जबलपुर शहर को

नहीं

5.

अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन

10 लाख टन

नहीं

6.

पुल

एन.एच. 7 नर्मदा पर हाइवे पुल

पूर्ण

7.

पर्यटन विकास

रिसोर्ट

पूर्ण

 

82 गाँवों को डुबाने और 12000 परिवारों को विस्थापित कराने वाली इस परियोजना में रानी अवंतीबाई सागर परियोजना नामक इस मूल परियोजना की प्रारम्भिक लागत 64 करोड़ रुपए की थी जो कि वर्ष 2009-2010 में लगभग 25 गुना बढ़कर 1514.89 करोड़ हो गई है। 1997 में बरगी व्यपवर्तन परियोजना (बरगी दाईं तट नहर) की अनुमानित लागत 1100 करोड़ की थी जो 2009-2010 में 4281.55 करोड़ हो गई है एवं पुनरीक्षित बजट 5127 करोड़ किया गया है। जबकि इस योजना ने अभी तक क्या दिया। इस योजना के मूल लक्ष्यों और वर्तमान उपलब्धि की स्थिति निम्नानुसार है।

बरगी बाँध मूलतः सिंचाई परियोजना है परन्तु बाँध बनने के 20 वर्ष बाद भी अभी तक नहरों को पूरा नहीं बनाया गया है। अभी तक मात्र 30 हजार हेक्टेयर भूमि में सिंचाई क्षमता विकसित की गई है। परन्तु सिंचाई इससे भी कम हो रही है। दूसरी ओर बरगी बाँध का पानी उद्योगों को देने की तैयारी की जा रही है। सिवनी जिले में झाबुआ थर्मल पावर प्लांट हेतु बरगी जलाशय का पानी देने की अनुमति दे दी गई है एवं मंडला जिले में चुटका में 2800 मेगावाट परमाणु बिजली-घर हेतु बरगी जलाशय को पानी सुरक्षित रखने का कार्यक्रम बन रहा है। अन्य उद्योगों को भी बरगी जलाशय का पानी दिया जा सकता है। सिंचाई के नाम पर बाँध बनाकर उद्योगों को पानी देना इन परियोजनाओं का असली उद्देश्य मालूम होता है। जिस बिजली बनाने की दुहाई सरकार देती रही है, बिजली बनने भी लगी लेकिन जिन गाँवों को उजाड़ा गया है उनमें से कई गाँव आज भी अन्धेरे में है।

सरकार इस बाँध से पर्यटन को बढ़ावा देने में लगी है, तभी तो परियोजना की मूल शर्ताें को छोड़कर सरकार ने पर्यटन विकास के लिये रिसोर्ट बना दिया गया है। पर्यटकों को आवाजाही में परेशानी ना हो इसलिये पुल भी बना दिया गया है। मोटर बोट और क्रूज भी चलने लगे हैं। लेकिन खामखेड़ा के रामदीन कहते हैं कि सरकार और आम लोग इसे पर्यटन स्थल मानते हैं लेकिन यह हमारे गाँव, हमारे घरों और हमारी जमीनों का समाधि स्थल है। जब-जब यह बोट हमारे घरों से गुजरती है, तो हमारी छाती जलती है। मगर क्या करें साहब! सरकार है। सरकार की ही चलती है। हम तो बस वोट देते हैं और सरकार बनाते हैं और फिर सरकार अपनी चलाती है। हम तो पुतरिया (कठपुतली) हैं, जैसा नचाएगी सरकार, वैसा नाचेंगे। तो यह बर्बादी का पर्यटन स्थल है, सरकार ने जीते जी हमारी कब्र खोद दी!

विश्व की सबसे प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक (लगभग 20,000 वर्ष पुरानी) है नर्मदा की घाटी। नर्मदा यानी अमरकंटक से निकलने वाली और तीन राज्यों में से गुजरती हुई गुजरात में अरब सागर में समा जाने वाली नदी नहीं है बल्कि यह तो मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी है। लेकिन इस नदी को बाँधने की घृणित कोशिशें जारी हैं। इस नदी पर 3200 बाँध बनाए जाने की योजना है। इसमें से तीन बड़े बाँध होंगे, 135 मंझौले और बाकी होंगे छोटे बाँध। यानी नर्मदा को जगह-जगह से छिन्न-भिन्न करके काटते रहने का षडयंत्र देखना आज की पीढ़ी का दुर्भाग्य है। यहाँ सवाल यह है कि क्या हमारे धुर विकास समर्थक नर्मदा को एक नाले में तब्दील होते देखना चाहते हैं? लेकिन इस विकास की कीमत कौन चुकाएगा ओर कौन चुका रहा है?

आईआईपीए (इण्डियन एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ पॉपुलेशन स्टडीज) ने 54 बड़े बाँधों का अध्ययन कर यह बताया कि औसतन एक बड़े बाँध से विस्थापित होने वालों की संख्या 44182 है यानी लगभग 4 करोड़ लोग केवल बाँध के कारण विस्थापित हुए हैं। तो और अन्य परियोजनाओं से विस्थापितों का क्या? लेकिन सरकार के पास अपना कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है। भोपाल की सामाजिक कार्यकर्ता और सहलेखक रोली ने सूचना के अधिकार में यह जानकारी प्रदेश सरकार से माँगी तो सरकार का हास्यास्पद बयान यह आया कि पुर्नवास विभाग का काम यह पता लगाना ही नहीं है। आयोग ने फटकार लगाई और अन्ततः सरकार अब यह कर रही है। यह सवाल ही बुनियादी आधार है यह सिद्ध करने का कि सरकार किस हद तक गम्भीर है बाँध बनाने और प्रभावितों के पुर्नवास की।

2010 बड़े बाँधों की 50वीं सालगिरह का वर्ष है। बरगी या बड़े समस्त बाँधों ने हमें एक बार फिर सोचने को विवश किया है कि यह कैसा विकास है? या फिर किसकी कीमत पर किसका विकास? या अधिक विनाश के साथ विकास? हम सोचें कि यह बरसी है या सालगिरह। बरगी बाँध के लिये जब आप जबलपुर की ओर से आते हैं तो आपका स्वागत करते हुए एक बोर्ड लिखा है कि यह बाँध हमारा राष्ट्रीय तीर्थ है। इन दृश्यों और परियोजना की चीरफाड़ के बाद आप तय करें कि कैसे इसे कहें कि यह हमारा राष्ट्रीय तीर्थ है। यह हमारे लिये राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए कि सरकारें लोगों को उजाड़कर उनका पुर्नवास न कर उन्हें मरने के लिये छोड़ देती है और यह हम नहीं कहते स्वयं सरकार (बी.के.मिंज रिपोर्ट) कहती है।

 

बरगी की कहानी

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

बरगी की कहानी पुस्तक की प्रस्तावना

2

बरगी बाँध की मानवीय कीमत

3

कौन तय करेगा इस बलिदान की सीमाएँ

4

सोने के दाँतों को निवाला नहीं

5

विकास के विनाश का टापू

6

काली चाय का गणित

7

हाथ कटाने को तैयार

8

कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है

9

बरगी के गाँवों में आइसीडीएस और मध्यान्ह भोजन - एक विश्लेषण

 


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