काली चाय का गणित


जब बाँध बनने की बात होती थी तो हम लोग हँसते थे कि जिस नर्मदा माई को भगवान नहीं बाँध पाये और जो अमरकंटक से निकलकर कल-कल बहती ही रही है, उसे कौन बाँध सकता है? और जब भगवान नहीं बाँध पाये तो नर्मदा विकास (प्राधिकरण) की क्या बिसात...? मगर साहब हम गलत निकले, नर्मदा मैया बँध गई और हम उजड़ गए। एक स्टीम बोट की आवाज सुनकर वे कहते हैं कि लोग यहाँ पर घूमने आते हैं। सरकार और आम लोग इसे पर्यटन स्थल मानती है लेकिन यह हमारे गाँव, हमारे घरों और हमारी जमीनों का समाधि स्थल है। जब-जब यह बोट हमारे घरों से गुजरती है, तो हमारी छाती जलती है। मगर क्या करें साहब! सरकार है। सरकार की ही चलती है। हम तो बस वोट देते हैं और सरकार बनाते हैं और फिर सरकार अपनी चलाती है। हम तो पुतरिया (कठपुतली) हैं, जैसा नचाएगी सरकार, वैसा नाचेंगे। तो यह बर्बादी का पर्यटन स्थल है, सरकार ने जीते जी हमारी कब्र खोद दी!

बरगी की कहानीसाहब! हम किसी को काली चाय नहीं पिलाते थे, पर क्या करें! आज शर्म भी लग रही है आपको यह चाय पिलाते हुए। मजबूर हैं। दरअसल काली चाय जो आज बड़े लोगों के लिये स्वास्थ्य का सबब है किसी के लिये यह शर्म की बात भी है। आइए जाने क्या है इस काली चाय का गणित...।

बहुत खेती थी। बहुत मवेशी थे। दूध दही था हमारे यहाँ। सुख-सुविधा थी। सुख से रहते थे। मेरी खुद की 20 एकड़ जमीन थी। धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, तिल्ली, मक्का सब उगाते थे साहब! और अब...। फिर वह मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते हैं जैसे किस्मत को दोष दे रहे हो या फिर किसी को अपशब्द कह रहे हो। वह कहते हैं कि मेरा बुढ़ापा ऐसे ही नहीं आ गया है। तीन-तीन बार अपने गाँव से, अपने-अपनों से बिछड़ने का नतीजा है ये। सरकार क्या करेगी या सरकार ने क्या किया? जमीन का मुआवजा दे दिया, उसके अलावा हमारी अपने जड़ों का क्या? यह कहानी बरगी बाँध से डूबे गाँवों में मगरधा गाँव के रामदीन पिता गोपाल की। रामदीन आज 62 वर्ष के हैं। यह कहानी अकेले रामदीन की नहीं बल्कि रामदीन जैसे एसे हजारों लोग हैं जो अपने आज और कल का गणित लगाते है और जीवन की इस धूप-छाँव को महसूस कर रहे हैं।

मगरधा गाँव भी रानी अवंतीबाई लोधी परियोजना के कारण उजड़े अन्य 192 गाँवों की तरह वर्ष 1987 में उजड़ा।

हम तो इतने भोले थे साहब कि कुछ समझ ही नहीं पाये और बाँध में काम करने जाते रहे। वह कहते हैं कि हम यदि तब समझ जाते तो आवाज बुलन्द करते।

जब आवाज बुलन्द की तो बहुत देर हो चुकी थी। इस सवाल को पूछने पर कि यहाँ में क्या फर्क है? रामदीन बहुत ही भावुक हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि क्या है यहाँ पर? क्या नहीं था वहाँ पर। कुल मिलाकर सौ की सीधी एक बात मैया की गोद में हम सुख से रहते थे और आज नर्मदा मैया को देखकर दुख से रोते हैं, हमारी मालगुजारी ही दाँव पर लग गई।

