कभी जमीन थी बंजर, आज हरियाली का मंजर

26 Feb 2018
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शिमला से सटे ग्रामीण क्षेत्र सधोड़ा के 88 वर्षीय किसान मस्तराम ने पौधरोपण के जुनून को कम नहीं होने दिया है। जुनून सिर्फ पौधे रोपने तक नहीं, बल्कि उन्हें पेड़ बनते देखने का भी है। वे 60 वर्षों से लगातार हजारों पौधे रोप चुके हैं। इनमें से करीब 1500 पेड़ बन गए हैं। अधिकतर चीड़, बान, देवदार, मरू व कायल हैं। जोटलू भाटला की पहाड़ी, जो 60 वर्ष पहले बंजर थी, उसमें 500 से अधिक चीड़ के पौधे रोपे थे। अब वहाँ चीड़ का वन तैयार हो गया है। इसके अलावा मस्तराम आस-पास के क्षेत्र में सैकड़ों पौधे रोप चुके हैं, जिनमें से कई पेड़ बन गए हैं।

किताबी ज्ञान शून्य होने के बावजूद पर्यावरण संरक्षण की इतनी समझ है कि 88 साल की उम्र में भी पौधरोपण के जुनून को कम नहीं होने दिया है। जुनून सिर्फ पौधे रोपने तक नहीं, बल्कि उन्हें पेड़ बनते देखने का भी है। बात हो रही है शिमला से सटे ग्रामीण क्षेत्र सधोड़ा के 88 वर्षीय किसान मस्तराम की। अब तक वह हजारों पौधे रोप चुके हैं। इनमें से करीब 1500 पेड़ बन गए हैं। इनमें अधिकतर चीड़, बान, देवदार, मरू व कायल हैं। चीड़ और कायल के पौधे जल्द पेड़ बन जाते हैं, लेकिन देवदार को दशकों लग जाते हैं।

मस्तराम 60 वर्षों से पौधे रोप रहे हैं। साथ लगती जोटलू भाटला की पहाड़ी, जो 60 वर्ष पहले बंजर थी, उसमें 500 से अधिक चीड़ के पौधे रोपे थे। अब वहाँ चीड़ का वन तैयार हो गया है। इसके अलावा मस्तराम आस-पास के क्षेत्र में सैकड़ों पौधे रोप चुके हैं, जिनमें से कई पेड़ बन गए हैं। मस्तराम बताते हैं कि वह खुद नर्सरी में पौध तैयार करते हैं। सिर्फ पौधे रोपने से बात नहीं बनती, पौधों को पेड़ बनने तक संरक्षित करना जरूरी है। पौधे रोपने का वह कोई मौका चूकना नहीं चाहते। चाहे वन विभाग का पौधरोपण कार्यक्रम हो या फिर किसी संस्था का कोई आयोजन, हर जगह अपना योगदान देना कर्तव्य समझते हैं।

औपचारिकता की नहीं जरूरत


मस्तराम कहते हैं कि वन विभाग व संस्थाएँ हर साल पौधे रोपती हैं लेकिन उसके बाद मुड़कर नहीं देखती। यदि अब तक रोपे पौधों का ही संरक्षण सही तरीके से किया जाये तो हर साल पौधे लगाने की औपचारिकता की जरूरत नहीं पड़ेगी। पौधे रोपने का कोई समय नहीं होता। पौधे कभी भी लगाए जा सकते हैं। पेड़ों के बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं है। जन्म से मृत्यु तक पेड़ ही हमारे काम आते हैं। यह सत्य है कि आवश्यकतानुसार पेड़ काटना भी पड़ता है, लेकिन यदि पेड़ काटते हैं तो उससे चार गुना पौधे लगाना भी उतना ही आवश्यक है। हमारा क्षेत्र पहले से ही हरा-भरा है, इसे ऐसे ही रखना हमारा कर्तव्य है।

पेड़ बनता देख मिलती है खुशी


मस्तराम किसान हैं और गाँव में खेतीबाड़ी के काम में दिन भर व्यस्त रहते हैं। 88 साल की उम्र और दिन भर काम करने के बावजूद जब भी समय मिलता है तो वह जंगल में घूमकर खुद रोपे पौधों को देखते हैं। गिरे बीजों को भी एकत्रित करते हैं। मस्तराम जवानी के दिनों में रोपे पौधों को देखकर बहुत खुश होते हैं। मार्च व अप्रैल में जो पौधे स्वयं उगते हैं, उनके आस-पास उगी झाड़ियाँ काटने के बाद उन पौधों को सहेजना शुरू कर देते हैं। वहीं, समय-समय पर आस-पड़ोस के बच्चों को भी पौधे रोपने और इनकी देख-रेख के लिये प्रेरित करते हैं।

“मेरे दादा कहते थे कि हमारे बुजुर्गों ने हमें यह सम्पदा दी है, जिसे हम आज हर खुशी-गम में इस्तेमाल करते हैं। उस समय ही ख्याल आया था कि मैं भी कुछ ऐसा करूँ कि मेरे बच्चे-पोते मुझे भी इस तरह याद करें। तभी से यह सफर शुरू किया और पौधे लगाता गया... -मस्तराम

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