कब सताएगी उन्हें पानी की चिंता


अपने चैनलों के जरिए अंधविश्वास के भ्रम को स्थापित करने में मशगूल उपग्रह चैनल राशियों-ग्रहों के प्रकोपों की चर्चा करते हुए यदि पानी की चिंता करे लें तो पत्रकारिता की ‘नैतिकता’ बची रहेगी। सत्ता की दलाली फिर भी होती रहेगी। खबरों से खेलने का जुनून जारी रहेगा। सवाल जिंदगी का है। दरअसल जमीन के पानी से नाता टूटा तो नजर का पानी गया। चेहरे का पानी गया। दिल का पानी गया। ऐसे में कोई पानी की चिंता क्यों करे? इस नजरिए से निकलना होगा।

आज चारों ओर पानी की समस्या है। त्राहिमाम है। यह संकट हर साल पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा गहरा जाती है। शहरों में पानी के लिये लम्बी कतारें लगती हैं। कस्बों में ‘पहले पानी फिर आडवाणी’ का ऐलान होता है। गाँवों में चाँद डूबने से पहले लोग मीलों दूर जाकर गढ्ढों में उतर कर कीचड़ सना जल जुटाते हैं। महाराष्ट्र, राजस्थान और उड़ीसा में जल संकट की वजह से लोग सैकड़ों मील दूर जाकर अपनी जान बचाते हैं। बारिश होने पर वे फिर से अपने टोला-टप्परों की ओर लौटने लगते हैं। झारखंड में किसान अपने दुधारू पशुओं को कसाइयों के हाथों बेचकर कहीं और चले जाते हैं। ऐसी खबरें इन दिनों अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं और टी.वी. चैनलों में भी जल-संकट से पैदा हुई समस्याएँ यदा-कदा दिख जाती हैं।

पानी का मुद्दा पर्यावरण का हिस्सा है और पर्यावरण की चिंता आज समाज का हर तबका करता है। सत्ता और समाज से जुड़े लोग ही क्यों बल्कि अब तो यह जरूरत महसूस की जा रही है कि भ्रष्टाचार का खुलासा करने वाले, फैशन शो में स्त्री देह की हड्डियों-गोलाइयों और नाभि दर्शन करनेवाले, किसी काॅलेज प्रिंसिपल के आबरू के सौदागर होने और साधु-संतों के पापाचार सार्वजनिक करने वाले साहसी उत्साही पत्रकार जल-संकट की भीषण त्रासदी को लेकर सक्रिय क्यों नहीं होते? बड़े नामचीन हस्तियों के बेडरूम में ताक झाँक करने वाले और स्टिंग के जरिए बावेला मचान वालेे लोकतंत्र के प्रहरी पत्रकार पानी की चिंता क्यों नहीं करते? जबकि पृथ्वी का हर कोना पानी की कमी-जल संक्रमण और घटते भूजल स्तर से जूझ रहा है। खेद की बात तो यह है कि साल-दर-साल भीषण और भयावह हो रही इस समस्या के प्रति मीडिया की बेरूखी साफ नजर आती है। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर पृथ्वी बचाने की चिंता कर लेना, वनों की बर्बादी को लेकर आँसू बहा लेना और जैव-विविधता पर मंडराते संकट को लेकर रंगीन परिशिष्ट छापकर हम अपने कर्तव्यों का निर्वाहन समझ लेते हैं। फिर इसके बाद?

सामाजिक चेतना, राजनीतिक बदलाव, धार्मिक पुनर्जागरण और आर्थिक सुधार में मीडिया की भूमिका मत निर्माता की रही है। इसमें कोई दो मत नहीं। भ्रष्ट अधिकारियों को सबक सिखाने, कबूतरबाजी और दलाली करते सांसदों को बेपर्दा करने से लेकर धर्म की दुकान चलाने वाले दढ़ियल मठाधीशों की ऐसी-तैसी करने में पत्रकारों की भूमिका बेहद सराहनीय रही है। जिन बातों को स्पष्ट करने में सरकार सैकड़ों रूपये खर्च कर देती है लेकिन परिणाम शून्य दिखता है, वहीं मीडिया के मुहिम ने चमत्कारिक रूप से लोकतंत्र की चौथे स्तंभ की जोरदार भूमिका अदा की है। यही वजह है कि पानी की समस्या के प्रति पत्रकारों के बड़े व्यापक कर्तव्य तय करने का समय अब आ गया है।