हमसे कहा गया था कि आपको 5 एकड़ जमीन मिलेगी। एक आदमी को नौकरी मिलेगी लेकिन यह सब तो जैसा कहा, वैसा ही रहा। एक भी आदमी को नौकरी मिली हो तो बताओ। इस बाँध के फायदों को लेकर वो कहते हैं कि इससे नीचे वालों को फायदा हुआ होगा, लेकिन हमें तो कुछ भी नहीं। यह तो वैसा ही है कि चार को मारो और 100 की भलाई। अब यह अलग बात है कि जिन चार को मारा गया, वे हम ही हैं।

रामदीन थोड़ा सोचते हुए कहते हैं कि साहब पहले परकम्मावासी (नर्मदा की परिक्रमा करने वाले लोग) आते थे, हमारे यहाँ रुकते थे। बहुत दान पुण्य करते थे हम। मगर अब तो उन्होंने रास्ता ही बदल दिया। अब तो वे भी नहीं आते हैं। वे भी क्यों आएँगे। अब हम लोगों में भी तो सामर्थ्य नहीं रही उनको रखने की। वे भी किसके भरोसे आएँगे? हम उनको कुछ भी नहीं दे सकते हैं अब। सीधे-सीधे कहें तो अब बखत भी नहीं रहीं हमारी।

यह बखत ना रहने का मामला इतना आसान भी नहीं है। बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े राजकुमार सिन्हा कहते हैं कि बाँध बनने और अपने डूब जाने के चार-पाँच वर्षों में ही लोग मनोवैज्ञानिक रुप से प्रभावित हुए और शुरुआती पाँच-छः वर्षाें में ही बहुतेरे लोगोें की मौत हुई। वे इस त्रासद को स्वीकार नहीं कर पाये।

आप लोग अभी क्या करते हैं, इस विषय पर रामदीन कहते हैं कि साहब! दिन भर मैया को निहारते रहते हैं और फिर जंगल जाते हैं, लकड़ी काटें भी तो कितनी। एक गट्ठा काट कर लाये बेच दी, फिर रामभजन।

रामदीन कहते हैं कि हमने सुना था कि इससे बिजली बनेगी और भरपूर बिजली बनेगी। बाँध भी बन गया, बिजली भी बनने लगी पर हमारे गाँवों में तो आज भी अन्धेरा है। हम तो आज भी बिजली का इन्तजार ही कर रहे हैं। राशन दुकान से मिट्टी का तेल लाते हैं और तब जाकर रोशन होती हैं हमारी शाम। यानी यदि चिमनी का तेल ना हो तो पता नहीं क्या हो?

इस बात को सुनकर वे बहुत ही भावविह्वल हो जाते हैं कि नर्मदा नदी पर और बड़े बाँध बन रहे हैं तो वे कहते हैं कि इस शब्द का नाम मत लो। हमारे कान इस शब्द को नहीं सुनना चाहते हैं। भगवान ने तो हमारी बखत खराब कर दी, हमें यह दिन दिखाया है। भगवान कभी किसी को यह दिन ना दिखाए। बहुत दुःख होता है साहब! जब अपने हाथों से अपना घर तोड़ना पड़ता है। कभी किसी का घर ना तुड़वाए कोई।

तभी अचानक जलाशय में आई एक स्टीम बोट की आवाज सुनकर वे कहते हैं कि लोग यहाँ पर घूमने आते हैं। सरकार और आम लोग इसे पर्यटन स्थल मानती है लेकिन यह हमारे गाँव, हमारे घरों और हमारी जमीनों का समाधि स्थल है। जब-जब यह बोट हमारे घरों से गुजरती है, तो हमारी छाती जलती है। मगर क्या करें साहब! सरकार है। सरकार की ही चलती है।