गौरतलब है कि पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के जो व्यापक उद्देश्य विश्व स्तर पर स्वीकार किये गये हैं, उस प्रसंग में स्थिति बेहाथ हो चुकी है। कुदरती संसाधनों की अनहद बर्बादी और उन पर आबादी के बढ़ते बोझ के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त हो चुका है। कारखानों की धमन भट्ठियाँ नदियों को लील रही हैं और सूखे या बाढ़ की वजह से हर साल भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। देखने में यह प्राकृतिक आपदा है, मगर सच्चाई तो यही है कि इस परिस्थिति को पैदा करनेवाले खुद मनुष्य है। वर्षा जल-संग्रह के विभिन्न तरीकों-तरकीबों, जल के बेहूदे दोहन और उनके दुरुपयोग से बचाव के अलावा पानी स्रोतों के बचाव के परम्परागत ज्ञान को सार्वजनिक किये जाने का पत्रकारों का कर्तव्यबोध जरूरी हो चुका है।

समाज का हर तबका जन-संचार के हर माध्यम की बातें और उनके संदेश पर यकीन करता है। पानी की गहराती समस्या से निपटने और इस बारे में आम समझदारी विकसित करने के गरज से भाषाई पत्रकारिता की भूमिका दक्षिण भारत के कई राज्यों में बेहद महत्त्वपूर्ण रहा है। वहाँ के पत्रकारों का मानना यही है कि मीडिया की भूमिका तब महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब समस्याएँ भविष्य के गर्भ में पल रही होती हैं। पत्रकार का काम घटनाओं के केवल कमेंटरी करना ही नहीं है बल्कि आने वाले दिनों में समाज किन-किन हालातों से जूझने को मजबूर होगा, ऐसा बताने का काम मीडिया का है।

तमिलनाडु,केरल और आंध्र प्रदेश में अपने लेखों, रिपोर्टों, फीचर्स व समाचार विश्लेषणों के जरिए स्थानीय पत्रकार यह बता पाने में सफल रहे हैं कि पानी के स्रोत बचाने और इसकी मात्रा बढ़ाने की चिंता केवल सरकार की नहीं है बल्कि आम जनता को भी इस बारे में कमर कसना ही होगा। केरल में साल के छह महीने बारिश के होते हैं। इनके बावजूद वहाँ के प्रमुख दैनिक मलयालम मनोरमा ने खास अभियान चलाकर लोकमानस में वर्षाजल संग्रह के प्रति खास अभिरूचि पैदा की है। साल 1995 से लेकर 2015 के बीच पानी को लेकर सबसे ज्यादा लेख, फीचर और खबर छापने में पूूूूरे देश भर में मलयालम मनोरमा अव्वल रहा है। एक सर्वे रिपोर्ट का ऐसा कहना है। इसी समाचार पत्र ने 2004 में जल संरक्षण को लेकर पाला थुल्ली नामक एक बहुचर्चित और सफल लोक अभियान भी चलाया था।

आंध्र प्रदेश में कई साल पहले मूसी नदी मरने के कगार पर थी। साथ में लोग तालाबों को पाटकर मुहल्ले बसा रहे थे और धरती की छाती में नलकूप धंसाकर जमीन के अंदर का जल चूस रहे थे। सरकार लाचार थी और स्थानीय प्रशासन और पुलिस भू-माफिया और कंस्ट्रकशन माफिया के हाथों बिक चुकी थी। तभी साल 2000 में इनाडु अखबार ने सुजलम सुफलाम शीर्षक से पृष्ठ भर का एक विज्ञापन हफ्तों प्रकाशित कर एक वैचारिक आंदोलन की शुरूआत की। यह कोशिश सफल रही। गाँव-देहात के लोगों ने परंपरागत जल-स्रोतों को पुनरजीवित करने का काम अपने कंधे पर ले लिया। मंदिरों से सटे जलाशय, जो कूड़े के टीलों से ढँक चुके थे, फिर से पानी से लबालब हो गये। भूजल स्तर ऊपर आ गया। मूसी जिंदा हो उठी। किनारे का जन जीवन खुशहाल होता चला गया। आज मूसी आभारी है इनाडू और उसके समर्पित पत्रकारों के प्रति।

उल्लेखनीय है कि वर्ल्ड वाटर फोरम 2002 का संपूर्ण मसौदा पत्रकारों ने ही तैयार किया था। इसके पहले वर्ल्ड बैंक की पहल से मार्च 2000 में हेग में आयोजित एक पर्यावरण सम्मेलन में जल से जुड़े मुद्दों पर पत्रकारों की भूमिका को बेहद जरूरी समझा और स्वीकारा गया। उधर स्टाॅकहोम में पत्रकारिता के छात्रों के लिये एक हजार यू. एस. डालर के स्टूडेंट वाटर जर्नलिज्म अवार्ड की शुरूआत की गयी है। ऐसी पहल अपने देश में भी हुई है मगर मन और आत्मा से जुड़ कर नहीं। भोपाल के माखनलाल चतुवर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने पानी की चिंता करने वाले मुट्ठी भर पत्रकारों, मुख्यधारा के पत्रकारों, जल-संग्रह के विशेषज्ञों बीच रिश्ते बनाने की पहल की है। इसमें गैर-सरकारी संगठनों से भी मदद ली जा रही है। पानी से जुड़े मुद्दों को लेकर पत्रकारों में चेतना और अभिरूचि पैदा करने की मंशा से वहाँ के पाठ्यक्रम में पानी पत्रकारिता भी शामिल करने की बातें की जा रही है।

मगर सवाल यह है कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में पानी की बातें और व्यवहारिक तौर से जल के प्रति चिंता करने के बीच बहुत बड़ा अंतर है। क्योंकि पानी का मसला पहले भावनात्मक रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए। आम सहमति से ही ऐसा संभव है। आम सहमति परंपरा के प्रति सम्मान, लोकज्ञान से जुड़े रीति-रिवाजों और प्रकृति के प्रति अनुराग रखने वाले लोक ज्ञान की वाचिक परंपरा के बीच संगत रिश्ते बनाकर ही संभव है। पत्रकार खासतौर से हिन्दी पत्रकार जिस समाज, जिस परिवार और जिस परिवेश में पले बढ़े होते हैं वे ऐसी आम सहमति को स्वीकार करते हैं। पश्चिमी देशों की पीत पत्रकारिता, सनसनीखेज पत्रकारिता और बाजार को ध्यान में रखकर खबर परोसने वाली पत्रकारिता की नकल करने वाले लोग काश यह जान पाते कि बाहरी मुल्कों में पानी को लेकर पत्रकार बिरादरी कितने संवेदनशील हैं।

बाढ़ और सूखे के प्रति लोक चेतना जगाने वाले बांगलादेश के मोहिउद्दीन खान, सभ्यता और संस्कृति से पानी के संबंधों को जग जाहिर करने वाले पाकिस्तान के जैगम खान, उद्योगपतियों के हाथों बिक कर पानी के मुद्दे को धता बताने वाली नेपाल सरकार की बखिया उधेड़ने वाले आदित्यमान श्रेष्ठ, जल-विकास और निर्धनता पर विचारोत्तेजक रिपोर्टिंग करनेवाले दक्षिण अफ्रिका के गो राजर्स, पानी के मसले में औरतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका तय करने में ईरान की पत्रकार मरजन रिजदवी, टेलीविजन के जरिए जल चेतना पैदा करने वाले अमेरिका की एलीजाबेथ राॅक्सास, चुनावी घोषणा पत्र में जल से जुड़े मामलों को जगह दिलाने को लेकर तेजाबी रिपोर्टिंग के लिये मशहूर अमेरिका के ही अदलयी एमोर आज पूरे विश्व भर में जाने और पहचाने जाते हैं। अपने मुल्क की मीडिया को भी पानी बचाने की मुहिम में आगे आना होगा। राजनीतिक घोटालों, सामाजिक अपराधों और गोरखधंधों, कबूतरबाजी के अलावा मुद्दे और भी हैं जो जीवन के अस्तित्व और पहचान से जुड़े हैं। पानी उनमें से सबसेे खास मसला है।