सरकारी रिकॉर्ड में हम वीरान हैं, हमारा कोई माई बाप नहीं। वनविभाग कहता है राजस्व की जमीन है, राजस्व कहता है वनविभाग की। हम तो बीच में झूल रहे हैं। इन दोनों विभागों के झमेले में हमारे बच्चों के लिये स्कूल नहीं बन पा रहा है। तीन बार पैसा आया और चला गया। सरकार ने हमारी वोटरलिस्ट तो बनाई है लेकिन हमारे माई-बाप बनने में उसे शर्म आती है शायद! चुनाव के दिन तो पार्टी आने-जाने की व्यवस्था करती है लेकिन उसके बाद काई पूछता भी नहीं। हमारे यहाँ पर एकमात्र पहुँच मार्ग है लेकिन वह भी चार महीने के लगभग बन्द रहता है, तब तो बस किश्ती ही सहारा है। यदि हम इसके बाद भी संघर्ष करते हैं तो सरकार हमसे कहती है कि अब हमारा काम खत्म हो गया। अरे भाई! हम पूछते हैं कि सरकार ने किया ही क्या है जो उसका काम खत्म हो गया।

विश्व की सबसे प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक (लगभग 20,000 वर्ष पुरानी) है नर्मदा की घाटी। नर्मदा यानी रामदीन की मैया, केवल अमरकंटक से निकलने वाली और तीन राज्यों में से गुजरती हुई गुजरात में अरब सागर में समा जाने वाली नदी नहीं है बल्कि यह तो मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी है। लेकिन इस नदी को बाँधने की घृणित कोशिशें जारी हैं। इस नदी पर 3200 बाँध बनाए जाने की योजना है। इसमें से तीन बड़े बाँध होंगे, 135 मंझौले और बाकी होंगे छोटे बाँध। यानी नर्मदा को जगह-जगह से छिन्न-भिन्न करके काटते रहने का षडयंत्र देखना आज की पीढ़ी का दुर्भाग्य है। यहाँ सवाल यह है कि क्या हमारे धुर विकास सर्मथक नर्मदा को एक नाले में तब्दील होते देखना चाहते हैं? लेकिन इस विकास की कीमत कौन चुकाएगा ओर कौन चुका रहा है?

आईआईपीए ने 54 बड़े बाँधों का अध्ययन कर यह बताया कि औसतन एक बड़े बाँध से विस्थापित होने वालों की संख्या 44182 है यानी लगभग 4 करोड़ लोग केवल बाँध के कारण विस्थापित हुए हैं। तो और अन्य परियोजनाओं से विस्थापितों का क्या? लेकिन सरकार के पास अपना कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है। भोपाल की सामाजिक कार्यकर्ता रोली ने सूचना के अधिकार में यह जानकारी प्रदेश सरकार से माँगी तो सरकार का हास्यास्पद बयान यह आया कि पुर्नवास विभाग का काम यह पता लगाना ही नहीं है। सूचना आयोग ने फटकार लगाई और अन्ततः सरकार अब यह कर रही है। यह सवाल ही बुनियादी आधार है यह सिद्ध करने का कि सरकार किस हद तक गम्भीर है बाँध बनाने और प्रभावितों के पुर्नवास की।

यह केवल इस बाँध का मामला नहीं है लेकिन यदि बाकी और बाँधों की बात की जाये तो सरकारी गम्भीरता हमारे समक्ष है। लेकिन इसका खामियाजा रामदीन जैसे लोग भुगतते हैं। जरा फिर रामदीन की ओर आते हैं तो वे कहते हैं कि रहने दो साहब! लम्बी कहानी है। लेकिन हम यह बाँध नाम का शब्द अब दुबारा नहीं सुनना चाहते हैं। माफ करना साहब, आपको काली चाय पिलाई हमने...। पहले आते तो हम आपका वो स्वागत करते कि पूछो मत! और उनके चेहरे पर फिर चमक आ जाती है। राम राम साहब माफ करना!

 

बरगी की कहानी

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

बरगी की कहानी पुस्तक की प्रस्तावना

2

बरगी बाँध की मानवीय कीमत

3

कौन तय करेगा इस बलिदान की सीमाएँ

4

सोने के दाँतों को निवाला नहीं

5

विकास के विनाश का टापू

6

काली चाय का गणित

7

हाथ कटाने को तैयार

8

कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है

9

बरगी के गाँवों में आइसीडीएस और मध्यान्ह भोजन - एक विश्लेषण

 


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