वैसे तो पानी की चिंता समूचा विश्व कर रहा है, मगर एशियाई देशों में इस बारे में पत्रकारिता जगत की चिंता खासतौर से मुखर हो रही है। दक्षिण पूर्व एशिया में एशियन डवलपमेंट बैंक 2003 से लेकर 2012 तक कुल 17 कार्यशालाओं के जरिये पत्रकारों को जल संरक्षण के लिये मुहिम चलाने के वास्ते प्रशिक्षण दे रही है। ऐसे ही दो कार्यशालाएँ साल 2004 में भारत के चेन्नई और दिल्ली में आयोजित किये गये थे। हनोई में बैंक द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला में 400 पत्रकारों की उपस्थिति एक ऐतिहासिक घटना है। एशियन डवलपमेंट बैंक इंडियन प्रेस सर्विस के साथ मिलकर पानी से जुड़ी समस्याएँ और संदर्भों को आयोजित कार्यशालाओं के एजेंडे में शामिल करती है।

हाल ही में अमेरिका में आंटोरियो के पत्रकारों ने ग्रेट वाटर इंस्टिट्यूट की नींव रखी है। इसका मूल उद्देश्य वहाँ के ग्रेट लेक में पैदा हो रहे जल प्रदूषण को दूर करने के लिये जन चेतना जगानी है। ये पत्रकार न सिर्फ जल संदर्भों को खास खबर बनाते हैं, बल्कि पत्रकारिता संस्थानों में जाकर छात्रों को अपनी मुहिम में शामिल करने के लिये जागृत भी करते हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारों को पानी के संरक्षण के लिये प्रोत्साहित करने में अमेरिका की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। कोलोरेडो विश्वविद्यालय के जन संचार संस्थान पर्यावरण पत्रकार पैदा करने में पूरी दुनिया में मशहूर है। इस संस्थान में पढ़े छात्र पूरी दुनिया में जल चेतना को एक खास आंदोलन का रूप दे चुके हैं। इन छात्रों की पहल से ही रायटर नामक सुविख्यात संवाद एंजेसी हरित पत्रकारिता से संबंधित एक विश्वस्तरीय पुरस्कार भी देती है। बीते साल रैमर नामक एक अश्वेत पत्रकार को रायटर का यह विशेष पुरस्कार जॉर्डन की महारानी ने जल संरक्षण और चेतना से जुड़ी घटनाओं के कवरेज के लिये दिया था।

पाकिस्तान भी जल संकट से जुदा नहीं है। इस परिस्थिति में वहाँ के पत्रकार भी भला कहाँ पीछे रहने वाले हैं। इरफान शहजाद का नाम यहाँ की पत्रकारिता जगत में बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। सियासी संकटों से सदा जूझने वाले इस देश में पर्यावरण और पानी की चिंता करना सच में एक बड़ी बात है। सुनामी आने के बाद श्रीलंका में पैदा हुए भीषण जल संकट को ध्यान में रखते हुए वहाँ के पत्रकारों ने पानी को पत्रकारिता का खास मुद्दा बनाया। उधर इंडोनेशिया में कंट्री वाटर एक्शन से जुड़कर सैकड़ों पत्रकार अपने देश के लोक मानस में जल चेतना पैदा करने की सफल कोशिश कर रहे हैं। केनिया में इको फोरम नामक एक वेब साइट के जरिये पानी की चिंता पत्रकार कर रहे हैं। वहाँ के पत्रकार पेयजल के निजीकरण को लेकर जो आंदोलन चला रहे हैं, उसे पूरी दुनिया का समर्थन मिल रहा है।

अपने चैनलों के जरिए अंधविश्वास के भ्रम को स्थापित करने में मशगूल उपग्रह चैनल राशियों-ग्रहों के प्रकोपों की चर्चा करते हुए यदि पानी की चिंता करे लें तो पत्रकारिता की ‘नैतिकता’ बची रहेगी। सत्ता की दलाली फिर भी होती रहेगी। खबरों से खेलने का जुनून जारी रहेगा। सवाल जिंदगी का है। दरअसल जमीन के पानी से नाता टूटा तो नजर का पानी गया। चेहरे का पानी गया। दिल का पानी गया। ऐसे में कोई पानी की चिंता क्यों करे? इस नजरिए से निकलना होगा। पानी की चिंता हिन्दी पत्रकार बंधु करे तो कितना अच्छा होता!

(लेखक सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर केंद्रित मासिक पत्रिका डवलपमेंट फाइल्स के कार्यकारी सम्पादक हैं)

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